Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 8 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः | प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ||७-८||
Transliteration
raso.ahamapsu kaunteya prabhāsmi śaśisūryayoḥ . praṇavaḥ sarvavedeṣu śabdaḥ khe pauruṣaṃ nṛṣu ||7-8||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.8 I am the sapidity in water, O Arjuna; I am the light in the moon and the sun; I am the syllable Om in all the Vedas, sound in ether and virility in men.
।।7.8।। हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव (ँ़कार) हूँ तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your work, strive to embody the 'sapidity' or essential quality, making your contribution indispensable and impactful. Recognize that the 'virility' or inherent strength and capacity to create and achieve comes from a divine source, inspiring you to pursue excellence and find deeper meaning in your professional endeavors, even routine tasks.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed, shift your perspective to recognize the underlying divine order and essence in all things. Just as Krishna is the fundamental light and sound, find solace in the constant and pure elements of life (like water's taste or light's presence), fostering a deep sense of gratitude and inner peace, which can alleviate feelings of chaos and disconnection.
❤️ In Relationships
Cultivate the ability to see the 'virility' or the inherent divine spark and essential worth in every individual. This perspective fosters profound respect, empathy, and understanding, allowing you to connect on a deeper level beyond superficial differences and appreciate the unique divine expression in each person.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“God is the essential quality and life-force inherent in every aspect of existence; cultivating this awareness reveals the divine in everything, from the simplest to the profound.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.8 रसः sapidity? अहम् I? अप्सु in water? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? प्रभा light? अस्मि am (I)? शशिसूर्ययोः in the moon and the sun? प्रणवः the syllable Om? सर्ववेदेषु in all the Vedas? शब्दः sound? खे in ether? पौरुषम् virility? नृषु in men.Commentary In Me all beings and the whole world are woven as a cloth in the warp. In Me as sapidity the water is woven in Me as light? the sun and the moon are woven in Me as the sacred syllable Om all the Vedas are woven in Me as virility all men are woven.The manifestations of the Lord are described in the verses 8? 9? 10 and 11. (Cf.XV.12)
Shri Purohit Swami
7.8 O Arjuna! I am the Fluidity in water, the Light in the sun and in the moon. I am the mystic syllable Om in the Vedic scriptures, the Sound in ether, the Virility in man.
Dr. S. Sankaranarayan
7.8. O son of Kunti ! I am the taste in waters; the light in the moon and the sun; the best hymn (OM) in the entire Vedas; the sound that exists in the ether (or the mystic hymnal sound in the entire Vedas-a sound that is in the ether); and the manly vigour in men.
Swami Adidevananda
7.8 I am the taste in the waters, O Arjuna! I am the light in the sun and the moon; the sacred syllable Om in all the Vedas; sound in the ether; and manhood in men am I.
Swami Gambirananda
7.8 O son of Kunti, I am the taste of water, I am the effulgence of the moon and the sun; (the letter) Om in all the Vedas, the sound in space, and manhood in men.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.8।। See commentary under 7.9.
Swami Ramsukhdas
।।7.8।। व्याख्या--[जैसे साधारण दृष्टिसे लोगोंने रुपयोंको ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपये पैदा करने और उनका संग्रह करनेमें लोभी आदमीकी स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझनेमें जो कुछ जगत् आता है उसका कारण भगवान् हैं (7। 6); भगवान्के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-- ऐसा माननेसे भगवान्में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात दसवें अध्यायके आठवें श्लोकमें कही है कि 'मैं सम्पूर्ण संसारका कारण हूँ, मेरेसे ही संसारकी उत्पत्ति होती है,--ऐसा समझकर बुद्धिमान् मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें कहा है कि 'जिस परमात्मासे सम्पूर्ण जगत्की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।' इसी सिद्धान्तको बतानेके लिये यह प्रकरण आया है।] 'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'--हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें मैं 'रस' हूँ। जल रस-तन्मात्रासे (टिप्पणी प0 403) पैदा होता है; रस-तन्मात्रामें रहता है और रस-तन्मात्रामें ही लीन होता है। जलमेंसे अगर 'रस' निकाल दिया जाय तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जलरूपसे है। वह रस मैं हूँ। 