Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 4 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Action vs. Inaction

Sanskrit Shloka (Original)

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते | न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||३-४||

Transliteration

na karmaṇāmanārambhānnaiṣkarmyaṃ puruṣo.aśnute . na ca saṃnyasanādeva siddhiṃ samadhigacchati ||3-4||

Word-by-Word Meaning

not
कर्मणाम्of actions
अनारम्भात्from nonperformance
नैष्कर्म्यम्actionlessness
पुरुषःman
अश्नुतेreaches
not
and
संन्यसनात्from renunciation
एवonly
सिद्धिम्perfection

📖 Translation

English

3.4 Not by non-performance of actions does man reach actionlessness; nor by mere renunciation does he attain to perfection.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Simply avoiding difficult tasks or quitting your job will not bring lasting peace or 'perfection' if your mind is still entangled in desires, worries, or planning. True effectiveness and satisfaction in your career come from cultivating a detached mindset and performing your duties with skill and focus, rather than seeking escape through inaction.

🧘 For Stress & Anxiety

Attempting to reduce stress by merely 'doing nothing' or physically withdrawing from responsibilities often fails, as the mind continues to churn with thoughts, anxieties, and plans. Genuine mental calm and stress reduction arise from managing your internal landscape – thoughts, desires, and attachments – through self-awareness and wisdom, rather than just stopping external activity.

❤️ In Relationships

Withdrawing from difficult conversations or emotionally distancing yourself from relationship challenges will not lead to true resolution or 'perfection' in your connections. If your mind is still holding grievances, expectations, or unresolved issues, physical separation is superficial. Authentic growth in relationships requires engaging consciously, addressing issues with a detached yet compassionate mindset, and working on your internal reactions rather than just avoiding interaction.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True liberation and inner peace come from mastering the mind and acting with wisdom and detachment, not merely from avoiding external activity or superficial renunciation.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.4 न not? कर्मणाम् of actions? अनारम्भात् from nonperformance? नैष्कर्म्यम् actionlessness? पुरुषः man? अश्नुते reaches? न not? च and? संन्यसनात् from renunciation? एव only? सिद्धिम् perfection? समधिगच्छति attains.Commentary Actionlessness (Naishkarmyam) and perfection (Siddhi) are synonymous. The sage who has attained to perfection or reached the state of actionlessness rests in his own essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute (Satchidananda Svarupa). He has neither necessity nor desire for action as a means to an end. He has perfect satisfaction in the Self.One attains to the state of actionlessness by gaining the knowledge of the Self. If a man simply sits iet by abandoning action you cannot say that he has attained to the state of actionlessness. His mind will be planning? scheming and speculating. Thought is real action. The sage who is free from affirmative thoughts? wishes? and likes and dislikes? who has the knowledge of the Self can be said to have attained to the state of actionlessness.No one can reach perfection or freedom from action or knowledge of the Self by mere renunciation or by simply giving up activities without possessing the knowledge of the Self. (Cf.XVIII.49).

Shri Purohit Swami

3.4 No man can attain freedom from activity by refraining from action; nor can he reach perfection by merely refusing to act.

Dr. S. Sankaranarayan

3.4. A person attains actionlessness not [just] by non-commencement of actions; and not just by renunciation, he attains success (emancipation).

Swami Adidevananda

3.4 No man experiences freedom from activity (Naiskarmya) by abstaining from works; and no man ever attains success by mere renunciation of works.

