Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 5 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Dual Nature of Reality

Sanskrit Shloka (Original)

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् | जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||७-५||

Transliteration

apareyamitastvanyāṃ prakṛtiṃ viddhi me parām . jīvabhūtāṃ mahābāho yayedaṃ dhāryate jagat ||7-5||

Word-by-Word Meaning

अपराlower
इयम्this
इतःfrom this
तुbut
अन्याम्different
प्रकृतिम्nature
विद्धिknow
मेMy
पराम्higher
जीवभूताम्the very lifeelement
महाबाहोO mightyarmed
ययाby which
इदम्this
धार्यतेis upheld

📖 Translation

English

7.5 This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna); know thou as different from it My higher Prakriti (Nature), the very life-element, by which this world is upheld.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.5।। हे महाबाहो ! यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो, जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your work, recognize that while material outputs, resources, and tasks are the 'inferior Prakriti' (tools and methods), the true value, innovation, and leadership come from the 'superior Prakriti' – your consciousness, intention, and life-force. Prioritize purpose, ethical application, and intrinsic motivation over mere material gain, understanding that your conscious input and spirit truly sustain and elevate your endeavors.

🧘 For Stress & Anxiety

When facing stress or mental health challenges, distinguish between the external, fleeting circumstances, thoughts, and emotions ('inferior Prakriti') and your inner, unchanging core consciousness or spirit ('superior Prakriti'). By shifting your focus from the chaotic outer or superficial inner world to this stable, life-giving essence within, you can find a deeper sense of resilience, peace, and mental clarity, realizing that your true self is untouched by transient pressures.

❤️ In Relationships

Approach relationships by looking beyond superficial appearances, roles, conflicts, or material exchanges ('inferior Prakriti'). Recognize the shared 'superior Prakriti' – the universal life-element or consciousness that resides within all beings. This perspective fosters deeper empathy, understanding, and genuine connection, allowing you to appreciate the intrinsic value and spirit in others, transcending temporary disagreements or external differences.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Recognize that beyond the transient material world, a higher, conscious life-force permeates and sustains all existence, including yourself.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.5 अपरा lower? इयम् this? इतः from this? तु but? अन्याम् different? प्रकृतिम् nature? विद्धि know? मे My? पराम् higher? जीवभूताम् the very lifeelement? महाबाहो O mightyarmed? यया by which? इदम् this? धार्यते is upheld? जगत् world.Commentary The eightfold Nature described in the previous verse is the inferior Nature. It constitutes the Kshetra or the field or matter. It is impure. It generates evil and causes bondage. But the superior Nature is pure. It is My very Self? Kshetrajna (knower of the field or Spirit) by which life is sustained? and that which enters within the whole world and upholds it. It is the very lifeelement or the principle of Selfconsciousness? by which this universe is sustained.

Shri Purohit Swami

7.5 This is My inferior Nature; but distinct from this, O Valiant One, know thou that my Superior Nature is the very Life which sustains the universe.

Dr. S. Sankaranarayan

7.5. This is the lower [nature of Mine]. Not different from this is My superior nature which has become the individual Soul and by which this world is maintained. O mighty armed (Arjuna), you must know this.

Swami Adidevananda

7.5 This is My lower Prakrti. But, O mighty-armed One, know that My higher nature is another. It is the life-principle (Jiva-bhuta), by which this universe is sustained.

Swami Gambirananda

7.5 O mighty-armed one, this is the inferior (Prakrti). Know the other Prakrti of Mine which, however, is higher than this, which has taken the from of individual souls, and by which this world is uphelp.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.5।। अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों।इस चेतन की विद्यमानता में ही उपाधियाँ अपना व्यापार कर सकती हैं अन्यथा नहीं। चैतन्य के बिना हमें न बाह्य स्थूल जगत् का और न आन्तरिक सूक्ष्म विचार रूप जगत् का ही अनुभव और ज्ञान हो सकता है। वही जगत् को धारण किये हुए है। उसके अभाव में हमारी दशा एक पाषाण के समान हो जायेगी जिसमें न चेननता है और न बुद्धिमत्ता।भगवान् के इस कथन को कि परा प्रकृति जगत् का आधार है भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करके भी सिद्ध किया जा सकता है। हम अपने घर में रहते हैं जिसका आधार है भूमि। उस भूमिभाग का आधार है शहर शहर का राष्ट्र और राष्ट्र का आधार विश्व है विश्व घिरा हुआ है समुद्र के जल से जिसकी स्थिति वायुमण्डल पर निर्भर करती है। यह वायुमण्डल तो सौरमण्डल अथवा ग्रहमण्डल का एक भाग है। सम्पूर्ण विश्व आकाश में स्थित है और आकाश स्थित है मन में स्थित आकाश की कल्पना पर। मन का आधार है बुद्धि का निर्णय। और क्योंकि बुद्धिवृत्तियों का ज्ञान चैतन्य के कारण ही संभव है इसलिए यह चैतन्य ही सम्पूर्ण जगत् का आधार सिद्ध होता है। व्ाही जगत् का अधिष्ठान है।दर्शनशास्त्र में जगत् का अर्थ केवल इन्द्रियगोचर जगत् ही नहीं वरन् मन तथा बुद्धि के द्वारा अनुभूयमान जगत् भी उस शब्द की परिभाषा मे समाविष्ट है। इस प्रकार बाह्य विषय भावनाएं और विचार ये सब जगत् ही हैं। यह सम्पूर्ण जगत् चेतनस्वरूप परा प्रकृति के द्वारा धारण किया जाता है।

