Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 7 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Supremacy

Sanskrit Shloka (Original)

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय | मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||७-७||

Transliteration

mattaḥ parataraṃ nānyatkiñcidasti dhanañjaya . mayi sarvamidaṃ protaṃ sūtre maṇigaṇā iva ||7-7||

Word-by-Word Meaning

मत्तःthan Me
परतरम्higher
not
अन्यत्other
किञ्चित्anyone
अस्तिis
धनञ्जयO Dhananjaya
मयिin Me
सर्वम्all
इदम्this
प्रोतम्is strung
सूत्रेon a string
मणिगणाःclusters of gems

📖 Translation

English

7.7 There is nothing whatsoever higher than Me, O Arjuna. All this is strung on Me, as clusters of gems on a string.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.7।। हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ (परे) अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a holistic perspective, recognizing how individual efforts contribute to larger organizational or societal goals. Foster collaboration and a sense of shared purpose among colleagues, understanding that everyone is part of the same underlying system. Strive for excellence, knowing your work is part of a grander, divinely sustained order and that every task, no matter how small, is connected to the ultimate source.

🧘 For Stress & Anxiety

Find solace in the understanding that an ultimate, benevolent force orchestrates and sustains everything. This perspective can help relinquish the burden of absolute control, reduce anxiety about outcomes, and provide a deep sense of security and belonging, knowing that you are part of an ordered and supported universe. When overwhelmed, remember the 'string' that holds everything together.

❤️ In Relationships

Approach interactions with a deep sense of empathy and unity, recognizing that every individual is fundamentally connected and part of the same divine fabric. This fosters compassion, forgiveness, and the ability to see beyond superficial differences, promoting harmony and mutual respect by acknowledging the shared essence that strings all beings together.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The Divine is the supreme, all-encompassing reality that intimately connects and sustains every facet of existence, like gems on a string.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.7 मत्तः than Me? परतरम् higher? न not? अन्यत् other? किञ्चित् anyone? अस्ति is? धनञ्जय O Dhananjaya? मयि in Me? सर्वम् all? इदम् this? प्रोतम् is strung? सूत्रे on a string? मणिगणाः clusters of gems? इव like.Commentary There is no other cause of the universe but Me. I alone am the the cause of the universe. This illustration of gems and thread illustrates only the idea that all beings and the whole world are threaded on the Lord. The thread is not the cause of the gems. As Brahman is all in all there is nothing whatever higher than It.

