Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 3 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ | ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||३-३||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . loke.asmina dvividhā niṣṭhā purā proktā mayānagha . jñānayogena sāṅkhyānāṃ karmayogena yoginām ||3-3||

Word-by-Word Meaning

लोकेin world
अस्मिन्in this
द्विविधाtwofold
निष्ठाpath
पुराpreviously
प्रोक्ताsaid
मयाby Me
अनघO sinless one
ज्ञानयोगेनby the path of knowledge
सांख्यानाम्of the Sankhyas
कर्मयोगेनby the path of action

📖 Translation

English

3.3 The Blessed Lord said In this world there is a twofold path, as I said before, O sinless one; the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogins.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.3।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, understand whether your natural inclination leans towards deep theoretical analysis and strategic thinking (Jnana Yoga) or practical execution, project management, and hands-on work (Karma Yoga). Aligning your career path or specific roles with your innate temperament leads to greater job satisfaction, effectiveness, and a sense of purpose. Recognize that even 'action' in the workplace, when done with a focused, detached attitude, can be a path to personal growth and self-purification.

🧘 For Stress & Anxiety

Stress often arises from forcing oneself into a mode of operation that doesn't align with their true nature. If you're intellectually inclined, too much undirected action can be draining; if you're action-oriented, too much passive contemplation can be frustrating. Acknowledge your disposition and choose activities that resonate with it, whether it's seeking deeper understanding through study (Jnana) or engaging actively in meaningful tasks (Karma). Understanding that disciplined action (Karma Yoga) can purify the mind and prepare it for deeper insight (Jnana Yoga) can help reframe stressful tasks as preparatory steps for greater clarity.

❤️ In Relationships

Recognize that people approach relationships differently. Some connect primarily through shared intellectual understanding, deep conversations, and philosophical alignment (Jnana-based), while others thrive on shared activities, practical support, and mutual effort (Karma-based). Appreciating these diverse 'paths' of interaction can foster empathy and reduce misunderstandings. Understanding your own and others' primary modes allows for more fulfilling connections, whether through collaborative action or profound intellectual exchange.

situations

Choosing a career path or educational focus.Feeling overwhelmed by a new spiritual discipline.Deciding how to contribute to a team or community project.Navigating differences in approach within a family or partnership.Reflecting on one's personal growth journey and next steps.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

There are distinct, valid paths of knowledge and action for spiritual growth; understanding and choosing the one aligned with your temperament and stage of development is essential for effective progress and inner harmony.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.3 लोके in world? अस्मिन् in this? द्विविधा twofold? निष्ठा path? पुरा previously? प्रोक्ता said? मया by Me? अनघ O sinless one? ज्ञानयोगेन by the path of knowledge? सांख्यानाम् of the Sankhyas? कर्मयोगेन by the path of action? योगिनाम् of the Yogins.Commentary The path of knowledge of the Sankhyas (Jnana Yoga) was described by Lord Krishna in chapter II? verses 11 to 38 the path of action (Karma Yoga) from 40 to 53.Pura Prokta may also mean In the beginning of creation the twofold path was given by Me to this world.Those who are endowed with the four means and who have sharp? subtle intellect and bold understanding are fit for Jnana Yoga. Those who have a tendency or inclination for wok are fit for Karma Yoga. (The four means are discrimination? dispassion? sixfold virutes? and longing for liberation. The sixfold virtues are control of the mind? control of the senses? fortitude (endurance)? turning away from the objects of the world? faith and tranillity.)It is not possible for a man to practise the two Yogas simultaneously. Karma Yoga is a means to an end. It purifies the heart and prepares the aspirant for the reception of knowledge. The Karma Yogi should take up Jnana Yoga as soon as his heart is purified. Jnana Yoga takes the aspirant directly to the goal without any extraneous help. (Cf.V.5).

Shri Purohit Swami

3.3 Lord Shri Krishna replied: In this world, as I have said, there is a twofold path, O Sinless One! There is the Path of Wisdom for those who meditate, and the Path of Action for those who work.

