Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 23 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Emotional Mastery

Sanskrit Shloka (Original)

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् | कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ||५-२३||

Transliteration

śaknotīhaiva yaḥ soḍhuṃ prākśarīravimokṣaṇāt . kāmakrodhodbhavaṃ vegaṃ sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ ||5-23||

Word-by-Word Meaning

शक्नोतिis able
इहhere (in this world)
एवeven
यःwho
सोढुम्to withstand
प्राक्before
शरीरविमोक्षणात्liberation from the body
कामक्रोधोद्भवम्born out of desire and anger
वेगम्the impulse
सःhe
युक्तःunited
सःhe
सुखीhappy

📖 Translation

English

5.23 He who is able, while still here (in this world) to withstand, before the liberation from the body, the impulse born out of desire and anger he is a Yogi, he is a happy man.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.23।। जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है,  वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In a professional setting, mastering impulses of desire (e.g., ambition turning into greed, attachment to outcomes) and anger (e.g., frustration with colleagues, setbacks, or competition) allows for strategic, calm decision-making rather than reactive, impulsive ones. It fosters resilience, reduces burnout, and enables one to navigate challenges with equanimity, leading to sustained performance and satisfaction beyond fleeting achievements.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse provides a direct antidote to stress and mental agitation. By learning to withstand the urges of desire (e.g., wanting things to be different, incessant cravings) and anger (e.g., irritation, resentment towards circumstances or people), individuals can prevent these emotions from overwhelming their mental landscape. This practice cultivates inner calm, emotional stability, and the ability to respond thoughtfully to stressors instead of reacting impulsively, thereby significantly improving mental health and reducing anxiety.

❤️ In Relationships

Effective relationship management hinges on controlling the impulses of desire and anger. Unchecked desire can manifest as unrealistic expectations, possessiveness, or jealousy, while uncontrolled anger can lead to arguments, resentment, and fractured bonds. By practicing restraint and emotional regulation, individuals can foster empathy, communicate more constructively, resolve conflicts peacefully, and build stronger, more harmonious connections free from the corrosive effects of reactive emotions.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Mastering your reactions to desire and anger in this life, before death, is the direct path to lasting inner peace and true happiness.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.23 शक्नोति is able? इह here (in this world)? एव even? यः who? सोढुम् to withstand? प्राक् before? शरीरविमोक्षणात् liberation from the body? कामक्रोधोद्भवम् born out of desire and anger? वेगम् the impulse? सः he? युक्तः united? सः he? सुखी happy? नरः man.Commentary Yukta means harmonised or steadfast in Yoga or selfabiding.Desire and anger are powerful enemies of peace. It is very difficult to annihilate them. You will have to make very strong efforts to destroy these enemies.When the word Kama (desire) is used in a general sense it includes all sorts of desires. It means lust in a special sense.While still here means while yet living. The impulse of desire is the agitation of the mind which is indicated by hairs standing on end and cheerful face. The impulse of anger is agitation of the mind which is indicated by fiery eyes? perspiration? biting of the lips and trembling of the body. In this verse you will clearly understand that he who has controlled desire and anger is the most happy man in this world? nor he who has immense wealth? a beautiful wife and beautiful children. Therefore you must try your level best to eradicate desire and anger? the dreadful enemies of eternal bliss.Kama (desire) is longing for a pleasant and agreeable object which gives pleasure and which is seen? heard of? or remembered. Anger is aversion towards an unpleasant and disagreeable object which gives pain and which is seen? heard or? or remembered.A Yogi controls the impulse born of desire and anger? destroyes the currents of likes and dislikes,and attains to eanimity of the mind? by resting in the innermost Self? and so he is very happy.(Cf.VI.18)

Shri Purohit Swami

5.23 He who, before he leaves his body, learns to surmount the promptings of desire and anger is a saint and is happy.

Dr. S. Sankaranarayan

5.23. He, whose pleasure, delight and again light are just within-O son of Prtha ! he attains the supreme Yoga, himself becoming the Brahman.

Swami Adidevananda

5.23 He who is able, even here, before he is released from the body, to bear the impulse generated by desire and wrath, he is a Yogin (competent for self-realisation); he is the happy man.

