Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 1 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अर्जुन उवाच | संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि | यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ||५-१||
Transliteration
arjuna uvāca . saṃnyāsaṃ karmaṇāṃ kṛṣṇa punaryogaṃ ca śaṃsasi . yacchreya etayorekaṃ tanme brūhi suniścitam ||5-1||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.1 Arjuna said Renunciation of actions, O Krishna, Thou praisest, and again Yoga. Tell me conclusively that which is the better of the two.
।।5.1।। अर्जुन ने कहा हे -- कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए कहिये।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When facing conflicting advice on career strategy (e.g., 'hustle relentlessly' vs. 'cultivate work-life balance and detachment'), this verse highlights the need for a clear understanding of which approach aligns with your goals and well-being. It prompts seeking definitive wisdom on whether active pursuit or a more detached, karma-yoga approach is better for your professional journey.
🧘 For Stress & Anxiety
In moments of high stress or mental fatigue, one often debates whether to actively 'fight' the problem by intensifying efforts, or to 'let go' and cultivate acceptance or detachment. This verse underscores the desire for a conclusive answer on which method (active engagement or mindful renunciation of outcome) will lead to greater peace and resilience.
❤️ In Relationships
When navigating complex relationship dynamics, one might be confused between actively trying to 'fix' issues through constant intervention and effort, versus practicing acceptance, non-attachment, and allowing space for things to unfold naturally. This verse speaks to the need for clarity on the most effective and harmonious approach to fostering healthy relationships.
health
When facing a health challenge, the dilemma often arises: should one aggressively pursue every possible treatment and intervention (active engagement), or practice acceptance, mindfulness, and allow the body's natural processes to unfold with minimal interference (renunciation of control)? The verse reflects the search for the optimal path to well-being when presented with these contrasting approaches.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When faced with a fundamental dilemma between two seemingly valid yet opposing paths, clarity from a trusted source is essential to make the optimal choice for a purposeful life.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.1 संन्यासम् renunciation? कर्मणाम् of actions? कृष्ण O Krishna? पुनः again? योगम् Yoga? च and? शंससि (Thou) praisest? यत् which? श्रेयः better? एतयोः of these two? एकम् one? तत् that? मे to me? ब्रूहि tell? सुनिश्चितम् conclusively.Commentary Thou teachest renunciation of actions and also their performance. This has confused me. Tell decisively now which is better. It is not possible for a man to resort to both of them at the same time. Yoga here means Karma Yoga. (Cf.III.2)
Shri Purohit Swami
5.1 "Arjuna said: My Lord! At one moment Thou praisest renunciation of action; at another, right action. Tell me truly, I pray, which of these is the more conducive to my highest welfare?
Dr. S. Sankaranarayan
5.1. Arjuna said O krsna, you commend renunciation of action and again the Yoga of action; which one of these two is superior [to the other] ? Please tell me that for certain.
Swami Adidevananda
5.1 Arjuna said You praise, O Krsna, the renunciation of actions and then praise Karma Yoga also. Tell me with certainly which of these is the superior one leading to the ultimate good.
