Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 7 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः | सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ||५-७||
Transliteration
yogayukto viśuddhātmā vijitātmā jitendriyaḥ . sarvabhūtātmabhūtātmā kurvannapi na lipyate ||5-7||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.7 He who is devoted to the path of action, whose mind is ite pure, who has conered the self, who has subdued his senses and who realises his Self as the Self in all beings, though acting, is not tainted.
।।5.7।। जो पुरुष योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach work with full dedication and integrity (yogayukta, vishuddhatma), focusing on the quality of your effort and contribution rather than solely on personal gain or external recognition. Maintain composure in challenging projects or competitive environments (vijitatma, jitendriya), understanding that your actions, when performed with a sense of universal purpose and detachment from outcomes, do not bind you. Lead with empathy and fairness, recognizing the inherent worth in every team member and stakeholder (sarvabhutatma-bhutatma).
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate a purified and disciplined mind (vishuddhatma, vijitatma, jitendriya) to reduce reactivity to external pressures. By practicing detachment from results (na lipyate), you can mitigate performance anxiety and fear of failure, allowing you to act effectively without being overwhelmed. Realizing your interconnectedness with all beings can foster a sense of calm and perspective, reducing feelings of isolation or animosity, and promoting mental peace even amidst chaos.
❤️ In Relationships
Engage in relationships with a purified intention and genuine care, free from manipulation or excessive expectation. By conquering the self and subduing senses (vijitatma, jitendriya), you can respond thoughtfully rather than react emotionally, fostering healthier interactions. Recognizing the 'Self' in others (sarvabhutatma-bhutatma) cultivates profound empathy, reduces judgment, and promotes unconditional connection, allowing you to act selflessly for their well-being without being 'tainted' by transactional thinking or resentment.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Master your inner self, purify your intentions, and perceive universal oneness to act effectively in the world without being bound by your actions or their outcomes.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.7 योगयुक्तः devoted to the path of action? विशुद्धात्मा a man of purified mind? विजितात्मा one who has conered the self? जितेन्द्रियः one who has subdued his senses? सर्वभूतात्मभूतात्मा one who realises his Self as the Self in all beings? कुर्वन् acting? अपि even? न not? लिप्यते is tainted.Commentary He who is harmonised by Yoga? i.e.? he who has purified his mind by devotion to the performance of action? who has conered the body and who has subjugated the senses? whose Self is the Self of all beings? he will not be bound by actions although he performs actions for the wellbeing or protection of the masses in orer to set an example to them. (Cf.XVIII.17)
Shri Purohit Swami
5.7 He who is spiritual, who is pure, who has overcome his senses and his personal self, who has realised his highest Self as the Self of all, such a one, even though he acts, is not bound by his acts.
Dr. S. Sankaranarayan
5.7. A master of Yoga, whose self (mind and intellect) is very pure and is fully subdued, the sense-organs controlled, and Soul is [realised to be] the Soul of all beings-he is not stained, eventhough he is a performer [of actions].
Swami Adidevananda
5.7 He who follows the Yoga and is pure in self (mind), who has subdued his self and has conered his senses and whose self has become the self of all beings, even while he is acting, he is untainted.
Swami Gambirananda
5.7 Endowed with yoga, [i.e. devoted to the performance of the nitya and naimittika duties.] pure in mind, controlled in body, a coneror of the organs, the Self of the selves of all beings-he does not become tainted even while performing actions. [The construction of the sentence is this: When this person resorts to nitya and naimittika rites and duties as a means to the achievement of fully Illumination, and thus becomes fully enlightened, then, even when he acts through the apparent functions of the mind, organs, etc., he does not become afflected.]