Swami Gambirananda

5.23 One who can withstand here itself-before departing from the body-the impulse arising from desire and anger, that man is a yogi; he is happy.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.23।। भगवान् स्वयं अनुभव करते हैं कि उनके द्वारा ज्ञानी पुरुष का कुछ अत्यधिक उत्साह से किया हुआ वर्णन साधकों को असम्भव सा प्रतीत हो सकता है। कारण यह है कि मनुष्य़ का वर्तमान जीवन इतना अधिक दुखपूर्ण और परावलम्बी है कि साधारण मनुष्य पूर्ण आनन्द के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि कोई दर्शन ऐसा आदर्शवादी है जिसका हमारे व्यवहारिक जगत् से कोई सम्बन्ध ही न हो तो वह केवल एक मनोरंजक कल्पना तो हो सकता है परन्तु मनुष्य को श्रेष्ठतर बनाने की सार्मथ्य उसमें नहीं होगी।ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण सभी साधकों को यह कह कर आश्वस्त करते हैं कि आवश्यक प्रयत्नों के द्वारा इस आनन्दपूर्ण जीवन को इसी लोक में रहकर जिया जा सकता है।मेरे पितामह एक महान् वीणा वादक थे। आज तक उनकी वीणा घर में सुरक्षित रखी है। संगीत से मेरा भी प्रारम्भिक परिचय होने के कारण एक दिन अचानक मेरे मन में विचार आया कि क्यों न पितामह की वीणा का उपयोग कर रातोंरात महान् संगीतज्ञ बना जाय यह विचार करके यदि उस वीणा को मैं उसी स्थिति में बजाने का प्रयत्न करूँ तो उसमें से शुद्ध संगीत नहीं सुनाई पड़ सकता और हो सकता है कि उसके साथ अधिक खिलवाड़ करने से वह टूट ही जाय। उस वाद्य का उपयोग करने से पूर्व आवश्यकता है उसे स्वच्छ करने की उसके तार बदलने की और उसे स्वर में मिलाने की। इन सबके सुव्यवस्थित होने पर उसी वीणा पर मधुर संगीत सुना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अनादि काल से उपेक्षित हमारा अन्तकरण इस योग्य नहीं रहा है कि पूर्णत्व के गान को वह गा सके। अब हमको चाहिये कि साधनाभ्यास से उसे शुद्ध और सुव्यवस्थित करें जिससे उसमें पूर्ण आनन्द की अनुभूति हो और वह आनन्द उसके माध्यम से व्यक्त हो सके।अन्तकरण को पुर्नव्यवस्थित करने की विधि का वर्णन यहाँ भगवान् संक्षेप में किन्तु सुन्दर ढंग से कर रहे हैं। कभीकभी उनके कथन की संक्षिप्तता और सरलता ही उनके गम्भीर अभिप्राय को समझने में बाधक सी बन जाती है। उनके उपदेश में सरलता का आभास होता है परन्तु अर्थ गाम्भीर्य रहता है। काम और क्रोध के वेग को सहन करो और फिर वह व्यक्ति इसी जगत् और जीवन में योगी और सुखी है।सिगमण्ड फ्रायड के आधुनिक विद्यार्थियों तथा अन्य पुरुषों को भगवान् का कथन अवैज्ञानिक और रुक्ष उत्साह का प्रतीक प्रतीत हो सकता है। इसका कारण केवल यही है कि मानव व्यवहार तथा मनोविज्ञान की सतही बातों से उनके मन में अनेक धारणाएँ बन चुकी होती हैं पूर्वाग्रह दृढ़ हो गये होते हैं। परन्तु उक्त विचार की सम्यक् समीक्षा करने पर हम देखेंगे कि उसमें जीवन को सुखपूर्ण बनाने के लिए अत्यन्त उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।बुद्धिरूपी पर्वत शृंग से नीचे की ओर तीव्रगति से सरकती हुई विचारों की हिमराशि का नाम है कामना जो हृदय रूपी घाटियों से गुजरती हुई बाह्य जगत् में स्थित प्रिय विषय की ओर अग्रसर होती है। जब विचाररूपी हिमराशि के फिसलन मार्ग पर शक्तिशाली अवरोधक लगा दिया जाता है तब उस अवरोधक तक शीघ्र ही पहुँचकर छिन्नभिन्न होकर वह आत्मविनाश का रूप धारण करती है जिसे कहते हैं क्रोध। काम और क्रोध यही दो वृत्तियां है जो साधारणत हमारे मन में अत्यन्त विक्षेप या क्षोभ उत्पन्न करती हैं। कामना की तीव्रता जितनी अधिक होती है उसमें विघ्न आने पर क्रोध का रूप भी उतना भयंकर होता है।