Swami Gambirananda
5.1 Arjuna said O Krsna, You praise renunciation of actions, and again, (Karma-) yoga. Tell me for certain that one which is better between these two.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.1।। अर्जुन के इस प्रश्न से स्पष्ट होता है कि अनजाने में ही वह अपनी नैराश्य अवस्था से बहुत कुछ मुक्त हुआ भगवान् के उपदेश को ध्यानपूर्वक श्रवण करके विचार भी करने लगा था। स्वभाव से क्रियाशील होने के कारण अर्जुन को कर्मयोग रुचिकर तथा स्वीकार्य था। परन्तु अनेक स्थानों पर श्रीकृष्ण द्वारा अन्य यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान अथवा कर्मसंन्यास को अधिक श्रेष्ठ प्रतिपादित करने से अर्जुन के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ और यही कारण था कि वह स्वयं के लिए किसी मार्ग का निश्चय नहीं कर सका। अत इसका निश्चय कराना ही अर्जुन के प्रश्न का प्रयोजन है।और एक बात यह भी है कि मानसिक उन्माद का रोगी उस रोग के प्रभाव से कुछ मुक्त होने पर भी शीघ्र ही पूर्ण आत्मविश्वास नहीं जुटा पाता। यह सबका अनुभव है कि भयंकर स्वप्न से जागे हुए व्यक्ति को पुन संयमित होकर निद्रा अवस्था में आने के उपक्रम में कुछ समय लग जाता है। अर्जुन की ठीक ऐसी ही स्थिति थी। मानसिक तनाव एवं उन्माद की स्थिति से बाहर आने पर भी अपने सारथी श्रीकृष्ण के उपदेश को पूर्णरूप से समझने तथा विचार करने में वह स्वयं को असमर्थ पा रहा था। अर्जुन इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि भगवान् उसके सामने कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास के रूप में दो विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं। अत वह श्रीकृष्ण से यह जानना चाहता है कि उसके आत्मकल्याण के लिये इन दोनों में से कौन सा एक निश्चित मार्ग अनुकरणीय है। इस अध्याय का प्रयोजन यह बताने का है कि ये दो मार्ग विकल्प रूप नहीं है और न ही परस्पर पूरक होते हुये युगपत अनुष्ठेय हैं।कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास इनका इसी क्रम में आचरण करना है और न कि एक साथ दोनों का। यही इस अध्याय का विषय है।
Swami Ramsukhdas
5.1।। व्याख्या--'संन्यासं कर्मणां कृष्ण'--कौटुम्बिक स्नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीता 1। 45)। वे युद्ध न करके भिक्षाके अन्नसे जीवन-निर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझने लगे (2। 5) और उन्होंने निश्चय करके भगवान्से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (2। 9)।प्रायः वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान्के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं। 'पुनर्योगं च शंससि'--चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही है। उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान्से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (4। 33) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (4। 