Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 22 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते | आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ||५-२२||
Transliteration
ye hi saṃsparśajā bhogā duḥkhayonaya eva te . ādyantavantaḥ kaunteya na teṣu ramate budhaḥ ||5-22||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.22 The enjoyments that are born of contacts are only generators of pain, for they have a beginning and an end, O Arjuna; the wise man does not rejoice in them.
।।5.22।। हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Recognize that chasing endless promotions, salary increases, or external recognition for happiness is often a futile pursuit. True fulfillment in work comes from aligning with one's purpose, developing skills, and contributing meaningfully, rather than solely from the transient highs of success or material gains. Avoid burnout by understanding the impermanence of external achievements.
🧘 For Stress & Anxiety
Understand that stress, anxiety, and unhappiness often arise from attachment to external outcomes, opinions, or possessions, all of which are impermanent. Cultivate inner resilience by knowing that external stressors and temporary pleasures/pains will pass. Focus on internal peace and self-awareness as a stable foundation, rather than relying on fleeting external comforts or distractions.
❤️ In Relationships
Acknowledge the dynamic and evolving nature of relationships. Avoid making one's happiness solely dependent on another person or a specific relationship status, as relationships, like all external contacts, have beginnings and ends and can be sources of pain if clung to excessively. Cultivate self-love and inner contentment, which allows for healthier, less dependent, and more appreciative connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Sensory pleasures are fleeting and ultimately lead to pain; true and lasting joy is found within through wisdom and detachment.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.22 ये which? हि verily? संस्पर्शजाः contactborn? भोगाः enjoyments? दुःखयोनयः generators of pain? एव only? ते they? आद्यन्तवन्तः having beginning and end? कौन्तेय O Kaunteya? न not? तेषु in those? रमते rejoices? बुधः the wise.Commentary Man goes in est of joy and searches in the external perishable objects for his happiness. He fails to get it but instead he carries a load of sorrow on his head.You should withdraw the senses from the senseobjects as there is no trace of happiness in them and fix the min on the immortal? blissful Self within. The senseobjects have a beginning and an end. Separation from the senseobjects gives you a lot of pain. During the interval between the origin and the end you experience a hollow? momentary? illusory pleasure. This fleeting pleasure is due to Avidya or ignorance. Even in the other world you will have the same experience. He who is endowed with discrimination or the knowledge of the Self will never rejoice in these sensual objects. Only ignorant persons who are passionate will rejoice in the senseobjects. (Cf.II.14?XVIII.38)
Shri Purohit Swami
5.22 The joys that spring from external associations bring pain; they have their beginning and their endings. The wise man does not rejoice in them.
Dr. S. Sankaranarayan
5.22. Whosoever, right here, before abandoning the body, is capable of bearing the force sprung from desire and wrath-he is considered to be a man of Yoga and a happy man.
Swami Adidevananda
5.22 For those pleasures that are born of contact are wombs or pain. They have a beginning and an end, O Arjuna. The wise do not rejoice in them.
