Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 39 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: The Nature of Desire (Kama)

Sanskrit Shloka (Original)

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा | कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||३-३९||

Transliteration

āvṛtaṃ jñānametena jñānino nityavairiṇā . kāmarūpeṇa kaunteya duṣpūreṇānalena ca ||3-39||

Word-by-Word Meaning

आवृतम्enveloped
ज्ञानम्wisdom
एतेनby this
ज्ञानिनःof the wise
नित्यवैरिणाby the constant enemy
कामरूपेणwhose form is desire
कौन्तेयO Kaunteya
दुष्पूरेणunappeasable
अनलेनby fire
and.Commentary Manu says

📖 Translation

English

3.39 O Arjuna, wisdom is enveloped by this constant enemy of the wise in the form of desire, which is unappeasable as fire.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.39।। हे कौन्तेय ! अग्नि के समान जिसको तृप्त करना कठिन है ऐसे कामरूप,  ज्ञानी के इस नित्य शत्रु द्वारा ज्ञान आवृत है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In the workplace, uncontrolled desire manifests as an endless chase for promotions, wealth, or recognition, leading to burnout, ethical compromises, and a perpetual feeling of inadequacy. Applying this wisdom means recognizing that true professional satisfaction comes from purpose, skill development, and contributing value, rather than succumbing to the insatiable drive for 'more.' Cultivate contentment with present achievements and focus on sustainable growth.

🧘 For Stress & Anxiety

Much of modern stress and mental unrest stems from unfulfilled desires, the fear of not achieving aspirations, or constant comparison. Understanding desire's unquenchable nature helps one detach from its relentless demands. By cultivating awareness of desires and practicing mindfulness, individuals can reduce the mental agitation, anxiety, and disappointment that arise when desires are not met, fostering inner peace and resilience.

❤️ In Relationships

Desires (e.g., for control, specific outcomes, constant validation, or comparing a partner to an ideal) can be highly destructive in relationships. An insatiable desire for a partner to be 'perfect' or to meet every single need can lead to resentment, conflict, and chronic dissatisfaction. Practicing non-attachment to specific outcomes and appreciating the present reality of the relationship can foster deeper connection, empathy, and mutual respect.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Uncontrolled desire, like an unquenchable fire, relentlessly obstructs wisdom and inner peace, leading to perpetual dissatisfaction. Recognize and master this inner enemy.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.39 आवृतम् enveloped? ज्ञानम् wisdom? एतेन by this? ज्ञानिनः of the wise? नित्यवैरिणा by the constant enemy? कामरूपेण whose form is desire? कौन्तेय O Kaunteya? दुष्पूरेण unappeasable? अनलेन by fire? च and.Commentary Manu says? Desire can never be satiated or cooled down by the enjoyment ofobjects. But as fire blazes forth the more when fed with Ghee (melted butter) and wood? so it grows the more it feeds on the objects of enjoyment. If all the foodstuffs of the earth? all the precious metals? all the animals and all the beautiful women were to pass into the possession of one man endowed with desire? they would still fail to give him satisfaction.The ignorant man considers desire as his friend when he craves for objects. He welcomes desire for the gratification of the senses but the wise man knows from experience even before suffering the conseence that desire will bring only troubles and misery for him. So it is a constant enemy of the wise but not of the ignorant.

Shri Purohit Swami

3.39 It is the wise man's constant enemy; it tarnishes the face of wisdom. It is as insatiable as a flame of fire.

Dr. S. Sankaranarayan

3.39. O son of Kunti ! The knowledge of the wise is concealed by this eternal foe, which looks like a desired one, and which is the fire insatiable.

Swami Adidevananda

3.39 The knowledge of the intelligent self is enveloped by this constant enemy, O Arjuna, which is of the nature of desire, and which is difficult to gratify and is insatiable.