Shri Purohit Swami

7.7 O Arjuna! There is nothing higher than Me; all is strung upon Me as rows of pearls upon a thread.

Dr. S. Sankaranarayan

7.7. There exists nothing beyond Me, O Dhananjaya; all this is strung on Me just as the groups of pearls on a string.

Swami Adidevananda

7.7 There is nothing higher than Myself, O Arjuna. All this is strung on Me, as rows of gems on a thread.

Swami Gambirananda

7.7 O Dhananjaya, there is nothing else whatsoever higher than Myself. All this is strung on Me like pearls on a string.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.7।। इसके पूर्व के श्लोकों में कथित सिद्धान्त को स्वीकार करने पर हमें जगत् की ओर देखने के दो दृष्टिकोण मिलते हैं। एक है अपर अर्थात् कार्यरूप जगत् की दृष्टि से तथा दूसरा इससे भिन्न है पर अर्थात् कारण की दृष्टि से। जैसे मिट्टी की दृष्टि से उसमें विभिन्न रूप रंग वाले घटों का सर्वथा अभाव होता है वैसे ही चैतन्यस्वरूप पुरुष में न विषयों का स्थूल जगत् है और न विचारों का सूक्ष्म जगत्। मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है।स्वप्न से जागने पर जाग्रत् पुरुष के लिये स्वप्न जगत् की कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। समुद्र में असंख्य लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में वहाँ समुद्र के अतिरिक्त किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय स्थान समुद्र ही होता है। संक्षेप में कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप का त्याग करके कदापि नहीं रह सकती है।पहले हमें बताया गया है कि प्रत्येक प्राणी में एक भाग अपरा प्रकृतिरूप है जिसका संयोग आत्मतत्त्व से हुआ है। यहाँ जिज्ञासु मन में शंका उठ सकती है कि क्या मुझमें स्थित आत्मा अन्य प्राणी की आत्मा से भिन्न है यह विचार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचायेगा कि विभिन्न शरीरों में भिन्नभिन्न आत्मायें हैं अर्थात् आत्मा की अनेकता के सिद्धान्त पर हम पहुँच जायेंगे। .समस्त नामरूपों में आत्मा के एकत्व को दर्शाने के लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि वे ही इस जगत् के अधिष्ठान हैं। वे सभी रूपों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे कण्ठाभरण में एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है। यह दृष्टांत अत्यन्त सारगर्भित है। काव्य के सौन्दर्य के साथसाथ उसमें दर्शनशास्त्र का गम्भीर लाक्षणिक अर्थ भी निहित है। कण्ठाभरण में समस्त मणियाँ एक समान होते हुये दर्शनीय भी होती हैं परन्तु वे समस्त छोटीबड़ी मणियाँ जिस एक सूत्र में पिरोयी होती हैं वह सूत्र हमें दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि उसके कारण ही वह माला शोभायमान होती है।इसी प्रकार मणिमोती जिस पदार्थ से बने होते हैं वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से सूत्र बना होता है। वैसे ही यह जगत् असंख्य नामरूपों की एक वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य आत्मतत्त्व धारण किये रहता है। एक व्यक्ति विशेष में भी शरीर मन और बुद्धि परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ कार्य करते हैं और समवेत रूप में जीवन का संगीत निसृत करते हैं। केवल यह आत्मतत्त्व ही इसका मूल कारण है।यह श्लोक ऐसा उदाहरण है जिसमें हमें महर्षि व्यास की काव्य एवं दर्शन की अपूर्व प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यहाँ काव्य एवं दर्शन का सुन्दर समन्वय हुआ है।किस प्रकार मुझ में यह जगत् पिरोया हुआ है वह सुनो

Swami Ramsukhdas

।।7.7।। व्याख्या--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय'--हे अर्जुन ! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है, मैं ही सब संसारका महाकारण हूँ। जैसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही रहती है और आकाशमें ही लीन होती है अर्थात् आकाशके सिवाय वायुकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान्से उत्पन्न होता है भगवान्में स्थित रहता है और भगवान्में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान्के सिवाय संसारकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।यहाँ 'परतरम्' कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारणके आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारणका कोई उत्पादक नहीं है। भगवान् ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपनसे इन सबका होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्तासे ये सभी 'है' दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं। भगवान्ने इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा, जिसको जाननेके बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा--'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' और यहाँ कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति।' दोनों ही जगह 'न अन्यत्'कहनेका तात्पर्य है कि जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तब मेरेको जाननेके बाद जानना कैसे बाकी रहेगा? अतः भगवान्ने यहाँ 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्'और आगे 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) तथा 'सदसच्चाहम्'(9। 19) कहा है।जो कार्य होता है, वह कारणके सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तवमें कारण ही कार्यरूपसे दीखता है। इस प्रकर जब कारणका ज्ञान हो जायगा, तब कार्य कारणमें लीन हो जायगा अर्थात् कार्यकी अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और 'एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है'--ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा। 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव'--यह सारा संसार सूतमें सूतकी ही मणियोंकी तरह मेरेमें पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसारमें अनुस्यूत (व्याप्त) हूँ। जैसे सूतसे बनी मणियोंमें और सूतमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है; ऐसे ही संसारमें मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। तात्पर्य है कि जैसे सूतमें सूतकी मणियाँ पिरोयी गयी हों तो दीखनेमें मणियाँ और सूत अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें सूत एक ही होता है। ऐसे ही संसारमें जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम, रूप, आकृति आदिसे अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें व्याप्त रहनेवाला चेतन-तत्त्व एक ही है। वह चेतन-तत्त्व मैं ही हूँ--'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत'(गीता 13। 2) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनोंमें मैं ही परिपूर्ण हूँ, व्याप्त हूँ। साधक जब संसारको संसारबुद्धिसे देखता है, तब उसको संसारमें परिपूर्णरूपसे व्याप्त परमात्मा नहीं दीखते। जब उसको परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्याप्य-व्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दीखता है। इस तत्त्वको बतानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ कारणरूपसे अपनी व्यापकताका वर्णन किया है।  सम्बन्ध--जो कुछ कार्य दीखता है, उसके मूलमें परमात्मा ही हैं--यह ज्ञान करानेके लिये अब भगवान् आठवेंसे बारहवें श्लोकतकका प्रकरण आरम्भ करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।7.7।। हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ (परे) अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.7।।अहमेव परतरः मत्तोऽन्यत्परतरं न किञ्चिदपि।