Dr. S. Sankaranarayan

3.3. The Bhagavat said The two-fold path in this world-[the one] with Yoga of knowledge for men of reflection [and the other] with Yoga of action for men of Yoga-has been declared to be one by Me formerly, O sinless one !

Swami Adidevananda

3.3 The Lord said In this world a two-fold way was of yore laid down by Me, O sinless one: by Jnana Yoga for the Sankhyas and by Karma Yoga for the Yogins.

Swami Gambirananda

3.3 The Blessed Lord said O unblemished one, two kinds of steadfastness in this world were spoken of by Me in the days of yore-through the Yoga of Knowledge for the men of realization; through the Yoga of Action for the yogis.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.3।। कर्मयोग और ज्ञानयोग को परस्पर प्रतिद्वन्द्वी मानने का अर्थ है उनमें से किसी एक को भी नहीं समझना। परस्पर पूरक होने के कारण उनका क्रम से अर्थात् एक के पश्चात् दूसरे का आश्रय लेना पड़ता है। प्रथम निष्काम भाव से कर्म करने पर मन में स्थित अनेक वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार मन के निर्मल होने पर उसमें एकाग्रता और स्थिरता आती है जिससे वह ध्यान में निमग्न होकर परमार्थ तत्त्व का साक्षात् अनुभव करता है।विदेशी संस्कृति के लोग हिन्दू धर्म को समझने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। साधनों की विविधता और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले उपदेशों को पढ़कर उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। परन्तु केवल इसी कारण से हिन्दू धर्म को अवैज्ञानिक कहने में उतनी ही बड़ी और हास्यास्पद त्रुटि होगी जितनी चिकित्साशास्त्र को विज्ञान न मानने में केवल इसीलिए कि एक ही चिकित्सक एक ही दिन में विभिन्न रोगियों को विभिन्न औषधियों द्वारा उपचार बताता है।अध्यात्म साधना करने के योग्य साधकों में दो प्रकार के लोग होते हैं क्रियाशील और मननशील। इन दोनों प्रकार के लोगों के स्वभाव में इतना अन्तर होता है कि दोनों के लिये एक ही साधना बताने का अर्थ होगा किसी एक विभाग के लोगों को निरुत्साहित करना और उनकी उपेक्षा करना। गीता केवल हिन्दुओं के लिये ही नहीं वरन् समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ लिखा हुआ शास्त्र है। अत सभी के उपयोगार्थ उनकी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप दोनों ही वर्गों के लिये साधनायें बताना आवश्यक है।अत भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि क्रियाशील स्वभाव के मनुष्य के लिये कर्मयोग तथा मननशील साधकों के लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। पुरा शब्द से वह यह इंगित करते है कि ये दो मार्ग सृष्टि के आदिकाल से ही जगत् में विद्यमान हैं।इस श्लोक में प्रथम बार भगवान् श्रीकृष्ण अपने वास्तविक परिचय की एक झलकमात्र दिखाते हैं। यदि गीतोपदेश देवकीपुत्र कृष्ण नामक किसी र्मत्य पुरुष का ही दिया होता तो अधिक से अधिक उसमें उस व्यक्ति की बुद्धि द्वारा समझे हुए सिद्धांत ही होते जिनका आधार जीवन के उसके स्वानुभव मात्र होते। जीवन में अनुभव किये तथ्यों में परिवर्तित होते रहने का विशेष गुण होता है और इसीलिये जब वे बदलते हैं तो हमारा पूर्व का निष्कर्ष भी परिवर्तित हो जाता है। परिवर्तित सामाजिक राजनैतिक आर्थिक परिस्थितियों एवं विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ समाजशास्त्र अर्थशास्त्र एवं विज्ञान के अगणित पूर्वप्रतिपादित सिद्धांत कालबाह्य हो चुके हैं। यदि गीता में कृष्ण नामक किसी मनुष्य की बुद्धि से पहुँचे हुए निष्कर्ष मात्र होते