Swami Gambirananda
5.22 Since enjoyments that result from contact (with objects) are verily the sources of sorrow and have a beginning and an end, (therefore) O son of Kunti, the wise one does not delight in them.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.22।। आत्मा के अनन्त आनन्द का अनुभव करने के लिए हम साधक लोग भी विषयासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। एक सामान्य स्तर का बुद्धिमान् पुरुष भी यदि जीवन के अनुभवों पर विचार करे तो वह समझ सकता है कि अनित्य विषयों में सुख की खोज करना कोई लाभदायक व्यापार नहीं है। हमारे सभी अनुभवों में उपयोगिता के ह्रास का नियम समान रूप से कार्य करता है। जो वस्तु प्रारम्भ में सुख देती है वही कुछ समय पश्चात् अत्यन्त दुखदायी भी बन जाती है। भूखे होने पर पहले और पच्चीसवें लड्डू को खाते समय हमारे क्या अनुभव होगें इसका प्रत्यक्ष प्रयोग करके देखा जा सकता है जो इस मूलभूत सत्य को प्रमाणित करेगा कि वैषयिक उपभोग सदा ही दुख के कारण होते हैं।इन्द्रियोपभोग की वस्तुएँ उतनी ही सुन्दर एवं सुखदायक हो सकती हैं जितनी कि कुष्ठ रोगिणी कोई वेश्या जो सौन्दर्य़ प्रसाधनों से सजधज कर किसी व्यापारिक नगरी की अंधेरी संकरी गली में स्थित अपने कोठेमें अनजाने लोगों को लुभाने का प्रयत्न करती खड़ी रहती है। श्रीकृष्ण इस तथ्य को सुन्दर शैली में समझाते हुए कहते हैं कि वैषयिक सुख अनित्य होने के कारण विवेकी पुरुष को मोहित नहीं कर सकते।बुद्धिमान् पुरुष पूर्णत्व प्राप्ति से ही सन्तुष्ट होता है। हम भौतिक परिच्छिन्न वस्तुओं के पीछे अधिक सन्तोष और आनन्द पाने की आशा में दौड़दौड़ कर स्वयं को थका लेते हैं और उस झूठी आशा में न जाने कितने हीन कर्म भी करते हैं। जबकि वास्तविक शुद्ध दिव्य और पूर्ण आनन्द केवल आत्मानुभूति के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।श्रेय मार्ग का एक और प्रतिपक्षी शत्रु है जो सब अनर्थों का कारण तथा दुर्जेय है इसलिये सबके परिहार के लिये प्रयत्नाधिक्य की आवश्यकता है। भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
5.22।। व्याख्या--'ये हि संस्पर्शजा भोगाः'--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। सम्बन्ध-जन्य अर्थात् इन्द्रिय-जन्य भोगमें मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होतीहै, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृति-जन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्र-विहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होनेसे त्याज्य ही हैं। कारण कि जडताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है। 'आद्यन्तवन्तः'--सम्पूर्ण भोग आने-जानेवाले हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं (गीता 2। 14)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगोंकी स्वयंके साथ किसी भी अंशमें एकता नहीं है। भोग आने-जानेवाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्तवाले हैं और स्वयं आदि-अन्तसे रहित है। इसलिये स्वयंको भोगोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता। जीव परमात्माका अंश है--'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7), इसलिये उसे परमात्मासे ही अक्षय सुख मिल सकता है--'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते' (गीता 5। 