मनुष्य विषयों की कामना केवल सुखप्राप्ति के लिये ही करता है। जिस व्यक्ति ने यह समझ लिया कि विषयों में सुख नहीं होता और आनन्द तो स्वयं का आत्मस्वरूप ही है वह व्यक्ति इन उपभोगों से विरक्त होकर स्वरूप में स्थित होने का प्रयत्न करेगा। ऐसे व्यक्ति के मन में विषयों की कामनाएँ नहीं होंगी और स्वाभाविक है कि उनके अभाव में क्रोध उत्पन्न होने के लिए कारण ही नहीं रह जायेगा। जिसने इन दो शक्तिशाली एवं दुर्जेय वृत्तियों को अपने वश में कर लिया है वही एक पुरुष इस जगत् के प्रलोभनों में स्वतन्त्ररूप से अप्रभावित रह सकता है। वही वास्तव में सुखी पुरुष है।अर्जुन के माध्यम से भगवान् का हम सबके लिये यही उपदेश है कि हमें काम और क्रोध को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। उनका आश्वासन है कि इन पर विजय प्राप्त करने पर हम इसी जगत् और जीवन में परमानन्द का अनुभव कर सकते हैं।किन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होता है भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.23।। व्याख्या--'शक्नोतीहैव यः ৷৷. कामक्रोधोद्भवं वेगम्'--प्राणिमात्रको एक अलौकिक विवेक प्राप्त है। यह विवेक पशु-पक्षी आदि योनियोंमें प्रसुप्त रहता है। उनमें केवल अपनी-अपनी योनिके अनुसार शरीर-निर्वाहमात्रका विवेक रहता है। देव आदि योनियोंमें यह विवेक ढका रहता है; क्योंकि वे योनियाँ भोगोंके लिये मिलती हैं; अतः उनमें भोगोंकी बहुलता तथा भोगोंका उद्देश्य रहता है। मनुष्ययोनिमें भी भोगी और संग्रही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। ढके रहनेपर भी यह विवेक मनुष्यको समय-समयपर भोग और संग्रहमें दुःख एवं दोषका दर्शन कराता रहता है। परन्तु इसे महत्त्व न देनेके कारण मनुष्य भोग और संग्रहमें फँसा रहता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह इस विवेकको महत्त्व देकर इसे स्थायी बना ले। इसकी उसे पूर्ण स्वतन्त्रता है। विवेकको स्थायी बनाकर वह राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंको सर्वथा समाप्त कर सकता है। इसलिये भगवान् 'इह' पदसे मनुष्यको सावधान करते हैं कि अभी उसे ऐसा दुर्लभ अवसर प्राप्त है, जिसमें वह काम-क्रोधपर विजय प्राप्त करके सदाके लिये सुखी हो सकता है।मनुष्य-शरीर मुक्त होनेके लिये ही मिला है। इसलिये मनुष्यमात्र काम-क्रोधका वेग सहन करनेमें योग्य, अधिकारी और समर्थ है। इसमें किसी वर्ण, आश्रम आदिकी उपेक्षा भी नहीं है।मृत्युका कुछ पता नहीं कि कब आ जाय; अतः सबसे पहले काम-क्रोधके वेगको सहन कर लेना चाहिये। काम-क्रोधके वशीभूत नहीं होना है--यह सावधानी जीवनभर रखनी है। यह कार्य मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। इस कार्यको करनेका अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है, दूसरे शरीरोंमें नहीं। इसलिये शरीर छूटनेसे पहले-पहले ही यह कार्य जरूर कर लेना चाहिये--यही भाव इन पदोंमें है।उपर्युक्त पदोंसे एक भाव यह भी लिया जा सकता है कि काम-क्रोधके वशीभूत होकर शरीर क्रिया करने लगे--ऐसी स्थितिसे पहले ही उनके वेगको सह लेना चाहिये। कारण कि काम-क्रोधके अनुसार क्रिया आरम्भ होनेके बाद शरीर और वृत्तियाँ अपने वशमें नहीं रहतीं।भोगोंको पानेकी इच्छासे पहले उनका संकल्प होता है। वह संकल्प होते ही सावधान हो जाना चाहिये कि मैं तो साधक हूँ, मुझे भोगोंमें नहीं फँसना है; क्योंकि यह साधकका काम नहीं है। इस तरह संकल्प उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर देना चाहिये।पदार्थोंके प्रति राग (काम) रहनेके कारण 'अमुक पदार्थ सुन्दर और सुखप्रद हैं' आदि संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्प उत्पन्न होनेके बाद उन पदार्थोंको प्राप्त करनेकी कामना उत्पन्न हो जाती है, और उनकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है। काम-क्रोधके वेगको सहन करनेका तात्पर्य है--काम-क्रोधके वेगको उत्पन्न ही न होने देना। काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेके बाद वेग आता है और वेग आनेके बाद काम-क्रोधको रोकना कठिन हो जाता है, इसलिये काम-क्रोधके संकल्पको उत्पन्न न होने देनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव प्रतीत होता है। कारण