Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 2 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ | तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ||५-२||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . saṃnyāsaḥ karmayogaśca niḥśreyasakarāvubhau . tayostu karmasaṃnyāsātkarmayogo viśiṣyate ||5-2||

Word-by-Word Meaning

संन्यासःrenunciation
कर्मयोगःYoga of action
and
निःश्रेयसकरौleading to the highest bliss
उभौboth
तयोःof these two
तुbut
कर्मसंन्यासात्than renunciation of action
कर्मयोगःYoga of action

📖 Translation

English

5.2 The Blessed Lord said Renunciation and the Yoga of action both lead to the highest bliss; but of the two, the Yoga of action is superior to the renunciation of action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.2।। श्रीभगवान् ने कहा --  कर्मसंन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही परम कल्याणकारक हैं;  परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Instead of abandoning a demanding career or giving up on responsibilities (renunciation of action) due to perceived stress or lack of immediate gratification, engage in your work with a focused, detached mindset. Perform your duties diligently, prioritizing the process and effort over the specific outcomes or rewards. This 'Yoga of action' makes work a path to fulfillment and reduces professional burnout.

🧘 For Stress & Anxiety

When faced with overwhelming stress or challenges, the tendency might be to escape or withdraw (renunciation). This verse advises active, yet detached, engagement. Focus on performing your part and what is within your control, without becoming emotionally entangled in the results or external pressures. This mindful action can transform stressful situations into opportunities for growth and inner peace.

❤️ In Relationships

Rather than severing difficult relationships or withdrawing emotionally (renunciation), approach them with a sense of duty, compassion, and appropriate detachment. Fulfill your role and responsibilities within the relationship without being overly attached to specific expectations, reciprocity, or outcomes. This approach fosters resilience, reduces emotional dependency, and allows for healthier, more harmonious interactions.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

For most, engaged action with detachment is a superior and more accessible path to fulfillment than mere renunciation without deep wisdom.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.2 संन्यासः renunciation? कर्मयोगः Yoga of action? च and? निःश्रेयसकरौ leading to the highest bliss? उभौ both? तयोः of these two? तु but? कर्मसंन्यासात् than renunciation of action? कर्मयोगः Yoga of action? विशिष्यते is superior.Commentary Sannyasa (renunciation of action) and Karma Yoga (performance of action) both lead to Moksha or liberation or the highest bliss. Though both lead to Moksha? yet of the two means of attaining to Moksha? Karma Yoga is better than mere Karma Sannyasa (renunciation of action) without the knowledge of the Self.But renunciation of actions with the knowledge of the Self is decidedly superior to Karma Yoga.Moreover? Karma Yoga is easy and is therefore suitable to all. (Cf.III.3V.5VI.46)

Shri Purohit Swami

5.2 Lord Shri Krishna replied: Renunciation of action and the path of right action both lead to the highest; of the two, right action is the better.

Dr. S. Sankaranarayan

5.2. The Bhagavat said Both renunciation and the Yoga of action effect salvation. But, of these two, the Yoga of action is better than renunciation of action.

Swami Adidevananda

5.2 The Lord said Renunciation of actions and Karma Yoga, both lead to the highest excellence. But, of the two, Karma Yoga excels the renunciation of actions.