Swami Ramsukhdas

।।7.5।। व्याख्या--'भूमिरापोऽनलो वायुः ৷৷. विद्धि मे पराम्'--परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृतिको लेकर सृष्टिकी रचना करते हैं (टिप्पणी प0 397.1)।   जिस प्रकृतिको लेकर रचना करते हैं, उसका नाम 'अपरा प्रकृति' है और अपना अंश जो जीव है, उसको भगवान् 'परा प्रकृति' कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनशील है।प्रत्येक मनुष्यका भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभावको मनुष्यसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते, ऐसे ही परमात्माकी प्रकृतिको परमात्मासे अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभुका ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है। इसी प्रकार परमात्माका अंश होनेसे जीवको परमात्मासे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि यह परमात्माका स्वरूप है। परमात्माका स्वरूप होनेपर भी केवल अपरा प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण इस जीवात्माको प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृतिके सम्बन्धसे अपनेमें कृति (करना) माननेके कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपनेमें कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है; फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता 18। 17)।यहाँ अपरा प्रकृतिमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार--ये आठ शब्द लिये गये हैं। इनमेंसे अगर पाँच स्थूल भूतोंसे स्थूल सृष्टि मानी जाय तथा मन, बुद्धि और अहंकार--इन तीनोंसे सूक्ष्म सृष्टि मानी जाय तो इस वर्णनमें स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि तो आ जाती है, पर कारणरूप प्रकृति इसमें नहीं आती। कारणरूप प्रकृतिके बिना प्रकृतिका वर्णन अधूरा रह जाता है। अतः आदरणीय टीकाकारोंने पाँच स्थूल भूतोंसे सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) को लिया है, जो कि पाँच स्थूल भूतोंकी कारण हैं। 'मन' शब्दसे अहंकार लिया है, जो कि मनका कारण है। 'बुद्धि' शब्दसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) और 'अहंकार' शब्दसे प्रकृति ली गयी है। इस प्रकार इन आठ शब्दोंका ऐसा अर्थ लेनसे ही समष्टि अपरा प्रकृतिका पूरा वर्णन होता है; क्योंकि इसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीनों समष्टि शरीर आ जाते हैं। शास्त्रोंमें इसी समष्टि प्रकृतिका 'प्रकृति-विकृति' के नामसे वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 397.2)। परन्तु यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि भगवान्ने यहाँ अपरा और परा प्रकृतिका वर्णन 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे नहीं किया है। यदि भगवान् 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे वर्णन करते तो चेतनको प्रकृतिके नामसे कहते ही नहीं; क्योंकि चेतन न तो प्रकृति है और न विकृति है। इससे सिद्ध होता ��ै कि भगवान्ने यहाँ जड और चेतनका विभाग बतानेके लिये ही अपरा प्रकृतिके नामसे जडका और परा प्रकृतिके नामसे चेतनका वर्णन किया है।यहाँ यह आशय मालूम देता है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--इन पाँच तत्त्वोंके स्थूलरूपसे स्थूल सृष्टि ली गयी है और इनका सूक्ष्मरूप जो पञ्चतन्मात्राएँ कही जाती हैं, उनसे सूक्ष्मसृष्टि ली गयी है। सूक्ष्मसृष्टिके अङ्ग मन, बुद्धि और अहंकार हैं। अहंकार दो प्रकारका होता है--(1) 'अहं-अहं' करके अन्तःकरणकी वृत्तिका नाम भी अहंकार है, जो कि करणरूप है। यह हुई 'अपरा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ चौथे श्लोकमें हुआ है और (2) 'अहम्रू'-पसे व्यक्तित्व, एकदेशीयताका