41)।'यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्'--इसी तरहका प्रश्न अर्जुनने दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' पदोंसे किया था। उसके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगकी व्याख्या करके उसका आचरण करनेके लिये कहा। फिर तीसरे अध्यायके दूसरे श्लोकमें अर्जुनने 'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'पदोंसे पुनः अपने कल्याणकी बात पूछी, जिसके उत्तरमें भगवान्ने तीसरे अध्यायके तीसवें श्लोकमें निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्लोकमें अपने धर्मका पालन करनेको श्रेयस्कर बताया। यहाँ उपर्युक्त पदोंसे अर्जुनने जो बात पूछी है, उसके उत्तरमें भगवान्ने कहा है कि कर्मयोग श्रेष्ठ है (5। 2) कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (5। 3), कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन सिद्ध होना कठिन है; परन्तु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है (5। 6)। इस प्रकार कहकर भगवान् अर्जुनको मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाला है; अतः तू कर्मयोगका ही अनुष्ठान कर।अर्जुनके मनमें मुख्यरूपसे अपने कल्याणकी ही इच्छा थी। इसलिये वे बार-बार भगवान्के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं (2। 7 3। 2 5। 1)। कल्याणकी प्राप्तिमें इच्छाकी प्रधानता है। साधनकी सफलतामें देरीका कारण भी यही है कि कल्याणकी इच्छा पूरी तरह जाग्रत् नहीं हुई। जिन साधकोंमें तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याणकी इच्छा, जाग्रत् होनेपर कर्मयोगका साधन सुगमतापूर्वक कर सकते हैं (टिप्पणी प0 278)। अर्जुनके हृदयमें भोगोंसे पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है इसलिये वे कर्मयोगके अधिकारी हैं।पहले अध्यायके बत्तीसवें तथा दूसरे अध्यायके आठवें श्लोकको देखनेसे पता लगता है कि अर्जुन मृत्युलोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, त्रिलोकीका राज्य भी नहीं चाहते। परन्तु वास्तवमें अर्जुन राज्य तथा भोगोंको सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। वे कहते हैं कि युद्धमें कुटुम्बीजनोंको मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता। इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेनेको तैयार हूँ। दूसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनोंको मारकर भोग भोगनाठीक नहीं है। इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि गुरुजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है। दूसरे अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि कौन जीतेगा--इसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते। इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेनेको तैयार हूँ। आगे दूसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथोंमें लड्डू हैं; यदि युद्धमें तू मारा गया तो तुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा। यदि अर्जुनके मनमें स्वर्ग और संसारके राज्यकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान् शायद ही ऐसा कहते। अतः अर्जुनके हृदयमें प्रतीत होनेवाला वैराग्य वास्तविक नहीं है। परन्तु उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, जो इस श्लोकमें भी दिखायी दे रही है। सम्बन्ध--अब भगवान् अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.1।। अर्जुन ने कहा हे -- कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए कहिये।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.1।।तृतीयाध्यायोक्तमेव कर्मयोगं प्रपञ्चयत्यनेनाध्यायेनयदृच्छालाभसन्तुष्टः 4।22 इत्यादिसन्न्यासंकुरु कर्मैव 4।15 इत्यादि कर्मयोगं च। नियमनादिना सकललोककर्षणात्कृष्णः। तच्चोक्तम् यतः कर्षसि देवेश नियम्य सकलं जगत्। अतो वदन्ति मुनयः कृष्णं त्वां ब्रह्मवादिनः इति महाकौर्मे। सन्न्यासशब्दार्थं भगवानेव वक्ष्यति। अयं प्रश्नाशयः यदि सन्न्यासः श्रेयोऽधिकः स्यात् तर्हि सन्न्यासस्येषद्विरोधि युद्धमिति।
Sri Anandgiri
।।5.1।।पूर्वोत्तराध्याययोः संबन्धमभिदधानो वृत्तानुवादपूर्वकमर्जुनप्रश्नस्याभिप्रायं प्रदर्शयितुं प्रक्रमते कर्मणीत्यादिना। इत्यारभ्य कर्मण्यकर्मदर्शनमुक्त्वा तत्प्रशंसा प्रसारितेत्याह स युक्त इति। ज्ञानवन्तं सर्वाणि कर्माणि लोकसंग्रहार्थं कुर्वन्तं ज्ञानलंक्षणेनाग्निना दग्धसर्वकर्माणं कर्मप्रयुक्तबन्धविधुरं विवेकवन्तो वदन्तीति ज्ञानवतो ज्ञानफलभूतं संन्यासं विवक्षन्विविदिषोः साधनरूपमपि संन्यासं भगवान्विवक्षितवानित्याह ज्ञानाग्नीति। निराशीरित्यारभ्य शरीरस्थितिमात्रकारणं कर्म शरीरस्थितावपि सङ्गरहितः सन्नाचरन्धर्माधर्मफलभागी न भवतीत्यपि पूर्वोत्तराभ्यामध्यायाभ्यां द्विविधं संन्यासं सूचितवानित्याह शारीरमिति। यदृच्छेत्यादावपि संन्यासः सूचितस्तद्धर्मफलायोपदेशादित्याह यदृच्छेति। ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादनपूर्वकं प्रशंसावचनादपि कर्मसंन्यासो दर्शितो ज्ञाननिष्ठस्येत्याह ब्रह्मार्पणमिति। ज्ञानयज्ञस्तुत्यर्थं नानाविधान्यज्ञाननूद्य तेषां देहादिव्यापारजन्यत्ववचनेनात्मनो निर्व्यापारत्वविज्ञानफलाभिलाषादपि यथोक्तमात्मानं विविदिषोः सर्वकर्मसंन्यासेऽधिकारो ध्वनित इत्याह कर्मजानिति। समस्तस्यैवावशेषवर्जितस्य कर्मणो ज्ञाने पर्यवसानाभिधानाच्च जिज्ञासोः सर्वकर्मसंन्यासः सूचित इत्याह सर्वमिति। तद्विद्धीत्यादिना ज्ञानप्राप्त्युपायं प्रणिपातादि प्रदर्श्य प्राप्तेन ज्ञानेनातिशयमाहात्म्यवता सर्वकर्मणां निवृत्तिरेवेति वदता च ज्ञानार्थिनः संन्यासेऽधिकारो दर्शितो भगवतेत्याह ज्ञानाग्निरिति। ज्ञानेन समुच्छिन्नसंशयं तस्मादेव ज्ञानात्कर्माणि संन्यस्य व्यवस्थितमप्रमत्तं वशीकृतकार्यकरणसंघातवन्तं प्रातिभासिकानि कर्माणि न निबध्नन्तीत्यपि द्विविधः संन्यासो भगवतोक्त इत्याह योगेति। कर्मणीत्यारभ्य योगसंन्यस्तकर्माणमित्यन्तैरुदाहृतैर्वचनैरुक्तं संन्यासमुपसंहरति इत्यन्तैरिति। तर्हि कर्मसंन्यासस्यैव