Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 24 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च | नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||२-२४||
Transliteration
acchedyo.ayamadāhyo.ayamakledyo.aśoṣya eva ca . nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuracalo.ayaṃ sanātanaḥ ||2-24||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.24 This Self cannot be cut, burnt, wetted, nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, immovable and ancient.
।।2.24।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती), अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती), अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है; यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु (स्थिर), अचल और सनातन है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, understanding that your core self is 'अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य' (indestructible, unburnable, unwettable, undriable) means your true value isn't tied to external successes, failures, promotions, or layoffs. This fosters resilience, reduces the fear of professional setbacks, and allows you to act with integrity and detachment from outcomes. Your eternal nature isn't diminished by any temporary career 'cuts' or 'burns', encouraging you to pursue meaningful work without ego attachment to its transient results.
🧘 For Stress & Anxiety
This verse provides a powerful antidote to stress and anxiety. Realizing that 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः' (eternal, all-pervading, stable, immovable, and ancient) describes your true Self, you can see external stressors and mental turbulences as transient phenomena that cannot harm your core being. This perspective cultivates inner peace, emotional stability, and the ability to remain calm amidst chaos, knowing that your fundamental essence is an unshakable haven, untouched by life's fluctuating challenges.
❤️ In Relationships
In relationships, acknowledging the eternal and immutable nature of the Self helps transcend the pain of loss, separation, or conflict. It allows for unconditional love, as you recognize the spiritual continuity beyond physical forms and ego clashes. It reduces possessiveness and dependency, knowing that your own 'अयम्' (this Self) is complete and untouched by the comings and goings of others. It also provides a framework for coping with grief, understanding that while physical forms may change, the eternal essence remains.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your true essence is the eternal, indestructible Self, untouched by any change or suffering of the material world, offering an unshakable foundation for peace and resilience.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.24 अच्छेद्यः cannot be cut? अयम् this (Self)? अदाह्यः cannot be burnt? अयम् this? अक्लेद्यः cannot be wetted? अशोष्यः cannot be died? एव also? च and? नित्यः eternal? सर्वगतः allpervading? स्थाणुः stable? अचलः immovable? अयम् this? सनातनः ancient.Commentary The Self is very subtle. It is beyond the reach of speech and mind. It is very difficult to understand this subtle Self. So Lord Krishna explains the nature of the immortal Self in a variety of ways with various illustrations and examples? so that It can be grasped by the people.Sword cannot cut this Self. It is eternal. Because It is eternal? It is allpervading. Because It is allpervading? It is stable like a stature. Because It is stable? It is immovable. It is everlasting. Therefore? It is not produced out of any cause. It is not new. It is ancient.
Shri Purohit Swami
2.24 It is impenetrable; It can be neither drowned nor scorched nor dried. It is Eternal, All-pervading, Unchanging, Immovable and Most Ancient.
Dr. S. Sankaranarayan
2.24. This is not to be cut; This is not to be burnt; (This is) not to be made wet and not to be dried too; This is eternal, all-pervading, stable, immobile and eternal.
Swami Adidevananda
2.24 It cannot be cleft; It cannot be burnt; It cannot be wetted and It cannot be dried, It is eternal, all-pervading, stable, immovable and primeval.