नाम भी अहंकार है, जो कि कर्तारूप है अर्थात् अपनेको क्रियाओंका करनेवाला मानता है। यह हुई 'परा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ पाँचवें श्लोकमें हुआ है। यह अहंकार कारणशरीरमें तादात्म्यरूपसे रहता है। इस तादात्म्यमें एक जड-अंश है और एक चेतन-अंश है। इसमें जो जड-अंश है, वह कारण-शरीर है और उसमें जो अभिमान करता है, वह चेतन-अंश है। जबतक बोध नहीं होता, तबतक यह जड-चेतनके तादात्म्यवाला कारण-शरीरका 'अहम्' कर्तारूपसे निरन्तर बना रहता है। सुषुप्तिके समय यह सुप्तरूपसे रहता है अर्थात् प्रकट नहीं होता। नींदसे जगनेपर 'मैं सोया था, अब जाग्रत् हुआ हूँ 'इस प्रकार 'अहम्' की जागृति होती है। इसके बाद मन और बुद्धि जाग्रत् होते हैं; जैसे--मैं कहाँ हूँ, कैसे हूँ--यह मनकी जागृति हुई और मैं इस देशमें, इस समयमें हूँ--ऐसा निश्चय होना बुद्धिकी जागृति हुई। इस प्रकार नींदसे जगनेपर जिसका अनुभव होता है, वह 'अहम्' परा प्रकृति है और वृत्तिरूप जो अहंकार है, वह अपरा प्रकृति है। इस अपरा प्रकृतिको प्रकाशित करनेवाला और आश्रय देनेवाला चेतन जब अपरा प्रकृतिको अपनी मान लेता है तब वह जीवरूप परा प्रकृति होती है--'ययेदं धार्यते जगत्।' अगर यह परा प्रकृति अपरा प्रकतिसे विमुख होकर परमात्माके ही सम्मुख हो जाय, परमात्माको ही अपना माने और अपरा प्रकृतिको कभी भी अपना न माने अर्थात् अपरा प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धरहित होकर निर्लिप्तताका अनुभव कर ले तो इसको अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। स्वरूपका बोध हो जानेपर परमात्माका प्रेम प्रकट हो जाता है (टिप्पणी प0 398), जो कि पहले अपरा प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेसे आसक्ति और कामनाके रूपमें था। वह प्रेम अनन्त, अगाध, असीम, आनन्दरूप और प्रतिक्षण वर्धमान है। उसकी प्राप्ति होनेसे यह परा प्रकृति प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाती है, अपने असङ्गरूपका अनुभव होनेसे ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाती है और अपरा प्रकृतिको संसारमात्रकी सेवामें लगाकर संसारसे सर्वथा विमुख होनेसे कृतकृत्य हो जाती है। यही मानव-जीवनकी पूर्णता है, सफलता है।'प्रकृतिरष्टधा अपरेयम्'पदोंसे ऐसा मालूम देता है कि यहाँ जो आठ प्रकारकी अपरा प्रकृति कही गयी है, वह 'व्यष्टि अपरा प्रकृति' है। इसका कारण यह है कि मनुष्यको व्यष्टि प्रकृति--शरीरसे ही बन्धन होता है, समष्टि प्रकृतिसे नहीं। कारण कि मनुष्य व्यष्टि शरीरके साथ अपनापन कर लेता है, जिससे बन्धन होता है।व्यष्टि कोई अलग तत्त्व नहीं है, प्रत्युत समष्टिका ही एक क्षुद्र अंश है। समष्टिसे माना हुआ सम्बन्ध ही व्यष्टि कहलाता है अर्थात् समष्टिके अंश शरीरके साथ जीव अपना सम्बन्ध मान लेता है, तो वह समष्टिका अंश शरीर ही 'व्यष्टि' कहलाता है। व्यष्टिसे सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। इस बन्धनसे छुड़ानेके लिये भगवान्ने आठ प्रकारकी अपरा प्रकृतिका वर्णन करके कहा है कि जीवरूप परा प्रकृतिने ही इस अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है। यदि धारण न करे तो बन्धनका प्रश्न ही नहीं है।            पंद्रहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने जीवात्माको अपना अंश कहा है--'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।'परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित रहनेवाले मन और पाँचों इन्द्रियोंको खींचता है अर्थात् उनको अपनी मानता है--'मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।' इसी तरह तेरहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्ररूपसे समष्टिका वर्णन करके छठे श्लोकमें व्यष्टिके विकारोंका वर्णन किया; क्योंकि ये विकार व्यष्टिके ही होते हैं, समष्टिके नहीं। इन सबसे यही सिद्ध हुआ कि व्यष्टिसे सम्बन्ध जोड़ना ही बाधक है। इस व्यष्टिसे सम्बन्ध तोड़नेके लिये ही यहाँ व्यष्टि अपरा प्रकृतिका वर्णन किया गया है, जो कि समष्टिका ही अङ्ग है। व्यष्टि प्रकृति अर्थात् शरीर समष्टि सृष्टिमात्रके साथ सर्वथा अभिन्न है, भिन्न कभी हो ही नहीं सकता।वास्तवमें मूल प्रकृति कभी किसीकी बाधक या साधक (सहायक) नहीं होती। जब साधक उससे अपना सम्बन्ध नहीं मानता, तब तो वह सहायक हो जाती है, पर जब वह उससे अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बाधक हो जाती है; क्योंकि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे व्यष्टि अहंता (मैं-पन) पैदा होती है। यह अहंता ही बन्धनका कारण होती है।        यहाँ 'इतीयं मे'पदोंसे भगवान् यह चेता रहे हैं कि यह अपरा प्रकृति मेरी है। इसके साथ भूलसे अपनापन कर लेना ही बार-बार जन्म-मरणका कारण है; और जो भूल करता है, उसीपर भूलको मिटानेकी जिम्मेवारी होती है। अतः जीव इस अपराके साथ अपनापन न करे। अहंतामें भोगेच्छा और जिज्ञासा--ये दोनों रहती हैं। इनमेंसे भोगेच्छाको कर्मयोगके द्वारा मिटाया जाता है और जिज्ञासाको ज्ञानयोगके द्वारा पूरा किया जाता है। कर्मयोग और ज्ञानयोग--इन दोनोंमेंसे एकके भी सम्यक्तया पूर्ण होनेपर एक-दूसरेमें दोनों आ जाते हैं (गीता 5। 4 5) अर्थात् भोगेच्छाकी निवृत्ति होनेपर जिज्ञासाकी भी पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर भोगेच्छाकी भी निवृत्ति हो जाती है। कर्मयोगमें भोगेच्छा मिटनेपर तथा ज्ञानयोगमें जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर असङ्गता स्वतः आ जाती है। उस असङ्गताका भी उपभोग न करनेपर वास्तविक बोध हो जाता है और मनुष्यका जन्म सर्वथा सार्थक होजाता है।'जीवभूताम्'--वास्तवमें यह जीवरूप नहीं है, प्रत्युत जीव बना हुआ है। यह तो स्वतः साक्षात् परमात्माका अंश है। केवल स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही यह जीव बना है। यह सम्बन्ध जोड़ता है--अपने सुखके लिये। यही सुख इसके जन्म-मरणरूप महान् दुःखका खास कारण है।'महाबाहो'--हे अर्जुन ! तुम बड़े शक्तिशाली हो, इसलिये तुम अपरा और परा प्रकृतिके भेदको समझनेमें समर्थ हो। अतः तुम इसको समझो--'विद्धि।' 'ययेदं धार्यते जगत्' (टिप्पणी प0 399)--वास्तवमें यह जगत् जगद्रूप नहीं है, प्रत्युत भगवान्का ही स्वरूप है--'वासुदेवः सर्वम्'(7। 19) 'सदसच्चाहम्'(9। 19)। केवल इस परा प्रकृति--जीवने इसको जगत्-रुपसे धारण कर रखा है अर्थात् जीव इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर अपने सुखके लिये इसका उपोयग करने लग गया। इसीसे जीवका बन्धन हुआ है। अगर जीव संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न मानकर इसको केवल भगवत्स्वरूप ही माने तो उसका जन्म-मरणरूप बन्धन मिट जायगा।भगवान्की परा प्रकृति होकर भी जीवात्माने इस दृश्यमान जगत्-को जो कि अपरा प्रकृति है, धारण कर रखा है अर्थात् इस परिवर्तनशील, विकारी जगत्को स्थायी, सुन्दर और सुखप्रद मानकर 'मैं' और 'मेरे'-रूपसे धारण कर रखा है। जिसकी भोगों और पदार्थोंमें जितनी आसक्ति है, आकर्षण है, उसको उतना ही संसार और शरीर स्थायी, सुन्दर और सुखप्रद मालूम देता है। पदार्थोंका संग्रह तथा उनका उपभोग करनेकी लालसा ही खास बाधक है। संग्रहसे अभिमानजन्य सुख होता है और भोगोंसे संयोगजन्य सुख होता है। इस सुखासक्तिसे ही जीवने जगत्को जगत्-रुपसे धारण कर रखा है। सुखासक्तिके कारण ही वह इस जगत्को भगवत्स्वरूपसे नहीं देख सकता। जैसे स्त्री वास्तवमें जनन-शक्ति है; परन्तु स्त्रीमें आसक्त पुरुष स्त्रीको मातृरूपसे नहीं देख सकता, ऐसे ही संसार वास्तवमें भगवत्स्वरूप है; परंतु संसारको अपना भोग्य माननेवाला भोगासक्त पुरुष संसारको भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत्को धारण कराती है अर्थात् जगत्को धारण करानेमें हेतु है।      