Swami Gambirananda

3.39 O son of Kunti, Knowledge is covered by this constant enemy of the wise in the form of desire, which is an insatiable fire.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.39।। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि उस कामरूप शत्रु के द्वारा यह ज्ञान अर्थात् विवेक सार्मथ्य आच्छादित हो जाती है। आत्मानात्म नित्यानित्य और सत्यासत्य में जिस विवेक सार्मथ्य के कारण सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है उसी बुद्धि की क्षमता को यह आवृत कर देता है। यह काम दुष्पूर अर्थात् इसका पूर्ण होना असम्भव ही होता है।अब भगवान् उस काम के निवास स्थान बताते हैं जिसके ज्ञान से शत्रु को नष्ट करना सरल होगा

Swami Ramsukhdas

3.39।। व्याख्या--'एतेन'-- सैंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने पाप करवानेमें मुख्य कारण 'काम' अर्थात् कामनाको बताया था। उसी कामनाके लिये यहाँ 'एतेन'पद आया है। 'दुष्पूरेणानलेन च'-- जैसे अग्निमें घीकी सुहाती-सुहाती (अनुकूल) आहुति देते रहनेसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, ऐसे ही कामनाके अनुकूल भोग भोगते रहनेसे कामना कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है (टिप्पणी प0 194)। जो भी वस्तु सामने आती रहती है, कामना अग्निकी तरह उसे खाती रहती है।भोग और संग्रहकी कामना कभी पूरी होती ही नहीं। जितने ही भोग-पदार्थ मिलते हैं, उतनी ही उनकी भूख बढ़ती है। कारण कि कामना जडकी ही होती है, इसलिये जडके सम्बन्धसे वह कभी मिटती नहीं प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती है। सुन्दरदासजी लिखते हैं-- जो दस बीस पचास सत होइ हजार तो लाख मँगैगी। कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य पृथ्वीपति होन की चाह जगैगी।। स्वर्ग पतालको राज करौ तृष्ना अघकी अति आग लगैगी। सुन्दर एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कभी न भगैगी।। जैसे, सौ रुपये मिलनेपर हजार रुपयोंकी भूख पैदा होती है, तो इससे सिद्ध हुआ कि नौ सौ रुपयोंका घाटाहुआ है। हजार रुपये मिलनेपर फिर सीधे दस हजार रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है तो यह नौहजार रुपयोंका घाटा हुआ है। दस हजार रुपये मिलनेपर फिर सीधे एक लाख रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है, तो यह नब्बे हजार रुपयोंका घाटा हुआ है। लाख रुपये मिलनेपर फिर दस लाख रुपयोंसे सन्तोष नहीं होता, प्रत्युत सीधे करोड़ रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है, तो सिद्ध हुआ कि निन्यानबे लाख रुपयोंका घाटा हुआ है। इस प्रकार वहम तो यह होता है कि लाभ बढ़ गया, पर वास्तवमें घाटा ही बढ़ा है। जितना धन मिलता है, उतनी ही दरिद्रता (धनकी भूख) बढ़ती है। वास्तवमें दरिद्रता उसकी मिटती है, जिसे धनकी भूख नहीं है।'चाह गयी चिन्ता मिटी, मनुआँ बेपरवाह'।जिनको कछू न चाहिये, सो साहनपति साह।।वास्तवमें धन उतनी बाधक नहीं है, जितनी बाधक उसकी कामना है। धनकी कामना चाहे धनीमें हो या निर्धनमें, दोनोंको वह परमात्मप्राप्तिसे वञ्चित रखती है। कामना किसीकी भी कभी पूरी नहीं होती; क्योंकि यह पूरी होनेवाली चीज ही नहीं है। कामनासे रहित तो कामनाके मिटनेपर ही हो सकते हैं।'कामरूपेण'--जडके सम्बन्धसे होनेवाले सुखकी चाहको 'काम' कहते हैं। नाशवान् संसारसे थोड़ी भी महत्त्वबुद्धिका होना 'काम' है।