Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 1 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अर्जुन उवाच | ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन | तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ||३-१||
Transliteration
arjuna uvāca . jyāyasī cetkarmaṇaste matā buddhirjanārdana . tatkiṃ karmaṇi ghore māṃ niyojayasi keśava ||3-1||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.1 Arjuna said If Thou thinkest that knowledge is superior to action, O Krishna, why then, O Kesava, dost Thou ask me to engage in this terrible action?
।।3.1।। हे जनार्दन यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते हैं
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When senior leaders or mentors provide strategic guidance (knowledge-based) but then assign demanding, urgent tasks (action-based) that seem to contradict the initial advice, this verse encourages asking for clarification. Instead of silently struggling with the perceived conflict, respectfully inquire about how to integrate both perspectives and understand the 'why' behind the immediate, difficult action. This proactive approach leads to better understanding, alignment, and execution.
🧘 For Stress & Anxiety
Facing seemingly contradictory advice or demands from different sources, or even internal conflict between what you 'know' is right and what you 'feel compelled' to do, can lead to significant stress. This verse highlights the natural human tendency to question such inconsistencies. It provides a model for addressing this by seeking clarity and deeper understanding, rather than internalizing the conflict, thereby reducing mental burden and fostering a sense of purpose.
❤️ In Relationships
In relationships, especially with mentors, parents, or partners, if advice or requests seem inconsistent or contradictory to previous guidance, this verse suggests the importance of open and honest communication. Instead of making assumptions or silently resenting the perceived inconsistency, it encourages respectfully asking for elaboration or clarification to understand the underlying rationale, strengthening trust and mutual understanding.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When faced with apparent contradictions between wisdom and demanded action, seek deeper clarity to understand the integrated path forward, transforming doubt into purposeful engagement.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.1 ज्यायसी superior? चेत् if? कर्मणः than action? ते by Thee? मता thought? बुद्धिः knowledge? जनार्दन O Janardana? तत् then? किम् why? कर्मणि in action? घोरे terrible? माम् me? नियोजयसि Thou engagest? केशव O Kesava.Commentary In verses 49? 50 and 51 of chapter II? Lord Krsihna has spoken very highly about Buddhi Yoga. He again asks Arjuna to fight. That is the reason why Arjuna is perplexed now.