जिज्ञासुना ज्ञानवता चादरणीयत्वात्कर्मानुष्ठानमनादेयमापन्नमित्याशङ्क्योक्तमर्थान्तरमनुवदति छित्त्वैनमिति। कर्मतत्त्यागयोरुक्तयोरेकेनैव पुरुषेणानुष्ठेयत्वसंभवान्न विरोधोऽस्तीत्याशङ्क्य युगपद्वा क्रमेण वानुष्ठानमिति विकल्प्याद्यं दूषयति उभयोश्चेति। द्वितीयं प्रत्याह कालभेदेनेति। उक्तयोर्द्वयोरेकेन पुरुषेणानुष्ठेयत्वासंभवे कथं कर्तव्यत्वसिद्धिरित्याशङ्क्याह अर्थादिति। द्वयोरुक्तयोरेकेन युगपत्क्रमाभ्यामनुष्ठानानुपपत्तेरित्यर्थः। अन्यतरस्य कर्तव्यत्वे कतरस्येति कुतो निर्णयो द्वयोः संनिधानाविशेषादित्याशङ्क्याह यत्प्रशस्यतरमिति। भगवता कर्मणां संन्यासो योगश्चोक्तो नच तयोः समुच्चित्यानुष्ठानं तेनान्यतरस्य श्रेष्ठस्यानुष्ठेयत्वे तद्बुभुत्सया प्रश्नोपपत्तिरित्युपसंहरति इत्येवमिति। नायं प्रष्टुरभिप्रायः कर्मसंन्यासकर्मयोगयोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वस्योक्तत्वादेकस्मिन्पुरुषे प्राप्त्यभावादिति शङ्कते नन्विति। चोद्यमङ्गीकृत्य परिहरति सत्यमेवेति। कीदृशस्तर्हि प्रष्टुरभिप्रायो येन प्रश्नप्रवृत्तिरिति पृच्छति कथमिति। एकस्मिन्पुरुषे कर्मतत्त्यागयोरस्ति प्राप्तिरिति प्रष्टुरभिप्रायं प्रतिनिर्देष्टुं प्रारभते पूर्वोदाहृतैरिति। यथास्वर्गकामो यजेत इति स्वर्गकामोद्देशेन यागो विधीयते नतु तस्यैवाधिकारो नान्यस्येत्यपि प्रतिपाद्यते वाक्यभेदप्रसङ्गात्तथानात्मवित्कर्ता संन्यासपक्षे प्राप्तोऽनूद्यते नचात्मवित्कर्तृकत्वमेव संन्यासस्य नियम्यते वैराग्यमात्रेणाज्ञस्यापि संन्यासविधिदर्शनात्। तस्मात्कर्मतत्त्यागयोरविद्वत्कर्तृकत्वमस्तीति मन्वानस्यार्जुनस्य प्रश्नः संभवतीति भावः। भवत��� संन्यासस्य कर्तव्यत्वविवक्षा तथापि कथं प्रशस्यतरबुभुत्सया प्रश्नप्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह प्राधान्यमिति। तथापि कथमेकस्मिन्पुरुषे तयोरप्राप्तावुक्ताभिप्रायेण प्रश्नवचनं प्रकल्प्यते तत्राह अनात्मविदपीति। आत्मविदो विद्यासामर्थ्यात्कर्मत्यागध्रौव्यवदितरस्यापि सति वैराग्ये तत्त्यागस्यावश्यकत्वात्तत्र कर्तासौ प्राप्तोऽत्रानूद्यते। तथाच कर्मतत्त्यागयोरेकस्मिन्नविदुषि प्राप्तेर्व्यक्तत्वादुक्ताभिप्रायेण प्रश्नप्रवृत्तिरविरुद्धेत्यर्थः। संन्यासस्यात्मवित्कर्तृकत्वमेवात्र विवक्षितं किं न स्यादित्याशङ्क्य कर्त्रन्तरपर्युदासः संन्यासविधिश्चेत्यर्थभेदे वाक्यभेदप्रसङ्गान्मैवमित्याह इति न पुनरिति। इतिशब्दो वाक्यभेदप्रसङ्गहेतुद्योतनार्थः। ततः किमित्याशङ्क्य फलितमाह एवमिति। कर्मानुष्ठानकर्मसंन्यासयोरविद्वत्कर्तृकत्वमप्यस्तीत्येवं मन्वानस्यार्जुनस्य प्रशस्यतरविविदिषया प्रश्नो नानुपपन्न इति संबन्धः। तयोः समुच्चित्यानुष्ठानसंभवे कथं प्रशस्यतरविविदिषेत्याशङ्क्याह पूर्वोक्तेनेति।