Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Karma Yoga as a Prerequisite

Sanskrit Shloka (Original)

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः | योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ||५-६||

Transliteration

saṃnyāsastu mahābāho duḥkhamāptumayogataḥ . yogayukto munirbrahma nacireṇādhigacchati ||5-6||

Word-by-Word Meaning

संन्यासःrenunciation
तुbut
महाबाहोO mightyarmed
दुःखम्hard
आप्तुम्to attain
अयोगतःwithout Yoga
योगयुक्तःYogaharmonised
मुनिःMuni
ब्रह्मto Brahman
नचिरेणickly

📖 Translation

English

5.6 But renunciation, O mighty-armed Arjuna, is hard to attain without Yoga; the Yoga-harmonised sage ickly goes to Brahman.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.6।। परन्तु,  हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है;  योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach your work with a dedicated, selfless spirit, focusing on the quality of your effort and contribution rather than solely on personal gain or outcome. This 'Yoga-harmonised' approach purifies your intent, making your work more fulfilling and leading to faster mastery and success in your professional life.

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Instead of trying to mentally 'renounce' or escape stressful situations, engage with them through disciplined, constructive action (Karma Yoga). Actively address challenges with a sense of duty and detachment from the outcome; this proactive engagement purifies the mind and leads to quicker mental peace and clarity, rather than prolonged agitation.

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Key Message in One Line

True renunciation and swift attainment of inner peace and Self-realization are achieved not by passive detachment, but through disciplined, selfless action (Karma Yoga).

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.6 संन्यासः renunciation? तु but? महाबाहो O mightyarmed? दुःखम् hard? आप्तुम् to attain? अयोगतः without Yoga? योगयुक्तः Yogaharmonised? मुनिः Muni? ब्रह्म to Brahman? नचिरेण ickly? अधिगच्छति goes.Commentary Muni is one who does Manana (meditation or reflection). Yoga is performance of action without selfish motive as an offering unto the Lord.Brahman here signifies renunciation or Sannyasa because renunciation consists in the knowledge of the Self. A Muni? the sage of meditation? the Yogaharmonised? i.e.? purified by the performance of action? ickly attains Brahman? the true renunciation which is devotion to the knowledge of the Self. Therefore Karma Yoga is better. It is easy for a beginner. It prepares him for the higher Yoga by purifying his mind.

Shri Purohit Swami

5.6 Without concentration, O Mighty Man, renunciation is difficult. But the sage who is always meditating on the Divine, before long shall attain the Absolute.

Dr. S. Sankaranarayan

5.6. O mighty-armed (Arjuna) ! Renunciation is certainly hard to attain excepting through Yoga; the sage who is the master of Yoga attains the Brahman, before long.

Swami Adidevananda

5.6 But renunciation, O mighty-armed, is hard to attain without (following) Yoga. The contemplating sage who follows Yoga reaches the Brahman (the self or Atman) soon.

Swami Gambirananda

5.6 But, O mighty-armed one, renunciation is hard to attain without (Karma-) yoga. The meditative man eipped with yoga attains Brahman without delay.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.6।। आत्मज्ञान की साधना में कर्म के स्थान के विषय में प्राचीन ऋषिगण जिस निष्कर्ष पर पहुँचे थे भगवान् यहाँ उसका ही दृढ़ता से विशेष बल देकर प्रतिपादन कर रहे हैं। कर्मपालन के बिना वास्तविक कर्मसंन्यास असंभव है। किसी वस्तु को प्राप्त किये बिना उसका त्याग कैसे संभव होगा इच्छाओं के अतृप्त रहने से और महत्त्वाकांक्षाओं के धूलि में मिल जाने के कारण जो पुरुष सांसारिक जीवन का त्याग करता है उसका संन्यास वास्तविक नहीं कहा जा सकता।किसी धातु विशेष के बने पात्र पर मैल जम जाने पर उसे स्वच्छ एवं चमकीला बनाने के लिए एक विशेष रासायनिक घोल का प्रयोग किया जाता है। जंग (आक्साइड) की जो एक पर्त उस पात्र पर जमी होती है वह उस घोल में मिल जाती है। कुछ समय पश्चात् जब कपड़े से उसे स्वच्छ किया जाता है तब उस घोल के साथसाथ मैली पर्त भी दूर हो जाती है और फिर वहाँ स्वच्छ चमकीला और आकर्षक पात्र दिखाई देता है। मन के शुद्धिकरण की प्रक्रिया भी इसी प्रकार की है।कर्मयोग के पालन से जन्मजन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं का कल्मष दूर हो जाता है और तब शुद्ध हुए मन द्वारा निदिध्यासन के अभ्यास से अकर्म आत्मा का अनुभव होता है और यही वास्तविक कर्मसंन्यास है। ध्यान के लिए आवश्यक इस पूर्व तैयारी के बिना यदि हम कर्मों का संन्यास करें तो शारीरिक दृष्टि से तो हम क्रियाहीन हो जायेंगे लेकिन मन की क्रियाशीलता बनी रहेगी। आंतरिक शुद्धि के लिए मन की बहिर्मुखता अनुकूल नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो यह बहिर्मुखता ही वह कल्मष है जो हमारे दैवी सौंदर्य एवं सार्मथ्य को आच्छादित किये रहता है। प्राचीन काल के हिन्दू मनीषियों की आध्यात्मिक उन्नति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी खोज है।जहाँ भगवान् ने यह कहा कि कर्मयोग की भावना से कर्म किये बिना ध्यान की योग्यता अर्थात् चित्तशुद्धि नहीं प्राप्त होती वहीं वे यह आश्वासन भी देते हैं कि साधकगण उचित प्रयत्नों के द्वारा ध्यान के अनुकूल इस मनस्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।योगयुक्त जो पुरुष सदा निरहंकार और निस्वार्थ भाव से कर्म करने में रत होता हैं उसे मन की समता तथा एकाग्रता प्राप्त होती है। साधक को ध्यानाभ्यास की योग्यता प्राप्त होने पर कर्म का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। ऐसे योग्यता सम्पन्न मुनि को आत्मानुभूति शीघ्र ही होती है।परमात्मा का अनुभव कब होगा इस विषय में कोई कालमर्यादा निश्चित नहीं की जा सकती। अचिरेण शब्द के प्रयोग से यही बात दर्शायी गई है।उपर्युक्त विवेचन से कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्म के आचरण को श्रेष्ठ कहने का कारण स्पष्ट हो जाता है।जब साधक पुरुष सम्यक् दर्शन के साधनभूत योग का आश्रय लेता है तब

