Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 41 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Sense Control

Sanskrit Shloka (Original)

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ | पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||३-४१||

Transliteration

tasmāttvamindriyāṇyādau niyamya bharatarṣabha . pāpmānaṃ prajahi hyenaṃ jñānavijñānanāśanam ||3-41||

Word-by-Word Meaning

तस्मात्therefore
त्वम्you
इन्द्रियाणिthe senses
आदौin the beginning
नियम्यhaving controlled
भरतर्षभO best of the Bharatas
पाप्मानम्the sinful
प्रजहिkill
हिsurely
एनम्this

📖 Translation

English

3.41 Therefore, O best of the Bharatas (Arjuna), controlling the senses first, do thou kill this sinful thing, the destroyer of knowledge and realisation.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.41।। इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Before diving into complex projects or demanding tasks, actively control your sensory inputs and impulses. This means minimizing distractions like social media, notifications, or unproductive urges. By establishing this foundational self-discipline, you can maintain deep focus, make clear decisions, and achieve genuine insights and 'realization' in your work, rather than being swayed by superficial desires.

🧘 For Stress & Anxiety

Many modern stressors arise from unchecked desires (e.g., for constant stimulation, instant gratification, or external validation) and overwhelming sensory input. By consciously regulating your exposure to stress-inducing stimuli (e.g., limiting news consumption, digital detox) and managing impulsive reactions, you cultivate inner calm and protect your mental clarity from the 'destroyer' of peace – unchecked desire.

❤️ In Relationships

Uncontrolled desires for validation, control, or immediate gratification often lead to conflict and misunderstanding. By first reining in impulsive words, actions, or expectations driven by your senses, you can foster active listening, empathetic communication, and build genuine connection, preventing the erosion of trust and mutual understanding.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

First master your senses to conquer destructive desires, thereby preserving and deepening true knowledge and realization.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.41 तस्मात् therefore? त्वम् you? इन्द्रियाणि the senses? आदौ in the beginning? नियम्य having controlled? भरतर्षभ O best of the Bharatas? पाप्मानम् the sinful? प्रजहि kill? हि surely? एनम् this? ज्ञानविज्ञाननाशनम् the destroyer of knowledge and realisation (wisdom).Commentary Jnana is knowledge obtained through the study of scriptures. This is indirect knowledge or Paroksha Jnana. Vijnana is direct knowledge or personal experience or Anubhava through Selfrealisation or Aparoksha Jnana. Control the senses first and then kill desire.

Shri Purohit Swami

3.41 Therefore, O Arjuna, first control thy senses and then slay desire, for it is full of sin, and is the destroyer of knowledge and of wisdom.

Dr. S. Sankaranarayan

3.41. Therefore, O best among the Bharatas, by controlling completely the sense-organs in the beginning [itself], you must avoid this sinful one, destroying the knowledge-action.

Swami Adidevananda

3.41 Therefore, O Arjuna, controlling the senses in the very beginning, slay this sinful thing that destroys both knowledge and discrimination.

Swami Gambirananda

3.41 Therefore, O scion of the Bharata dynasty, after first controlling the organs, renounce this one [A variant reading is, 'prajahi hi-enam, completely renounce this one'.-Tr.] which is sinful and a destroyer of learning and wisdom.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.41।। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है श्रीकृष्ण बिना पर्याप्त तर्क दिये किसी सत्य का प्रतिपादन मात्र नहीं करते। अब वे यहाँ भी युक्तियुक्त विवेचन के पश्चात् इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश देते हैं जिसके सम्पादन से अन्तकरण में स्थित कामना को नष्ट किया जा सकता है।इच्छा को यहाँ पापी कहने का कारण यह है कि वह अपने स्थूल रूप में हमें अत्यन्त निम्न स्तर के जीवन को जीने के लिए विवश कर देती है। धुएँ के समान सात्त्विक इच्छा होने पर भी हमारा शुद्ध अनन्तस्वरूप पूर्णरूप से प्रगट नहीं हो पाता। अत सभी प्रकार की इच्छाएँ कमअधिक मात्रा में पापयुक्त ही कही गयी हैं।चिकित्सक को किसी रोगी के लिए औषधि लिख देना सरल है परन्तु यदि वह औषधि आकाशपुष्प से बनायी जाती हो तो रोगी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता इसी प्रकार गुरु का शिष्य को इन्द्रिय संयम का उपदेश देना तो सरल है परन्तु जब तक वे उसका कोई साधन नहीं बताते तब तक उनका उपदेश आकाश पुष्प से बनी औषधि के समान ही असम्भव समझा जायेगा।हम किस वस्तु का आश्रय लेकर इस इच्छा का त्याग करें इस प्रश्न का उत्तर है

