Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Ultimate Causality

Sanskrit Shloka (Original)

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय | अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||७-६||

Transliteration

etadyonīni bhūtāni sarvāṇītyupadhāraya . ahaṃ kṛtsnasya jagataḥ prabhavaḥ pralayastathā ||7-6||

Word-by-Word Meaning

एतद्योनीनिthose of which these two (Prakritis) are the womb
भूतानिbeings
सर्वाणिall
इतिthus
उपधारयknow
अहम्I
कृत्स्नस्यof the whole
जगतःof the world
प्रभवःsource
प्रलयःdissolution
तथाalso.Commentary These two Natures

📖 Translation

English

7.6 Know that these two (Natures) are the womb of all beings. So I am the source and dissolution of the whole universe.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.6।। यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivating a sense of purpose by understanding that one's work, however small, is part of a larger cosmic order. This perspective can inspire diligent effort, ethical conduct, and a recognition of the interconnected impact of one's contributions, knowing that all creation stems from a singular, ultimate source.

🧘 For Stress & Anxiety

Finding peace by surrendering the need for absolute control, recognizing that the universe, including our lives, originates from and dissolves into a supreme, guiding consciousness. This acceptance can alleviate anxiety, foster trust in a larger process, and provide a stable foundation amidst life's uncertainties.

❤️ In Relationships

Deepening empathy and connection by realizing that all beings share a common divine origin. This understanding can dissolve superficial differences, promote unconditional regard, and inspire compassionate interaction, seeing the singular divine essence within everyone.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Everything, from the subtlest nature to the manifest universe, originates from and ultimately returns to the Divine. Recognize this ultimate source to understand your interconnectedness and true place in existence.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.6 एतद्योनीनि those of which these two (Prakritis) are the womb? भूतानि beings? सर्वाणि all? इति thus? उपधारय know? अहम् I? कृत्स्नस्य of the whole? जगतः of the world? प्रभवः source? प्रलयः dissolution? तथा also.Commentary These two Natures? the inferior and the superior? are the womb of all beings. As I am the source of these two Prakritis or Natures also? I am the cause of this universe. The whole universe originates from Me and dissolves in Me.In the Brahma Sutras (chapter 1? section 1? aphorism 2) it is said? Janmadyasya yatah meaning that Brahman is that omniscient and omnipotent cause from which proceed the origin? subsistence and dissolution of this world.Just as the mind is the material cause and also the seer (Drashta) for the objects seen in a dream? so also Isvara is the material cause of this world (UpadanaKarana) and also the seer (Drashta). He is also the efficient or the instrumental cause (NimittaKarana). (Cf.XIV.3)

Shri Purohit Swami

7.6 It is the womb of all being; for I am He by Whom the worlds were created and shall be dissolved.

Dr. S. Sankaranarayan

7.6. All beings are born of this womb. Hence keep [them] nearby. I am the origin as well as the dissolution of the entire world.

Swami Adidevananda

7.6 Know that all beings have these two for the source of their birth. Therefore, I am the origin and the dissolution of the whole universe.