21)।भोग आने-जानेवाले हैं--इस तरफ ध्यान जाते ही सुख-दुःखका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये 'आद्यन्तवन्तः' पद भोगोंके प्रभावको मिटानेके लिये औषधरूप है।'दुःखयोनय एव ते'--जितने भी सम्बन्ध-जन्य सुख हैं, वे सब दुःखके उत्पत्तिस्थान हैं। सम्बन्धजन्य सुख दुःखसे ही उत्पन्न होता है और दुःखमें ही परिणत होता है। पहले वस्तुके अभावका दुःख होता है, तभी उस वस्तुके मिलनेपर सुख होता है। वस्तुके अभावका दुःख जितनी मात्रामें होता है, वस्तुके मिलनेका सुख भी उतनी ही मात्रामें होता है।भोगी व्यक्ति दुःखोंसे नहीं बच सकता। कारण कि भोग जडताके सम्बन्धसे होता है और जडताका सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप महान् दुःखका कारण है।पातञ्जलयोगदर्शनमें कहा गया है--'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः।'(2। 15)'परिणामदुःख, तापदुःख और संस्कारदुःख--ऐसे तीन प्रकारके दुःख सबमें विद्यमान रहनेके कारण तथा तीनों गुणोंकी वृत्तियोंमें परस्पर विरोध होनेके कारण विवेकी पुरुषके लिये सब-के-सब भोग दुःखरूप ही हैं।'सम्पूर्ण विषयभोग आरम्भमें सुखरूप प्रतीत होनेपर भी परिणाममें दुःख ही देनेवाले हैं (गीता 18। 38); क्योंकि भोगोंके परिणाममें अपनी शक्तिका ह्रास और भोग्य-पदार्थका नाश होता है--यह 'परिणामदुःख' है।दूसरे व्यक्तियोंके पास अपनेसे अधिक भोग देखनेसे, अपने इच्छानुसार पूरे भोग न मिलनेसे, भीतर भोगोंकी आसक्ति होनेपर भी भोग भोगनेकी सामर्थ्य न होनेसे तथा प्राप्त भोगोंके बिछुड़ जानेकी आशङ्कासे भोगोंके पास रहते हुए भी हृदयमें सन्ताप रहता है--यह 'तापदुःख' है।किसी कारणवश भोगोंका वियोग हो जानेसे मनुष्य उन भोगोंको याद कर-करके दुःखी होता है--यह 'संस्कारदुःख' है।भोगोंमें रुचि होनेके कारण मन उन भोगोंको भोगना चाहता है; परन्तु विवेकके कारण बुद्धि उन्हें भोगनेसे रोकती है। ऐसे ही सत्सङ्ग करते समय तामसी वृत्तिके कारण नींद आने लगती है और नींदका सुख मनुष्यको अपनी ओर खींचता है; परन्तु सात्त्विक वृत्तिके कारण उसे विचार आता है कि अभी सत्सङ्ग कर लें; क्योंकि यह मौका बार-बार मिलेगा नहीं--यह 'गुणवृत्ति-विरोध' है, जिससे साधकोंको बहुत दुःख होता है।भोगोंको प्राप्त करना अपने वशकी बात नहीं है; क्योंकि इसमें प्रारब्धकी प्रधानता और अपनी परतन्त्रता है। परन्तु भगवान्की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है; क्योंकि उनकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है। भोग दो मनुष्योंको भी समानरूपसे प्राप्त नहीं हो सकते, पर भगवान् मनुष्यमात्रको समानरूपसे प्राप्त हो सकते हैं। सत्ययुग आदिमें बड़े-बड़े ऋषियोंको जो भगवान् प्राप्त हुए थे, वही आज कलियुगमें भी सबको प्राप्त हो सकते हैं। भोगोंकी प्राप्ति सदाके लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती। परन्तु भगवान्की प्राप्ति सदाके लिये होती है और सबके लिये होती है। तात्पर्य यह हुआ कि भोगों-(जडता-) की प्राप्तिमें तो विभिन्नता रहती ही है, पर उनके त्यागमें सब एक हो जाते हैं।'एव' पदका तात्पर्य है कि भोग निःसन्देह और निश्चितरूपसे दुःखके कारण हैं। उनमें सुख प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें सुखका लेश भी नहीं है।'न तेषु रमते बुधः'--साधारण मनुष्यको जिन भोगोंमें सुख प्रतीत होता है, उन भोगोंको विवेकशील मनुष्य दुःखरूप ही समझता है। इसलिये वह उन भोगोंमें रमण नहीं करता, उनके अधीन नहीं होता।