Swami Gambirananda
2.24 It cannot be cut, It cannot be burnt, cannot be moistened, and surely cannot be dried up. It is eternal, omnipresent, stationary, unmoving and changeless.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.24।। यह तो स्पष्ट ही है कि जिस वस्तु का नाश प्रकृति की विनाशकारी शक्तियाँ अथवा मानव निर्मित साधनों एवं शस्त्रास्त्रों के द्वारा संभव नहीं है उसे नित्य होना चाहिये।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में आत्मा के अनेक विशेषण बताये गये हैं जो शीघ्रतावश चाहें जहां से उठाकर निष्प्रयोजन ही प्रयोग में नहीं लाये गये हैं। विचारों की एक शृंखला के रूप में प्रत्येक शब्द को चुनकर प्रयोग किया गया है। प्रथम पंक्ति में वर्णित जो अविनाशी तत्व हैं उसको नित्य होना चाहिये। जो नित्य वस्तु है वह निश्चित ही सर्वगत भी होगी।सर्वगत इस छोटे से शब्द का अर्थ व्यापक और तात्पर्य गम्भीर है। कोई भी वस्तु ऐसी शेष नहीं रह सकती जो सर्वगत तत्त्व के द्वारा व्याप्त न हो। नित्य आत्मा सर्वगत है तो उसका कोई आकार विशेष भी नहीं हो सकता क्योंकि आकार केवल परिच्छिन्न वस्तु का होता है जिसकी सीमा के बाहर उससे भिन्न अन्य कोई वस्तु रहती है। जैसे हाथ पैर इत्यादि अवयवों का आकार होता है क्योंकि इनके बाहर आसपास आकाश तत्त्व है। अत अपरिच्छिन्न सर्वगत आत्मा का कोई आकार नहीं है क्योंकि उसको परिच्छिन्न करने वाली कोई अन्य वस्तु है ही नहीं।इस प्रकार नित्य सर्वगत वस्तु का स्थिर और अचल होना स्वाभाविक है। उसमें चलनादि क्रिया संभव नहीं। गति केवल उस वस्तु के लिये है जो किसी काल और देश विशेष में रहती हो तब उसका स्थानान्तरण किया जा सकता है। आत्मा का किसी काल अथवा देश में अभाव नहीं है तो उसमें गति होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं अपने स्वयं में ही घूम फिर नहीं सकता।यहाँ स्थिर और अचल दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग व्यर्थ प्रतीत हो रहा है क्योंकि वे कुछ समानार्थी हैं। परन्तु स्थिर शब्द से अभिप्राय नीचे मूल की स्थिरता से है जैसे पेड़ एक जगह स्थिर होते हैं परन्तु उनकी वृद्धि ऊपर की ओर होती है। यहाँ अचल रहकर ऊर्ध्व गति का भी निषेध किया गया है। अनन्तस्वरूप आत्मा स्थिर और अचल है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की चलन क्रिया नहीं है।प्राचीन पुरातन वस्तु को सनातन कहते हैं। इस सनातन शब्द के दो अर्थ हैं एक वाच्यार्थ (शाब्दिक) और दूसरा है लक्ष्यार्थ। उसका सरल वाच्यार्थ यह है कि आत्मा कोई नई बनी वस्तु नहीं है वह प्राचीन है। लक्ष्यार्थ के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा काल और देश से मर्यादित परिच्छिन्न नहीं है। किसी भी देश में किसी भी काल में कोई भी व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार से पूर्णत्व प्राप्त करता है तो वह साक्षात्कार एक ही होगा भिन्नभिन्न नहीं।आगे भगवान कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।2.24।। व्याख्या-- [शस्त्र आदि इस शरीरीमें विकार क्यों नहीं करते यह बात इस श्लोकमें कहते हैं।] 