Shri Purohit Swami
3.1 "Arjuna questioned: My Lord! If Wisdom is above action, why dost Thou advise me to engage in this terrible fight?
Dr. S. Sankaranarayan
3.1. Arjuna said O Janardana, if knowledg is held to be superior to action by You, then why do You engage me in action that is terrible, O Kesava ?
Swami Adidevananda
3.1 Arjuna said If, O Krsna, you consider that Buddhi (knowledge) is superior to works, why do you engage me in this terrible deed?
Swami Gambirananda
3.1 Arjuna said O Janardana (krsna), if it be Your opinion that wisdom is superior to action, why they do you urge me to horrible aciton, O Kesava ?
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.1।। अभी भी अर्जुन का यही विश्वास है कि गुरुजन पितामह आदि के साथ युद्ध करना भयानक कर्म है। लगता है अर्जुन या तो भगवान् के उपदेश को भूल गया है या वह उसे कभी समझ ही नहीं पाया था। श्रीकृष्ण ने यह बिल्कुल स्पष्ट किया था कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन गुरुजनों को मारने वाला नहीं था क्योंकि यह युद्ध व्यक्तियों के बीच न होकर दो सिद्धांतों के मध्य था। पाण्डवों का पक्ष धर्म और नैतिकता का था। परन्तु दुर्भाग्यवश अर्जुन अपने अहंकार को भूलकर अपने पक्ष के साथ एकरूप नहीं हो पाया। जिस मात्रा में वह आदर्श के साथ तादात्म्य नहीं कर पाया उस मात्रा में उसका अहंकार बना रहा और युद्ध करने में उसे नैतिक दोष दिखाई दिया।इस श्लोक में अर्जुन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि श्रीकृष्ण के तर्कसंन्यासमार्ग का ही अनुमोदन कर रहे थे परन्तु उसे भयंकर कर्म में प्रवृत्त किया जा रहा था।
Swami Ramsukhdas
।।3.1।। व्याख्या-- 'जनार्दन'-- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव'-- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें 'बुद्धिर्योगे' पदसे समबुद्धि-(समता-) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन! आपने पहले कहा कि 'मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा।' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि 'बुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं' (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है।' परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि 'तू इन कुरुवंशियोंको देख', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लिया गया है। अगर यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'समबुद्धि' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग-(समता-) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा, जब अर्जुनकी मा��्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं--ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं--ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है। 