विवेकी मनुष्यको इस बातका ज्ञान रहता है कि संसारके समस्त दुःख, सन्ताप, पाप, नरक आदि संयोग-जन्य सुखकी इच्छापर ही आधारित हैं। अपने इस ज्ञानको महत्त्व देनेसे ही वह बुद्धिमान् है। परन्तु जिसने यह जान लिया है कि भोग दुःखप्रद हैं, फिर भी भोगोंकी कामना करता है और उनमें ही रमण करता है, वह वास्तवमें अपने ज्ञानको पूर्णरूपसे महत्त्व न देनेके कारण बुद्धिमान् कहलानेका अधिकारी नहीं है। अपने ज्ञानको महत्त्व देनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य भोगोंकी कामना और उनमें रमण कर ही नहीं सकता। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि संयोगजन्य सुख भोगनेवाला दुःखोंसे नहीं बच सकता, तो फिर सुख कौन होता है--इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.22।। हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.22।।सन्न्यासार्थं कामभोगं निन्दयति येहीति।
Sri Anandgiri
।।5.22।।तत्रैव हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमुदाहरति इतश्चेति। विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणीति शेषः। वैराग्यार्थमेव वैषयिकाणि सुखानि दूषयति ये हीति। ननु विषयेन्द्रियसंप्रयोगसंप्रसूतेषु भोगेषु जन्तूनामभिरुचिदर्शनात्कुतस्तेषां दुःखयोनित्वमित्याशङ्क्याविवेकिनां तेष्वासङ्गेऽपि न विवेकिनामित्याह आद्यन्तवन्त इति। यस्मादाधिव्याधिजरामरणादिसहितेभ्यः समागमनादिक्लेशरूपभागिभ्यश्च विषयेन्द्रियसंबन्धेभ्यो भोगाः सुखलवानुभवा जायन्ते तस्मात्ते दुःखहेतवो भवन्तीति योजना। अविद्याकार्यत्वाद्दुःखानां कुतो भोगजन्यत्वमित्याशङ्क्य भोगानामविद्याप्रयुक्तत्वात्तन्निबन्धनत्वं दुःखानां युक्तमित्यभिप्रेत्याह अविद्येति। भोगानां दुःखयोनित्वे मानवमनुभवमुपन्यस्यति दृश्यन्ते हीति। ऐहिकानां भोगानां दुःखनिमित्तत्वेऽपि नामुष्मिकाणां तथात्वमनुभवाभावादित्याशङ्क्यावधारणसामर्थ्यसिद्धमर्थमाह यथेति। पूर्वार्धस्याक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह नेत्यादिना। इतश्च विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणि निवर्तयितव्यानीत्याह न केवलमिति। आद्यन्तवत्त्वे मध्यक्षणवर्तित्वेन क्षणभङ्गुरत्वादुपेक्षणीयत्वं भोगानां सिध्यति। अस्ति हि तेषां क्षणभङ्गुरत्वं क्षणिकविषयाकारमनोवृत्तिव्यङ्ग्यत्वादिति मन्वानः सन्नाह अत इति। बुद्धिपूर्वकारिणां विवेकवतां भोगेषूपेक्षोपलब्धेश्च तेषामाभासत्वं प्रतिभातीत्याह न तेष्विति। प्रतीकोपादानमाद्यमिदं पुनर्व्याख्यानमिति न पुनरुक्तिः। ननु केषांचिद्भोगेष्वभिरुचिरुपलभ्यते तत्राह अत्यन्तेति।
Sri Vallabhacharya
।।5.22।।ननु सुखहेतुविषयाणामपि निवृत्तेः कथं श्रुतमात्रस्य मोक्षस्य ब्रह्मानन्दस्य पुरुषार्थता स्यात् तत्र���ह ये हीति। प्राकृतेन्द्रियजन्यानां विषयभोगानां आद्यन्तवत्त्वेन दुःखयोनित्वादपुरुषार्थत्वमनर्थत्वमर्थसिद्धं तेन तद्विपरीतत्वाद्ब्रह्मानन्दस्यैव पुरुषार्थत्वमिति विज्ञाय योगिनो बुधस्य तत्रैव प्रवृत्तिस्तदाह न तेषु रमते बुध इति।
Sridhara Swami
।।5.22।।ननु प्रियविषयभोगानामपि निवृत्तेः कथं मोक्षः पुरुषार्थः स्यात्तत्राह ये हीति। संस्पृश्यन्त इति संस्पर्शा विषयास्तेभ्यो जाता ये भोगाः सुखानि ते हि वर्तमानकालेऽपि स्पर्धासूयादिव्याप्तत्वाद्दुःखस्यैव योनयः कारणभूतास्तथादिमन्तोऽन्तवन्तश्च। अतो वेकी तेषु न रमते।