Swami Gambirananda

5.2 The Blessed Lord said Both renunciation of actions and Karma-yoga lead to Liberation. Between the two, Karma-yoga, however, excels over renunciation of actions.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.2।। अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है। वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कमसेकम परिश्रम और अधिकसेअधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।तदुपरान्त मनुष्य को क्रियाशील रहते हुये स्वार्थ का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है। कुछ काल तक निष्काम भाव से ईश्वर की पूजा समझ कर जगत् की सेवा करने से उसे जो आनन्द प्राप्त होता है वही उसके लिए स्फूर्ति एवं प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। इसी भावना को कर्मयोग अथवा यज्ञ की भावना कहा गया है। कर्मयोग के पालन से वासनाओं का क्षय होकर साधक को मानो ध्यानरूप पंख प्राप्त हो जाते हैं जिनकी सहायता से वह शांति और आनन्द के आकाश मे ऊँचीऊँची उड़ाने भर सकता है। ध्यानाभ्यास का विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है।उपर्युक्त विचार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मविकास के लिये तीन साधन हैं काम्य कर्म निष्काम कर्म तथा निदिध्यासन। पूर्व अध्यायों में कर्म योग का वर्णन हो चुका है और अगले अध्याय का विषय ध्यान योग है। अत इस अध्याय में अहंकार और स्वार्थ के परित्याग द्वारा कर्मों के संन्यास का निरूपण किया गया है।इस श्लोक में भगवान् ने कहा है कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारक हैं तथापि इन दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठतर है। श्रीकृष्ण के इस कथन का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे कर्मयोग की अपेक्षा संन्यास को हीनतर बताते हैं। ऐसा समझना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है अथवा अब तक किये भगवान् के उपदेश को ही नहीं समझना है। यहाँ संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के अभिप्राय को हमें समझना चाहिये। विकास की जिस अवस्था में अर्जुन था उसको तथा युद्ध की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अर्जुन के लिए संन्यास की अपेक्षा कर्म करने का उपदेश ही उपयुक्त था। अर्थ यह हुआ कि दोनों ही श्रेयष्कर होने पर भी विशेष परिस्थितियों को देखते हुये संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ कहा गया है। अधिकांश लोग अर्जुन के रोग से पीड़ित होते हैं उन सबके लिए कर्मयोग ही वासना क्षय का एकमात्र उपाय है। अत यहाँ कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के तात्पर्य को हमको ठीक से समझना चाहिए।ऐसा क्यों इस पर कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.2।। व्याख्या--[भगवान्के सिद्धान्तके अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोगका पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धान्त किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिको लेकर नहीं है। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीको 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। परन्तु भगवान्के सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान-प्राप्तिके लिये सांख्ययोगका पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रतासे कर सकता है और उसका पालन करनेमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान् प्रचलित मतका भी आदर करते हुए अपने सिद्धान्तके अनुसार अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।]'संन्यासः'--यहाँ 'संन्यासः' पदका अर्थ 'सांख्य-योग' है, कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं। अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् कर्मोंके त्यागपूर्वक संन्यासका विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञानको प्राप्त करनेका जो सांख्ययोगका मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोगके द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिमें रहते हुए प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात् अपना कल्याण कर सकता है। सांख्ययोगकी साधनामें विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है। विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्यके बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधनामें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्वपर दृष्टि रहती ���ै। राग मिटे बिना संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान्ने देहाभिमानियोंके लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है (गीता 12। 5)। इसी अध्यायके छठे श्लोकमें भी भगवान्ने कहा है कि कर्मयोगका साधन किये बिना संन्यासका साधन होना कठिन है; क्योंकि संसारसे राग हटानेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है। 'कर्मयोगश्च'--मानवमात्रमें कर्म करनेका राग अनादिकालसे चला आ रहा है, जिसे मिटानेके लिये कर्म करना आवश्यक है (गीता 5। 3)। परन्तु वे कर्म किस भाव और उद्देश्यसे कैसे किये जायँ कि करनेका राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य-कर्मको करनेकी कलाको 'कर्मयोग' कहते हैं। कर्मयोगमें कार्य छोटा है या बड़ा, इसपर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसीको निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये करना है। कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायँ। अपने लिये कर्म न करनेका अर्थ है--कर्मोंके बदलेमें अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा न होना। जबतक अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है, तबतक कर्मोंके साथ सम्बन्ध बना रहता है।'