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे'-- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे 'कुरु कर्माणि' (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो--'बुद्धौ शरणमन्विच्छ' (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार 'इव' पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहति-सी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते, तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन? 'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'-- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा--इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये--'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ। सम्बन्ध-- अब आगेके तीन (तीसरे चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन' (मिले हुएसे वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.1।। हे जनार्दन यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते हैं
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.1।।आत्मस्वरूपं ज्ञानसाधनं चोक्तं पूर्वत्र। ज्ञानसाधनत्वेनाकर्म विनिन्द्य कर्म विधीयत उत्तराध्याये। कर्मणो ज्ञानमत्युत्तममित्यभिहितं भगवतादूरेण ह्यवरं कर्म 2।49 इत्यादौ। एवं चेत्किमिति कर्मणि घोरे युद्धाख्ये नियोजयसि निवृत्तधर्मान्विना इत्याह ज्यायसीति। कर्मणः सकाशाद्बुद्धिर्ज्यायसी चेत्ते तव मता तत्तर्हि।
Sri Anandgiri
।।3.1।।पूर्वोत्तराध्याययोः संबन्धं वक्तुं पूर्वस्मिन्नध्याये वृत्तमर्थं संक्षिप्यानुवदति शास्त्रस्येति। गीताशास्त्रप्रारम्भापेक्षितं हेतुफलभूतं बुद्धिद्वयं भगवतोपदिष्टमित्यर्थः। प्रष्टुरर्जुनस्याभिप्रायं निर्देष्टुं प्रवृत्तमर्थान्तरमनुवदति तत्रेति। अध्यायो बुद्धिद्वयनिर्धारणं वा सप्तम्यर्थः पारमार्थिके तत्त्वे यज्ज्ञानं तन्निष्ठानामशेषकामत्यागिनां कामयुक्तानां कर्मिणामपि प्रतिपत्तिकर्मवत्त्यागं कर्तव्यत्वेन भगवानुक्तवानित्यर्थः। तथापि मोक्षसाधने विकल्पसमुच्चययोरन्यतरस्य विवक्षितत्वबुद्ध्या समनन्तरप्रश्नप्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह उक्तेति। अर्जुनस्य मनसि व्याकुलत्वं प्रश्नबीजं दर्शयितुमुक्तमर्थान्तरमनुभाषते अर्जुनाय चेति। सांख्यबुद्धिमाश्रित्य कर्मत्यागमुक्त्वा पुनस्तस्यैव कर्तव्यत्वं कथं मिथो विरुद्धं ब्रवीतीत्याशङ्क्याह योगेति। यथा सांख्यबुद्धिमाश्रितानां संन्यासद्वारा तन्निष्ठानां कृतार्थतोक्ता तथा योगबुद्धिमाश्रित्य कर्म कुर्वतोऽपि कृतार्थत्वमुक्तमित्याशङ्क्याह न तत एवेति। दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगादिति दर्शनादिति शेषः। बुद्धिव्याकुलत्वं प्रश्नबीजं प्रतिलभ्य प्रश्नं करोतीत्याह तदेतदिति। साक्षादेव श्रेयःसाधनं ज्ञानमन्येभ्यो दर्शितं तदित्युच्यते तद्विपरीतं कर्म स्वस्यानुष्ठेयत्वेनोक्तमेतदिति निर्दिश्यते भगवदुक्तेऽर्थे संदिह्यमानस्य निर्णयाकाङ्क्षया