Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 2 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे | तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ||३-२||
Transliteration
vyāmiśreṇeva vākyena buddhiṃ mohayasīva me . tadekaṃ vada niścitya yena śreyo.ahamāpnuyām ||3-2||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.2 With this apparently perplexing speech, Thou confusest, as it were, my understanding; therefore tell me that one way for certain by which I may attain bliss.
।।3.2।। आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहितसा करते हैं अत आप उस एक (मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When faced with multiple career paths, conflicting strategic advice, or an overwhelming number of options, this verse encourages seeking clear guidance, defining a single, most effective path, and committing to it to achieve professional goals. Avoid analysis paralysis by demanding a clear directive.
🧘 For Stress & Anxiety
Indecision and mental confusion are major contributors to stress and anxiety. By actively seeking clarity, asking direct and specific questions, and defining a singular actionable plan, one can reduce mental overwhelm, achieve focus, and foster a greater sense of peace and direction.
❤️ In Relationships
In personal relationships, confusion can arise from mixed signals, unclear expectations, or ambiguous commitments. This verse prompts direct communication, asking for unambiguous clarification of intentions or a clear path forward to build healthier, more stable connections based on mutual understanding rather than vague assumptions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cut through confusion by seeking clear, definitive guidance and committing to a singular, purposeful path that leads directly to your highest good.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.2 व्यामिश्रेण perplexing? इव as it were? वाक्येन with speech? बुद्धिम् understanding? मोहयसि (Thou) confusest? इव as it were? मे my? तत् that? एकम् one? वद tell? निश्चित्य for certain? येन by which? श्रेयः bliss (the good or the highest)? अहम् I? आप्नुयाम् may attain.Commentary Arjuna says to Lord Krishna? Tecah me one of the two? knowledge or action? by which I may attain to the highest good or bliss or Moksha. (Cf.V.I).
Shri Purohit Swami
3.2 Thy language perplexes me and confuses my reason. Therefore please tell me the only way by which I may, without doubt, secure my spiritual welfare.
Dr. S. Sankaranarayan
3.2. You appear to perplex my intellect with Your speech that looks confusing. Hence tell me, with certainty, that particular thing by which I may attain the good (emancipation).
Swami Adidevananda
3.2 You confuse my mind with statements that seem to contradict each other; tell me for certain that one way by which I could reach the highest good.
Swami Gambirananda
3.2 You bewilder my understanding, as it were, by a seemingly conflicting statement! Tell me for certain one of these by which I may attain the highest Good.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.2।। पहले से ही मोहितमन अर्जुन में सामान्य मनुष्य होने के नाते वह सूक्ष्म बुद्धि नहीं थी जिसके द्वारा विवेकपूर्वक भगवान् के सूक्ष्म तर्कों को समझ कर वह निश्चित कर सके कि परम श्रेय की प्राप्ति के लिए कर्म मार्ग सरल था अथवा ज्ञान मार्ग। इसलिए वह यहाँ भगवान् से नम्र निवेदन करता है आप उस मार्ग को निश्चित कर आदेश करिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।अर्जुन को इसमें संदेह नहीं था कि जीवन केवल धन के उपार्जन परिग्रह और व्यय के लिए नहीं है। वह जानता था कि उसका जीवन श्रेष्ठ सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए था जिसके लिए भौतिक उन्नति केवल साधन थी साध्य नहीं। अर्जुन मात्र यह जानना चाहता था कि वह उपलब्ध परिस्थितियों का जीवन की लक्ष्य प्राप्ति और भविष्य निर्माण में किस प्रकार सदुपयोग करे।प्रश्न के अनुरूप भगवान् उत्तर देते हैं
Swami Ramsukhdas