'अच्छेद्योऽयम्'-- शस्त्र इस शरीरीका छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रोंका अभाव है या शस्त्र चलानेवाला अयोग्य है प्रत्युत छेदनरूपी क्रिया शरीरीमें प्रविष्ट ही नहीं हो सकती यह छेदन होनेके योग्य ही नहीं है। शस्त्रके सिवाय मन्त्र शाप आदिसे भी इस शरीरीका छेदन नहीं हो सकता। जैसे याज्ञवल्क्यके प्रश्नका उत्तर न दे सकनेके कारण उनके शापसे शाकल्यका मस्तक कटकर गिर गया (बृहदारण्यक0)। इस प्रकार देह तो मन्त्रोंसे वाणीसे कट सकता है पर देही सर्वथा अछेद्य है। 'अदाह्योऽयम्'-- यह शरीरी अदाह्य है क्योंकि इसमें जलनेकी योग्यता ही नहीं है। अग्निके सिवाय मन्त्र शाप आदिसे भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे दमयन्तीके शाप देनेसे व्याध बिना अग्निके जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि शाप आदिसे वही जल सकता है जो जलनेयोग्य होता है। इस देहीमें तो दहनक्रियाका प्रवेश ही नहीं हो सकता। 'अक्लेद्यः'-- यह देही गीला होनेयोग्य नहीं है अर्थात् इसमें गीला होनेकी योग्यता ही नहीं है। जलसे एवं मन्त्र शाप ओषधि आदिसे यह गीला नहीं हो सकता। जैसे सुननेमें आता है कि मालकोश रागके गाये जानेसे पत्थर भी गीला हो जाता है चन्द्रमाको देखनेसे चन्द्रकान्तमणि गीली हो जाती है। परन्तु यह देही रागरागिनी आदिसे गीली होनेवाली वस्तु नहीं है। 'अशोष्यः'-- यह देही अशोष्य है। वायुसे इसका शोषण हो जाय यह ऐसी वस्तु नहीं है क्योंकि इसमें शोषणक्रियाका प्रवेश ही नहीं होता। वायुसे तथा मन्त्र शाप ओषधि आदिसे यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्रका शोषण कर गये ऐसे इस देहीका कोई अपनी शक्तिसे शोषण नहीं कर सकता। 'एव च'-- अर्जुन नाशकी सम्भावनाको लेकर शोक कर रहे थे। इसलिये शरीरीको अच्छेद्य अदाह्य अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान् 'एव च' पदोंसे विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रियाका प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करनेयोग्य है ही नहीं। 'नित्यः'-- यह देही नित्यनिरन्तर रहनेवाला है। यह किसी कालमें नहीं था और किसी कालमें नहीं रहेगा ऐसी बात नहीं है किन्तु यह सब कालमें नित्यनिरन्तर ज्योंकात्यों रहनेवाला है। 'सर्वगतः'-- यह देही सब कालमें ज्योंकात्यों ही रहता है तो यह किसी देशमें रहता होगा इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति वस्तु शरीर आदिमें एकरूपसे विराजमान है। 'अचलः'-- यह सर्वगत है तो यह कहीं आताजाता भी होगा इसपर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाववाला है अर्थात् इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ इस प्रकार आनेजानेकी क्रिया नहीं है। 'स्थाणुः'-- यह स्थिर स्वभाववाला है कहीं आताजाता नहीं यह बात ठीक है पर इसमें कम्पन तो होता होगा जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है कहीं भी आताजाता नहीं पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है ऐसे ही इस देहीमें भी हिलनेकी क्रिया होती होगी इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात् इसमें हिलनेकी क्रिया नहीं है। 'सनातनः'-- यह देही अचल है स्थाणु है यह बात तो ठीक है पर यह कभी पैदा भी होता होगा इसपर कहते हैं कि यह सनातन है अनादि है सदासे है। यह किसी समय नहीं था ऐसा सम्भव ही नहीं है। 