Swami Ramsukhdas

5.6।। व्याख्या--'संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः'--सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्य-योगकी सिद्धि कठिनतासे होती है। परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ 'तु' पदसे प्रकट किया गया है।सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है। परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन हैराग मिटानेका सुगम उपाय है--कर्मयोगका अनुष्ठान करन���। कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है।'योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति'--अपने निष्कामभावका और दूसरोंके हितका मनन करनेवाले कर्मयोगीको यहाँ 'मुनिः' कहा गया है।कर्मयोगी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रियाको करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम है या सकाम? सकामभाव आते ही वह उसे मिटा देता है; क्योंकि सकामभाव आते ही वह क्रिया अपनी और अपने लिये हो जाती है।दूसरोंका हित कैसे हो? इस प्रकार मनन करनेसे रागका त्याग सुगमतासे होता है।उपर्युक्त पदोंसे भगवान् कर्मयोगकी विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विलम्बका कारण है--संसारका राग। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करते रहनेसे कर्मयोगीके रागका सर्वथा अभाव हो जाता है और रागका सर्वथा अभाव होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्म-तत्त्वकी अनुभूति हो जाती है। इसी आशयको भगवान्ने चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें 'तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' पदोंसे बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने-आप तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है। इस साधनमे अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं है। इसकी सिद्धिमें कठिनाई और विलम्ब भी नहीं है। दूसरा कारण यह है कि देहधारी देहाभिमानी मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग नहीं कर सकता पर जो कर्मफलका त्यागी है वह त्यागी कहलाता है (18। 11)। इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी कर्मोंका त्याग तो नहीं कर सकता पर कर्मफलका फलेच्छाका त्याग तो कर ही सकता है। इसलिये कर्मयोगमेंसुगमता है। कर्मयोगकी महिमामें भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगीको तत्काल ही शान्ति प्राप्त हो जाती है--'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता 12। 12)। वह संसारबन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है--'सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (गीता 5। 3)। अतः कर्मयोगका साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधनके बिना परमात्मप्राप्ति करानेवाला स्वतन्त्र साधन है।  सम्बन्ध--अब भगवान् कर्मयोगीके लक्षणोंका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.6।। परन्तु,  हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है;  योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.6।।इतश्च सन्न्यासाद्योगो वर इत्याह सन्न्यासस्त्विति। योगाभावे मोक्षादिफलं न भवति अतः कामजयादिदुःखमेव तस्य मोक्षाद्येव हि फलम्। अन्यत्तत्फलमल्पत्वादफलमेवेत्याशयः। तच्चोक्तम् विना मोक्षफलं यत्तु न तत्फलमुदीर्यते इति पाद्मे। यत्तु महाफलयोग्यं तस्याल्पं फलमेव न भवति यथा पद्मरागस्य तण्डुलमुष्टिः। महाफलश्च योगयुक्तश्चेत्सन्न्यास इत्याहयोगयुक्त इति। मुनिः सन्न्यासी। तच्चोक्तम् स हि लोके मुनिर्नाम यः कामक्रोधवर्जितः इति।