Swami Gambirananda

3.4 A person does not attain freedom from action by abstaining from action; nor does he attain fulfilment merely through renunciation.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.4।। अपने आत्मस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति परिपूर्ण है। इस पूर्णत्व के अज्ञान के कारण हमारी बुद्धि में अनेक इच्छायें सुख को पाने के लिये उत्पन्न होती हैं। यह सब जानते हैं कि हम केवल उन्हीं वस्तुओं की इच्छा करते हैं जो पहले से हमारे पास पूर्ण रूप में अथवा पर्याप्त मात्रा में नहीं होतीं। जैसी इच्छायें वैसी ही विचार वृत्तियाँ मन में उठती हैं। मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ विक्षेप कहलाती हैं। प्रत्येक क्षण इन वृत्तियों के गुणधर्म इच्छाओं के अनुरूप ही होते हैं। ये विचार ही शरीर के स्तर पर बाह्य जगत् में मनुष्य के कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इस प्रकार अविद्या जनित इच्छा विक्षेप और कर्म की श्रृंंखला में हम बँधे पड़े हुए हैं।इस पर और अधिक गहराई से विचार करने पर ज्ञात होगा कि वास्तव में यह सब भिन्नभिन्न न होकर एक आत्म अज्ञान के ही अनेक रूप हैं। यह अज्ञान बुद्धि मन और शरीर के स्तर पर क्रमश इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत स्वाभाविक है कि यदि परम तत्त्व की परिभाषा अज्ञान के परे का अनुभव है तो यह भी सत्य है कि इच्छा शून्य या विचार शून्य या कर्म शून्य स्थिति ही आत्मस्वरूप है। कर्मशून्यत्व को यहाँ नैर्ष्कम्य कहा है।इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि नैर्ष्कम्य का वास्तविक अर्थ पूर्णत्व है। अत भगवान् कहते हैं कि कर्मों के संन्यास मात्र से नैर्ष्कम्य सिद्धि नहीं मिलती। जीवनसंघर्षों से पलायन व्यक्ति के विकास के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग नहीं है। अर्जुन का विचार रणभूमि से पलायन करने का था और इसीलिए उसे वैदिक संस्कृति के सम्यक् ज्ञान की पुन शिक्षा देना आवश्यक था। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य गीतोपदेश का यही प्रयोजन भी था।कर्मयोग से अन्तकरण शुद्धि और तत्पश्चात् ज्ञानयोग से आत्मानुभूति संक्षेप में यह है आत्मविकास की साधना जिसका संकेत इस श्लोक में किया गया है। इसलिए हिन्दू धर्म पर लिखने वाले सभी महान् लेखक इस श्लोक को प्राय उद्धृत करते हैं।ज्ञान के बिना केवल कर्मसंन्यास से ही नैर्ष्कम्य अथवा पूर्णत्व क्यों नहीं प्राप्त होता कारण यह है कि