दूसरी बात, मात्र मनुष्योंके शरीरोंकी उत्पत्ति रज-वीर्यसे ही होती है, जो कि स्वरूपसे स्वतः ही मलिन है। परंतु भोगोंमें आसक्त पुरुषोंकी उन शरीरोंमें मलिन बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत रमणीय बुद्धि होती है। यह रमणीय बुद्धि ही जगत्को धारण कराती है।नदीके किनारे खड़े एक सन्तसे किसीने कहा कि 'देखिये महाराज ! यह नदीका जल बह रहा है और उस पुलपर मनुष्य बह रहे हैं।' सन्तने उससे कहा कि 'देखो भाई! नदीका जल ही नहीं खुद नदी भी बह रही है और पुलपर मनुष्य ही नहीं, खुद पुल भी बह रहा है।' तात्पर्य यह हुआ कि ये नदी, पुल तथा मनुष्य बड़ी तेजीसे नाशकी तरफ जा रहे हैं। एक दिन न यह नदी रहेगी, न यह पुल रहेगा और न ये मनुष्य रहेंगे। ऐसे ही यह पृथ्वी भी बह रही है अर्थात् प्रलयकी तरफ जा रही है। इस प्रकार भावरूपसे दीखने-वाला यह सारा जगत् प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है; परन्तु जीवने इसको भावरूपसे अर्थात् 'है' रूपसे धारण (स्वीकार) कर रखा है। परा प्रकृतिकी (स्वरूपसे) उत्पत्ति नहीं होती; पर अपरा प्रकृतिके साथ तादात्म्य करनेके कारण यह शरीरकी उत्पत्तिको अपनी उत्पत्ति मान लेता है और शरीरके नाशको अपना नाश मान लेता है, जिससे यह जन्मता-मरता रहता है। अगर यह अपराके साथ सम्बन्ध न जोड़े, इससे विमुख हो जाय अर्थात् भावरूपसे इसको सत्ता न दे तो जगत् सत्-रुपसे दीख ही नहीं सकता।'इदम्'पदसे शरीर और संसार--दोनों लेने चाहिये; क्योंकि शरीर और संसार अलग-अलग नहीं हैं। तत्त्वतः (धातु चीज) एक ही है। शरीर और संसारका भेद केवल माना हुआ है, वास्तवमें अभेद ही है। इसलिये तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने 'इदं शरीरम्' पदोंसे शरीरको क्षेत्र बताया (13। 1); परन्तु जहाँ क्षेत्रका वर्णन किया है, वहाँ समष्टिका ही वर्णन हुआ है (13। 5) और इच्छा-द्वेषादि विकार व्यष्टिके माने गये हैं (13। 6); क्योंकि इच्छा आदि विकार व्यष्टि प्राणीके ही होते हैं। तात्पर्य है कि समष्टि और व्यष्टि तत्त्वतः एक ही हैं। एक होते हुए भी अपनेको शरीर माननेसे 'अहंता' और शरीरको अपना माननेसे 'ममता' पैदा होती है, जिससे बन्धन होता है। अगर शरीर और संसारकी अभिन्नताका अथवा अपनी और भगवान्की अभिन्नताका साक्षात् अनुभव हो जाय तो अहंता और ममता स्वतः मिट जाती है। ये अहंता और ममता कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग--तीनोंसे ही मिटती हैं। कर्मयोगसे--'निर्ममो निरहंकारः' (गीता 2। 71) ज्ञानयोगसे--'अहंकारं ৷৷. विमुच्य निर्ममः' (गीता 18। 53) और भक्तियोगसे 'निर्ममो निरहंकारः' (गीता 12। 13)। तात्पर्य है कि जडताके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होना चाहिये, जो कि केवल माना हुआ है। अतः विवेक-पूर्वक न माननेसे अर्थात् वास्तविकताका अनुभव करनेसे वह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। विशेष बात जैसे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध होता है, तो इसमें गुरु शिष्यको अपना शिष्य मानता है। शिष्य गुरुको अपना गुरु मानता है। इस प्रकार गुरु अलग है और शिष्य अलग है अर्थात् उन दोनोंकी अलग-अलग सत्ता दीखती है। परन्तु उन दोनोंके सम्बन्धसे एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है, जिसको 'सम्बन्धकी सत्ता' कहते हैं (टिप्पणी प0 400)। ऐसे ही साक्षात् परमात्माके अंश जीवने शरीर-संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। इस सम्बन्धके कारण एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है जिसको 'मैं'-पन कहते हैं। सम्बन्धकी यह सत्ता ('मैं'-पन) केवल मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं। जीव भूलसे इस माने हुए सम्बन्धको सत्य मान लेता है अर्थात् इसमें सद्भाव कर लेता है और बँध जाता है। इस प्रकार जीव संसारसे नहीं, प्रत्युत संसारसे माने हुए सम्बन्धसे ही बँधता है।