तो वह कालबाह्य होकर अब उसके अवशेष मात्र रह गए होते यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं सृष्टि के आदि में (पुरा) ये दो मार्ग मेरे द्वारा कहे गये थे। इसका तात्पर्य यह है कि यहाँ भगवान् वृन्दावन के नीलवर्ण गोपाल गोपियों के प्रिय सखा अथवा अपने युग के महान् राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं बोल रहे थे। किन्तु भारतीय इतिहास के एक स्वस्वरूप के ज्ञाता तत्त्वदर्शी उपदेशक सिद्ध पुरुष एवं ईश्वर के रूप में उपदेश दे रहे थे। उस क्षण न तो वे अर्जुन के सारथि के रूप में न एक सखा के रूप में और न ही पाण्डवों के शुभेच्छु के रूप में बात कर रहे थे। उन्हें अपने पारमार्थिक स्वरूप जगत् के अधिष्ठान कारण के रूप में पूर्ण भान था। काल और कारण के अतीत सत्यस्वरूप में स्थित हुए वे इन दो मार्गों के आदि उपदेशक के रूप में अपना परिचय देते हैं।कर्मयोग लक्ष्य प्राप्ति का क्रमिक साधन है साक्षात् नहीं। अर्थात् वह ज्ञान प्राप्ति की योग्यता प्रदान करता है जिससे ज्ञानयोग के द्वारा सीधे ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसे समझाने के लिए भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।3.3।। व्याख्या-- [अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने समतावाचक 'बुद्धि' शब्दका अर्थ 'ज्ञान' समझ लिया। परन्तु भगवान्ने पहले बुद्धि और 'बुद्धियोग' शब्दसे समताका वर्णन किया था (2। 39 49 आदि) अतः यहाँ भी भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग--दोनोंके द्वारा प्रापणीय समताका वर्णन कर रहे हैं।]'अनघ'-- अर्जुनके द्वारा अपने श्रेय-(कल्याण-) की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता है; क्योंकि अपने कल्याणकी तीव्र इच्छा होनेपर साधकके पाप नष्ट हो जाते हैं।  'लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया'-- यहाँ लोके पदका अर्थ मनुष्य-शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग--दोनों प्रकारके साधनोंको करनेका अधिकार अथवा साधक बननेका अधिकार मनुष्य-शरीरमें ही है।'निष्ठा'-- अर्थात् समभावमें स्थिति एक ही है, जिसे दो प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है--ज्ञानयोगसे और कर्मयोगसे। इन दोनों योगोंका अलग-अलग विभाग करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें कहा है कि इस समबुद्धिको मैंने सांख्ययोगके विषयमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) कह दिया है, अब इसे कर्मयोगके विषयमें (उन्तालीसवें तिरपनवें श्लोकतक) सुनो--'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।' 'पुरा' पदका अर्थ अनादिकाल भी होता है और अभीसे कुछ पहले भी होता है। यहाँ इस पदका अर्थ है--अभीसे कुछ पहले अर्थात् पिछला अध्याय, जिसपर अर्जुनकी शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पिछले अध्यायमें अलग-अलग कही जा चुकी हैं, तथापि किसी भी निष्ठामें कर्मत्यागकी बात नहीं कही गयी है।मार्मिक बात यहाँ भगवान्ने दो निष्ठाएँ बतायी हैं--सांख्यनिष्ठा (ज्ञानयोग) और योगनिष्ठा (कर्मयोग)। जैसे लोकमें दो तरहकी निष्ठाएँ हैं--'लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा', ऐसे ही लोकमें दो तरहके पुरुष हैं 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके' (गीता 15। 16) वे हैं--क्षर (नाशवान् संसार) और अक्षर (अविनाशी स्वरूप)। क्षरकी सिद्धिअसिद्धि प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना 'कर्मयोग' है और क्षरसे विमुख होकर अक्षरमें स्थित होना 'ज्ञानयोग' है। परन्तु क्षर अक्षर--दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा जाता है--'उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः' (15। 