यह है कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेपर अन्तःकरणमें अशान्ति, उत्तेजना, संघर्ष आदि होने लग जाते हैं, जिनके रहते हुए मनुष्य सुखी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसी श्लोकमें 'स सुखी' पदोंसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले मनुष्यको 'सुखी' बताया गया है। दूसरी बात यह है कि काम-क्रोधके वेगको मनुष्य अपनेसे शक्तिशाली पुरुषके सामने भयसे भी रोक सकता है अथवा व्यापारमें आमदनी होती देखकर लोभसे भी रोक सकता है। परन्तु इस प्रकार भय और लोभके कारण काम-क्रोधका वेग सहनेसे वह सुखी नहीं हो जाता; क्योंकि वह जैसे क्रोधमें फँसा था, ऐसे ही भय और लोभमें फँस गया। तीसरी बात यह है कि इस श्लोकमें 'युक्तः' पदसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले व्यक्तिको योगी कहा गया है; परन्तु संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता (गीता 6। 2)। इसलिये काम-क्रोधके वेगको रोकना अच्छा होते हुए भी साधकके लिये इनके संकल्पको उत्पन्न न होने देना ही उचित है। काम-क्रोधके संकल्पको रोकनेका उपाय है अपनेमें काम-क्रोधको न मानना। कारण कि हम (स्वयं) रहनेवाले हैं और काम-क्रोध आने-जानेवाले हैं। इसलिये वे हमारे साथ रहनेवाले नहीं हैं। दूसरी बात, हम काम-क्रोधको अपनेसे अलगरूपसे भी जानते हैं। जिस वस्तुको हम अलगरूपसे जानते हैं, वह वस्तु अपनेमें नहीं होती। तीसरी बात, काम-क्रोधसे रहित हुआ जा सकता है--'कामक्रोधवियुक्तानाम्'(गीता 5। 26) 'एतैर्विमुक्तः' (गीता 16। 22)। इनसे रहित वही हो सकता है, जो वास्तवमें पहलेसे ही इनसे रहित होता है। चौथी बात, भगवान्ने काम-क्रोधको (जो राग-द्वेषके ही स्थूलरूप हैं) क्षेत्र अर्थात् प्रकृतिके विकार बताया है (गीता 13। 6)। अतः ये प्रकृतिमें ही होते हैं, अपनेमें नहीं; क्योंकि स्वरूप निर्विकार है। इससे सिद्ध होता है कि काम-क्रोध अपनेमें नहीं हैं। इनको अपनेमें मानना मानो इनको निमन्त्रण देना है।'स युक्तः नरः'--अज्ञानके द्वारा जिनका ज्ञान ढका हुआ है, ऐसे मनुष्योंको भगवान्ने इसी अध्यायके पन्द्रहवें श्लोकमें जन्तु '(जन्तवः)'कहा है। यहाँ काम-क्रोधका वेग सहनेमें समर्थ मनुष्यको 'नरः' कहा है। भाव यह है कि जो काम-क्रोधके वशमें हैं, वे मनुष्य कहलानेयोग्य नहीं हैं। जिसने काम-क्रोधपर विजय प्राप्त कर ली है, वही वास्तवमें नर है, शूरवीर है।समतामें स्थित मनुष्यको योगी कहते हैं। जो अपने विवेकको महत्त्व देकर काम-क्रोधके वेगको उत्पन्न ही नहीं होने देता, वही समतामें स्थित हो सकता है।'स सुखी'--मनुष्य ही नहीं, पशुपक्षी भी काम-क्रोध उत्पन्न होनेपर सुख-शान्तिसे नहीं रह सकते। इसलिये जिस मनुष्यने काम-क्रोधके संकल्पको मिटा दिया है, वही वास्तवमें सुखी है। कारण कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होते ही मनुष्यके अन्तःकरणमें अशान्ति, चञ्चलता, संघर्ष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इन दोषोंके रहते हुए वह सुखी कैसे कहा जा सकता है? जब वह काम-क्रोधके वेगके वशीभूत हो जाता है, तब वह दुःखी हो ही जाता है। कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेकर, उनसे सम्बन्ध जोड़कर सुख चाहनेवाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता--यह नियम है।  सम्बन्ध--  बाह्य सम्बन्धसे होनेवाले सुखके अनर्थका वर्णन करके अब भगवान् आभ्यन्तर तत्त्वके सम्बन्धसे होनेवाले सुखकी महिमाका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.23।। जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है,  वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.23।।तत्परित्यागं प्रशंसति शक्नोतीति। कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं शक्नोति। शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यथा मनुष्यशरीरे सोढुं सुशकः तथा नान्यत्रेति भावः। ब्रह्मलोकादिस्तु जितकामानामेव भवति।