प्रश्नप्रवृत्तेरस्ति पूर्वोत्तराध्याययोरुत्थाप्योत्थापकलक्षणा संगतिरित्यर्थः। अर्जुनस्य प्रश्ननिमित्तं पर्याकुलत्वं प्रपञ्चयति कथमित्यादिना। यद्धि साक्षादेव श्रेयःसाधनं सांख्यशब्दितपरमार्थतत्त्वविषयबुद्धौ निष्ठारूपं तदन्यस्मै श्रेयोर्थिने भक्ताय श्रावयित्वा मां पुनरभक्तमश्रेयोर्थिनमिव कर्मणि पूर्वोक्तविपरीते कथं भगवान्नियोक्तुमर्हतीत्यर्जुनस्य पर्याकुलीभावो युक्त इति संबन्धः ज्ञाननिष्ठातो वैपरीत्यं स्फोरयितुं कर्म विशिनष्टि दृष्टेति। युद्धे हि क्षत्रकर्मणि दृष्टोऽनेकोऽनर्थो गुरुभ्रातृहिंसादिस्तेन संबद्धे बुद्धिशुद्धिद्वारापि वर्तमाने जन्मन्येव फलमित्यनियते मम भक्तस्य श्रेयोर्थिनो नियोगो भगवता युक्तो न भवतीति शेषः। यथोक्तं निमित्तं प्रश्नस्य युक्तं तदनुगुणत्वात्तस्येति द्योतकमाह तदनुरूपश्चेति। ज्ञाननिष्ठानां कृतार्थता कर्मनिष्ठानां तु न तथेत्युक्तविभागभागि शास्त्रमित्यत्र लोकेऽस्मिन्नित्यादिवाक्यस्यापि द्योतकत्वं दर्शयति प्रश्नेति। साक्षादेव श्रेयःसाधनमन्येभ्यो भगवतोक्तं नतु मह्यमिति मत्वा व्याकुलीभूतः सन् पृच्छतीति स्वाभिप्रायेण संबन्धमुक्त्वा वृत्तिकाराभिप्रायं दूषयति केचित्त्विति। ज्ञानकर्मणोः समुच्चयमवधारयितुं प्रश्नाङ्गीकारे समुच्चयावधारणेनैव प्रतिवचनमुचितं नच तथा भगवता प्रतिवचनमुक्तं तथाच प्रश्नस्य समुच्चयविषयत्वोपगमात्प्रत्युक्तेश्चासमुच्चयविषयत्वात्तयोर्मिथो विरोधो वृत्तिकारमते स्यादित्यर्थः। किंच केवलं प्रश्नप्रतिवचनयोरेव परमते परस्परविरोधो न भवत्यपितुं परेषां स्वग्रन्थेऽपि पूर्वापरविरोधोऽस्तीत्याह यथाचेति। आत्मना वृत्तिकारैरिति यावत् संबन्धग्रन्थो गीताशास्त्रारम्भोपोद्धातः।इहेति। तृतीयाध्यायारम्भं परामृशति। तदेव विवृण्वन्नाकाङ्क्षामाह कथमिति। पूर्वापरविरोधं स्फोरयितुं संबन्धग्रन्थोक्तमनुवदति तत्रेति। परकीया वृत्तिः सप्तम्या समुल्लिख्यते संबन्धग्रन्थे तावदयमर्थ उक्त इति संबन्धः। तमेवार्थं विशदयति सर्वेषामिति। सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकज्ञानादेव केवलात्कैवल्यमित्यस्मिन्नर्थे शास्त्रस्य पर्यवसानान्न समुच्चयो विवक्षितस्तत्रेत्याशङ्क्याह पुनरिति। उक्तगीतार्थो वृत्तिकारैरेव कर्मत्यागायोगेन विशेषितत्वान्नाविवक्षितोऽलंभवितुमुत्सहते तथाच श्रौतानि कर्माणि त्यक्त्वा ज्ञानादेव केवलान्मुक्तिर्भवतीत्येतन्मतं नियमेनैव यावज्जीवश्रुतिभिर्विप्रतिषिद्धत्वान्नाभ्युपगन्तुमुचितमित्यर्थः। तथापि कथं मिथो विरोधधीरित्याशङ्क्याह इह त्विति। प्रथमतो हि संबन्धग्रन्थे समुच्चयो गीतार्थप्रतिपाद्यत्वेन वृत्तिकृता प्रतिज्ञातः। श्रौतकर्मपरित्यागश्च श्रुतिविरोधादेव न संभवतीत्युक्तं तृतीयाध्यायारम्भे पुनः संन्यासिनां ज्ञाननिष्ठा कर्मिणां कर्मनिष्ठेत्याश्रमविभागमभिदधता पूर्वप्रतिषिद्धकर्मत्यागाभ्युपगमान्मिथो विरोधो दर्शितः स्यादित्यर्थः। ननु यथा भगवता प्रतिपादितं तथैव वृत्तिकृता व्याख्यातमिति न तस्यापराधोऽस्तीत्याशङ्क्याह तत्कथमिति। नहीह भगवान्विरुद्धमर्थमभिधत्ते सर्वज्ञस्य परमाप्तस्य विरुद्धार्थवादित्वायोगात् किंतु तदभिप्रायापरिज्ञानादेव व्याख्यातुर्विरुद्धार्थवादितेत्यर्थः। भगवतो