अप्राप्तको प्राप्त करनेकी चाह 'कामना' है। अन्तःकरणमें जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं उनको 'वासना' कहते हैं। वस्तुओंकी आवश्यकता प्रतीत होना 'स्पृहा' है। वस्तुमें उत्तमता और प्रियता दीखना 'आसक्ति' है। वस्तु मिलनेकी सम्भावना रखना 'आशा' है। और अधिक वस्तु मिल जाय--यह 'लोभ' या 'तृष्णा' है। वस्तुकी इच्छा अधिक बढ़नेपर 'याचना' होती है। ये सभी 'काम'के ही रूप हैं।'ज्ञानिनो नित्यवैरिणा'-- यहाँ 'ज्ञानिनः' पद साधनमें लगे हुए विवेकशील साधकोंके लिये आया है। कारण कि विवेकशील साधक ही इस कामरूप वैरीको पहचानता है और उसका नाश करता है। साधन न करने-वाले दूसरे लोग तो उसे पहचानते ही नहीं प्रत्युत इसे सुखदायी समझते हैं।भगवान् कहते हैं कि यह काम विवेकशील साधकोंका नित्य वैरी है। कामना उत्पन्न होते ही विवेकशील साधकको विचार आता है कि अब कोई-न-कोई आफत आयेगी! कामनामें संसारका महत्त्व और आश्रय रहता है, जो पारमार्थिक मार्गमें महान् बाधक है। विवेकी साधकको कामना आरम्भसे ही चुभती रहती है। परिणाममें तो कामना सबको दुःख देती ही है। इसलिये यह साधककी नित्य (निरन्तर) वैरी है।भोगोंमें लगे हुए अज्ञानियोंको यह कामना मित्रके समान मालूम देती है; क्योंकि कामनाके कारण ही भोगोंमें सुख प्रतीत होता है। कामना न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते। परन्तु परिणाममें उन्हें दुःख, सन्ताप, कैद, नरक आदि प्राप्ति होते ही हैं। इसलिये वास्तवमें यह कामना अज्ञानियोंकी भी नित्य वैरी है। परन्तु अज्ञानियोंको जागृति नहीं रहती, जब कि विवेकशील साधकोंको जागृति रहती है।'आवृतं ज्ञानम्'-- विवेक प्राणिमात्रमें है। पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियोंमें यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है। परन्तु मनुष्यमें यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है; क्योंकि कामनाके कारण ही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। विवेक ढका रहनेसे मनुष्य अपने लक्ष्य परमात्मप्राप्तिकी ओर बढ़ नहीं सकता, क्योंकि कामना उसे चिन्मय-तत्त्वकी ओर नहीं जाने देती, प्रत्युत जड-तत्त्वमें ही लगाये रखती है।अपने प्रचि कोई अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और प्रिय एवं सत्य बोले तो अच्छा लगताहै। इसका अर्थ यह हुआ कि अच्छे-बुरे, सद्गुण-दुर्गुण, कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका ज्ञान अर्थात् विवेक सभी मनुष्योंमें रहता है। परन्तु ऐसा होनेपर भी वह अप्रिय और असत्य बोलता है, अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, तो इसका कारण यही है कि कामनाने उसका विवेक ढक दिया है।कामनाके कारण ही 'त्याग में सुख है'--यह ज्ञान काम नहीं करता। मनुष्यको प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोग-पदार्थके मिलनेसे सुख होता है, पर वास्तवमें सुख उसके त्यागसे होता है। यह सभीका अनुभव है कि जाग्रत् और स्वप्नमें भोग-पदार्थोंसे सम्बन्ध रहनेपर सुख और दुःख दोनों होते हैं, पर सुषुप्ति-(गाढ़ निद्रा-) में भोग-पदार्थोंकी किञ्चित् भी स्मृति न रहनेपर सुख ही होता है, दुःख नहीं। इसलिये गाढ़ निद्रासे जागनेपर वह कहता है कि'मैं बड़े सुखसे सोया'। इसके सिवाय जाग्रत् और स्वप्नसे थकावट आती है, जब कि सुषुप्तिसे थकावट दूर होती है और ताजगी आती है। इससे सिद्ध होता है कि भोग-पदार्थोंके त्यागमें ही सुख है।धनकी कामना होते ही धन मनके द्वारा पकड़ा जाता है। जब बाहरसे धन प्राप्त हो जाता है, तब मनसे पकड़े हुए धनका त्याग हो जाता है और सुखकी प्रतीति होती है। अतः वास्तवमें सुखकी प्रतीति बाहरसे धन मिलनेपर नहीं हुई, प्रत्युत मनसे पकड़े हुए धनके त्यागसे ही हुई है है। यदि धनके मिलनेसे ही सुख होता तो उस धनके रहते हुए कभी दुःख नहीं आता; परन्तु उस धनके रहते हुए भी दुःख आ जाता है।