उभयोश्चेत्यादावुक्तप्रकारेण कर्मतत्त्यागयोर्मिथो विरोधान्न समुच्चित्यानुष्ठानं सावकाशमित्यर्थः। भवतु तर्हि यस्य कस्यचिदन्यतरस्यानुष्ठेयत्वमिति कुत उक्ताभिप्रायेण प्रश्नप्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह अन्यतरस्येति। उभयप्राप्तौ समुच्चयानुपपत्तावन्यतरपरिग्रहे विशेषस्यान्वेष्यत्वादुक्ताभिप्रायेण प्रश्नोपपत्तिरित्यर्थः। इतश्चाविद्वत्कर्तृकयोः संन्यासकर्मयोगयोः कतरः श्रेयानिति प्रष्टुरभिप्रायो भातीत्याह प्रतिवचनेति। किं तत्प्रतिवचनं कथं वा तन्निरूपणमिति पृच्छति कथमिति। तत्र प्रतिवचनं दर्शयति संन्यासेति। तन्निरूपणं कथयति एतदिति। तदुभयमिति निःश्रेयसकरत्वं कर्मयोगस्य श्रेष्ठत्वं चेत्यर्थः। गुणदोषविभागविवेकार्थं पृच्छति किंचेति। अतोऽस्मिन्नाद्ये पक्षे किं दूषणमस्मिन्वा द्वितीये पक्षे किं फलमिति प्रश्नार्थः। तत्र सिद्धान्ती प्रथमपक्षे दोषमादर्शयति अत्रेत्यादिना। तदेवानुपपन्नत्वं व्यतिरेकद्वारा विवृणोति यदीत्यादिना। निःश्रेयसकरत्वोक्तिरित्यत्र पारम्पर्येणेति द्रष्टव्यम् विशिष्टत्वाभिधानमिति प्रतियोगिनोऽसहायत्वादस्य च शुद्धिद्वारा ज्ञानार्थत्वादित्यर्थः। आत्मज्ञस्य कर्मसंन्यासकर्मयोगयोरसंभवे दर्शिते चोदयति अत्राहेति। चोदयिता निर्धारणार्थं विमृशति किमित्यादिना। अन्यतरासंभवेऽपि संदेहात्प्रश्नोऽवतरतीत्याह यदा चेति। यस्य कस्यचिदन्यतरस्यासंभवो भविष्यतीत्याशङ्क्य कारणमन्तरेणासंभवो भवन्नतिप्रसङ्गः स्यादिति मन्वानः सन्नाह असंभव इति। आत्मविदः सकारणं कर्मयोगासंभवं सिद्धान्ती दर्शयति अत्रेति। संग्रहवाक्यं विवृण्वन्नात्मवित्त्वं विवृणोति जन्मादीति। तस्य यदुक्तं निवृत्तमिथ्याज्ञानत्वं तदिदानीं व्यनक्ति सम्यगिति। विपर्ययज्ञानमूलस्येत्यादिनोक्तं प्रपञ्चयति निष्क्रियेति। यथोक्तसंन्यासमुक्त्वा ततो विपरीतस्य कर्मयोगस्याभावः प्रतिपाद्यत इति संबन्धः। वैपरीत्यं स्फोरयन्कर्मयोगमेव विशिनष्टि मिथ्याज्ञानेति। मिथ्या च तदज्ञानं चेत्यनाद्यनिर्वाच्यमज्ञानं तन्मूलोऽहं कर्तेत्यात्मनि कर्तृत्वाभिमानस्तज्जन्यस्तस्येति यावत्। यथोक्तं संन्यासमुक्त्वा यथोक्तकर्मयोगस्यासंभवप्रतिपादने हेतुमाह सम्यग्ज्ञानेति। कुत्र तदभावप्रतिपादनं तदाह इहेति। उक्तं हेतुं कृत्वात्मज्ञस्य कर्मयोगसंभवे फलितमाह यस्मादिति। इह शास्त्रे तत्र तत्रेत्यादावुक्तमेव व्यक्तीकर्तुं पृच्छति केषु केष्विति। तानेव प्रदेशान्दर्शयति अत्रेति। आत्मस्वरूपनिरूपणप्रदेशेषु संन्यासप्रतिपादनादात्मविदः संन्यासो विवक्षितश्चेत्तर्हि कर्मयोगोऽपि तस्य कस्मान्न भवति प्रकरणाविशेषादिति शङ्कते ननु चेति। आत्मविद्याप्रकरणे कर्मयोगप्रतिपादनमुदाहरति तद्यथेति। प्रकरणादात्मविदोऽपि कर्मयोगस्य संभवे फलितमाह अतश्चेति। आत्मज्ञानोपायत्वेनापि प्रकरणपाठसिद्धौ ज्ञानादूर्ध्वं न्यायविरुद्धं कर्म कल्पयितुमशक्यमिति परिहरति अत्रोच्यत इति। सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानयोस्तत्कार्ययोश्च भ्रमनिवृत्तिभ्रमसद्भावयोर्मिथो विरोधात्कर्तृत्वादिभ्रममूलं कर्म सम्यग्ज्ञानादूर्ध्वं न संभवतीत्यर्थः। आत्मज्ञस्य कर्मयोगासंभवे हेत्वन्तरमाह ज्ञानयोगेनेति। इतश्चात्मविदो ज्ञानादूर्ध्वं कर्मयोगो न युक्तिमानित्याह कृतकृत्यत्वेनेति। ज्ञानवतो नास्ति कर्मेत्यत्र कारणान्तरमाह तस्येति। तर्हि ज्ञानवता कर्मयोगस्य हेयत्ववज्जिज्ञासुनापि