17)। वह परमात्मा क्षरसे तो अतीत है और अक्षरसे उत्तम है; अतः शास्त्र और वेदमें वह 'पुरुषोत्तम' नामसे प्रसिद्धि है (15। 18)। ऐसे परमात्माके सर्वथा सर्वभावसे शरण हो जाना 'भगवन्निष्ठा' (भक्तियोग) है। इसलिये क्षरकी प्रधानतासे कर्मयोग, अक्षरकी प्रधानतासे ज्ञानयोग और परमात्माकी प्रधानतासे भक्तियोग चलता है (टिप्पणी प0 116)।सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकोंकी अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसारकी वस्तु-(शरीरादि-) को संसारकी ही सेवामें लगाकर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करता है। परन्तु भगवन्निष्ठामें साधकको पहले 'भगवान् हैं'--इसका अनुभव नहीं होता पर उसका विश्वास होता है कि स्वरूप और संसार--इन दोनोंसे भी विलक्षण कोई तत्त्व (भगवान्) है। अतः वह श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्को मानकर अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें तो 'जानना' (विवेक) मुख्य है और भगवन्निष्ठामें 'मानना' (श्रद्धाविश्वास) मुख्य है।जानना और मानना दोनोंमें कोई फरक नहीं है। जैसे 'जानना' सन्देहरहित (दृढ़) होता है ऐसे ही 'मानना' भी सन्देहरहित होता है। मानी हुई बातमें विचारकी सम्भावना नहीं रहती। जैसे, 'अमुक मेरी माँ है'--यह केवल माना हुआ है, पर इस माने हुएमें कभी सन्देह नहीं होता, कभी जिज्ञासा नहीं होती कभी विचार नहीं करना पड़ता। इसलिये गीतामें भक्तियोगके प्रकरणमें जहाँ जाननेकी बात आयी है, उसको माननेके अर्थमें ही लेना चाहिये। इसी तरह ज्ञानयोग और कर्मयोगके प्रकरणमें जहाँ माननेकी बात आयी है, उसको जाननेके अर्थमें ही लेना चाहिये।सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा तो साधन-साध्य हैं और साधकपर निर्भर हैं, पर भगवन्निष्ठा साधन-साध्य नहीं है। भगवन्निष्ठामें साधक भगवान् और उनकी कृपापर निर्भर रहता है।भगवन्निष्ठाका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है; जैसे--इसी अध्यायमें पहले दो निष्ठाओंका वर्णन करके फिर तीसवें श्लोकमें 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य' पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है; पाँचवें अध्यायमें भी दो निष्ठाओंका वर्णन करके दसवें श्लोकमें 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' और अन्तमें 'भोक्तारं यज्ञतपसाम्'৷৷. 'आदि पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है, इत्यादि'। 'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्' प्रकृतिसे उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें, इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं (गीता 3। 28) और मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है--ऐसा समझकर समस्त क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना 'ज्ञानयोग' है।गीतोपदेशके आरम्भमें ही भगवान्ने सांख्ययोग-(ज्ञानयोग-) का वर्णन करते हुए नाशवान् शरीर और अविनाशी शरीरीका विवेचन किया है, जिसे (गीता 2। 16 में) असत् और सत्के नामसे भी कहा गया है।   'कर्मयोगेन योगिनाम्'-- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामनेआ जाय, उसको (उस कर्म तथा उसके फलमें) कामना, ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके करना तथा कर्मकी सिद्धि और असिद्धिमें सम रहना 'कर्मयोग' है।भगवान्ने कर्मयोगका वर्णन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकमें मुख्यरूपसे किया है। इनमें भी सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगका सिद्धान्त कहा गया है और अड़तालीसवें श्लोकमें कर्मयोगको अनुष्ठानमें लानेकी विधि कही गयी है।

