Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 40 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते | एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ||३-४०||
Transliteration
indriyāṇi mano buddhirasyādhiṣṭhānamucyate . etairvimohayatyeṣa jñānamāvṛtya dehinam ||3-40||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.40 The senses, the mind and the intellect are said to be its seat; through these it deludes the embodied by veiling his wisdom.
।।3.40।। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं; यह काम इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके देही पुरुष को मोहित करता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, be mindful of how desires for quick promotions, excessive wealth, or peer recognition can manipulate your senses (e.g., seeing luxury), mind (e.g., constant craving), and intellect (e.g., rationalizing shortcuts). This awareness allows you to make ethical, sustainable decisions aligned with your long-term values, preventing burnout and compromised integrity, rather than being deluded by fleeting gains.
🧘 For Stress & Anxiety
Understanding that unfulfilled desires are a primary source of stress and mental agitation is key. This verse highlights that desire operates through your senses, mind, and intellect, constantly seeking external gratification and veiling inner peace. By observing how these internal faculties are swayed by desire, you can develop detachment, manage expectations, and cultivate a sense of contentment, significantly reducing anxiety and mental turmoil.
❤️ In Relationships
Desires often manifest as unrealistic expectations, possessiveness, or lust in relationships, leading to conflict and dissatisfaction. Recognize how your senses (e.g., what you find attractive), mind (e.g., constant wanting), and intellect (e.g., rationalizing control) are influenced by desire, clouding your ability to see your partner or the relationship clearly. Cultivate unconditional love and empathy by mastering these internal tools, fostering healthier and more fulfilling connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your senses, mind, and intellect are the battleground where desire obscures your wisdom. Master these internal faculties to see clearly, make conscious choices, and overcome delusion.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.40 इन्द्रियाणि the senses? मनः the mind? बुद्धिः the intellect? अस्य its? अधिष्ठानम् seat? उच्यते is called? एतैः by these? विमोहयति deludes? एषः this? ज्ञानम् wisdom? आवृत्य having enveloped? देहिनम् the embodied.Commentary If the abode of the enemy is known it is ite easy to kill him. So Lord Krishna like a wise army general points out to Arjuna the abode of desire so that he may be able to attack it and kill it ite readily.
Shri Purohit Swami
3.40 It works through the senses, the mind and the reason; and with their help destroys wisdom and confounds the soul.
Dr. S. Sankaranarayan
3.40. It basis is said to be the sense-organs, the mind and the intellect. With these it deludes the embodied by concealing knowledge.
Swami Adidevananda
3.40 The senses, the mind and the intellect are said to be its instruments. By these it overpowers the embodied self after enveloping Its knowledge.
Swami Gambirananda