Swami Ramsukhdas

।।3.4।। व्याख्या-- 'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते'-- कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है (टिप्पणी प0 117)। यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है।'नैष्कर्म्यम् अश्नुते'पदोंका आशय है कि कर्मयोगका आचरण करनेवाला मनुष्य कर्मोंको करते हुए ही निष्कर्मताको प्राप्त होता है। जिस स्थितिमें मनुष्यके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते, उस स्थितिको 'निष्कर्मता' कहते हैं।कामनासे रहित होकर किये गये कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिका उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीजको भूनने या उबालनेपर उसमें पुनः अंकुर देनेकी शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। अतः निष्काम मनुष्यके कर्मोंमें पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घुमानेकी शक्ति नहीं रहती।कामनाका त्याग तभी हो सकता है जब सभी कर्म दूसरोंकी सेवाके लिये किये जायँ अपने लिये नहीं। कारण कि कर्ममात्रका सम्बन्ध संसारसे है और अपना (स्वरूपका) सम्बन्ध परमात्मासे है। अपने साथ कर्मका सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये जबतक अपने लिये कर्म करेंगे तबतक कामनाका त्याग नहीं होगा; और जबतक कामनाका त्याग नहीं होगा, तबतक निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होगी।'न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति'-- इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने कर्मयोगकी दृष्टिसे कहा कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगीको निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं कि केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेसे सांख्ययोगीको सिद्धि अर्थात् निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। सिद्धिकी प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन-(अहंता-) का त्याग करना आवश्यक है। अतः सांख्ययोगीके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना मुख्य नहीं है, प्रत्युत अहंताका त्याग ही मुख्य है। सांख्ययोगमें कर्म किये भी जा सकते हैं औ किसी सीमातक कर्मोंका त्याग भी किया जा सकता है; परन्तु कर्मयोगमें सिद्धि-प्राप्तिके लिये कर्म करना आवश्यक होता है (गीता 6। 3)।'मार्मिक बात'श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्यको व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला सिखाती है। उसका आशय कर्तव्य-कर्म करानेमें है, छुड़ानेमें नहीं। इसलिये भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोग--दोनों ही साधनोंमें कर्म करनेकी बात कहते हैं।यह एक स्वाभाविक बात है कि जब साधक अपना कल्याण चाहता है, तब वह सांसारिक कर्मोंसे उकताने लगता है और उन्हें छोड़ना चाहता है। इसी कारण अर्जुन भी कर्मोंसे उकताकर भगवान्से पूछते हैं कि जब कर्मयोग और ज्ञान-योग--दोनों प्रकारके साधनोंका तात्पर्य समतासे है, तो फिर कर्म करनेकी बात आप क्यों कहते हैं? मुझे युद्ध-जैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? परन्तु भगवान्ने दोनों ही प्रकारके साधनोंमें अर्जुनको कर्म करनेकी आज्ञा दी है; जैसे--कर्मयोगमें 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (गीता 2। 48) और सांख्ययोगमें 'तस्माद्युध्यस्व भारत' (गीता 2। 18)। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्का अभिप्राय कर्मोंको स्वरूपसे छुड़ानेमें नहीं, प्रत्युत कर्म करानेमें है। हाँ, भगवान् कर्मोंमें जो जहरीला अंश--कामना, ममता और आसक्ति है, उसका त्याग करके ही कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी अपेक्षा साधकको उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। कर्मयोगी निःस्वार्थ-भावसे कर्म करते हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको संसारकी वस्तु मानकर संसारकी सेवामें लगाता है और कर्मों तथा पदार्थोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता (गीता 5। 11)। ज्ञानयोगमें सत्-असत् विवेककी प्रधानता रहती है। अतएव ज्ञानयोगी ऐसा मानता है कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे ही कर्म हो रहे हैं। मेरा कर्मोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है (गीता 3। 28 5। 89)।प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म ,पदार्थ और व्यक्ति-(परिवार-) से उनकी अरुचि होने लगती है। परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम-विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है। सांख्ययोगमें उत्कट वैराग्यके बिना आसाक्तिका त्याग करना कठिन होता है। परन्तु कर्मयोगमें वैराग्यकी कमी होनेपर भी केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे आसक्तिका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है।गीताने एकान्तमें रहकर साधन करनेका भी आदर किया है; परन्तु एकान्तमें सात्त्विक पुरुष तो साधन-भजनमें अपना समय बिताता है, पर राजस पुरुष संकल्प-विकल्पमें, तामस पुरुष निद्रा-आलस्य-प्रमादमें अपना समय बिताता है, जो पतन करनेवाला है। इसलिये साधककी रुचि तो एकान्तकी ही रहनी चाहिये अर्थात् सांसारिक कर्मोंका त्याग करके पारमार्थिक कार्य करनेमें ही उसकी प्रवृत्ति रहनी चाहिये, परन्तु कर्तव्यरूपसे जो कर्म सामने आ जाय, उसको वह तत्परतापूर्वक करे। उस कर्ममें उसका राग नहीं होना चाहिये। राग न तो जन-समुदायमें होना चाहिये और न अकर्मण्यतामें ही। कहीं भी राग न रहनेसे साधका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। वास्तवमें शरीरको एकान्तमें ले जानेको ही एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि शरीर संसारका ही एक अंश है। अतः शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है।