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.7।। पूर्व श्लोक में संक्षेप में वर्णन है कि कर्मयोग पालन करने पर चित्तशुद्धि प्राप्त होकर साधक ध्यानाभ्यास की सहायता से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। वर्तमान की परिच्छिन्नता एवं बन्धनों को तोड़कर अनन्तस्वरूप की प्राप्ति के प्रयत्न में जो आन्तरिक परिवर्तन साधक में होता है उसका युक्तियुक्त विस्तृत विवेचन इस श्लोक में किया गया है।कर्मयोग से युक्त पुरुष अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त करता है जिसका अर्थ है अधिकसेअधिक मन की आन्तरिक शान्ति। मन का कमसेकम क्षुब्ध होना उसकी शुद्धि का द्योतक है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहते हैं वासनाओं का क्षीण होना। विक्षेप की कारणरूप वासनाओं का क्षय होने पर स्वाभाविक रूप से वह पुरुष संतुलित बन जाता है।ऐसे शुद्धान्तकरण सम्पन्न कर्मयोगी के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना बच्चों का खेल बन जाता है। वह स्वेच्छा से इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कर सकता है और निवृत्त भी। जिस साधक को अपने शरीर मन एवं बुद्धि पर पूर्ण संयम है वह ध्यान की सर्वोच्च साधना के लिए योग्यतम है। निदिध्यासन में आने वाले मुख्य विघ्न ये ही हैं वैषयिक प्रवृत्ति मन के विक्षेप एवं अतृप्त इच्छाएं। एक बार इन शृंखलाओं को तोड़ देने पर ध्यान सहज और सुलभ बन जाता है फिर साधक को आत्मा का साक्षात् अनुभव तत्काल और उसकी सम्पूर्णता में होता है।आत्मानुभूति आंशिक रूप में नहीं हो सकती। यदि साधक केवल स्वयं को दिव्य और शुद्ध स्वरूप अनुभव करे और अन्यों को नहीं तो उसका अनुभव वास्तविक और प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। सम्यक् दर्शन को प्राप्त हुये पुरुष के लिए तो शुद्ध आत्मा सर्वत्र एवं समस्त कालों में व्याप्त है। इस आध्यात्मिक दृष्टि से जगत् को देखने पर उसे सर्वत्र सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य आत्मा का ही दर्शन होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष को ही यहाँ सर्वभूतात्मभूतात्मा कहा गया है जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसकी आत्मा ही सर्वभूतों की आत्मा है।जब एक तरंग अपने वास्तविक समुद्र स्वरूप को पहचान लेती है तब ज्ञान में स्थित उस तरंग के लिए कोई भी अन्य तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हो सकती।आत्मानुभूति में स्थित हुआ पुरुष जब जगत् में कर्म करता है तब वे कर्म वासना के रूप में प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते। कर्मफलों का बन्धन केवल अहंकार को ही हो सकता है और ज्ञानी पुरुष में उसी का अभाव होने के कारण कर्म उसे किस प्रकार लिप्त कर सकते हैं प्रवाहित जल पर लिखने के समान ही ज्ञानी पुरुष के कर्म उसके चित्त पर वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धान्त का पुनपुन प्रतिपादन करते हैं। इस श्लोक से भी स्पष्ट होता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्मं ही वासना उत्पन्न करके बुद्धि की विवेकशक्ति को धूमिल कर देते हैं जिसके कारण मनुष्य को अपने स्वयंसिद्ध शुद्ध दिव्य स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता।सर्वव्यापी परमात्मा के अनुभव में स्थित सिद्ध पुरुष का जीवन की ओर देखने का क्या दृष्टिकोण होगा भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
5.7।। व्याख्या--'जितेन्द्रियः' इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है--इन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है।कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे--'यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य' (3। 7) ;'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य' (3। 41)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।'विशुद्धात्मा'--अन्तःकरणकी मलिनतामें हेतु है--सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व। जहाँ पदार्थोंका महत्त्व रहता है, वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं। साधक निष्काम तभी होता है, जब उसके अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व नहीं रहता। जबतक पदार्थोंका महत्त्व है, तबतक वह निष्काम नहीं हो सकता।एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होने��े अन्तःकरणकी जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है, उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्ठानसे नहीं होती। इसलिये कर्मयोगमें एक उद्देश्य होनेकी जितनी महिमा है उतनी किसीकी नहीं।'विजितात्मा'--कर्मयोगमें शरीरके सुख-आरामका त्याग करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। अगर शरीरसे आलस्य-प्रमाद होगा, तो कर्मयोगका अनुष्ठान नहीं हो पायेगा। अतः यहाँ भगवान्ने शरीरको वशमें करनेकी बात कही है। 