विरुद्धार्थवादित्��ाभावेऽपि श्रोतुर्विरुद्धार्थप्रतिपत्तिं प्रतीत्य व्याचक्षाणो वृत्तिकारो नापराध्यतीत्याशङ्क्याह श्रोता वेति। अर्जुनो हि श्रोता। सोऽपि बुद्धिपूर्वकारीभगवदुक्तमेवावधारयन्न विरुद्धमर्थमवधारयितुमर्हति तथा च परस्यैव विरुद्धार्थवादितेत्यर्थः। विरोधं परिहरन्नाशङ्कते तत्रेति। संबन्धग्रन्थे हि वृत्तिकारस्यैतदभिप्रेतं गृहस्थानामेव सतां परिपक्वज्ञानमन्तरेण यावज्जीवश्रुतिचोदिताग्निहोत्रादित्यागेन केवलादेवापातिकादात्मज्ञानान्मोक्षमवेक्ष्यमाणानां यावज्जीवादिशास्त्रैरसौ निषिध्यते न तु स्वरूपेणैव कर्मत्यागो ज्ञानान्मोक्षो वा निषेद्धुमिष्यते। तृतीये पुनरध्याये कर्मत्यागिनां गृहस्थेभ्यो व्यतिरिक्तानामेव केवलादात्मज्ञानान्मोक्षो विवक्ष्यतेऽतो भिन्नविषयत्वान्निषेधाभ्यनुज्ञानयोर्न विरोधाशङ्केत्यर्थः। विधान्तरेण विरोधं दर्शयन्नुत्तरमाह एतदपीति। विरोधमेवाकाङ्क्षाद्वारा साधयति कथमित्यादिना। श्रौतं कर्म गृहस्थानामवश्यमनुष्ठेयमित्यनेनाभिप्रायेण तेषां केवलादात्मज्ञानान्मोक्षो निषिध्यते नतु गृहस्थानां ज्ञानमात्रायत्तं मोक्षं प्रतिषिध्यान्येषां केवलज्ञानाधीनो मोक्षो विवक्ष्यत आश्रमान्तराणामपि स्मार्तेन कर्मणा समुच्चयाभ्युपगमादिति चोदयति अथेति। एतत्परामृष्टं वचनमेवाभिनयति केवलादिति। ननु गृहस्थानां श्रौतकर्मराहित्येऽपि सति स्मार्ते कर्मणि कुतो ज्ञानस्य केवलत्वं लभ्यते येन निषेधोक्तिरर्थवती तत्राह तत्रेति। प्रकृतवचनमेव सप्तम्यर्थः प्रधानं हि श्रौतं कर्म तद्राहित्ये सति स्मार्तस्य कर्मणः सतोऽप्यसद्भावमभिप्रेत्य ज्ञानस्य केवलत्वमुक्तमिति युक्ता निषेधोक्तिरित्यर्थः। गृहस्थानामेव श्रौतकर्मसमुच्चयो नान्येषाम् अन्येषां तु स्मार्तेनेति पक्षपाते हेत्वभावं मन्वानः सन् परिहरति एतदपीति। तमेव हेत्वभावं प्रश्नद्वारा विवृणोति कथमित्यादिना। गृहस्थानां श्रौतस्मार्तकर्मसमुच्चितं ज्ञानं मुक्तिहेतुरित्यभ्युपगमात्केवलस्मार्तकर्मसमुच्चितात्ततो न मुक्तिरिति निषेधो युज्यते ऊर्ध्वरेतसां तु स्मार्तकर्ममात्रसमुच्चिताज्ज्ञानान्मुक्तिरिति विभागे नास्ति हेतुरित्यर्थः। पक्षपाते कारणं नास्तीत्युक्त्वा पक्षपातपरित्यागे कारणमस्तीत्याह किञ्चेति। गृहस्थानामपि ब्रह्मज्ञानं स्मार्तैरेव कर्मभिः समुच्चितं मोक्षसाधनं ब्रह्मज्ञानत्वादूर्ध्वरेतःसु व्यवस्थितब्रह्मज्ञानवदिति पक्षपातत्यागे हेतुं स्फुटयति यदीत्यादिना। यदि गृहस्थानां ब्रह्मज्ञानं स्मार्तैरेव कर्मभिः समुच्चितं मोक्षहेतुरिति विवक्षितं तदा तान्प्रति यावज्जीवश्रुतिर्विरुध्येत यदि स्मार्तैरपि कर्मभिः समुच्चितं तदीयं ज्ञानं मोक्षसाधनं विवक्ष्यते तदा सिद्धसाध्यतेति प्रागुक्तमभिप्रेत्य चोदयति अथेति। आश्रमान्तराणां तर्हि केवलादेव ज्ञानान्मुक्तिरिति प्रागुक्तविरोधतादवस्थ्यमित्याशङ्क्याह ऊर्ध्वरेतसां त्विति। यथोक्ते विभागे गार्हस्थ्यं क्लेशात्मकं कर्म बाहुल्यादनुपादेयमापद्येतेति दूषयति तत्रेति। साधनभूयस्त्वे फलभूयस्त्वमिति न्यायमाश्रित्य शङ्कते अथेति। क्लेशबाहुल्योपेतं श्रौतं स्मार्तं च बहु कर्म तस्यानुष्ठानाद्गृहस्थस्य मोक्षः स्यादेवेत्यर्थः। एवकारनिरस्यं दर्शयति