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः'--चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश करनेकी जो एक विलक्षण शक्ति 'प्रभा' है (टिप्पणी प0 404), वह मेरा स्वरूप है। प्रभा रूप-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है रूपतन्मात्रामें रहती है और अन्तमेंरूपतन्मात्रामें ही लीन हो जाती है। अगर चन्द्रमा और सूर्यमेंसे प्रभा निकाल दी जाय तो चन्द्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जायँगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्यरूपसे प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ।'प्रणवः सर्ववेदेषु'--सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मेरा स्वरूप है। कारण कि सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणवसे त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्रीसे वेदत्रयी प्रकट हुई है। इसलिये वेदोंमें सार 'प्रणव' ही रहा। अगर वेदोंमेंसे प्रणव निकाल दिया जाय तो वेद वेदरूपसे नहीं रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्रीरूपसे प्रकट हो रहा है। वह प्रणव मैं ही हूँ। 'शब्दः खे'--सब जगह यह जो पोलाहट दीखती है, यह आकाश है। आकाश शब्द-तन्मात्रासे पैदा होता है, शब्द-तन्मात्रामें ही रहता है और अन्तमें शब्द-तन्मात्रामें ही लीन हो जाता है। अतः शब्द-तन्मात्रा ही आकाश-रूपसे प्रकट हो रही है। शब्द-तन्मात्राके बिना आकाश कुछ नहीं है। वह शब्द मैं ���ी हूँ।'पौरुषं नृषु'--मनुष्योंमें सार चीज जो पुरुषार्थ है, वह मेरा स्वरूप है। वास्तवमें नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव करना ही मनुष्योंमें असली पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्योंने अप्राप्तको प्राप्त करनेमें ही अपना पुरुषार्थ मान रखा है; जैसे--निर्धन आदमी धनकी प्राप्तिमें पुरुषार्थ मानता है, अपढ़ आदमी पढ़ लेनेमें पुरुषार्थ मानता है, अप्रसिद्ध आदमी अपना नाम विख्यात कर लेनेमें अपना पुरुषार्थ मानता है, इत्यादि। निष्कर्ष यह निकला कि जो अभी नहीं है, उसकी प्राप्तिमें ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ मानता है। पर यह पुरुषार्थ वास्तवमें पुरुषार्थ नहीं है। कारण कि जो पहले नहीं थे, प्राप्तिके समय भी जिनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है और अन्तमें जो 'नहीं' में भरती हो जायँगे, ऐसे पदार्थोंको प्राप्त करना पुरुषार्थ नहीं है। परमात्मा पहले भी मौजूद थे, अब भी मौजूद हैं और आगे भी सदा मौजूद रहेंगे; क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता। इसलिये परमात्माको उत्साहपूर्वक प्राप्त करनेका जो प्रयत्न है, वही वास्तवमें पुरुषार्थ है। उसकी प्राप्ति करनेमें ही मनुष्योंकी मनुष्यता है। उसके बिना मनुष्य कुछ नहीं है अर्थात् निरर्थक है।
Swami Tejomayananda
।।7.8।। हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव (ँ़कार) हूँ तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौजीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
Sri Anandgiri
।।7.8।।अबादीनां रसादिषु प्रोतत्वप्रतीतेस्त्वय्येव सर्वं प्रोतमित्ययुक्तमिति मत्वा पृच्छति केनेति। तत्रोत्तरमुत्तरग्रन्थेन दर्शयति उच्यत इति। सारो मधुरो हेतुरिति यावत्। रसोऽहमिति कथं तत्राह तस्मिन्निति। अप्सु यो रसः सारस्तस्मिन्मयि मधुररसे कारणभूते प्रोता आप इतिवदुत्तरत्र सर्वत्र व्याख्यानं कर्तव्यमित्याह एवमिति। उक्तमर्थं दृष्टान्तं कृत्वा प्रभास्मीत्यादि व्याचष्टे यथेति। चन्द्रादित्ययोर्या प्रभा तद्भूते मयि तौ प्रोतावित्यर्थः। तत्र वाक्यार्थं। कथयति तस्मिन्निति। प्रणवभूते तस्मिन्वेदानां प्रोतत्ववदाकाशे यः सारभूतः शब्दस्तद्रूपे परमेश्वरे प्रोतमाकाशमित्याह तथेति। पौरुषं नृष्विति भागं पूर्ववद्विभजते तथेत्यादिना। पुरुषत्वमेव विशदयति यत इति। पुंस्त्वसामान्यात्मके परस्मिन्नीश्वरे प्रोतास्तद्विशेषास्तदुपादानत्वेन तत्स्वभावत्वादित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।7.8।।नन्वेकस्य भगवतः कारणत्वमुपादानत्वेन निमित्तत्वादिना वा तत्रापि तन्मुख्यं गौणं वा इति चेत् उच्यते तस्य मुख्यमेव सर्वकारणत्वं सर्वरूपत्वात्सर्वशक्तित्वात्सहकारिनिरपेक्षत्वाच्च कामधेन्वादिवत्। उक्तं हि श्रीभागवते 6।4।30यस्मिन्यतो येन च यस्य यस्मै यद्यो यथा कुरुते कार्यते वा (च)। परावरेषां परमं प्राक्प्रसिद्धं तद्धीश (तद्ब्रह्म) तद्धेतुरनन्यदेकम् इत्यादि। एकोऽहं बहु स्याम् स आत्मानं स्वयमकुरुत सहैतावानाससर्वनामा स च विश्वरूपः इत्यादिश्रुतिस्मृतिषु मुख्यमेवास्य कारणत्वं सर्वमुक्तम्। तथैव स्वविभूतिमहिमविज्ञानं स्पष्टयति सङ्क्षेपेण चतुर्भिःरसोऽहमप्सु इत्यारभ्यकामोऽस्मि 7।11 इत्यन्तम्। तत्र सप्तविधोऽहं सन् प्रकृतिकार्ये गुणरूपनामात्मना स्थितः चित्प्रकृतिकार्येऽपि तथैवेत्याशयेनाह रसोऽहमिति। अप्सु रसत्वेन स्थितोऽस्मि। प्रभेति रूपभेदः। प्रणवो नामात्मा कः शब्दो गुणाः खे। नृषु मानुषेषु पौरुषं वीर्यम्।यतः सर्वगुणानां सम्मिश्रं रूपं सप्तमोऽप्येको भेदो मध्ये निरूपितः मिश्रितत्वात्।
Sridhara Swami
।।7.8।। जगतः स्थितिहेतुत्वं प्रपञ्चयति रसोऽहमिति पञ्चभिः। अप्सु रसोऽहम्। रसतन्मात्ररूपया विभूत्या तदाश्रयत्वेनाप्सु स्थितोऽहमित्यर्थः। तथा शशिसूर्ययोः प्रभास्मि। चन्द्रेऽर्के च प्रकाशरूपया विभूत्या तदाश्रयत्वेन स्थितोऽहमित्यर्थः। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। सर्वेषु वेदेषु वैखरीरूपेषु तन्मूलभूतः प्रणव ओंकारोऽस्मि। खे आकाशे शब्दतन्मात्ररूपोऽस्मि। नृषु पुरुषेषु पौरुषमुद्यमोऽस्मि। उद्यमे हि पुरुषास्तिष्ठन्ति।