3.40 The organs, mind, and the intellect are said to be its abode. This one diversely deludes the embodied being by veiling Knowledge with the help of these.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.40।। मन की शान्ति और सन्तोष को लूट ले जाने वाले शत्रु काम के पहचाने जाने पर एक सैनिक के समान राजकुमार अर्जुन की अपने शत्रु के निवास स्थान के विषय में जानने की इच्छा थी। अध्यात्म के उपदेशक के रूप में भगवान् को यह बताना आवश्यक था कि यह काम कौन से स्थान पर रहकर अपनी अत्यन्त दुष्ट योजनाएँ बनाता है। कामना का निवास स्थान है इन्द्रियाँ मन और बुद्धि।बड़े विस्तृत क्षेत्र में अपराध करने वाले दस्यु दल के सरदार के एक से अधिक रहने के स्थान होते हैं जहाँ से वह पूरे दल का संचालन करता है। यहाँ भी कामनारूप शत्रु के स्थानों का स्पष्ट निर्देश किया गया है।बिना किसी नियन्त्रण एवं संयम के इन्द्रियां यदि विषयों में संचार करती हैं तो वे इच्छा के निवास के लिए प्रथम उपयुक्त स्थान हैं। इन्द्रियों के माध्यम से विषय की संवेदनाएँ मन में पहुंचने पर वह भी कामनाजन्य दुखों की उत्पत्ति के लिए उपयुक्त क्षेत्र का कार्य करता है। और अन्त में पूर्व विषयोपभोग की स्मृति से रंजित आसक्तियों से युक्त बुद्धि कामना का तीसरा सुरक्षित वासस्थान है।अविद्या से मोहित जीव शरीर के साथ तादात्म्य करके विषयोपभोग चाहता है। अविवेकपूर्वक मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य करके भावनाओं एवं विचारों की सन्तुष्टि की वह इच्छा करता है।इन स्थानों पर इच्छा को खोजना माने शत्रु का सामना करना है। अन्त में शत्रु नाश कैसे करना है इसका वर्णन आगे के श्लोकों में किया गया है
Swami Ramsukhdas
3.40।। व्याख्या--'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते'-- काम पाँच स्थानोंमें दीखता है (1) पदार्थोंमें (गीता 3। 34), (2) इन्द्रियोंमें, (3) मनमें, (4) बुद्धिमें और (5) माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्तामें (गीता 2। 51)। इन पाँच स्थानोंमें दीखनेपर भी काम वास्तवमें माने हुए 'अहम्'-(चिज्जडग्रन्थि-) में ही रहता है। परन्तु उपर्युक्त पाँच स्थानोंमें दिखायी देनेके कारण ही वे इस कामके वास-स्थान कहे जाते हैं।समस्त क्रियाएँ शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिसे ही होती हैं। ये चारों कर्म करनेके साधन हैं। यदि इनमें काम रहता है तो वह परमार्थिक कर्म नहीं होने देता। इसलिये कर्मयोगी निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करता है (गीता 5। 11)।वास्तवमें काम अहम्-(जड-चेतनके तादात्म्य-) में ही रहता है। अहम् अर्थात् 'मैं'-पन केवल माना हुआ है। मैं अमुक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायवाला हूँ- यह केवल मान्यता है। मान्यताके सिवाय इसका दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। इस माने हुए सम्बन्धमें ही कामना रहती है। कामनासे ही सब पाप होते हैं। पाप तो फल भुगताकर नष्ट हो जाते हैं, पर 'अहम्' से कामना दूर हुए बिना नये-नये पाप होते रहते हैं। इसलिये कामना ही जीवको बाँधनेवाली है। महाभारतमें कहा है--'कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।' कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।।(शान्तिपर्व 251। 7)'जगत्में कामना ही एकमात्र बन्धन है, दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामनाके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है।''एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्'-- कामनाके कारण मनुष्यको जो करना चाहिये, वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिये, वह कर बैठता है। इस प्रकार कामना देहाभिमानी पुरुषको मोहित कर देती है। दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि कामनासे क्रोध उत्पन्न होता है-- 'कामात् क्रोधोऽभिजायते' (2। 62) और क्रोधसे सम्मोह (अत्यन्त मूढ़भाव) उत्पन्न होता है-- 'क्रोधाद्भवति सम्मोहः' (2। 63)। इससे यह समझना चाहिये कि कामनामें बाधा पहुँचनेपर तो क्रोध उत्पन्न होता है, पर यदि कामनामें बाधा न पहुँचे, तो कामनासे लोभ और लोभसे सम्मोह उत्पन्न होता है (टिप्पणी प0 197.1)। तात्पर्य यह कि कामनासे पदार्थन मिले तो 'क्रोध' उत्पन्न होता है और पदार्थ मिले तो 'लोभ' उत्पन्न होता है। उनसे फिर 'मोह' उत्पन्न होता है। कामना रजोगुणका कार्य है और मोह तमोगुणका कार्य। रजोगुण और तमोगुण पास-पास रहते हैं (टिप्पणी प0 197.2)। अतः काम क्रोध लोभ और मोह पासपास ही रहते हैं। काम इन्द्रियों मन और बुद्धिके द्वारा देहाभिमानी पुरुषको मोहित (बेहोश) कर देता है। इस प्रकारकाम रजोगुणका कार्य होते हुए भी तमोगुणका कार्यमोह हो जाता है।कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य पहले इन्द्रियोंसे भोग भोगनेकी कामना करता है। पहले तो भोग-पदार्थ मिलते नहीं और मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। इसलिये उन्हें किसी तरह प्राप्त करनेके लिये वह मनमें तरह-तरहकी कामनाएँ करता है। बुद्धिमें उन्हें प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके उपाय सोचता है। इस प्रकार कामना पहले इन्द्रियोंको संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें लगाती है। फिर इन्द्रियाँ मनको अपनी ओर खींचती हैं और उसके बाद इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धिको भी अपनी ओर खींच लेते हैं। इस तरह काम देहाभिमानीके ज्ञानको ढककर इन्द्रियोँ, मन और बुद्धिके द्वारा उसे मोहित कर देता है तथा उसे पतनके गड्ढेमें डाल देता है।यह सिद्धान्त है कि नौकर अच्छा हो, पर मालिक तिरस्कारपूर्वक उसे निकाल दे तो फिर उसे अच्छा नौकर नहीं मिलेगा। ऐसे ही मालिक अच्छा हो, पर नौकर उसका तिरस्कार कर दे तो फिर उसे अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। इसी प्रकार मनुष्य परमात्मप्राप्ति किये बिना शरीरको सांसारिक भोग और संग्रहमें ही खो देता है तो फिर उसे मनुष्यशरीर नहीं मिलेगा। अच्छी वस्तुका तिरस्कार होता है अन्तःकरण अशुद्ध होनेसे और अन्तःकरण अशुद्ध होता है कामनासे। इसलिये सबसे पहले कामनाका नाश करना चाहिये। 'देहिनम् विमोहयति'--पदोंका तात्पर्य यह है कि यह काम देहाभिमानी पुरुषको ही मोहित करता है। शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेवाला ही देहाभिमानी होता है। भगवान्ने अपने उपदेशके आरम्भमें ही देह (शरीर) और देही (शरीरी--आत्मा) का विवेचन किया है (गीता 2। 11--30)। देह और देही दोनों अलग-अलग हैं-- यह सबका अनुभव है। यह काम ज्ञानको ढककर देहाभिमानी(देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले) को बाँधता है देही(शुद्ध स्वरूप) को नहीं। जो देहके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता उसे यह बाँध नहीं सकता। देहको'मैं' 'मेरा' और 'मेरे लिये' माननेसे ही मनुष्य उत्पत्ति-विनाशशील जड वस्तुओंको महत्त्व देता है; जिससे उसमें जडताका राग उत्पन्न हो जाता है। राग उत्पन्न होनेपर जडतासे सम्बन्ध हो जाता है। जडतासे सम्बन्ध होनेपर ही कामनाकी उत्पत्ति होती है। कामना उत्पन्न होनेपर जीव मोहित होकर संसार-बन्धनमें बँध जाता है। सम्बन्ध-- अब आगेके तीन श्लोकोंमें भगवान् कामको मारनेका प्रकार बताते हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.40।। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं; यह काम इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके देही पुरुष को मोहित करता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.40 3.41।।वधार्थं शत्रोरधिष्ठानमाह इन्द्रियाणीति। एतैर्ज्ञानमावृत्त्य बुद्ध्यादिभिर्हि विषयगैर्ज्ञानमावृतं भवति। हृताधिष्ठानो हि शत्रुर्नश्यति।
Sri Anandgiri
।।3.40।।कामस्य निराश्रयस्य कार्यकरकत्वाभावं मत्वा प्रश्नपूर्वकमाश्रयं दर्शयति किमधिष्ठान इति। कामस्य नित्यवैरित्वेन परिजिहीर्षितस्य किमित्यधिष्ठानं ज्ञाप्यते तत्राह ज्ञाते हीति। इन्द्रियादीनां कामाधिष्ठानत्वं प्रकटयति एतैरिति। नन्वेताभिरिति वक्तव्ये कथमेतैरित्युच्यते तत्राह इन्द्रियादिभिरिति।
Sri Vallabhacharya
।।3.40 3.41।।अधुना तस्याधिष्ठानं वदन् जयोपायमाह इन्द्रियाणीति द्वाभ्याम्।
Sridhara Swami
।।3.40।।इदानीं तस्याधिष्ठानं कथयञ्जयोपायमाह इन्द्रियाणीति द्वाभ्याम्। विषयदर्शनश्रवणादिभिः संकल्पेनाध्यवसायेन च कामस्याविर्भावादिन्द्रियाणि च मनश्च बुद्धिश्चास्याधिष्ठानमुच्यते। एतैरिन्द्रियादिभिर्दर्शनादिव्यापारवद्भिराश्रयभूतैर्विवेकज्ञानमावृत्य देहिनं विमोहयति।