तस्य त्याज्यत्वं ज्ञानप्राप्त्या तस्यापि पुरुषार्थसिद्धेरित्याशङ्क्य जिज्ञासोरस्ति कर्मयोगापेक्षेत्याह न कर्मणामिति। स्वरूपोपकार्यङ्गमन्तरेणाङ्गिस्वरूपानिष्पत्तेर्ज्ञानार्थिना कर्मयोगस्य शुद्ध्यादिद्वारा ज्ञानहेतोरादेयत्वमित्यर्थः। तर्हि ज्ञानवतामपि ज्ञानफलोपकारित्वेन कर्मयोगो मृग्यतामित्याशङ्क्याह योगारूढस्येति। उत्पन्नसम्यग्ज्ञानस्य कर्माभावे शरीरस्थितिहेतोरपि कर्मणोऽसंभवान्न तस्य शरीरस्थितिस्तदस्थितौ च कुतो जीवन्मुक्तिस्तदभावे च कस्योपदेष्ट्टत्वमुपदेशाभावे च कुतो ज्ञानोदयः स्यादित्याशङ्क्याह शारीरमिति। विदुषोऽपि शरीरस्थितिरास्थिता चेत्तन्मात्रप्रयुक्तेषु दर्शनश्रवणादिषु कर्तृत्वाभिमानोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह नैवेति। तत्त्वविदित्यनेन च समाहितचेतस्तया करोमीति प्रत्ययस्य सदैवाकर्तव्यत्वोपदेशादिति संबन्धः। यत्तु विदुषः शरीरस्थितिनिमित्तकर्माभ्यनुज्ञाने तस्मिन्कर्तृत्वाभिमानोऽपि स्यादिति तत्राह शरीरेति। आत्मयाथात्म्यविदस्तेष्वपि नाहं करोमीति प्रत्ययस्य नैव किंचित्करोमीत्यादावकर्तृत्वोपदेशान्न कर्तृत्वाभिमानसंभावनेत्यर्थः। यथोक्तोपदेशानुसंधानाभावे विदुषोऽपि करोमीति स्वाभाविकप्रत्ययद्वारा कर्मयोगः स्यादित्याशङ्क्याह आत्मतत्त्वेति। यद्यपि विद्वान्यथोक्तमुपदेशं कदाचिन्नानुसंधत्ते तथापि तत्त्वविद्याविरोधान्मिथ्याज्ञानं तन्निमित्तं कर्म वा तस्य संभावयितुमशक्यमित्यर्थः। आत्मवित्कर्तृकयोः संन्यासकर्मयोगयोरयोगात्तयोर्निःश्रेयसकरत्वमन्यतरस्य विशिष्टत्वमित्येतदयुक्तमिति सिद्धत्वाद्द्वितीयं पक्षमङ्गीकरोति यस्मादित्यादिना। तदीयाच्च कर्मसंन्यासात्कर्मयोगस्य विशिष्टत्वाभिधानमिति संबन्धः। ननु कर्मयोगेन शुद्धबुद्धेः संन्यासो जायमानस्तस्मादुत्कृष्यते कथं तस्मात्कर्मयोगस्योत्कृष्टत्ववाचोयुक्तिर्युक्तेति तत्राह पूर्वोक्तेति। वैलक्षण्यमेव स्पष्टयति सत्येवेति। स्वाश्रमविहितश्रवणादौ कर्तृत्वविज्ञाने सत्येव पूर्वाश्रमोपात्तकर्मैकदेशविषयसंन्यासात्कर्मयोगस्य श्रेयस्त्ववचनंनैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तम् इत्यादिस्मृतिविरुद्धमित्याशङ्क्याह यमनियमादीति।आनृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसा दम आर्जवम्। प्रीतिः प्रसादो माधुर्यमक्रोधश्च यमा दश।।दानमिज्या तपो ध्यानं स्वाध्यायोपस्थनिग्रहौ। व्रतोपवासौ मौनं च स्नानं च नियमा दश।। इत्युक्तैर्यमनियमैरन्यैश्चाश्रमधर्मैर्विशिष्टत्वेनानुष्ठातुमशक्यत्वादुक्तसंन्यासात्कर्मयोगस्य विशिष्टत्वोक्तिर्युक्तेत्यर्थः। नहि कश्चिदिति न्यायेन कर्मयोगस्येतरापेक्षया सुकरत्वाच्च तस्य विशिष्टत्ववचनं श्लिष्टमित्य��ह सुकरत्वेन चेति। प्रतिवचनवाक्यार्थालोचनात्सिद्धमर्थमुपसंहरति इत्येवमिति। संन्यासकर्मयोगयोर्मिथोविरुद्धयोः समुच्चित्यानुष्ठातुमशक्ययोरन्यतरस्य कर्तव्यत्वे प्रशस्यतरस्य तद्भावात्तद्भावस्य चानिर्धारितत्वात्तन्निर्दिधारयिषया प्रश्नः स्यादिति प्रश्नवाक्यार्थपर्यालोचनया प्रष्टुरभिप्रायो यथा पूर्वमुपदिष्टस्तथा