Swami Gambirananda

7.6 Understand thus that all things (sentient and insentient) have these as their source. I am the origin as also the end of the whole Universe.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.6।। उपर्युक्त अपरा एवं परा प्रकृतियों के परस्पर संबंध से यह नानाविध वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। जड़ प्रकृति के बिना चैतन्य की सार्मथ्य व्यक्त नहीं हो सकती और न ही उसके बिना जड़ उपाधियों में चेनवत् व्यवहार की संभावना ही रहती है। बल्ब में स्थित तार में स्वयं विद्युत् ही प्रकाश के रूप मे व्यक्त होती है। प्रकाश की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् और बल्ब दोनों का संबंध होना आवश्यक है। इसी प्रकार सृष्टि के लिए परा और अपरा जड़ और चेतन के संबंध की अपेक्षा होती है।इसी दृष्टि से भगवान् कहते हैं ये दोनों प्रकृतियां भूतमात्र की कारण हैं। एक मेधावी विद्यार्थी को इस कथन का अभिप्राय समझना कठिन नहीं है। बाह्य विषय भावनाएं तथा विचारों के जगत् की न केवल उत्पत्ति और स्थिति बल्कि लय भी चेतन पुरुष में ही होता है। इस प्रकार अपरा प्रकृति पारमार्थिक स्वरूप में पराप्रकृति से भिन्न नहीं है। आत्मा मानो अपने स्वरूप को भूलकर अपरा प्रकृति के साथ तादात्म्य करके जीवभाव के दुखों को प्राप्त होता है। परन्तु उसका यह दुख मिथ्या है वास्तविक नहीं। स्वस्वरूप की पहचान ही अनात्मबन्धन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। परा से अपरा की उत्पत्ति उसी प्रकार होती है जैसे मिट्टी के बने घटों की मिट्टी से। स्ाभी घटों में एक मिट्टी ही सत्य है उसी प्रकार विषय इन्द्रियां मन तथा बुद्धि इन अपरा प्रकृति के कार्यों का वास्तविक स्वरूप चेतन तत्त्व ही है।इसलिये