Sri Anandgiri

।।7.7।।प्रधानात्परतोऽक्षरात्पुरुषवत्परमात्मनोऽपि परादन्यत्परं स्य��दित्याशङ्क्य प्रकृतिद्वयद्वारा सर्वकारणत्वमीश्वरस्योक्तमुपजीव्य परिहरति यतस्तस्मादिति। नान्यदस्ति परमित्यत्र हेतुमाह मयीति। परतरशब्दार्थमाह अन्यदिति। स्वातन्त्र्यव्यावृत्त्यर्थमन्तरशब्दः। निषेधफलं कथयति अहमेवेति। सर्वजगत्कारणत्वेन सिद्धमर्थं द्वितीयार्धव्याख्यानेन विशदयति यस्मादिति। अतो (यथा) दीर्घेषु तिर्यक्षु च पटघटितेषु तन्तुषु पटस्यावगतिरवगम्यते तद्वन्मय्येवानुगतं जगदित्याह दीर्घेति। यथा च मणयः सूत्रेऽनुस्यूतास्तेनैव ध्रियन्ते तदभावे विप्रकीर्यन्ते यथा मयैवात्मभूतेन सर्वं व्याप्तं ततो निकृष्टं विनष्टमेव स्यादिति श्लोकोक्तं दृष्टान्तमाह सूत्र इति।

Sri Vallabhacharya

।।7.7।।यस्मादेवं तस्मादेव माहात्म्यं पूर्वं ज्ञातव्यं मत्तः परतरं नान्यदिति। अहमेव पर इत्यर्थः। किञ्चेदं सर्वं प्रोतमाश्रितं मयि तत्र यद्यत्स्वरूपमान्तरं बहिरिदं युष्मदाद्युपलभ्यमानत्वात्सत्त्वं जगत् मत्स्वरूपेणेदं नत्वविद्याकल्पितम्। तत्र दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इव इत्यात्मशरीरभावेनावस्थानमुक्तं यस्य पृथिवी शरीरं बृ.उ.3।7।3 यस्मात्मा शरीरं श.प.ब्रा.14।5।6।5।30 य एषः ह्येषः सर्वभूतान्तरात्मा मुं.उ.2।1।4 इत्यादौ प्रसिद्धं विज्ञेयम्।

Sridhara Swami

।।7.7।। यस्मादेवं तस्मात् मत्त इति। मत्तः सकाशात्परतरं श्रेष्ठं जगतः सृष्टिसंहारयोः स्वतन्त्रं कारणं किंचिदपि नास्ति। स्थितिहेतुरप्यहमेवेत्याह मयीति। मयि सर्वमिदं जगत्प्रोतं ग्रथितं आश्रितमित्यर्थः। दृष्टान्तः स्पष्टः।

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