'विशेष बात' यह संसार अनित्य है एक क्षण भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। परन्तु जो सदा रहनेवाला है जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता उस देहीकी तरफ लक्ष्य करानेमें 'नित्यः'पदका तात्पर्य है। देखने सुनने पढ़ने समझनेमें जो कुछ प्राकृत संसार आता है उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें 'सर्वगतः' पदका तात्पर्य है। संसारमात्रमें जो कुछ वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदि हैं वे सबकेसब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदिमें जो अपने स्वरूपसे कभी चलायमान (विचलित) नहीं होता उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें 'अचलः' पदका तात्पर्य है। प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तनशील संसारमें जो क्रियारहित परिवर्तनरहित स्थायी स्वभाववाला तत्त्व है उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें 'स्थाणुः' पदका तात्पर्य है। मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परन्तु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा उस तत्त्व(देही)की तरफ लक्ष्य करानेमें 'सनातनः' पदका तात्पर्य है। उपर्युक्त पाँचों विशेषणोंका तात्पर्य है कि शरीरसंसारके साथ तादात्म्य होनेपर भी और शरीरशरीरीभावका अलगअलग अनुभव न होनेपर भी शरीरी नित्यनिरन्तर एकरस एकरूप रहता है।
Swami Tejomayananda
।।2.24।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती), अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती), अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है; यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु (स्थिर), अचल और सनातन है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.24।।लोकप्रसिद्धमविरुद्धमत्राप्यङ्गीकार्यम्। अहल्याजारत्वाद्यपि दोषकृतोऽपि ते न बहुतरो लेप आसीदित्युत्कर्षमेव वक्ति। बहुनरकफलो ह्यसौ। तस्य (मे तत्र) न लोम च (ना) मीयते कौ.उ.3।1 इति श्रुत्यन्तराच्च।यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् 15।19 इति तदुक्तेश्च।सत्यं सत्यं पुनः सत्यं शपथैश्चापि कोटिभिः। विष्णुमाहात्म्यलेशस्य विभक्तस्य च कोटिधा। पुनश्चानन्तधा तस्य पुनश्चापि ह्यनन्तधा। नैकांशसममाहात्म्याः श्रीशेषब्रह्मशङ्कराः। इति नारदीये। अन्योत्कर्ष ऐक्यं चतथैव सर्वशास्त्रेषु महाभारतमुत्तमम्। को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् वि.पु.3।4।5 इत्यादिग्रन्थान्तरसिद्धोत्कर्षमहाभारतविरुद्धम्। तत्र हिनास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति। एतेन सत्यवाक्येन सर्वार्थान्साधयाम्यहम्यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रश्च क्रोधसम्भवः। न त्वत्समोऽस्ति इत्यादिषु साधारणप्रश्नावसर एव महान्तमुत्कर्षं विष्णोर्वक्ति। अन्यत्र यत्किञ्चिदुक्तावप्यसाधारण एवावसरे। तद्ध्यग्न्यादेरपि वेदादावस्ति। त्वमग्न इन्द्रो ऋषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः ऋक्सं.2।5।17।3 विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ऋक्सं.8।4।1।1 इत्यादिषु तद्ग्रन्थविरोधाच्च।