Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते | एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ||५-५||
Transliteration
yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ tadyogairapi gamyate . ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca yaḥ paśyati sa paśyati ||5-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.5 That place which is reached by the Sankhyas or the Jnanis is reached by the Yogis (Karma Yogis). He sees, who sees knowledge and the performance of action (Karma Yoga) as one.
।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, recognize that both deep theoretical understanding and strategic planning (Sankhya) and diligent, selfless execution of tasks (Karma Yoga) are equally valid and vital pathways to achieving professional success and making a meaningful impact. Whether you're a thinker or a doer, your contribution is equally valuable when aligned with a larger purpose, fostering a holistic view of career advancement and team collaboration.
🧘 For Stress & Anxiety
Much stress arises from rigid adherence to a single approach or believing there's only one 'right' way to achieve peace or solve a problem. This verse encourages mental flexibility, recognizing that both introspection/contemplation (Sankhya) and proactive engagement/action (Yoga) can lead to inner calm and resolution. Emphasize the shared goal rather than the specific method, reducing anxiety about choosing the 'perfect' path in life's challenges.
❤️ In Relationships
In relationships, individuals often express care, support, or contribute differently – some through profound understanding and empathetic listening (Sankhya), others through active support and practical help (Yoga). Recognizing that both these approaches lead to the same goal of fostering connection and well-being allows for greater acceptance, reduces conflict arising from differing methods, and builds a more unified and harmonious partnership.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True wisdom sees the unity in diverse paths of knowledge and dedicated action, recognizing they both lead to the same ultimate fulfillment.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.5 यत् which? सांख्यैः by the Sankhyas? प्राप्यते is reached? स्थानम् place? तत् that? योगैः by the Yogis (Karma Yogis)? अपि also? गम्यते is reached? एकम् one? सांख्यम् the Sankhya (knowledge)? च and? योगम् Yoga (performance of action)? च and? यः who? पश्यति sees? सः he? पश्यति sees.Commentary Those who have renounced the world and are treading the path of Jnana Yoga or Vedanta are the Sankhyas. Through Sravana (hearing of the Srutis or Vedantic texts)? Manana (reflection on what is heard) and Nididhyasana (constant and profound meditation) they attain to Moksha or Kaivalya directly. Karma Yogis who do selfless service? who perform their duties without expectation of the fruits and who dedicate their actions as offerings unto the Lord also reach the same state as is attained by Sankhyas indirectly through the purification of their heart and renunciation and the conseent dawn of the knowledge of the Self. That man who sees that Sankhya and Yoga are one? as leading to the same result? sees rightly. (Cf.XIII.24?25V.2)
Shri Purohit Swami
5.5 The level which is reached by wisdom is attained through right action as well. He who perceives that the two are one, knows the truth.
Dr. S. Sankaranarayan
5.5. What state is reached by men of knowledge-path the same is reached by men of Yoga subseently. [So] whosoever sees the knowledge-path and the Yoga to be one, he sees [correctly].
Swami Adidevananda
5.5 That state which is reached by the Sankhyans, the same is reached by the Yogins, i.e., the same state is attained also by those who are Karma Yogins. He alone is wise who sees that the Sankhya and the Yoga are one and the same because of their having the same result.
Swami Gambirananda
5.5 The State [Sthana (State) is used in the derivative sense of 'the place in which one remains established, and from which one does not become relegated'.] that is reached by the Sankhyas, that is reached by the yogis as well. He sees who sees Sankhya and yoga as one.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.5।। यहाँ भगवान् का स्पष्ट वचन है कि सांख्य और योग दोनों का लक्ष्य एक ही है इसलिए एक के अनुष्ठान से दोनों के फल को प्राप्त होने की बात कही गयी है। इस प्रकार इन दोनों को फलरूप से एक समझने वाले पुरुष ही यथार्थ में वेदों में प्रतिपादित सत्य के ज्ञाता है।पश्यन्ति अर्थात् देखते हैं इस शब्द का प्रयोग उसके शास्त्रीय अर्थ में किया गया है जिसके कारण नेत्र इन्द्रिय के द्वारा किसी बाह्य वस्तु का दर्शन यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धांतानुसार आत्मा के स्वयं द्रष्टा होने से उसका दृश्यरूप में दर्शन कभी नहीं हो सकता। द्रष्टा के द्वारा द्रष्टा का ही यह अनुभव है। देखते हैं शब्द का प्रयोग मात्र यह दर्शाने के लिए है कि इस आत्मतत्त्व का अनुभव उतना ही स्पष्ट और सन्देहरहित हो सकता है जितना कि बाह्य स्थूल पदार्थ का दर्शन।इस प्रकार इन दोनों के संश्लेषण करने का अर्थ यह नहीं है कि इनका मिश्रण किया गया हो। क्रम से योग तथा सांख्य का अनुष्ठान अपेक्षित है। इन दोनों को हम एक ही मान सकते हैं क्योंकि कर्मयोग से चित्तशुद्धि प्राप्त होकर सांख्य अर्थात् ध्यान के द्वारा हम परम तत्त्व का साक्षात् अनुभव कर सकते हैं। सभी साधकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि योग और सांख्य का अनुष्ठान क्रम से करना है न कि युगपत्।कर्मयोग का लक्ष्य संन्यास किस प्रकार है सुनो