प्रतिवचनार्थनिरूपणेनापि तस्य निश्चितत्वात्प्रश्नोपपत्तिः सिद्धेत्यर्थः। ननु तृतीये यथोक्तप्रश्नस्य भगवता निर्णीतत्वान्नात्र प्रश्नप्रतिवचनयोः सावकाशत्वमित्याशङ्क्य विस्तरेणोक्तमेव संबन्धं पुनः संक्षेपतो दर्शयति ज्यायसी चेदिति। सांख्ययोगयोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वेन निर्णीतत्वान्न पुनः प्रश्नयोग्यत्वमित्यर्थः। इतोऽपि न तयोः प्रश्नविषयत्वमित्याह नचेति। एवकारविशेषणाज्ज्ञानसहितसंन्यासस्य सिद्धसाधनत्वं भगवतोऽभिमतंछित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठ इति च कर्मयोगस्य विधानात्तस्यापि सिद्धसाधनत्वमिष्टं ततश्च निर्णीतत्वान्न प्रश्नस्तद्विषयः सिध्यतीत्यर्थः। केनाभिप्रायेण तर्हि प्रश्नः स्यादित्याशङ्क्य ज्ञानरहितसंन्यासात्कर्मयोगस्य प्रशस्यतरत्वबुभुत्सयेत्याह ज्ञानरहित इति। प्रष्टुरभिप्रायमेवं प्रदर्श्य प्रश्नोपपत्तिमुक्त्वा प्रश्नमुत्थापयति संन्यासमिति। तर्हि द्वयं त्वयानुष्ठेयमित्याशङ्क्य तदशक्तेरुक्तत्वात्प्रशस्यतरस्यानुष्ठानार्थं तदिदमिति निश्चित्य वक्तव्यमित्याह यच्छ्रेय इति। काम्यानां प्रतिषिद्धानां च कर्मणां परित्यागो मयोच्यते न सर्वेषामित्याशङ्क्य कर्मण्यकर्मेत्यादौ विशेषदर्शनान्मैवमित्याह शास्त्रीयाणामिति। अस्तु तर्हि शास्त्रीयाशास्त्रीययोरशेषयोरपि कर्मणोस्त्यागो नेत्याह पुनरिति। तर्हि कर्मत्यागस्तद्योगश्चेत्युभयमाहर्तव्यमित्याशङ्क्य विरोधान्मैवमित्यभिप्रेत्याह अत इति। द्वयोरेकेनानुष्ठानायोगस्योक्तत्वात्कर्तव्यत्वोक्तेश्च संशयो जायते तमेव संशयं विशदयति किं कर्मेति। प्रशस्यतरबुभुत्सा किमर्थेत्याशङ्क्याह प्रशस्यतरं चेति। तस्यैवानुष्ठेयत्वे प्रश्नस्य सावकाशत्वमाह अतश्चेति। तदेव प्रशस्यतरं विशिनष्टि यदनुष्ठानादिति। तदेकमन्यतरन्मे ब्रूहीति संबन्धः। उभयोरुक्तत्वे सति किमित्येकं वक्तव्यमिति नियुज्यते तत्राह सहेति। कर्मतत्त्यागयोर्मिथो विरोधादित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।5.1।।साङ्ख्ययोगैकार्थमतं स्वकर्मकरणं बहिः। इत्यबुद्ध्वा निजश्रेयोनिश्चये पृच्छति क्षमम्।।1।।अर्जुन उवाच सन्न्यासमिति। साङ्ख्यानामेव कर्मणां सन्न्यासं त्यागं कथयसि योगं च। तत्र कर्मणां पुनर्योगे सम्बन्धं वा कथयसि। नहि कर्मसन्न्यासः कर्मयोगश्चैकस्यैकदैव सम्भवतः विरुद्धस्वरूपत्वात्। तस्मादेकं सुनिश्चितं मम श्रेयो वद।
Sridhara Swami
।।5.1।।निर्वाय संशयं जिष्णोः कर्मसंन्यासयोगयोः। जितेन्द्रियस्य च यतेः पञ्चमे मुक्तिमब्रवीत्।।1।।अज्ञानसंभूतं संशयं ज्ञानासिना छित्त्वा कर्मयोगमातिष्ठेत्युक्तं तत्र पूर्वापरविरोधं मन्वानोऽर्जुन उवाच संन्यासमिति।यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् इत्यादिनासर्वं कर्माखिलं पार्थ इत्यादिना च ज्ञानिनः कर्मसंन्यासं कथयसि। ज्ञानासिना संशयं छित्त्वा योगमातिष्ठेति पुनर्योगं च कथयसि। न च कर्मसंन्यासः कर्मयोगश्चैकस्यैकदैव संभवतः विरुद्धस्वरूपत्वात्। तस्मादेतयोर्मध्ये एकस्मिन्ननुष्ठातव्ये सति मम यच्छ्रेयः श्रेष्ठं सुनिश्चितं तदेकं ब्रूहि।