Swami Ramsukhdas

।।3.41।। व्याख्या--'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ'--इन्द्रियोँको विषयोंमें भोग-बुद्धिसे प्रवृत्त न होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धिसे अथवा साधन-बुद्धिसे प्रवृत्त होने देना ही उनको वशमें करना है। तात्पर्य है कि इन्द्रियोंकी विषयोंमें रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो। (गीता 18। 10) रागपूर्वक प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्यको पतनकी ओर ले जाते हैं। इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यको जाननेके लिये शास्त्र ही प्रमाण है। (गीता 16। 24) शास्त्रके अनुसार कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो जाती है।काम को मारनेके लिये सबसे पहले इन्द्रियोंका नियमन करनेके लिये कहनेका कारण यह है कि जबतक मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें रहता है तबतक उसकी दृष्टि तत्त्वकी ओर नहीं जाती; और तत्त्वकी ओर दृष्टि गये बिना अर्थात् तत्त्वका अनुभव हुए बिना 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता।मनुष्यकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे ही होती है। इसलिये वह सबसे पहले इन्द्रियोँके विषयोंमें ही फँसता है, जिससे उसमें उन विषयोंकी कामना पैदा हो जाती है। कामना-सहित कर्म करनेसे मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है और इससे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोँको वशमें करके निष्काम-भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, उनका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है। 'एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम्'--'ज्ञान'पदका अर्थ शास्त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है; जैसे--ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्मोंके अन्तर्गत 'ज्ञानम्'पद शास्त्रीय ज्ञानके लिये ही आया है। (गीता 18। 42)। परन्तु यहाँ प्रसङ्गके अनुसार 'ज्ञान' का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यको अलग-अलग जानना) लेना ही उचित प्रतीत होता है। 'विज्ञान' पदका अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभव-ज्ञान, असली ज्ञान या बोध) है।विवेक और तत्त्वज्ञान--दोनों ही स्वतःसिद्ध हैं। तत्त्व-ज्ञानका अनुभव तो सबको नहीं है, पर विवेकका अनुभव सभीको है। मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे है। अर्जुनके प्रश्न-(मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है?) में आये 'अनिच्छन्नपि' पदसे भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्यमें विवेक है और इस विवेकसे ही वह पाप और पुण्य-दोनोंको जानता है और पाप नहीं करना चाहता। पाप न करनेकी इच्छा विवेकके बिना नहीं होती। परन्तु यह 'काम' उस विवेकको ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता।विवेक जाग्रत् होनेसे मनुष्य भविष्यपर अर्थात् परिणामपर दृष्टि रखकर ही सब कार्य करता है। परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण परिणामकी ओर दृष्टि ही नहीं जाती। परिणामकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही वह पाप करता है।इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है उस विवेकको भी जब यहकाम जाग्रत् नहीं होने देता तब जिसका अनुभव सबको नहीं है उस तत्त्वज्ञानको तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा इसलिये यहाँ 'काम' को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध) दोनोंका नाश करनेवाला बताया गया है।वास्तवमें यहकाम ज्ञान और विज्ञानका नाश (अभाव) नहीं करता, प्रत्युत उन दोनोंको ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता। उन्हें ढक देनेको ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है। कारण कि ज्ञान-विज्ञानका कभी नाश होता ही नहीं। नाश तो वास्तवमें 'काम' का ही होता है। जिस प्रकार नेत्रोंके सामने बादल आनेपरबादलोंने सूर्यको ढक दिया' ऐसा कहा जाता है, पर वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता, प्रत्युत नेत्र ढके जाते हैं, उसी प्रकार 'कामनाने ज्ञान-विज्ञानको ढक दिया' ऐसा कहा तो जाता है, पर वास्तवमें ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते, प्रत्युत बुद्धि ढकी जाती है।'पाप्मानं हि प्रजहि'-- कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है। इसलिये कामना उत्पन्न होनेसे पाप होनेकी सम्भावना रहती है। आगे चलकर कामना मनुष्यके विवेकको ढककर उसे अन्धा बना देती है, जिससे उसे पाप-पुण्यका ज्ञान ही नहीं रहता और वह पापोंमें ही लग जाता है। इससे उसका महान् पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् कामनाको महापापी बताकर उसे अवश्य ही मार ���ालनेकी आज्ञा देते हैं।गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं, साधु हो जायँ, एकान्तमें चले जायँ--ऐसा विचार करके मनुष्य कार्यको तो बदलना चाहता है, पर कारण 'कामना' को नहीं छोड़ता; उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता। यदि वह कामनाको छोड़ दे तो उससे सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ। जब मनुष्य जीनेकी कामना तथा अन्य कामनाओंको रखते हुए मरता है, तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्मका कारण बन जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जबतक मनुष्यमें कामना रहती है, तबतक वह जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा रहता है। इस प्रकार बाँधनेके सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती।जब मनुष्यका जड-पदार्थोंकी तरफ आकर्षण होता है, तभी उनकी कामना उत्पन्न होती है। कामना उत्पन्न होते ही विवेक-दृष्टि दब जाती है और इन्द्रिय-दृष्टिकी प्रधानता हो जाती है। इन्द्रियाँ मनुष्यको केवल शब्दादि विषयोंके सुख-भोगमें ही लगाती हैं। पशु-पक्षियोंकी भी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे मिलनेवाले सुखतक ही रहती है। परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य सुखके लिये पदार्थोंकी कामना करने लगता है और फिर पदार्थोंके लिये रुपयोंकी कामना करने लग जाता है। इतना ही नहीं, उसकी दृष्टि रुपयोंसे भी हटकर रुपयोंकी गिनती-(संग्रह-) में हो जाती है। फिर वह रुपयोंकी गिनती बढ़ानेमें ही लग जाता है। निर्वाहमात्रके रुपयोंकी अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करनेवाला है और संग्रहकी अपेक्षा भी रुपयोंकी गिनती महान् पतन करनेवाली है। गिनती बढ़ानेके लिये वह झूठ, कपट, धोखा, चोरी आदि पाप-कर्मोंको भी करने लग जाता है और गिनती बढ़नेपर उसमें अभिमान भी आ जाता है जो आसुरी-सम्पत्तिका मूल है। इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य महान् पतनकी ओर चला जाता है। इसलिये भगवान् इस महान् पापी कामका अच्छी तरह नाश करनेकी आज्ञा देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।3.41।। इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.40 3.41।।वधार्थं शत्रोरधिष्ठानमाह इन्द्रियाणीति। एतैर्ज्ञानमावृत्त्य बुद्ध्यादिभिर्हि विषयगैर्ज्ञानमावृतं भवति। हृताधिष्ठानो हि शत्रुर्नश्यति।