गुरु और शिष्यमें तो दोनोंकी अलग-अलग सत्ता है और दोनों एक-दूसरेसे सम्बन्ध मानते हैं; परन्तु जीव (चेतन) और संसार (जड)--इन दोनोंमें केवल एक जीवकी ही वास्तविक सत्ता है और यही भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानता है। संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है; अतः उससे माना हुआ सम्बन्ध भी प्रतिक्षण स्वतः नष्ट हो रहा है। ऐसा होते हुए भी जबतक संसारमें सुख प्रतीत होता है तबतक उससे माना हुआ सम्बन्ध स्थायी प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि संसारसे माना हुआ सम्बन्ध सुखासक्तिपर ही टिका हुआ है। संसारसे सुखासक्तिपूर्वक माने हुए सम्बन्धके कारण ही संसार अप्राप्त होनेपर भी प्राप्त और परमात्मा प्राप्त होनेपर भी अप्रप्त प्रतीत हो रहे हैं। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही परमात्माके वास्तविक सम्बन्धका अथवा संसारकी अप्राप्ति और परमात्माकी प्राप्तिका अनुभव हो जाता है।    'मैं'-पनको मिटानेके लिये साधक प्रकृति और प्रकृतिके कार्यको न तो अपना स्वरूप समझे, न उससे कुछ मिलनेकी इच्छा रखे और न हि अपने लिये कुछ करे। जो कुछ करे, वह सब केवल संसारकी सेवाके लिये ही करता रहे। तात्पर्य है कि जो कुछ प्रकृतिजन्य पदार्थ हैं, उन सबकी संसारके साथ एकता है; अतः उनको केवल संसारका मानकर संसारकी ही सेवामें लगाता रहे। इससे क्रिया और पदार्थोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है और अपना स्वरूप अवशिष्ट रह जाता है अर्थात् अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। यह कर्मयोग हुआ। ज्ञानयोगमें विवेक-विचारपूर्वक प्रकृतिके कार्य पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर स्वरूपका बोध हो जाता है। इस प्रकार जडके सम्बन्धसे जो अहंता ('मैं'-पन) पैदा हुई थी, उसकी निवृत्ति हो जाती है।भक्तियोगमें 'मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं तथा मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं हैं'--ऐसी दृढ़ मान्यता करके भक्त संसारसे विमुख होकर केवल भगवत्परायण हो जाता है, जिससे संसारका सम्बन्ध स्वतः टूट जाता है और अहंताकी निवृत्ति हो जाती है।इस प्रकार कर्मयोग ज्ञानयोग, और भक्तियोग--इन तीनोंमेंसे किसी एकका भी ठीक अनुष्ठान करनेपर जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि परा प्रकृतिने अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है। उसीका स्पष्टीकरण करनेके लिये अब आगेका श्लोक कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।7.5।। हे महाबाहो ! यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो, जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.5।।अपराऽनुत्तमा। वक्ष्यमाणामपेक्ष्य जीवभूता श्रीः जीवानां प्राणधारिणी चिद्रूपभूता सर्वदा सती एतन्महइदं महद्भूतम् बृ.उ.2।4।12 इति श्रुतेः। जगाद चप्रकृती द्वे तु देवस्य जडा चैवाजडा तथा। अव्यक्ताख्या जडा सा च सृष्ट्या भिन्नाष्टधा पुनः। महान्बुद्धिर्मनश्चैव पञ्चभूतानि चेति ह। अवरा सा जडा श्रीश्च परेयं धार्यते तथा। चिद्रूपा सा त्वनन्ता च अनादिनिधना परा। यत्समं तु प्रियं किञ्चिन्नास्ति विष्णोर्महात्मनः। नारायणस्य महिषी माता सा ब्रह्मणोऽपि हि। ताभ्यामिदं जगत्सर्वं हरिः सुज्ञति भूतराड्। इति नारदीये।