Swami Ramsukhdas

।।7.6।। व्याख्या--'एतद्योनीनि भूतानि' (टिप्पणी प0 401.1) जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब-के-सब मेरी अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं। तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीतिसे चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी बतायी है कि स्थावर, जङ्गम योनियोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृतिके हैं, और उन शरीरोंमें जो बीज अर्थात् जीवात्मा है, वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्माको भगवान्ने 'परा प्रकृति' (7। 5) और 'अपना अंश' (15। 7) कहा है। 'सर्वाणीत्युपधारय'--स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकोंके जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृतिके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृतिने अपराको अपना मान लिया है, (टिप्पणी प0 401.2) उसका सङ्ग कर लिया है, इसीसे सब प्राणी पैदा होते हैं--इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरहसे समझ लो अथवा मान लो।'अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा'--मात्र वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति परमात्मासे ही मिलती है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव (उत्पन्न करनेवाला) और प्रलय (लीन करनेवाला) हूँ। 'प्रभवः'का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत्का निमित्तकारण हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पसे (टिप्पणी प0 401.3) पैदा हुई है--'सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति' (छान्दोग्य0 6। 2। 3)।जैसे घड़ा बनानेमें कुम्हार और सोनेके आभूषण बनानेमें सुनार ही निमित्तकारण है ऐसे ही संसारमात्रकी उत्पत्तिमें भगवान् ही निमित्तकारण हैं।     'प्रलयः'कहनेका तात्पर्य है कि इस जगत्का उपादान-कारण भी मैं ही हूँ; क्योंकि कार्यमात्र उपादान-कारणसे उत्पन्न होता है; उपादान-कारण-रूपसे ही रहता है और अन्तमें उपादान-कारणमें ही लीन हो जाता है।जैसे घड़ा बनानेमें मिट्टी उपादान-कारण है, ऐसे ही सृष्टिकी रचना करनेमें भगवान् ही उपादान-कारण हैं। जैसे घड़ा मिट्टीसे ही पैदा होता है, मिट्टीरूप ही रहता है और अन्तमें टूट करके घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है; और जैसे सोनेके यावन्मात्र आभूषण सोनेसे ही उत्पन्न होते हैं, सोनारूप ही रहते हैं और अन्तमें सोना ही रह जाते हैं, ऐसे ही यह संसार भगवान्से ही उत्पन्न होता है, भगवान्में ही रहता है और अन्तमें भगवान्में ही लीन हो जाता है। ऐसा जानना ही 'ज्ञान' है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है, भगवान्के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं--ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है।'कृत्स्नस्य जगतः' पदोंमें भगवान्ने अपनेको जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय बताया है। इसमें जड-(अपरा प्रकृति-) का प्रभव और प्रलय बताना तो ठीक है, पर चेतन-(परा प्रकृति अर्थात् जीवात्मा-) का उत्पत्ति और विनाश कैसे हुआ? क्योंकि वह तो नित्य ��त्त्व है--'नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः'(गीता 2। 24)। जो परिवर्तनशील है, उसको जगत् कहते हैं--'गच्छतीति जगत्।' पर यहाँ जगत् शब्द जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण संसारका वाचक है। इसमें जड-अंश तो परिवर्तनशील है और चेतन-अंश सदा-सर्वथा परिवर्तनरहित तथा निर्विकार है। वह निर्विकार तत्त्व जब जडके साथ अपना सम्बन्ध मानकर तादात्म्य कर लेता है, तब वह जड-(शरीर-) के उत्पत्ति-विनाशकको अपना उत्पत्ति-विनाश मान लेता है। इसीसे उसके जन्म-मरण कहे जाते हैं। इसीलिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण जगत् अर्थात् अपरा और परा प्रकृतिका भाव तथा प्रलय बताया है। अगर यहाँ 'जगत्' शब्दसे केवल नाशवान् परिवर्तन-शील और विकारी संसारको ही लिया जाय, चेतनको नहीं लिया जाय तो बड़ी बाधा लगेगी। भगवान्ने 'कृत्स्नस्य जगतः' पदोंसे अपनेको सम्पूर्ण जगत्का कारण बताया है (टिप्पणी प0 402)। अतः सम्पूर्ण जगत्के अन्तर्गत स्थावर-जङ्गम, जड-चेतन सभी लिये जायँगे। अगर केवल जडको लिया जायगा तो चेतन-भाग छूट जायगा, जिससे 'मैं सम्पूर्ण जगत्का कारण हूँ' यह कहना नहीं बन सकेगा और आगे भी बड़ी बाधा लगेगी। कारण कि आगे इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि तीनों गुणोंसे मोहित जगत् मेरेको नहीं जानता, तो यहाँ जानना अथवा न जानना चेतनका ही हो सकता है, जडका जानना अथवा न जानना होता ही नहीं। इसलिये 'जगत्' शब्दसे केवल जडको ही नहीं, चेतनको भी लेना पड़ेगा।ऐसे ही सोलहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें भी आसुरी सम्पदावालोंकी मान्यताके अनुसार 'जगत्' शब्दसे जड और चेतन--दोनों ही लेने पड़ेंगें; क्योंकि आसुरी सम्पदावाले व्यक्ति सम्पूर्ण शरीरधारी जीवोंको असत्य मानते हैं, केवल जडको नहीं। इसलिये अगर वहाँ 'जगत्' शब्दसे केवल जड संसार ही लिया जाय तो जगत्को (जड संसारको) असत्य, मिथ्या और अप्रतिष्ठित कहनेवाले अद्वैत-सिद्धान्ती भी आसुरी सम्पदावालोंमें आ जायँगे, जो कि सर्वथा अनुचित है। ऐसे ही आठवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें आये 'शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः'पदोंमें 'जगत्' शब्द केवल जडका ही वाचक मानें तो जडकी शुक्ल और कृष्ण गतिका क्या तात्पर्य होगा? गति तो चेतनकी ही होती है। जडसे तादात्म्य करनेके कारण ही चेतनको 'जगत्' नामसे कहा गया है।इन सब बातोंपर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जडके साथ एकात्मता करनेसे जीव 'जगत्' कहा जाता है। परन्तु जब यह जडसे विमुख होकर चिन्मय-तत्त्वके साथ अपनी एकताका अनुभव कर लेता है, तब यह 'योगी' कहा जाता है, जिसका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपनेको परा और अपरा प्रकृतिरूप सम्पूर्ण जगत्का मूल कारण बताया। अब भगवान्के सिवाय भी जगत्का और कोई कारण होगा-- इसका आगेके श्लोकमें निषेध करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।7.6।। यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.6।।न केवलं ते जगत्प्रकृती मद्वशे इत्येतावन्मदैश्वर्यमित्याह अहमिति। प्रभवादेः सत्ताप्रतीत्यादेः कारणत्वात्तद्भोक्तृत्वाच्च प्रभव इत्यादि। तथा च श्रुतिः सर्वकामः सर्वकर्मा सर्वगन्धो सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः छां.उ.3।14।2 इति। आह च स्रष्टा पाता च संहर्ता नियन्ता च प्रकाशिता। यतः सर्वस्य तेनाहं सर्वोऽस्मीत्यषिभिः स्तुतः। सुखरूपस्य भोक्तृत्वान्न तु सर्वस्वरूपतः। आगमिष्यत्सुखं चापि तच्चास्त्येव सदाऽपि तु। तथाप्यचिन्त्यशक्तित्वाज्जातं सुखमतीव च। इति नारदीये।