Swami Tejomayananda

।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.4।।इतश्च नियोक्ष्यामीत्याह न कर्मणामिति। कर्मणां युद्धादीनामनारम्भेण नैष्कर्म्यं निष्कर्मतां काम्यकर्मपरित्यागेन प्राप्यत इति मोक्षं नाश्नुते। ज्ञानमेव तत्साधनं न तु कर्माकरणमित्यर्थः। कुतः पुरुषत्वात्। सर्वदा स्थूलेन सूक्ष्मेण वा पुरेण युक्तो ननु जीवः यदि कर्माकरणेन मुक्तिः स्यात् स्थावराणाम्। न चाकरणे कर्माभावान्मुक्तिर्भवति प्रतिजन्मकृतानामनन्तकर्मणां भावात्।न च सर्वाणि भुक्तानि एकस्मिञ्च्छरीरे बहूनि हि कर्माणि करोति। तानि चैकैकानि बहुजन्मफलानि कानिचित् तत्र चैकैकानि कर्माणि भुञ्जन्प्राप्नोत्येव शेषेण मानुष्यम्। ततश्च बहुशरीरफलकर्माणीत्यसमाप्तिः। तच्चोक्तंजीवंश्चतुर्दशादूर्ध्वं पुरुषो नियमेन तु। स्त्री वाप्यनूनदशकं देहं मानुषमार्जते। चतुर्दशोर्ध्वजीवीनि संसारश्चादिवर्जितः। अतोऽवित्वा परं देवं मोक्षाशा का महामुने इति ब्राह्मे। यदि सादिः स्यात्संसारः पूर्वकर्माभावादतत्प्राप्तिः। अबन्धकत्वं त्वकामेनैव भवति। तच्च वक्ष्यतेअनिष्टंमिष्टं 18।12 इति।ननु निष्कामकर्मणः फलाभावान्मोक्षः स्मृतः।निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमिह चोच्यते। निवृत्तं सेवमानस्तु ब्रह्माभ्येति सनातनम् इति मानवे। अतस्तत्साभ्यादकरणेऽपि भवतीत्यत आह न चेति। सन्न्यासः काम्यकर्मपरित्यागः। काम्यानां कर्मणां 18।2 इति वक्ष्यमाणत्वात्। अकामकर्मणामन्तःकरणशुद्ध्या ज्ञानान्मोक्षो भवति। तच्चोक्तंकर्मभिः शुद्धसत्त्वस्य वैराग्यं जायते हृदि इति भागवते । विरक्तानामेव च ज्ञानमुक्तम्न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् भाग.5।11।3 इति। न तु फलाभावात् कर्माभावात्। अतो न कर्मत्याग एव मोक्षसाधनम्।यत्याश्रमस्तु प्रायत्यार्थो भगवत्तोषणार्थश्च। अप्रयतत्वमेव हि प्रायो गृहस्थादीनाम् इतरकर्मोद्योगात्। अप्रयतानां च न ज्ञानम् तथा हि श्रुतिः नाशान्तो नासमाहितः कठो.2।23 इति। महांश्च यत्याश्रमे भगवतस्तोषः। तथा ह्याह यत्याश्रमं तुरीयं तु दीक्षां मम सुतोषिणीम् इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। आधिकारिकास्तु तथैव प्रायत्ये समर्थाः। स एव च महान्भगवतस्तोषः। तच्चोक्तम् देवादीनामादिराज्ञां महोद्योगोऽपि भोगिनः। विष्णोश्चलति तद्भोगोऽत्यतीव हरितोषणम् इति पाद्मे।