नाश्रमान्तराणामिति। तेषां नास्ति मुक्तिरित्यत्र यावज्जीवादिश्रुतिविहितावश्यानुष्ठेयकर्मराहित्यं हेतुं सूचयति श्रौतेति। शास्त्रविरोधिन्यायस्य निरवकाशत्वमभिप्रेत्य दूषयति तदपीति। ऐकाश्रम्यस्मृत्या गार्हस्थ्यस्यैव प्राधान्यादनधिकृतान्धादिविषयं कर्मसंन्यासविधानमित्याशङ्क्याह ज्ञानाङ्गत्वेनेति। न खल्वनधिकृतानामन्धादीनां संन्यासः श्रवणाद्यावृत्तिद्वारा ज्ञानाङ्गं भवितुमलं तेषां श्रवणाद्यभ्याससामर्थ्यात्। अतः श्रुत्यादीनां विरोधे नास्ति गार्हस्थ्यस्य प्राधान्यमित्यर्थः। तस्य प्राधान्याभावे हेत्वन्तरमाह आश्रमेति।ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेद् गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेद्यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा इति श्रुतौ तस्याश्रमविकल्पमेके ब्रुवत इतियमिच्छेत्तमावसेत् इत्यादिस्मृतौ चाश्रमाणां समुच्चयेन विकल्पेन चाश्रमान्तरमिच्छन्तं प्रति विधानान्न गार्हस्थ्यस्य प्रधानत्वमित्यर्थः। यदि सर्वेषामाश्रमाणां श्रुतिस्मृतिमूलत्वं तर्हि तत्तदाश्रमविहितकर्मणां ज्ञानेन समुच्चयः सिध्यतीति शङ्कते सिद्धस्तर्हीति। यद्यपि ज्ञानोत्पत्तावाश्रमकर्मणां साधनत्वं तथापि ज्ञानमुत्पन्नं नैव फले सहकारित्वेन तान्यपेक्षतेऽन्यथा संन्यासविध्यनुपपत्तेरिति दूषयति न मुमुक्षोरिति। संन्यासविधानमेवानुक्रामति व्युत्थायेत्यादिना। एषणाभ्यो वैमुख्येनोत्थानं तत्परित्यागः। आश्रमसंपत्त्यनन्तरं तत्र विहितधर्मकलापानुष्ठानमपि कर्तव्यमित्याह अथेति। प्रागुक्तानां सत्यादीनामल्पफलत्वान्न्यासस्य च ज्ञानद्वारा मोक्षफलत्वादित्याह तस्मादिति। अतिरिक्तमतिशयवन्तं महाफलमिति यावत्। प्रकृतकर्मभ्यः सकाशान्न्यास एवातिशयवानासीदित्युक्तेऽर्थे वाक्यान्तरं पठति न्यास एवेति। लोकत्रयहेतुं साधनत्रयं परित्यज्य संसाराद्विरक्ताः संन्यासपूर्वकादात्मज्ञानादेव प्राप्तवन्तो मोक्षमित्याह न कर्मणेति। सति वैराग्ये नास्ति कर्मापेक्षा सत्यां सामग्र्यां कार्यापेक्षानुपपत्तेरित्याह ब्रह्मचर्यादेवेति। इत्याद्याः सर्वकर्मसंन्यासविधायिन्यः श्रुतयो भवन्तीति शेषः। आत्मानमेव लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्तीत्यादिवाक्यसंग्रहार्थमादिपदम्। तत्रैव स्मृतिमुदाहरति त्यजेति। धर्माधर्मयोः सत्यानृतयोश्च संसारारम्भकत्वान्मुमुक्षुणा तत्त्यागे प्रयतितव्यमित्यर्थः। त्यक्तस्वाभिमानस्यापि तत्त्वतः स्वरूपसंबन्धाभावात्त्याज्यत्वमविशिष्टमित्याह येनेति। अनुभवानुसारेणप्रमातृताप्रमुखस्य संसारस्य दुःखफलत्वमालक्ष्य मोक्षहेतुसम्यग्ज्ञानसिद्धये ब्रह्मचर्यादेव पारिव्राज्यमनुष्ठेयमित्युत्पत्तिविधिमुपन्यस्यति संसारमिति। तत्त्वज्ञानमुद्दिश्य ब्रह्मचर्यादेव कर्मसंन्याससामग्रीमभिदधानो विनियोगविधिं सूचयति परमिति। ज्ञानकर्मणोरसमुच्चयार्थे फलविभागं कथयति कर्मणेति। उक्तं फलविभागमनूद्य ज्ञाननिष्ठानां कर्मसंन्यासस्य कर्तव्यत्वमाह तस्मादिति। वाक्यशेषेऽपि सर्वकर्मसंन्यासो विवक्षितोऽस्तीत्याह इहापीति। ज्ञानार्थिनो मुमुक्षोः संन्यासविध्यनुपपत्तिबाधितं समुच्चयविधिवचनमित्युक्तमिदानीं मोक्षस्वभावालोचनयापि समुच्चयवचनमनुचितमित्याह मोक्षस्य चेति।अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसंजंश्चेन्द्रियार्थेषु नरः पतनमृच्छति इति स्मृतेः। मुमुक्षुणापि प्रत्यवायनिवृत्तये कर्तव्यं नित्यकर्मेति शङ्कते नित्यानीति। यो यस्मिन्कर्मण्यधिकृतस्तस्य तदकरणात्प्रत्यवायो भवति नतु कर्मानधिकारिणः संन्यासिनस्तदकरणात्प्रत्यवायः संभवतीति दूषयति नासंन्यासीति। तदेव स्पष्टयति नहीति। समिद्धोमाध्ययनाद्यकरणात्प्रत्यवायः संन्यासिनो नास्तीत्यर्थः। तत्र व्यतिरेकोदाहरणमाह यथेति। अकरणात्प्रत्यवायोत्पत्तिमभ्युपेत्योक्तं संप्रति प्रतिषिद्धकरणादेव प्रत्यवायो न त्वकरणादभावाद्भावोत्पत्तेर्लोकवेदविरुद्धत्वादित्याह न तावदिति। ननु नित्यकर्मविधायी वेदस्तदकरणात्प्रत्यवायो ���वतीति ब्रवीति तत्कथमकरणात्प्रत्यवायो न भवतीति श्रुतिमाश्रित्योच्यते श्रुत्यन्तरविरोधादिति तत्राह यदीति। विहितस्याकरणे सत्यनर्थप्राप्तेर्न नित्यकर्मविधायी वेदोऽनर्थकरत्वेनाप्रमाणमित्याशङ्क्याह विहितस्येति। न विहितस्य करणे पितृलोकप्राप्तिलक्षणं फलं भवतेष्यते धूमादिना नयनपीडादिदुःखं तु प्रत्यक्षमेवाकरणे च प्रत्यवायोत्पत्तिरुभयथापि पुरुषस्यानर्थकरो वेदोऽप्रमाणमेव स्यादित्यर्थः। नन्वभावस्यापि भावोत्पादनसामर्थ्यं वेदः संपादयिष्यति तथाच विहिताकरणप्रत्यवायपरिहारो विहितकरणे फलिष्यतीति नेत्याह तथाचेति। लोकप्रसिद्धपदार्थशक्त्याश्रयणेन शास्त्रप्रवृत्त्यङ्गीकारादपूर्वशक्त्याधानायोगाज्ज्ञापकमेव शास्त्रमित्यर्थः। कारकत्वे च तस्याप्रामाण्यमप्रत्यूहं स्यादित्याह कारकमिति। भवतु शास्त्रस्याप्रामाण्यमित्याशङ्क्यापौरुषेयतया शेषदोषानागन्धितत्वान्मैवमित्याह नचेति। अनिर्वाच्यानुपलम्भस्य संवेदनमभावज्ञाने कारणं समीहितसाधनज्ञानं तु चरणन्यासादि प्रवृत्तिकारणमित्यङ्गीकृत्योपसंहरति तस्मादिति। अकरणात्प्रत्यवायोत्पत्त्यसंभवस्तच्छब्दार्थः। संन्यासिनां ज्ञाननिष्ठानां कर्मसंन्यासित्वादेव कर्मासंभवे फलितमाह अत इति। समुच्चयानुपपत्तौ हेत्वन्तरमाह ज्यायसीति। प्रश्नानुपपत्तिमेव प्रपञ्चयति यदि हीति। समुच्चयोपदेशे प्रश्नैकदेशानुपपत्तेश्च न तदुपदेशोपपत्तिरित्याह अर्जुनायेति।कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन इत्यर्जुनं प्रत्युपदेशात्तं प्रति ज्यायसी बुद्धिर्नोक्तेति युक्तं तत्किमित्याद्युपालम्भवचनमित्याशङ्क्याह नचेति। येन कल्पनेन ज्यायसी चेदित्यारभ्य तत्किं कर्मणीत्युपालम्भात्मा प्रश्नः स्यात्तथा न युक्तं कल्पयितुम्।एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिः इति वचनविरोधादि तियोजना। कस्मिन्पक्षे तर्हि प्रश्नस्योपपत्तिरित्याशङ्क्याह यदीति। भगवदुक्तेऽर्थे प्रष्टुर्विवेकाभावात् प्रश्नः स्यादित्याशङ्क्य पूर्वोक्तमेवाधिकं विवक्षया स्मारयति अविवेकत इति। भगवतोऽपि प्रतिवचनमज्ञाननिमित्तं प्रश्नाननुरूपत्वादित्याशङ्क्याधिकं दर्शयति नचेति। भगवतः सर्वज्ञत्वप्रसिद्धिविरोधादज्ञानाधीनप्रतिवचनायोगादित्यर्थः। इतश्च समुच्चयः शास्त्रार्थो न भवतीत्याह अस्माच्चेति। कस्तर्हि शास्त्रार्थो विवक्षितस्तत्राह केवलादिति। ज्ञानकर्मणोः समुच्चयानुपपत्तौ कारणान्तरमाह ज्ञानेति। वाक्यशेषवशादपि