Sri Anandgiri

।।7.5।।अचेतनवर्गमेकीकर्तुं प्रकृतेरष्टधा परिणाममभिधाय विकारावच्छिन्नकार्यकल्पं चेतनवर्गमेकीकर्तुं पुरुषस्य चैतन्यस्याविद्याशक्त्यवच्छिन्नस्यापि प्रकृतित्वमुक्तां प्रकृतिमनूद्य दर्शयति अपरेति। निकृष्टत्वं स्पष्टयति अनर्थकरीति। अनर्थकरत्वमेव स्फोरयति संसारेति। कथंचिदप्यनन्यत्वव्यावृत्त्यर्थस्तुशब्दः। अन्यामत्यन्तविलक्षणामिति यावत्। अन्यत्वमेव स्पष्टयति विशुद्धामिति। प्रकृतिशब्दस्यान्यप्रयुक्तस्यार्थान्तरमाह ममेति। प्रकृष्टत्वमेव भोक्तृत्वेन स्पष्टयति जीवभूतामिति। प्रकृत्यन्तरादस्याः प्रकृतेरवान्तरविशेषमाह ययेति। नहि जीवरहितं जगद्धारयितुं शक्यमित्याशयेनाह अन्तरिति।

Sri Vallabhacharya

।।7.5।।अपरेति इतस्त्वन्यामजडां चित्स्वरूपां परां भोक्तृत्वेन प्रधानभूतां पुरुषत्वेन निर्दिष्टामत्र जीवभूतां मे प्रकृतिं चिदंशभूतां विद्धि। अत्र जीवः पूर्वमविद्यया क्रियत इत्ययुक्तम्। तथा सति जीवीभूतामिति स्यात्पुत्रीभूतइतिवत्। जीवत्वं च नाविद्याकृतं किन्तु भगवता सहजेच्छया कृतं विभागस्याविद्याकृतत्वे मानाभावात्।सच्चिदानन्दरूपो हि भगवान्पुरुषोत्तमः। एककोटिनिविष्टश्चिद्रूपश्चाक्षरतः परः।। तस्य माया द्विविधेति पूर्वं निरूपितम्। तत्र चिद्रूपस्य या माया सा व्यामोहिका स्वपुरुषं व्यामोहियत्वा जीवतामापादयति। जीवतीति जीवः केवलप्राणधारणप्रयत्नवान् तृतीयस्कन्धे अ.30 मायया जीवतापन्नतया तथानिरूपणात्। स हि मायया व्यामोहितः व्याकुलः सन् सदानन्दकृतसृष्टौ यः सूत्रात्मक आसन्यो दशविधप्राणरूपस्तमवलम्ब्य तिष्ठति तदा जीव इत्युच्यते।जीव प्राणधारणे इति धातोः कर्त्तरि अन्प्रत्ययः। बोधरूपोऽप्ययं आनन्दरूपस्य पृथग्भूतत्वादानन्दार्थं तया व्यामोहितस्तत्सम्बन्धादानन्दो भविष्यतीति बुद्ध्या तया सम्पद्यते।अयं च विभागः बहु स्यां प्रजायेय छां.उ.6।2।3 इतीच्छया। इच्छाऽपि तस्य सर्वभवनसमर्था स्वरूपमेवधर्मरूपेणाभवत् इच्छारूपेणापि भवति। तत्र सदंशस्य क्रियारूपा शक्तिः चिदंशस्य व्यामोहिका माया आनन्दरूपस्य जगत्कारणभूता एतत्ित्रतयरूपा शक्तिः सच्चिदानन्दरूपस्य भावः नत्वतलादिवाच्यः तथा भगवतो भावस्वरूपादेव निर्मितत्वात्। न च सर्वदा भवतीति शङ्कनीयम् आपादकहेतुभूतकालस्य अभावात्। जाते पुनः काले तस्यैव नियामकत्वात्। न सर्वदा भविष्यति पूर्वमेव जातत्वात्। तत्सङ्गे इच्छादीनामपि जातत्वादिच्छादयस्तदंशभूतांस्तान्सदैकरूपान् स्थापयन्ति। तथा च तस्या अंशं प्रतिगृह्णाति स भगवान्। इच्छारूपः स एव कामः सोऽकामयत बृ.