Sri Anandgiri

।।3.4।।किमिति भगवता बुद्धेर्ज्यायस्त्वं ज्यायसी चेदित्यत्रोक्तमुपेक्षितमिति तत्राह यदर्जुनेनेति। किंच ज्ञाननिष्ठायां संन्यासिनामेवाधिकारो भगवतोऽभिप्रेतोऽन्यथा तदीयविभागवचनविरोधादिति विभागवचनसामर्थ्यसिद्धमर्थमाह तस्याश्चेति। तर्हि विभागवचनानुरोधादर्जुनस्यापि संन्यासपूर्विकायां ज्ञाननिष्ठायामेवाधिकारो भविष्यति नेत्याह मां चेति। बुद्धेर्ज्यायस्त्वमुपेत्यापीति चकारार्थः। अर्जुनमालक्ष्यभगवानाहेति संबन्धः। अन्तरेणापि कर्माणि श्रवणादिभिर्ज्ञानावाप्तिर्भविष्यतीति परबुद्धिमनुरुध्य विशिनष्टि कर्मेति। विभागवचनवशादसमुच्चयश्चेदुभयोरपि ज्ञानकर्मणोः स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुत्वमन्यथा कर्मवज्ज्ञानमपि न स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थं साधयेदित्याशङ्क्य संबन्धान्तरमाह अथवेति। तर्हि ज्ञाननिष्ठापि कर्मनिष्ठावन्निष्ठात्वाविशेषान्न स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुरिति समुच्चयसिद्धिरित्याशङ्क्याह ज्ञाननिष्ठा त्विति। नहि रज्जुतत्त्वज्ञानमुत्पन्नं फलसिद्धौ सहकारिसापेक्षमालक्ष्यते। तथेदमपि चोत्पन्नं मोक्षाय नान्यदपेक्षते तदाह अन्येति।यस्य चैतत्कर्म इति श्रुताविव कर्मशब्दस्य क्रियमाणवस्तुविषयत्वमाशङ्क्य व्याचष्टे क्रियाणा��िति। ताश्च नित्यनैमित्तिकत्वेन विभजते यज्ञादीनामिति। अस्मिन्नेव जन्मन्यनुष्ठितानां कर्मणां बुद्धिशुद्धिद्वारा ज्ञानकारणत्वे ब्रह्मचारिणां कुतो ज्ञानोत्पत्तिर्जन्मान्तरकृतानां कर्मणां वा तथात्वे गृहस्थादीनामैहिकानि कर्माणि न ज्ञानहेतवः स्युरित्याशङ्क्यानियमं दर्शयति इहेति। नेमानि सत्त्वशुद्धिकारणान्युपात्तदुरितप्रतिबन्धादित्याशङ्क्याह उपात्तेति। तर्हि तावतैव कृतार्थानां कुतो ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वं तत्राह तत्कारणत्वेनेति। कर्मणां चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानहेतुत्वे मानमाह ज्ञानमिति। अनारम्भशब्दस्योपक्रमविपरीतविषयत्वं व्यावर्तयति अननुष्ठानादिति। निष्कर्मणः संन्यासिनः कर्मज्ञानं नैष्कर्म्यमिति व्याचष्टे निष्कर्मेति। कर्माभावावस्थां व्यवच्छिनत्ति ज्ञानयोगेनेति। तस्याः साधनपक्षपातित्वं व्यावर्तयति निष्क्रियेति। कर्मानुष्ठानोपायलब्धा ज्ञाननिष्ठा स्वतन्त्रा पुमर्थहेतुरिति प्रकृतार्थसमर्थनार्थं व्यतिरेकवचनस्यान्वये पर्यवसानं मत्वा व्याचष्टे कर्मणामिति। तद्विपर्ययमेव व्याचष्टे तेषामिति। उक्तेऽर्थे हेतुं पृच्छति कस्मादिति। जिज्ञासितं हेतुमाह उच्यत इति। उपायत्वेऽपि तदभावे कुतो नैष्कर्म्यासिद्धिरित्याशङ्क्याह नहीति। ज्ञानयोगं प्रति कर्मयोगस्योपायत्वे श्रुतिस्मृती प्रमाणयति कर्मयोगेति। श्रौतमुपायोपेयत्वप्रतिपादनं प्रकटयति श्रुताविति। यत्तु गीताशास्त्रे कर्मयोगस्य ज्ञानयोगं प्रत्युपायत्वोपपादनं तदिदानीमुदाहरति इहापि चेति। न कर्मणामित्यादिना पूर्वार्धं व्याख्यायोत्तरार्धं व्याख्यातुमाशङ्कयति नन्विति। आदिशब्देनशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुःसंन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः इत्यादि गृह्यते। तत्रैव लोकप्रसिद्धिमनुकूलयति लोके चेति। प्रसिद्धतरंयतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते। निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि इत्यादिदर्शनादिति शेषः। लौकिकवैदिकप्रसिद्धिभ्यां सिद्धमर्थमाह अतश्चेति। तत्रोत्तरत्वेनोत्तरार्धमवतार्य व्याकरोति अत आहेत्यादिना। एवकारार्थमाह केवलादिति। तदेव स्पष्टयति कर्मेति। उक्तमेव नञ्मनुकृष्य क्रियापदेन संगतिं दर्शयति न प्राप्नोतीति।

Sri Vallabhacharya

।।3.4।।योगेऽनःकरणशोधकत्वं कर्मादेः संयोगपृथक्त्वन्यायेनैव निर्णीतं अन्यथा त्रयाणां जिज्ञासा स्वतन्त्रा न कृता स्यात्योगेन संसिद्धिर्ज्ञानेन भक्त्या चेति पुरुषार्थसाधनं इति आप्तभाष्ये निर्णीतं तेनात्र कर्मणामारम्भान्नैष्कयमोक्षसिद्धिरिति योगमतं द्रढयति न कर्मणामनारम्भादिति। कर्माधिकारिणां त्वादृशानां कर्मसन्न्यसनासाङ्ख्यादपि च न सिद्धिरित्याह न चेति। जीवन्मुक्तिकैर्गुणैर्वा मुक्तेनापि देहवत्त्वेन कर्मकरणदर्शनात्।

Sridhara Swami

।।3.4।।अतः सभ्यक् चित्तशुद्ध्यर्थं ज्ञानोत्पत्तिर्यन्तं वर्णाश्रमोचितानि कर्माणि कर्तव्यानि। अन्यथा चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञानानुत्पत्तेरित्याह न कर्मणामिति। कर्मणामनारम्भादननुष्ठानान्नैष्कर्म्यं ज्ञानं नाश्रुते नाप्नोति। ननु चएवमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः प्रव्रजन्ति इति संन्यासस्य मोक्षाङ्गत्वश्रुतेः संन्यासादेव मोक्षो भविष्यतीति किं कर्मभिरित्याशङ्क्योक्तम् नचेति। नच चित्तशुद्धिं विना कृतात्संन्यसनादेव ज्ञानाशून्यात्सिद्धिं मोक्षं समधिगच्छति प्राप्नोति।

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