जब मनुष्य किसी वस्तुकी कामना करता है, तब वह पराधीन हो जाता है। जैसे, उसके मनमें घड़ीकी कामना पैदा हुई। कामना पैदा होते ही उसको घड़ीके अभावका दुःख होने लगता है तो यह घड़ीकी पराधीनता है। वह सोचता है कि यदि रुपये मिल जायँ तो अभी घड़ी खरीद लूँ अर्थात् रुपयोंके होनेसे अपनेको स्वाधीन और न होनेसे अपनेको पराधीन मानता है। यह मान्यता बिलकुल गलत है। वास्तवमें रुपये मिलनेपर घड़ीकी पराधीनता तो नहीं रही, पर रुपयोंकी पराधीनता तो हो ही गयी; क्योंकि रुपये भी 'पर' हैं 'स्व' नहीं। जैसे वस्तुकी कामना होनेसे वह वस्तुके पराधीन हुआ, ऐसे ही रुपयोंकी कामना होनेसे रुपयोंके पराधीन हुआ। पराधीनता तो वैसी-की-वैसी ही रही! परन्तु कामनासे विवेक ढका जानेके कारण मनुष्यको वस्तुकी पराधीनताका तो अनुभव होता है, पर रुपयोंकी पराधीनताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंके कारण वह स्वाधीनताका अनुभव करता है। जो पराधीनता स्वाधीनताके रूपमें दिखायी देती है, उस पराधीनतासे छूटना बड़ा कठिन होता है।संसारमात्र क्षणभङ्गुर है। शरीर, धन, जमीन, मकान आदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएँ हैं, वे सब-की-सब प्रतिक्षण विनाशकी ओर जा रही हैं और हमारेसे वियुक्त भी हो रही हैं। परन्तु भोग भोगते समय उनकी क्षणभङ्गुरताका ज्ञान नहीं रहता। पदार्थको नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता। साधारण मनुष्योंकी बात ही क्या है, साधक भी भोगोंको नित्य और स्थिर माननेपर ही उनमें फँसता है। इसका कारण कामनाद्वारा विवेक ढका जाना ही है।विशेष बात   मनुष्यको सदाके लिये महान् बनानेके उद्देश्यसे भगवान् कामनाको 'नित्यवैरी' बताकर उससे बचनेके लिये सावधान करते हैं; क्योंकि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका कारण है। एक मनुष्य अपनी स्त्रीको ढूँढ रहा था। लोगोंने पूछा--तुम्हारी स्त्रीका नाम क्या है? उसने कहा--फजीती। फिर पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा-- बदमाश। लोगोंने कहा--घबराओ मत, बड़ी पतिव्रता स्त्री है, अपने-आप आ जायगी! कारण कि बदमाशको फजीती (बदनामी) अवश्य मिलती है। इसी प्रकार संसारके नाशवान् भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्यके पास दुःख अपने-आप आते हैं। मनुष्य दुःखोंसे तो बचना चाहता है, पर दुःखोंके कारण 'काम'-(कामना-) को नहीं छोड़ता। कामनाके रहते हुए स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता-- 'काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं' (मानस 7। 90। 1)। भगवान् 'अनलेन दुष्पूरेण' पदोंसे यह बताते हैं कि भोग-पदार्थोंसे कामना कभी पूरी नहीं होती। ज्यों-ज्यों भोग-पदार्थ मिलते हैं, त्यों-ही-त्यों उनकी कामना बढ़ती है और ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है त्यों-ही-त्यों अभावका अधिक अनुभव होता है एवं अभावको मिटानेके लिये मनुष्य पाप-कर्मोंमें प्रवृत्त होता है। जैसे, धनकी कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य धनकी प्राप्तिमें न्याय-अन्यायका विचार नहीं करता। फिर कामना बढ़नेपर (द्वितीयावस्थामें) वह चोरी, डाके आदिमें भी लग जाता है। फिर और अधिक कामना बढ़नेपर (तृतीयावस्थामें) वह धनके लिये दूसरोंको जानेसे भी मार डालता है। इस प्रकार नाशवान् सुखकी कामना करनेवाला मनुष्य अपने लोक और परलोक--दोनोंको महान् दुःखरूप बना लेता है।  सम्बन्ध-- किसी शत्रुको नष्ट करनेके लिये उसके रहनेके स्थानोंकी जानकारी होनी आवश्यक है, इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें ज्ञानियोंके नित्यवैरी 'काम' के रहनेके स्थान बताते हैं?