'सर्वभूतात्मभूतात्मा'--कर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 287.2)। जैसे शरीरके किसी एक अङ्गमें चोट लगनेसे दूसरा अङ्ग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे, किसी अभिमानके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा सहजभावसे, किसी अभिमान या कामनाके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है। वह सेवा करनेके लिये किसी भी प्राणीको अपनेसे अलग नहीं समझता, सबको अपने ही अङ्ग मानता है।जैसे अपने शरीरमें भिन्न-भिन्न अवयवोंसे भिन्न-भिन्न व्यवहार होनेपर भी सब अवयवोंके साथ अपनापन समान (एक ही) रहता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार संसारमें यथायोग्य भिन्न-भिन्न व्यवहार होनेपर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है।अपना राग मिटानेके लिये 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' होना अर्थात् सब प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है। कर्मयोगीका स्वभाव है--उदारता। सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती।विशेष बातक्रिया और पदार्थके साथ हम निरन्तर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकते। कारण यह है कि क्रिया और पदार्थमें निरन्तर परिवर्तन होता है, पर हमारेमें (स्वरूपसे) कभी परिवर्तन नहीं होता। इसलिये क्रिया और पदार्थ निरन्तर हमारा त्याग कर रहे हैं। हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं ,परमशान्ति पा सकते हैं। इनके साथ रहकर हम मुक्ति, परमशान्ति नहीं पा सकते; क्योंकि इनके साथ रहनेका हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहनेका इनका स्वभाव नहीं है। इसलिये क्रिया और पदार्थको दूसरोंकी सेवामें लगाना है। दूसरोंकी सेवामें लगाना हमारी महत्ता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। जो वास्तविकता होती है, वह सहज होती है अर्थात् उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता। अवास्तविकतामें ही परिश्रम और अभिमान होता है। क्रिया और पदार्थ दूसरोंकी सेवामें तभी लग सकते हैं, जब हमारेमें 'उदारता' आ जाय। यहाँ ध्यान देनेकी बात है कि उदारता हमारा स्वरूप है (टिप्पणी प0 288)। इसलिये उदारतामें न तो धन खर्च करनेकी आवश्यकता है और न परिश्रम करनेकी आवश्यकता है। आवश्यकता केवल इसी बातकी है कि हम सुखीको देखकर प्रसन्न हो जायँ और दुःखीको देखकर करुणित, दयालु हो जायँ। हृदयमें यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो? सुखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुःखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुःखी न रहे।भगवान्ने भोग और संग्रहको साधनमें बाधक बताया है (गीता 2। 44)। सुखीको देखकर प्रसन्न होनेसे भोग भोगनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि भोग भोगनेमें जो सुख मिलता है वह सुख हमें दूसरोंको सुखी देखकर विशेषतासे मिल जायगा तो हमें भोग भोगनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। दुःखीको देखकर दुःखी होनेसे संग्रह करनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि अपना दुःख मिटानेके लिये जिन वस्तुओंका हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं, वे स्वतः दूसरोंका दुःख दूर करनेमें लग जायँगी। जैसे अपनेपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसे ही दूसरोंको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होने लगेगी।प्रसन्नता और करुणामें एक विलक्षण रस है। वह रस क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध-विच्छेद करके जीवको परमात्मस्वरूप नित्य रसके साथ अभिन्न करा देता है।'योगयुक्तः'--जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, विजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्मा--इन चार पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त जो कर्मयोगी है, उसे ही यहाँ 'योगयुक्तः' कहा गया है।साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति न होनेमें कारण है--उद्देश्य और रुचिमें भिन्नता। जबतक अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है, तबतक उद्देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं। उद्देश्य अविनाशी परमात्माका होता है और रुचि प्रायः नाशवान् संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी होती है। उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो जानेपर साधन स्वतः तेजीसे होने लगता है। यहाँ 'योगयुक्तः' पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसका उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो गयी है अर्थात् उद्देश्य और रुचि--दोनों एक परमात्मामें ही हो गये हैं।