Sri Anandgiri

।।5.23।।उत्तरश्लोकस्य तात्पर्यमाह अयं चेति। श्रेयोमार्गप्रतिपक्षत्वं कष्टतमत्वे हेतुस्तत्रैव हेत्वन्तरमाह सर्वेति। प्रयत्नाधिक्यस्य कर्तव्यत्वे हेतुं सूचयति दुर्निवार्य इति। प्रसिद्धं हि कामक्रोधोद्भवस्य वेगस्य दुर्निवारत्वं येन मातरमपि चाधिरोहति पितरमपि हन्ति तमवश्यं परिहर्तव्यं दर्शयति शक्नोतीति। यथोक्तं वेगं बहिरनर्थरूपेण परिणामात्प्रागेव देहान्तरुत्पन्नं यः सोढुं क्षमते तं स्तौति स युक्त इति। मरणसीमाकरणस्य तात्पर्यमाह मरणेति। प्रसिद्धौ हिशब्दः। तत्र हेतुमाह अनन्तेति। व्याध्युपहतानां वृद्धानां च कामादिवेगो न भवतीत्याशङ्क्याह यावदिति। कामक्रोधोद्भवं वेगं व्याख्यातुमादौ कामं मनोविकारविशेषत्वेन व्याचष्टे काम इति। कथमस्य मनोविकारविशेषत्वं तदाह इन्द्रियेति। कामो गर्धिस्तृष्णेति पर्यायाः सन्तः शब्दा मनोविकारविशेषे पर्यवस्यन्तीत्यर्थः। क्रोधश्च मनोविकारविशेषस्तद्वदित्याह क्रोधश्चेति। तमेव क्रोधं स्पष्टयति आत्मन इति। एवं कामक्रोधौ व्याख्याय तयोरुत्कटत्वावस्थात्मनो वेगस्य ताभ्यामुत्पत्तिमुपन्यस्यति ताविति। यथोक्तवेगावगमोपायमुपदिशति रोमाञ्चनहृष्टनेत्रेत्यादिना। उभयविधवेगं यो जीवन्नेव सोढुं शक्नोति तं पुरुषधौरेयत्वेन स्तौति तमित्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।5.23।।अतो मोक्ष एव योगिनः पुरुषार्थः तत्र सर्वप्रतिपक्षसहनेनैव तल्लाभ इत्याह शक्नोतीहेति। शरीरत्यागात्प्रागेव कामक्रोधोद्भवं वेगं यः सोढुं शक्नोति सोद्वापि न मोक्षसाधनं त्यजति स ज्ञातव्यो योगी युक्तो ब्रह्मानन्दवांश्च अन्यथा तु गत शरीरे सिद्धमेवेति न पुरुषकारः स्यात्। एवमेवोक्तं वशिष्ठेन प्राणे गते यथा देही सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रयो भवेत् इति।

Sridhara Swami

।।5.23।।तस्मान्मोक्ष एव परः पुरुषार्थस्तस्य च कामक्रोधवेगोऽतिप्रतिपक्षोऽतस्तत्सहनसमर्थ एव मोक्षभागित्याह शक्नोतीति। कामात्क्रोधाच्चोद्भवति यो वेगो मनोनेत्रादिक्षोभलक्षणस्तमिहैव तदुद्भवसमय एव यो नरः सोढुं प्रतिरोद्धुं शक्नोति। तदपि न क्षणमात्रं किंतु शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यावद्देहपातमित्यर्थः। य एवंभूतः स एव मुक्तः समाहितः सुखी च भवति नान्यः। यद्वा मरणादूर्ध्वं विलपन्तीभिर्युवतीभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि यथा प्राणशून्यः कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्रागपि जीवन्नेव यः सहेत स एव युक्तः सुखी चेत्यर्थः। तदुक्तं वसिष्ठेन प्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत्।। इति।

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