Swami Tejomayananda

।।3.39।। हे कौन्तेय ! अग्नि के समान जिसको तृप्त करना कठिन है ऐसे कामरूप,  ज्ञानी के इस नित्य शत्रु द्वारा ज्ञान आवृत है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.39।।शास्त्रतो जातमपि ज्ञानं परमात्मापारोक्ष्याय न प्रकाशते कामेनावृतं ज्ञानिनोऽपि किम्वल्पज्ञानिनः। कामरूपेण कामाख्येन नित्यवैरिणा दुष्पूरेण। दुःखेन हि कामः पूर्यते। न हीन्द्रादिपदं सुखेन लभ्यते। यद्यपीन्द्रादिपदं प्राप्तं पुनर्ब्रह्मादिपदमिच्छतीत्यलं बुद्धिर्नास्तीत्यनलः। उक्तं चज्ञानस्य ब्रह्मणश्चाग्नेर्धूमो बुद्धेर्मलं तथा। आदर्शस्याथ जीवस्य गर्भस्योल्बो हि कामकः इति।

Sri Anandgiri

।।3.39।।सामान्यतो निर्दिष्टं विशेषतो निर्देष्टुमाकाङ्क्षापूर्वकमनन्तरश्लोकमवतारयति किं पुनरिति। कामस्य ज्ञानं प्रत्यावरणसिद्ध्यर्थं ज्ञानिनो नित्यवैरिणेत्यादिविशेषणम्। प्रतीकमादाय व्याकरोति आवृतमित्यादिना। ज्ञानिनां प्रतिवैरित्वेऽपि नित्यवैरित्वं कामस्य कथमित्याशङ्क्याह ज्ञानी हीति। अनर्थप्राप्तिमन्तरेण कामस्य प्रसङ्गावस्था पूर्वमेवेत्युच्यते अतःशब्देन कामप्रसक्तिरेव परामृश्यते नित्यमेवेत्युत्पत्त्यवस्था कार्यावस्था च कामस्य कथ्यते। ननु सर्वस्यापि कामात्मता न प्रशस्तेति कामो नित्यवैरी भवति ततः कुतो ज्ञानिविशेषणमित्याशङ्क्याह नत्विति। अज्ञस्य नासौ नित्यवैरीत्येतदुपपादयति स हीति। कार्यप्राप्तिप्रागवस्था पूर्वमित्युक्ता अज्ञं प्रति वैरित्वे सत्यपि कामस्य नित्यवैरित्वाभावे फलितमाह अत इति। स्वरूपतो नित्यवैरित्वाविशेषेऽपि ज्ञानाज्ञानाभ्यामवान्तरभेदसिद्धिरित्यर्थः। आकाङ्क्षाद्वारा प्रकृतं वैरिणमेव स्फोरयति किंरूपेणेत्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।3.39।।एतच्छब्देन निर्दिष्टं दर्शयन् वैरित्वं स्फुटयति आवृतं ज्ञानमिति स्पष्टम्। अनलत्वं च शोकसन्तापहेतुत्वात्।

Sridhara Swami

।।3.39।।इदंशब्दनिर्दिष्टं दर्शयन्वैरित्वं स्फुटयति आवृतमिति। इदं तु विवेकज्ञानमेतेनावृतम् अज्ञस्य खलु भोगसमये कामः सुखहेतुरेव परिणामे तु वैरितां प्रपद्यते। ज्ञानिनः पुनस्तत्कालमप्यनर्थानुसंधानाद्दुःखहेतुरेवेति नित्यवैरिणेत्युक्तम्। किंच विषयैः पूर्यमाणोऽपि दुःपूरोऽपूर्यमाणः शोकसंतापहेतुत्वादनलतुल्यः। अनेन सर्वान्प्रति नित्यवैरित्वमुक्तम्।

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