उत्पन्न और नष्ट होनेवाला फल किञ्चिन्मात्र भी न चाहें, तभी कर्मयोग होता है। फल और उद्देश्य दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं। कर्मयोगीमें फलकी इच्छा तो नहीं होती, पर उद्देश्य अवश्य होता है। कर्मयोगीका उद्देश्यवही होता है, जो सबको मिल सकता है और सदा साथ रहता है। जो किसीको मिलता है, किसीको नहीं मिलता और कभी रहता है, कभी नहीं रहता, वह उसका उद्देश्य नहीं होता है। इस दृष्टिसे उद्देश्य सदा परमात्मतत्त्वका ही होता है। परमात्मतत्त्व किसी कर्म, अभ्यास आदिका फल नहीं है। फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है, पर परमात्मा नित्य रहते हैं। उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको कर्मयोगी चाहता ही नहीं; क्योंकि उसकी चाहना ही परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। एकमात्र परमात्माका ही उद्देश्य होनेसे कर्मयोगीको योगयुक्त कहा गया है।यहाँ जिसे 'योगयुक्तः' कहा गया है, उसे ही छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें 'योगारूढः' कहा गया है।'कुर्वन्नपि न लिप्यते'--कर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। कर्मोंके बन्धनमें हेतु हैं--कर्मोंके प्रति ममता, कर्मोंके फलकी इच्छा, कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान (टिप्पणी प0 289)। सारांशमें कर्मोंसे कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा ही बन्धनमें कारण है। किञ्चिन्मात्र भी पानेकी इच्छा न होनेके कारण कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे बँधता नहीं अर्थात् उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।सांख्ययोगी तो 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' (गीता 3। 28) 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'--ऐसा मानकर कर्मोंसे नहीं बँधता पर कर्मयोगी परहितके लिये कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। केवल दूसरोंके लिये कर्म किये जानेसे उसके कर्म भी 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' की तरह ही हो जाते हैं।यहाँ 'अपि' पदमें एक भाव यह भी है कि कर्मयोगी कर्म करते समय तो निर्लिप्त है, ही कर्म न करते समय भी वह निर्लिप्त है (गीता 4। 18)। उसका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता (गीता 3। 18)। वह सदा ही निर्लिप्त रहता है।तात्पर्य है कि सांख्ययोगी जडताका त्याग करके चिन्मयताके साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर मन इन्द्रियाँ आदिकी संसारके साथ एकता मानता है अर्थात् पदार्थ, शरीर, मन, इन्द्रियाँ, आदिको और उनकी क्रियाओंको अपनी नहीं मानता किन्तु उनको संसारकी और संसारके लिये ही मानता है। कर्मयोगी जब पदार्थ मन बुद्धि आदिको और उनकी क्रियाओंको केवल संसारकी ही मानता है, तो फिर उनके द्वारा किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा, किसीका उपकार हो गया तो वह 'मैंने किया' 'मेरे द्वारा ऐसा हुआ'--ऐसा कैसे मान सकता है? नहीं मान सकता। इसलिये वह कर्म करता हुआ भी कर्ता नहीं होता अर्थात् कर्मोंसे लिप्त नहीं होता। सम्बन्ध--कर्मोंके होनेके विषयमें कर्मयोगीकी बात कहकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें सांख्ययोगके साधनकी बात कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.7।। जो पुरुष योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.7।।एतदेव प्रपञ्चयति योगयुक्त इति। सर्वभूतात्मभूतः परमेश्वरः। यच्चाप्नोतीत्यादेः। स आत्मभूतः स्वसमीपं प्रत्यादानादिकर्ता यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा।
Sri Anandgiri
।।5.7।।ननु पारिव्राज्यं परिगृह्य श्रवणादिसाधनमसकृदनुतिष्ठतो लब्धसम्यग्बोधस्यापि यथापूर्वं कर्माण्युपलभ्यन्ते तानि च बन्धहेतवो भविष्यन्तीत्याशङ्क्य श्लोकान्तरमवतारयति यदा पुनरिति। सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायत्वेन यदा पुनरयं पुरुषो योगयुक्तत्वादिविशेषणः सम्यग्दर्शी संपद्यते तदा प्रातिभासिकीं प्रवृत्तिमनुसृत्य कुर्वन्नपि न लिप्यत इति योजना। योगेन नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेनेति यावत्। आदौनित्याद्यनुष्ठानवतो रजस्तमोमलाभ्यामकलुषितं सत्त्वं सिध्यतीत्याह विशुद्धेति। बुद्धिशुद्धौ कार्यकरणसंघातस्यापि स्वाधीनत्वं भवतीत्याह विजितेति। तस्य यथोक्तविशेषणवतो जायते सम्यग्दर्शित्वमित्याह सर्वभूतेति। सम्यग्दर्शिनस्तर्हि कर्मानुष्ठानं कुतस्त्यं तदनुष्ठाने वा कुतो बन्धविश्लेषसिद्धिरित्याशङ्क्याह स तत्रेति। सम्यग्दर्शनं सप्तम्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।5.7।।स्वमतस्फोरणार्थं तद्योगिनं लक्षयति त्रिभिः। त्रिगुणातीतत्वात्तस्येतिभावेन योगयुक्त इति।
Sridhara Swami
।।5.7।।कर्मयोगादिक्रमेण ब्रह्माधिगमे सत्यपि तदुपरितनेन कर्मणा बन्धः स्यादेवेत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। योगेन युक्तोऽतो विशुद्ध आत्मा चित्तं यस्यातएव विजित आत्मा शरीरं येन। अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन। ततश्च सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्य सः। लोकसंग्रहार्थं स्वाभाविकं वा कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते तैर्न बध्यते।