Sri Anandgiri

।।3.41।।तेषां कामाश्रयत्वे सिद्धे साश्रयस्य तस्य परिहर्तव्यत्वमाह यत इति। तस्मादिन्द्रियादीनामाश्रयत्वादिति यावत् पूर्वं कामनिरोधात्प्रागवस्थायामित्यर्थः। तेषु नियमितेषु मनोबुद्ध्योर्नियमः सिध्यति तत्प्रवृत्तेरितरप्रवृत्तिव्यतिरेकेणाफलत्वादिति भावः। पापमूलतया कामस्य तच्छब्दवाच्यत्वमुन्नेयम्। कामस्य परित्याज्यत्वे वैरित्वं हेतुं साधयति ज्ञानेति। ज्ञानविज्ञानशब्दयोरर्थभेदमावेदयति ज्ञानमित्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।3.40 3.41।।अधुना तस्याधिष्ठानं वदन् जयोपायमाह इन्द्रियाणीति द्वाभ्याम्।

Sridhara Swami

।।3.41।। यस्मादेवं तस्मात्त्वमिति। आदौ विमोहात्पूर्वमेवेन्द्रियाणि मनो बुद्धिं च नियम्य पापरूपमेनं कामं हि स्फुटं प्रजहि घातय। यद्वा प्रजहिहि परित्यज। ज्ञानमात्मविषयम् विज्ञानं शास्त्रीयं तयोर्नाशकम्। यद्वा ज्ञानं शास्त्राचार्योपदेशजम् विज्ञानं निदिध्यासनजम्।तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत इति श्रुतेः।

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