।।3.2।। व्याख्या-- 'जनार्दन'-- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव'-- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें 'बुद्धिर्योगे' पदसे समबुद्धि-(समता-) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन! आपने पहले कहा कि 'मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा।' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि 'बुद्धियोग' अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप, आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है।' परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि 'तू इन कुरुवंशियोंको देख', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लिया गया है। अगर यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'समबुद्धि' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्याय��े अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग-(समता-) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं--ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं--ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है। 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे'-- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे 'कुरु कर्माणि' (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो 'बुद्धौ शरणमन्विच्छ' (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार 'इव' पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहतिसी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते, तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन? 'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'-- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा--इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये--'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ। सम्बन्ध-- अब आगेके तीन (तीसरे चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन' (मिले हुएसे वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.2।। आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहितसा करते हैं अत आप उस एक (मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.2।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।3.2।।यत्तु वृत्तिकारैरुक्तं श्रौतेन स्मार्तेन च कर्मणा समुच्चयो गृहस्थानां श्रेयःसाधनमितरेषां स्मार्तेनैवेति भगवतोक्तमर्जुनेन च निर्वारितमिति तदेतदनुवदति अथेति। तत्रापि तत्किमित्याद्युपालम्भवचनमनुपपन्नं कर्ममात्रसमुच्चयवादिनो भगवतो नियोजनाभावादिति दूषयति तत्किमिति। इतश्च प्रश्नः समुच्चयानुसारी न भवतीत्याह किञ्चेति। भगवतो विविक्तार्थवादित्वादयुक्तं व्यामिश्रेणेत्यादिवचनमित्याशङ्क्याह यद्यपीति। यदि भगवद्वचनं संकीर्णमिव ते भाति तर्हि तेन त्वदीयबुद्धिव्यामोहनमेव तस्य विवक्षितमिति किमिति मोहयसीवेत्युच्यते तत्राह ममेति। ज्ञानकर्मणी मिथो विरोधाद्युगपदेकपुरुषाननुष्ठेयतया भिन्नकर्तृके कथ्येत तथाच तयोरन्यतरस्मिन्नेव त्वं नियुक्तो नतु ते बुद्धिव्यामोहनमभिमतमिति भगवतो मतमनुवदति त्वं त्विति। तदेकमित्यादिश्लोकार्थेनोत्तरमाह तत्रेति। उक्तं भागवतमतं सप्तम्या परामृश्यते। एकमित्युक्तप्रकारोक्तिः। एकमित्युक्तमेव स्फुटयति बुद्धिमिति। निश्चयप्रकारं प्रकटयति इदमिति। योग्यत्वं स्पष्टयति बुद्धीति। अस्य क्षत्रियस्य सतोऽन्तःकरणस्य देहशक्तेः समरसमारम्भावस्थायाश्चेदमेव ज्ञानं कर्म वानुगुणमिति निर्धार्य ब्रूहीत्यर्थः। निश्चित्यान्यतरोक्तौ तेन श्रोतुः श्रेयोवाप्तिं फलमाह येनेति। तदेकमित्यादिवाक्यस्याक्षरोत्थमर्थमुक्त्वा समुच्चयस्य शास्त्रार्थत्वाभावे तात्पर्यमाह यदि हीति। गुणभूतमपीत्यादिना प्रधानभूतमपि वेति विवक्षितं। नतूभयप्राप्त्यसंभवमात्मनो मन्यमानस्यार्जुनस्यान्यतरविषया शुश्रूषा भविष्यति नेत्याह नहीति। यथोक्तभगवद्वचनाभावे द्वयप्राप्त्यसंभवबुद्ध्या नान्यतरप्रार्थना संभवतीत्याह येनेति। नहि तथाविधं भगवद्वचनं भवतेष्टं भगवतः समुच्चयवादित्वाङ्गीकारादतस्तदभावादुक्तबुद्ध्या न युक्तान्यतरप्रार्थनेत्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।3.2।।ननुधर्म्याद्धि युद्धात् 2।31 इति कर्मणः श्रेयस्त्वत्तो नोदितमिति चेत्तत्राह व्यामिश्रेणेति। तर्हि तव वाक्यं व्यामिश्रं नैकान्तिकं सन्देहोत्पादकमिव क्वचित् कर्मप्रशंसा क्वचित् कर्मत्यागप्रशंसा। एकमिति। एतेन मे बुद्धिं मोहयसीव तदेकं निश्चित्य वद।
Sridhara Swami
।।3.2।। ननुधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिना कर्मणोऽपि श्रेष्ठत्वमुक्तमेवेत्याशङ्क्याह व्यामिश्रेणेति। क्वचित्कर्मप्रशंसा क्वचिज्ज्ञानप्रशंसेत्येव व्यामिश्रं संदेहोत्पादकमिव यद्धाक्यं तेन मे बुद्धिं मतिमुभयत्र दोलायितां कुर्वन्मोहयसीव। परमकारुणिकस्य तव मोहकत्वं नास्त्येव तथापि भ्रान्त्या ममैवं भातीतीवशब्देनोक्तं अत उभयोर्मध्ये यद्भद्रं तदेकं निश्चित्य वदेति। यद्वा इदमेव श्रेयःसाधनमिति निश्चित्य येनानुष्ठितेन श्रेयो मोक्षमहमाप्नुयां प्राप्स्यामि तदेवैकं निश्चित्य वदेत्यर्थः।