समुच्चयस्याशास्त्रार्थतेत्याह कुरु कर्मैवेति। प्राथमिकेन संबन्धग्रन्थेन समस्तशास्त्रार्थसंग्राहकेण तद्विवरणात्मनोऽस्य संदर्भस्य नास्ति पौनरुक्त्यमिति मत्वा प्रतिपदं व्याख्यातुं प्रश्नैकदेशं समुत्थापयति ज्यायसी चेदिति। वेदाश्चेत्प्रमाणमितिवच्चेदित्यस्य निश्चयार्थत्वं व्यावर्तयति यदीति। बुद्धिशब्दस्यान्तःकरणविषयत्वं व्यवच्छिनत्ति ज्ञानमिति। पूर्वार्धस्याक्षरयोजनां कृत्वा समुच्चयाभावे तात्पर्यमाह यदीति। इष्टे भगवतेति शेषः। एकं ज्ञानं कर्म च समुच्चितमिति यावत्। ज्ञानकर्मणोरभीष्टे समुच्चये समुच्चितस्य श्रेयःसाधनस्यैकत्वात्कर्मणः सकाशाज्ज्ञानस्य पृथक्करणमयुक्तमित्यर्थः। एकमपि साधनं फलतोऽतिरिक्तं किं न स्यादित्याशङ्क्याह नहीति। नच केवलात्कर्मणो ज्ञानस्य केवलस्य फलतोऽतिरिक्तत्वं विवक्षित्वा पृथक्करणं समुच्चयपक्षे प्रत्येकं श्रेयःसाधनत्वानभ्युपगमादिति भावः। पूर्वार्धस्येवोत्तरार्धस्यापि समुच्चयपक्षे तुल्यानुपपत्तिरित्याह तथेति। दूरेण ह्यवरं कर्मेत्यत्र कर्मणः सकाशाद्बुद्धिः श्रेयस्करी भगवतोक्ता कर्म च बुद्धेः सकाशादश्रेयस्करमुक्तं तथापि तदेव कर्म कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेष्विति स्निग्धं भक्तं च मां प्रति कुर्विति भगवान् प्रतिपादयति तत्र कारणानुपलम्भादयुक्तमतिक्रूरे कर्मणि भगवतोमन्नियोजनमिति यदर्जुनो ब्रवीति तच्च समुच्चयपक्षेऽनुपपन्नं स्यादित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।3.1।।अथाष्टभिस्त्रयीधर्मो माहात्म्यज्ञानभक्तिकृत्। पार्थाय श्रीभगवता मर्यादा वचसोच्यते।।1।।साङ्ख्ययोगौ निरूप्यादौ तृतीये धर्मनिर्णयः। त्यागात्यागविभेदेन त्यागादत्याग उत्तमः।।2।।यावच्छरीरसम्बन्धं त्यागः कर्त्तुं न शक्यते। अतो भगवदाज्ञातस्तदर्थे कृतिरुत्तमा।।3।।योगे कर्मपथे त्यागं साङ्खबुद्ध्युपसंहृतम्। जानन्ननिश्चयात्तत्र फाल्गुनः परिपृच्छति।।4।।यद्यपि पूर्वं भगवताएषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु 2।39 इत्यादौ योगबुद्धिरुपक्रान्ता तत्र च योगे स्वकर्मोपदिष्टं तथाप्यन्ते स्थिरधीप्रसङ्गे पुनस्त्यागमतिरेवोपसंहृतेति निर्णयमजानन् पृच्छति अर्जुन उवाच ज्यायसी चेदिति। कर्मणः सकाशात् बुद्धिस्तथा ज्यायस चेत् ते मता तर्हि घोरे कर्मणि युद्धे नियोजयसि किम् इति।
Sridhara Swami
।।3.1।।एवं तावत्अशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यादिना प्रथमं मोक्षसाधनत्वेन देहात्मविवेकबुद्धिरुक्ता। तदनन्तरंएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु इत्यादिना कर्म चोक्तम्। नच तयोर्गुणप्रधानभावः स्पष्टं दर्शितः। तत्र बुद्धियुक्तस्य स्थितप्रज्ञस्य निष्कामत्वनितयेन्द्रियत्वनिरहंकारत्वाद्यभिधानात्एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ इति सप्रशंसमुपसंहाराच्च बुद्धिकर्मणोर्मध्ये बुद्धेः श्रैष्ठ्यं भगवतोऽभिमतं मन्वानोऽर्जुन उवाच ज्यायसी चेदिति। कर्मणः सकाशान्मोक्षान्तरङ्गत्वेन बुद्धिर्ज्यायस्यधिकतरा श्रेष्ठा चेत्तव संमता तर्हि किमर्थं तद्युध्यस्वेति तस्मादुत्तिष्ठेति च वारंवारं वदन्घोरे हिंसात्मके कर्मणि मां नियोजयसि प्रवर्तयसि।