Sri Anandgiri

।।5.6।।यदि यथोक्तज्ञानपूर्वकसंन्यासद्वारा कर्मिणामपि श्रेयोवाप्तिरिष्टा तर्हि संन्यासस्यैव श्रेयस्त्वं प्राप्तमिति चोदयति एवं तर्हीति। संन्यासस्य श्रेष्ठत्वे कर्मयोगस्य प्रशस्यत्ववचनमनुचितमित्याह कथं तर्हीति। पूर्वोक्तमेवाभिप्रायं स्मारयन्परिहरति शृण्विति। कर्मयोगस्य विशिष्टत्ववचनं तत्रेति परामृष्टम्। तदेव कारणं कथयति त्वयेत्यादिना। केवलं विज्ञानरहितमिति यावत्। तयोरन्यतरः कः श्रेयानितीतिशब्दोऽध्याहर्तव्यः। त्वदीयं प्रश्नमनुसृत्य तदनुगुणं प्रतिवचनं ज्ञानमनपेक्ष्य तद्रहितात्केवलादेव संन्यासाद्योगस्य विशिष्टत्वमिति यथोक्तमित्याह तदनुरूपमिति। ज्ञानापेक्षः संन्यासस्तर्हि कीदृगित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। तर्हि कर्मयोगे कथं योगशब्दः संन्यासशब्दो वा प्रयुज्यते तत्राह यस्त्विति। तादर्थ्यात्परमार्थज्ञानशेषत्वादिति यावत्। तदेव तादर्थ्यं प्रश्नपूर्वकं प्रसाधयति कथमित्यादिना। कर्मानुष्ठानाभावे बुद्धिशुद्ध्यभावात्परमार्थसंन्यासस्य सम्यग्ज्ञानात्मनो न प्राप्तिरिति व्यतिरेकमुपन्यस्यान्वयमुपन्यस्यति योगेति। पारमार्थिकः सम्यग्ज्ञानात्मकः। सामग्र्यभावे कार्यप्राप्तिरयुक्तेति मत्वाह दुःखमिति। योगयुक्तत्वं व्याचष्टे वैदिकेनेति। ईश्वरस्वरूपस्य सविशेषस्येति शेषः। ब्रह्मेति व्याख्येयं पदमुपादाय व्याचष्टे प्रकृत इति। तत्र ब्रह्मशब्दप्रयोगे हेतुमाह परमात्मेति। लक्षणशब्दो गमकविषयः। संन्यासे ब्रह्मशब्दप्रयोगे तैत्तिरीयकश्रुतिं प्रमाणयति न्यास इति। कथं संन्यासे हिरण्यगर्भवाची ब्रह्मशब्दः प्रयुज्यते द्वयोरपि परत्वाविशेषादित्याह ब्रह्म हीति। ब्रह्मशब्दस्य संन्यासविषयत्वे फलितं वाक्यार्थमाह ब्रह्मेत्यादिना। नद्याः स्रोतांसीव निम्नप्रवणानि कर्मभिरतितरां परिपक्वकषायस्य करणानि सर्वतो व्यापृतानि निरस्ताशेषकूटस्थप्रत्यगात्मान्वेषणप्रवणानि भवन्तीति। कर्मयोगस्य परमार्थसंन्यासप्राप्त्युपायत्वे फलितमाह अत इति।

Sri Vallabhacharya

।।5.6।।किञ्च साङ्ख्यऽभिप्रेतं कर्म सन्न्यासं विनाऽपि योगेनेह हि सिद्धिर्भवति न तु योगं विना सन्न्यासिनो भवतीत्याशयेनाह सन्न्यासस्त्विति। हे महाबाहो कर्मसन्न्यासस्तु योगव्यतिरेकेणाप्तुं दुःखरूपः। समत्वं हि योगः तन्निष्ठया करणव्यतिरेकेण कस्य सन्न्यासः नह्यकृतस्य त्यागो युज्यते सिद्धत्वात्। साङ्खयीयो मुनिरपि योगयुक्तोऽचिरेण ब्रह्माधिगच्छति नान्यथेति मम मतम्।

Sridhara Swami

।।5.6।।यदि कर्मयोगिनोऽप्यन्ततः संन्यासेनैव ज्ञाननिष्ठास्तर्ह्यादित एव संन्यासः कर्तुं युक्त इति मन्वानं प्रत्याह संन्यास इति। अयोगतः कर्मयोगं विना संन्यासः प्राप्तुं दुःखहेतुः। अशक्य इत्यर्थः। चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञाननिष्ठाया असंभवात्। योगयुक्तस्तु शुद्धचित्ततया मुनिः संन्यासी भूत्वाऽचिरेणैव ब्रह्माधिगच्छत्यपरोक्षं जानाति। अतश्चित्तशुद्धेः प्राक्कर्मयोग एव संन्यासाद्विशिष्यत इति पूर्वोक्तं सिद्धम्। तदुक्तं वार्तिककृद्भिः प्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः। संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः इति।

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