निःश्रेयसकरावुभौ'--अर्जुनका प्रश्न था कि सांख्ययोग और कर्मयोग--इन दोनों साधनोंमें कौन-सा साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करनेवाला है? उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! ये दोनों ही साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करनेवाले हैं। कारण कि दोनोंके द्वारा एक ही समताकी प्राप्ति होती है। इसी अध्यायके चौथे-पाँचवें श्लोकोंमें भी भगवान्ने इसी बातकी पुष्टि की है। तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने सांख्ययोग और कर्मयोग--दोनोंसे परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेकी बात कही है। इसलिये ये दोनों ही परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन हैं (गीता 3। 3)।'तयोस्तु कर्मसंन्यासात्'--एक ही सांख्ययोगके दो भेद हैं--एक तो चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग है; और दूसरा, दूसरे अध्याके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं है। यहाँ 'कर्मसंन्यासात्' पद दोनों ही प्रकारके सांख्ययोगका वाचक है।'कर्मयोगो विशिष्यते'--आगेके (तीसरे) श्लोकमें भगवान्ने इन पदोंकी व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्यसंन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। फिर छठे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि कर्मयोगके बिना सांख्य-योगका साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोगमें तो कर्मयोगकी आवश्यकता है, पर कर्मयोगमें सांख्ययोगकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये दोनों साधनोंके कल्याणकारक होनेपर भी भगवान् कर्मयोगको ही श्रेष्ठ बताते हैं। कर्मयोगी लोकसंग्रहके लिये कर्म करता है--'लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि' ( गीता 3। 20)। लोकसंग्रहका तात्पर्य है--निःस्वार्थभावसे लोकमर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करना अर्थात् केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना। इसीको गीतामें 'यज्ञार्थ कर्म' के नामसे भी कहा गया है। जो केवल अपने लिये कर्म करता है, वह बँध जाता है (3। 9 13)। परन्तु कर्मयोगी निःस्वार्थ-भावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है; अतः वह कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (4। 23)। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो। परन्तु अर्जुन जिस कर्मसंन्यासकी बात कहते हैं, वह एक विशेष परिस्थितिमें किया जा सकता है (गीता 4। 34); क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुषका मिलना, उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करना--ऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्यको प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। अतः प्रचलित प्रणालीके सांख्ययोगका साधन एक विशेष परिस्थितिमें ही साध्य है, जबकि कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके लिये साध्य है। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्धजैसी घोर परिस्थितिमें भी कर्मयोगका पालन किया जा सकता है। कर्मयोगका पालन करनेमें कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें असमर्थ और पराधीन नहीं है; क्योंकि कर्मयोगमें कुछ भी पानेकी इच्छाका त्याग होता है। कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा रहनेसे ही कर्तव्य-कर्म करनेमें असमर्थता और पराधीनताका अनुभव होता है।कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी--इन दोनोंको ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधकोंको कर्तृत्व और भोक्तृत्व--इन दोनोंको मिटानेकी आवश्यकता है। तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होनेसे सांख्ययोगी कर्तृत्वको मिटाता है। उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि न होनेसे कर्मयोगी दूसरोंके हितके लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्वको मिटाता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका त्याग करके संसारसे मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्वका अर्थात् कुछ पानेकी इच्छाका त्याग करके मुक्त होता है। यह नियम है कि कर्तृत्वका त्याग करनेसे भोक्तृत्वका त्याग और भोक्तृत्वका त्याग करनेसे कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है। कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही कर्तृत्व होता है। जिस कर्मसे अपने लिये किसी प्रकारके भी सुखभोगकी इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है, कर्म नहीं। जैसे यन्त्रमें कर्तृत्व नहीं रहता, ऐसे हीकर्मयोगीमें कर्तृत्व नहीं रहता। साधकको संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिमें स्पष्ट ही अपना राग दीखता है। उस रागको वह अपने बन्धनका खास कारण मानता है तथा उसे मिटानेकी चेष्टा भी करता है। उस रागको मिटानेके लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ आदिको अपना नहीं मानता (टिप्पणी प0 280), अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता। क्रियाओँसे सुख लेनेका भाव न रहनेसे कर्मयोगीकी क्रियाएँ परिणाममें सबका हित तथा वर्तमानमें सबकी प्रसन्नता और सुखके लिये ही हो जाती हैं। क्रियाओँसे सुख लेनेका भाव होनेसे क्रियाओँमें अभिमान (कर्तृत्व) और ममता हो जाती है। परन्तु उनसे सुख लेनेका भाव सर्वथा न रहनेसे कर्तृत्व समाप्त हो जाता है। कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं हैं, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओंके फलको चाहना ही दोषी है। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओंका फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्वपर। भोक्तृत्व न रहनेसे कर्तृत्व अपने उद्देश्यमें (जिसके लिये कर्म करता है, उसमें) लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है।कर्मयोगीका 'अहम्' (व्यक्तित्व) शीघ्र तथा सुगमता-पूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगीका 'अहम्' दूरतक साथ रहता है। कारण यह है कि 'मैं सेवक हूँ' (केवल सेव्यके लिये सेवक हूँ, अपने लिये नहीं)--ऐसा माननेसे कर्मयोगीका 'अहम्' भी सेव्यकी सेवामें लग जाता है ;परन्तु 'मैं मुमुक्षु हूँ' ऐसा माननेसे ज्ञानयोगीका 'अहम्' साथ रहता है। कर्मयोगी अपने लिये कुछ न करके केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करता है, पर ज्ञानयोगी अपने हितके लिये साधन करता है। अपने हितके लिये साधन करनेसे 'अहम्' ज्यों-का-त्यों बना रहता है।ज्ञानयोगकी मुख्य बात है--संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव करना और कर्मयोगकी मुख्य बात है--रागका अभाव करना। ज्ञानयोगी विचारके द्वारा संसारकी सत्ताका अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थोंमें राग रहते हुए उसकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है। यद्यपि विचारकालमें ज्ञानयोगके साधकको पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकालमें उन पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। परन्तु कर्मयोगके साधकका लक्ष्य दूसरोंको सुख पहुँचानेका रहनेसे उसका राग स्वतः मिट जाता है। इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्रीका त्याग करना कर्मयोगीके लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगीके लिये नहीं। ज्ञानयोगकी दृष्टिसे किसी वस्तुको मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परन्तु वही वस्तु किसीके काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है। जैसे ,हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलोंको दूसरोंके काममें आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात् उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य न हो तो) उन्हीं कम्बलोंको विचारद्वारा अनित्य, क्षणभङ्गुर, स्वप्नके मायामय पदार्थ समझकर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है। दूसरी बात, मायामात्र समझकर त्याग करनेमें (यदि तेजीका वैराग्य न हो तो) जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओंका त्याग तो सुगमतासे हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुखबुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओंका त्याग कठिनतासे होता है। परन्तु दूसरेके काम आती देखकर जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि है, उन वस्तुओंका त्याग सुगमतासे हो जाता है; जैसे--भोजनके समय थालीमेंसे रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे। परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरेको देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीं। इसलिये कर्मयोगकी प्रणालीसे रागको मिटाये बिना सांख्ययोगका साधन होना बहुत कठिन है। विचारद्वारा पदार्थोंकी सत्ता न मानते हुए भी पदार्थोंमें स्वाभाविक राग रहनेके कारण भोगोंमें फँसकर पतनतक होनेकी सम्भावना रहती है। केवल असत्के ज्ञानसे अर्थात् असत्को असत् जान लेनेसे रागकी निवृत्ति नहीं होती (टिप्पणी प0 281)। जैसे, सिनेमामें दीखने-वाले पदार्थों आदिकी सत्ता नहीं है-- ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है।सिनेमा देखनेसे चरित्र, समय, नेत्र-शक्ति और धन--इन चारोंका नाश होता है--ऐसा जानते हुए भी रागके कारण सिनेमा देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वस्तुकी सत्ता न होनेपर भी उसमें राग अथवा सम्बन्ध रह सकता है। यदि राग न हो तो वस्तुकी सत्ता माननेपर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता। इसलिये साधकका मुख्य काम होना चाहिये--रागका अभाव करना, सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा। वास्तवमें हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता। बाँधता है हमारा सम्बन्ध, जो रागसे होता है। अतः हमारेपर राग मिटानेकी ही जिम्मेवारी है।  सम्बन्ध--अब भगवान् कर्मयोगको श्रेष्ठ कहनेका कारण बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.2।। श्रीभगवान् ने कहा --  कर्मसंन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही परम कल्याणकारक हैं;  परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.2।।नायं सन्न्यासो यत्याश्रमः।द्वन्द्वत्यागात्तु सन्न्यासान्मत्पूजैव गरीयसी इति वचनात्।तानि वा एतान्यवराणि तपांसि न्यास एवात्यरेचयत् इति च।सन्नायासस्तु तुरीयो यो निष्क्रियाख्यः सधर्मकः। न तस्मादुत्तमो धर्मो लोके कश्चन विद्यते। तद्भक्तोऽपि हि यद्गच्छेतद्गृहस्थो न धार्मिकः। मद्भक्तिश्च विरक्तिस्तदधिकारो निगद्यते। यदाधिकारो भवति ब्रह्मचार्यपि प्रव्रजेत् इति नारदीये। ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् ৷৷. यदहरेव विरजेत् जा.उ.4 या.उ.1 इति च। सन्न्यासे तु तुरीये वै प्रीतिर्मम महीयसी। येषामत्राधिकारो न तेषां कर्मेति निश्चयः इत्यादेश्च ब्राह्मे। अतो नात्राश्रमः सन्न्यास उक्तः।