उ.1।2।467 इत्युक्तः। तया कृत्वा भेदरूपया सच्चिदानन्दधर्माः स्वयं भिद्यमानाः स्वाश्रयमपि भिन्दन्ति तदा स भगवान् सर्वतः पाणिपादान्तो भवति साकारतां चापद्यते भिन्नोऽपि तथामिलितोऽभिन्न इवाखण्डो भवति तदपेक्षया कार्यरूपस्याल्पत्वात्। तानि त्रीण्यपि रूपाणि पूर्णशब्देनोच्यन्ते। अत एव सद्रूपस्य कार्ये प्रत्येकपर्यवसायित्वम्।प्रजायेय इतीच्छयोत्कर्षापकर्षरूपेण जातः तत्र आनन्द उत्कृष्टः तदेतरौ तं सेवमानौ जातौ ततश्च तयोर्धर्मौ ज्ञानक्रिये भगवच्छक्तिरूपे ज्ञाते तदा स आनन्दज्ञानक्रियाशक्तिमान् जातः तदा चिदंशस्य शक्तिः आनन्दे गतत्वात् ज्ञानधर्मस्य तं व्यामोहयति तदा तस्य जीवत्वम्। सदंशस्तु क्रियाशक्तेर्गतत्वादव्यक्ततामापद्यते। पश्चान्मूलभूतिक्रियांशाभिर्यथायथं अभिव्यज्यते। पश्चात्तस्यां तत्कृतधर्मे वा तिरोहिते स्वयमपि तिरोभवति तदा तस्यां मूलेच्छया जातः शब्दोऽभिव्यक्तस्तिष्ठति जीवभगवद्बुद्धिषु जीवे भगवति च। एवं चिद्रूपोऽपि ज्ञानशक्त्यंशभूतैर्ज्ञानैरभिव्यज्यते तिरोभवति च। प्रयत्नस्तु तस्यापराधीन इति स जीवग्रहणार्थं सर्वदा तिष्ठति। स चेद्भगवांस्तस्मै तां पूर्णां ज्ञानशक्तिं प्रयच्छेत् तदा तां व्यामोहिकां मायां त्यजति प्रयत्नं च स्वरूपे चावतिष्ठति अपराधीनश्च भवति। जगत्कर्तृत्वं तु न भवति तस्य सा मायाशक्तिर्न भवति यतः आनन्दस्यैवोत्कृष्टत्वात्। हीनता तु आपाततो वर्तते आनन्देन सह मिलितस्त्वानन्दोऽपि भवति। स चेत्स्वधर्मेण संगृह्णीयात्। यथोक्तं विष्णुपुराणे 6।7।61विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथाऽपरा। अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या तृतीया शक्तिरिष्यते। इति। इयं प्रक्रिया सर्वश्रुतिवाक्यानुरोधेन श्रुतार्थापत्तिसिद्धा सर्वत्रैवोपयुज्यते अन्यथा प्रक्रियावाक्यानि बाधते इति श्रीमदाचार्योक्तपदव्याख्या। जीवभूतो भगवदंशः ययेदं जगत् शरीरं जडं सदसन्मिश्रितं विराड्रूपं धार्यते तां मे परां प्रकृतिं विद्धि।

Sridhara Swami

।।7.5।।अपरामिमां प्रकृतिमुपसंहरन्परां प्रकृतिमाह अपरेति। अष्टधोक्ता या प्रकृतिरियमपरा निकृष्टा जडत्वात्परार्थत्वाच्च इतः सकाशात्परां प्रकृष्टामन्यां जीवस्वरूपां मे प्रकृतिं विद्धि जानीहि। परत्वे हेतुः यया चेतनया क्षेत्रज्ञरूपया स्वकर्मद्वारेणेदं जगद्धार्यते।

Explore More