Swami Ramsukhdas
5.5।। व्याख्या--'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते'--पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें भगवान्ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। उसी बातकी पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्तकरते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं।संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता है--इस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ 'अपि' अव्ययका प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधन-कालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़-चेतनका सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म न करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है। सांख्ययोगका विवेक प्रकृति-पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है। सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंकी एक स्थिति होती है क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता 3। 3)।संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है। परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्माकी प्राप्ति संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैं--ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्-स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना-आसक्ति अभावमें ही पैदा होती है--ऐसा समझकर असङ्ग हो जाय--यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओंमें साधकका राग है, उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है, उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर दे--यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।'एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति'--पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देनेवाले कहते हैं। उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फल-दृष्टिसे एक देखता है, वही यथार्थरूपमें देखता है।इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग--दोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकताको न जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इस जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं।विशेष बात किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग--ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।जो निरन्तर मर रहा है अर्थात् जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है; उस शरीरमें मरनेका भय नहीं हो सकता; और जो नित्य-निरन्तर रहता है, उस स्वरूपमें जीनेकी इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीनेकी इच्छा और मरनेका भय किसे होता है? जब स्वरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसमें जीनेकी इच्छा और मरनेका भय उत्पन्न हो जाता है। जीनेकी इच्छा और मरनेका भय--ये दोनों 'ज्ञान-योग' से (विवेकद्वारा) मिट जाते हैं।पानेकी इच्छा उसमें होती है, जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है, उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता, इसलिये स्वरूपमें कभी पानेकी इच्छा नहीं होती। पानेकी इच्छा न होनेसे उसमें कभी करनेका राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है,तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है, जिससे उसमें पानेकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पानेकी इच्छासे करनेका राग उत्पन्न हो जाता है। पानेकी इच्छा और करनेका राग--ये दोनों 'कर्मयोग' से मिट जाते हैं।ज्ञानयोग और कर्मयोग--इन दोनों साधनोंमेंसे किसी एक साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग--ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं। सम्बन्ध--इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने संन्यास-(सांख्ययोग-) की अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। अब उसी बातको दूसरे प्रकारसे कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.5।।एकप्नपि 5।4 इत्यस्याभिप्रायमाह यत्साङ्ख्यैरिति। योगिभिरपि ज्ञानद्वारा ज्ञानफलं प्राप्यत इत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।5.5।।प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति एकस्यापीति। केचिदेव तयोरेकफलत्वं पश्यन्तीत्याशङ्क्य तेषामेव सम्यग्दर्शित्वं नेतरेषामित्याह एकमिति। तिष्ठत्यस्मिन्न च्यवते पुनरिति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह मोक्षाख्यमिति। योगशब्दार्थमाह ज्ञानप्राप्तीति। ये हि जिज्ञासवः सर्वाणि कर्माणि भगवत्प्रीत्यर्थत्वेन तेषां फलाभिलाषमकृत्वा ज्ञानप्राप्तौ बुद्धिशुद्धिद्वारेणोपायत्वेनानुतिष्ठन्ति तेऽत्र योगा विवक्ष्यन्ते। अच्प्रत्ययस्य मत्वर्थत्वं गृहीत्वोक्तं योगिन इति। सर्वोऽपि द्वैतप्रपञ्चो न वस्तुभूतो मायाविलासत्वादात्मा त्वविक्रियोऽद्वितीयो वस्तुसन्निति प्रयोजकज्ञानं परमार्थज्ञानं तत्पूर्वकसंन्यासद्वारेण कर्मिभिरपि तदेव स्थानं प्राप्यमित्येकफलत्वं संन्यासकर्मयोगयोरविरुद्धमित्याह तैरपीति। फलैकत्वे फलितमाह अत इति।
Sri Vallabhacharya
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्साङ्ख्यैरिति यन्मुक्तिस्थानं साङ्ख्यनिष्ठैः प्राप्यते तदेव योगैरित्यत्रार्श आदित्वेन मत्वर्थीयोऽच्। योगनिष्ठयाऽपि कर्म कुर्वद्भिरपि तत्प्राप्यते स्वातन्त्र्येण फलदत्वात्तयोरेकविषयत्वात्। अतः साङ्ख्ययोगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स सम्यग्दर्शनः।
Sridhara Swami
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्सांख्यैरिति। सांख्यैर्ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिर्यत्स्थानं मोक्षाख्यं प्रकर्षेण साक्षादवाप्यते। योगैरित्यत्र अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययो द्रष्टव्यः। तेन कर्मयोगिभिरपि तदेव ज्ञानद्वारेण गम्यते। अवाप्यत इत्यर्थः। अतः सांख्यं च योगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स एव सम्यक्पश्यति।