Sri Anandgiri

।।5.2।।प्रश्नमेवमुत्थाप्य प्रतिवचनमुत्थापयति स्वाभिप्रायमिति। निर्णयाय तद्द्वारेण परस्य संशयनिवृत्त्यर्थमित्यर्थः। एवं प्रश्ने प्रवृत्ते कर्मयोगस्य सौकर्यमभिप्रेत्य प्रशस्यतरत्वमभिधित्सुर्भगवान्प्रतिवचनं किमुक्तवानित्याशङ्क्याह संन्यास इति। उभयोरपि तुल्यत्वशङ्कां वारयति तयोस्त्विति। कथं तर्हि ज्ञानस्यैव मोक्षोपायत्वं विवक्ष्यते तत्राह ज्ञानोत्पत्तीति। तर्हि द्वयोरपि प्रशस्यत्वमप्रशस्यत्वं वा तुल्यमित्याशङ्क्याह उभाविति। ज्ञानसहायस्य कर्मसंन्यासस्य कर्मयोगापेक्षया विशिष्टत्वविवक्षया विशिनष्टि केवलादिति।

Sri Vallabhacharya

।।5.2।।इति प्रश्ने भगवानर्जुनं पुष्टिनिष्ठभक्तं तदोभयकोटिसंशयापन्नं योगसाङ्ख्यसारं ग्राहयन् पूर्वशिष्टां कर्मयोगस्थितिमुत्तरमाह सन्न्यासः कर्मयोगश्चेति। हे अर्जुन यद्यपि साङ्ख्यीयः सन्न्यासः कर्मयोगश्चेत्युभौ मुख्यतः स्वतन्त्रतया पुरुषार्थसाधकौ नात्राङ्गप्रधानभावः एतयोरेकमप्यास्थितः परं श्रेयो मोक्षलक्षणं विन्दति। तथापि कर्मसन्न्यासात् कर्मणां त्यागात् सर्वस्यैव त्यागो बाह्यतः कर्मयोगो विशिष्यते तत्त्वज्ञानिनोऽपि लोकानुग्रहार्थं कर्मकरणश्रवणात्। मनसैव त्यागः न बाह्यतः। तवापि फलद इति भावः।

Sridhara Swami

।।5.2।। अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच संन्यास इति। अयं भावःनहि वेदान्तवेद्यात्मतत्त्वविदं प्रति कर्मयोगमहं ब्रवीमि यतः पूर्वोक्तेन संन्यासेन विरोधः स्यात् अपितु देहात्माभिमानिनं त्वां बन्धुवधादिनिमित्तशोकमोहादिकृतमेनं संशयं देहात्मविवेकज्ञानासिना छित्त्वा परमात्मज्ञानोपायभूतं कर्मयोगमातिष्ठेति ब्रवीमि। कर्मयोगेन शुद्धचित्तस्य चात्मतत्त्वज्ञाने जाते सति तत्परिपाकार्थं ज्ञाननिष्ठाङ्गत्वेन संन्यासः पूर्वमुक्तः। एवं सत्यङ्गप्रधानयोर्विकल्पायोगात्संन्यासः कर्मयोगश्चेत्येतावुभावपि भूमिकाभेदेन समुच्चितावेव निःश्रेयसं साधयतः तथापि तु तयोर्मध्ये कर्मसंन्यासात्सकाशात्कर्मयोगो विशिष्टो भवति।

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