Sri Anandgiri

।।7.6।।उक्तप्रकृतिद्वये कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयति एतद्योनीनीति। प्रकृतिद्वयस्य जगत्कारणत्वे कथमीश्वस्य जगत्कारणत्वं तदुपगतमित्याशङ्क्याह अहमिति। एतद्योनीनीत्युक्ते समनन्तरप्रकृतजीवभूतप्रकृतावेतच्छब्दस्याव्यवधानात्प्रवृत्तिमाशङ्क्य व्याकरोति एतदिति। सर्वाणि चेतनाचेतनानि जनिमन्तीत्यर्थः। सर्वभूतकारणत्वेन प्रकृतिद्वयमङ्गीकृतं चेत्कथमहमित्याद्युक्तमित्याशङ्क्याह यस्मादिति। मम प्रकृती परमेश्वरस्योपाधितया स्थिते इत्यर्थः। तर्हि प्रकृतिद्वयं कारणमीश्वरश्चेति जगतोऽनेकविधकारणाङ्गीकरणं स्यादित्याशङ्क्याह प्रकृतीति। अपरप्रकृतेरचेतनत्वात्परप्रकृतेश्चेतनत्वेऽपि किंचिज्ज्ञत्वादीश्वरस्यैव सर्वकारणत्वं युक्तमित्याह सर्वज्ञ इति।

Sri Vallabhacharya

।।7.6।।अनयोरेव प्रकृतित्वं निर्वचनेन ज्ञापयन् स्वस्य तद्वाराऽसाधारणकार्यकारणत्वमाह एतद्योनीनीति। यत एव प्रकृष्टा कृतिरित्यत एतद्योनी एते एव जनिके येषां तानि स्थावरजङ्गमातमकान्युपधारय बुदध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहादिरूपेण परिणमते चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन क्षेत्रज्ञरूपेण तत्राविश्य व्यामोहिकया तां धारयति इति ते यतो मत्तः कारणभूतात् प्रयोजकाद्वा सम्भूते मद्रूपे अतोऽहमेव जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा घटपटादेर्भूरिव। प्रकृतिपुरुषद्वारा कारणमित्यर्थः।

Sridhara Swami

।।7.6।।अनयोः प्रकृतित्वं दर्शयन्स्वस्य तद्द्वारा सृष्ट्यादिकारणत्वमाह एतदिति। एते क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपे प्रकृती योनी कारणभूते येषां तान्येतद्योनीनि स्थावरजंगमात्मकानि सर्वाणि भूतानीत्युपधारय बुध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहरूपेण परिणमते। चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन देहेषु प्रविश्य स्वकर्मणा तानि धारयति। ते च मदीये प्रकृती मत्तः संभूते। अतोऽहमेव कृत्स्नस्य सप्रकृतिकस्य जगतः प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति प्रभवः। परं कारणमहमित्यर्थः। तथा प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ताप्यहमेवेति भावः।

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