Swami Tejomayananda

।।3.3।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.3।।ज्यायस्त्वेऽपि बुद्धेराधिकारिकत्वात् त्वं कर्मण्यधिकृत इति तत्र नियोक्ष्यामीत्याशयवान्भगवानाह लोक इति। द्विविधा अपि जनाः सन्ति गृहस्थादिकर्मत्यागेन ज्ञाननिष्ठाः सनकादिवत् तत्स्था एव ज्ञाननिष्ठाश्च जनकादिवत् मद्धर्मस्था एवेत्यर्थः। साङ्ख्यानां ज्ञानिनां सनकादीनाम्। योगिनामुपायिनां जनकादीनाम्। ज्ञाननिष्ठा अप्याधिकारिकत्वादीश्वरेच्छया लोकसङ्ग्रहार्थत्वाच्च ये कर्मयोग्या भवन्ति तेऽपि योगिनः। निष्ठा स्थितिः। त्वं तु जनकादिवत् सकर्मैव ज्ञानयोग्यः न तु सनकादिवत्तत्त्यागेनेत्यर्थः। सन्ति हीश्वरेच्छयैव कर्मकृतः प्रियव्रतादयोऽपि ज्ञानिन एव। तथा ह्युक्तम् ईश्वरेच्छया विनिवेशितकर्माधिकारः भाग.5।1।23 इति।

Sri Anandgiri

।।3.3।।समुच्चयविरोधितया प्रश्नं व्याख्याय तद्विरोधित्वेनैव प्रतिवचनमुत्थापयति प्रश्नेति। येयं व्यवहारभूमिरुपलभ्यते तत्र त्रैवर्णिका ज्ञानं कर्म वा शास्त्रीयमनुष्ठातुमधिक्रियन्ते। तेषां द्विधा स्थितिर्मया प्रोक्तेति पूर्वार्धं योजयति लोकेऽस्मिन्निति। स्थितिमेव व्याकरोति अनुष्ठेयेति। पूर्वं प्रवचनप्रसङ्गं प्रदर्शयन्प्रवक्तारं विशिनष्टि सर्गादाविति। प्रवचनस्यायथार्थत्वशङ्कां वारयति सर्वज्ञेनेति। अर्जुनस्य भगवदुपदेशयोग्यत्वं सूचयति अनघेति। निर्धारणार्थे तत्रेति सप्तमी। ज्ञानं परमार्थवस्तुविषयं तदेव योगशब्दितं युज्यतेऽनेन ब्रह्मणेति व्युत्पत्तेस्तेन। निष्ठेत्यनुवर्तते। उक्तज्ञानोपायमुपदिदिक्षुः सांख्यशब्दार्थमाह आत्मेति। तेषामेव कर्मनिष्ठत्वं व्यावर्तयति ब्रह्मचर्येति। तेषां जपादिपारवश्येन श्रवणादिपराङ्मुखत्वं पराकरोति वेदान्तेति। उक्तविशेषणवतां मुख्यसंन्यासित्वेन फलावस्थत्वं दर्शयति परमहंसेति। कर्म वर्णाश्रमविहितं धर्माख्यं तदेव युज्यते तेनाभ्युदयेनेति योगस्तेन निष्ठा कर्मिणां प्रोक्तेत्यनुषङ्गं दर्शयन्नाह कर्मैवेत्यादिना। एवं प्रतिवचनवाक्यस्थान्यक्षराणि व्याख्याय तस्यैव तात्पर्यार्थं कथयति यदि चेति। इष्टस्यापि दुर्बोधत्वमाशङ्क्याह उक्तमिति। ज्ञानस्यापि मूलविकलतया विभ्रमत्वमाशङ्क्याह वेदेष्विति। तस्याशिष्यत्वबुद्ध्यान्यथाकथनमित्याशङ्क्याह उपसन्नायेति। तथापि तस्मिन्नौदासीन्यादन्यथोक्तिरित्याशङ्क्याह प्रियायेति। ब्रवीति च भिन्नपुरुषकर्तृकं निष्ठाद्वयं तेन समुच्चयो भगवदभीष्टः शास्त्रार्थो न भवतीति शेषः। नन्वर्जुनस्य प्रेक्षापूर्वकारित्वाज्ज्ञानकर्मश्रवणानन्तरमुभयनिर्देशानुपपत्त्या समुच्चयानुष्ठानं संपत्स्यते तद्व्यतिरिक्तानां तु ज्ञानकर्मणोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वं श्रुत्वा प्रत्येकं तदनुष्ठानं भविष्यतीति भगवतो मतं कल्प्यते तस्यार्जुनेऽनुरागातिरेकादितरेषु च तदभावादिति तत्राह यदि पुनरिति। अप्रमाणभूतत्वमनाप्तत्वम्। नच भगवतो रागादिमत्त्वेनानाप्तत्वं युक्तंसमं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् इत्यादिविरोधादित्याह तच्चेति। निष्ठाद्वयस्य भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वनिर्देशफलमुपसंहरति तस्मादिति।

Sri Vallabhacharya

।।3.3।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति। पूर्वोक्तं त्वया सम्यक् नावधृतं यतः अस्मिन् लोके द्विविधा निष्ठा मया पुरा प्रोक्ता ये तु साङ्ख्यास्तेषां ज्ञानयोगेन सर्वत्यागरूपा स्थितिरुक्ता ये चोक्तयोगाधिकारिणस्तेषामुक्तविधकर्मयोगेनेति। स्वस्वाधिकारानुसारेणैव सर्वं योग्यमिति न बुद्धिव्यामोहः कार्यः। अधिकारभेदस्तु सर्वाभिमतोऽत एव क्वचिज्ज्ञानं क्वचिद्भक्तिरिति स्वतः पुरुषार्थहेतवः। एवं मोक्षोपायाःयोगो ज्ञानं च भक्तिश्च इत्युक्ताः।

Sridhara Swami

।।3.3।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति। अयमर्थः। यदि मया परस्परनिरपेक्षं मोक्षासाधनत्वेन कर्मज्ञानयोगरुपं निष्ठाद्वयमुक्तं स्यात्तर्हि द्वयोर्मध्ये यद्भद्रं तदेकं वदेति त्वदीयप्रश्नः संगच्छेत न तु मया तथोक्तं किंतु द्वाभ्यामेकैव ब्रह्मनिष्ठोक्ता। गुणप्रधानभूतयोस्तयोः स्वातन्त्रयानुपपत्तेः। एकस्या एव तु प्रकारभेदमात्रमधिकारभेदेनोक्तमिति। अस्मिन् शुद्धाशुद्धान्तःकरणतया द्विविधे लोकेऽधिकारिजाने द्वे विधे प्रकारौ यस्याः सा द्विविधा निष्ठा मोक्षपरता पुरा पूर्वोध्याये मया सर्वज्ञेन प्रोक्ता स्पष्टमेवोक्ता। प्रकारद्वयमेव निर्दिशति। सांख्यानां शुद्धान्तःकरणानां ज्ञानभूमिकामारुढानां ज्ञानपरिपाकार्थं ज्ञानयोगेन ध्यानादिना निष्ठा ब्रह्मपरतोक्तातानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः इत्यादिना। सांख्यभूमिकामारुरुक्षूणां त्वन्तःकरणशुद्धिद्वारा तदारोहार्थं तदुपायभूतकर्मयोगाधिकारिणां योगिनां कर्मंयोगेन निष्ठोक्ताधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिना। अतएव चित्तशुद्ध्यशुद्धिरुपावस्थामेदेनैव द्विविधापि निष्ठोक्ताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु इति।

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