तथाहि स्कान्दे शैवे यदन्तरं व्याघ्रहरीन्द्रयोर्वने यदन्तरं मेरुगिरीन्द्रविन्ध्ययोः। यदन्तरं सूर्यसुरेड्यबिम्बयोस्तदन्तरं रुद्रमहेन्द्रयोरपि। यदन्तरं सिंहगजेन्द्रयोर्वने यदन्तरं सूर्यशशाङ्कयोर्दिवि। यदन्तरं जाह्नविसूर्यकन्ययोस्तदन्तरं ब्रह्मगिरीशयोरपि। यदन्तरं प्रलयजवारिविप्रुषोर्यदन्तरं स्तम्बहिरण्यगर्भयोः। स्फुलिङ्गसंवर्त्तकयोर्यदन्तरं तदन्तरं विष्णुहिरण्यगर्भयोः। अनन्तत्वात्महाविष्णोस्तदन्तरमनन्तकम्। माहात्म्यसूचनार्थाय ह्युदाहरणमीरितम्। तत्समो ह्यधिको वापि नास्ति कश्चित्कदाचन। एतेन सत्यवाक्येन तमेव प्रविशाम्यहम् इत्याह। तत्रैव शिवं प्रति मार्कण्डेयवचनम् संसारार्णवनिर्मग्न इदानीं मुक्तिमेष्यसि इत्यादि। पाद्मे शैवे मार्कण्डेयकथाप्रबन्धे शिवान्निषिध्य विष्णोरेव मुक्तिमाह अहं भोगप्रदो वत्स मोक्षदस्तु जनार्दनः इत्यादि। समब्राह्मविरोधाच्च। वेदश्चेतिहासाद्यविरोधेन योज्यःयदि विद्यात् इति वचनात्। अनिर्णयाच्चेन्द्रादिशङ्कयाऽन्यथा तत्रापीष्टसिद्धिः नामवैशेष्यात्। अतो भगवदुत्कर्ष एव सर्वागमानां महातात्पर्यम्। तथापि स्वतः प्रामाण्यत्सन्नेवोच्यते अविरोधात्।नच प्रमाणसिद्धस्य अन्यत्रादृष्ट्यापह्नवो युक्तः धर्मवैचित्र्यादर्थानाम्। स्वतः प्रामाण्यानङ्गीकारे मानोक्तदावप्यदोषत्वं च साधयेदित्यतिप्रसङ्गः। अनन्यापेक्षया च तत्परत्वं सिद्धमागमानाम्।नारायणपरा वेदाः भाग.2।5।15 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति कठो.1।2।15वासुदेवपरा वेदाः भाग.1।2।28 इति। न चैतद्विरुद्धम् ईश्वरनियमात्। अनादौ च तत्सिद्धम्द्रव्यं कर्म च कालश्च भाग.2।10।12 इत्यादौ। प्रयोजकत्वं तु पूर्वोक्तन्यायेन। अतः सिद्धमेतत्। तच्चानन्यापेक्षाचिन्त्यशक्तित्वादेव युक्तम्। अतो न मायामयमेकम्। अचलत्वं त्वप्रहर्षमनानन्दमदुःखमसुखमप्रज्ञमसद्वेत्यादिवत्। क्रियादृष्टेःतपो मे हृदयं साक्षात् ब्रह्मन् तनुर्विद्या क्रियाकृतिः भाग.6।4।46 इत्याद्युक्तम्। अतश्च न मायामयं सर्वम् ऐश्वर्यादिवाचिभगशब्देनैव सम्बोधनाच्च। तं त्वा भग ऋक्सं.5।4।8।5 इत्यादौ स्वरूपत्वान्न मायामयत्वं युक्तम्।विज्ञानशक्तिरहमासमननन्तशक्तेः भाग.3।9।24मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48 पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च श्वे.उ.6।8 इत्यादिवचनात्।
Sri Anandgiri
।।2.24।।पृथिव्यादिभूतप्रयुक्तच्छेदनाद्यर्थक्रियाभावे योग्यताभावं कारणमाह यत इति। पूर्वार्धमुत्तरार्धे हेतुत्वेन योजयति यस्मादिति। नित्यत्वादीनामन्योन्यं हेतुहेतुमद्भावं सूचयति नित्यत्वादित्यादिना। नच नित्यत्वं परमाणुषु व्यभिचारादसाधकं सर्वगतत्वस्येति वाच्यम्। तेषामेवाप्रामाणिकत्वेन व्यभिचारानवतारात्। न च सर्वगतत्वेऽपि विक्रियाशक्तिमत्त्वमात्मनोऽस्तीति युक्तं विभुत्वेनाभिमते नभसि तदनुपलम्भात्। न च विक्रियाशक्तिमत्त्वे स्थैर्यमास्थातुं शक्यं तथाविधस्य मृदादेरस्थिरत्वदर्शनादित्याशयेनाह स्थिरत्वादिति। स्वतो नित्यत्वेऽपि कारणान्नाशसंभवादुत्पत्तिरपि संभावितेति कुतश्चिरंतनत्वमित्याशङ्क्याह न कारणादिति। आत्मनोऽविक्रियत्वस्य न जायते म्रियते वेत्यादिना साधितत्वात्तस्यैव पुनःपुनरभिधाने पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह नैतेषामिति। अनाशङ्कनीयस्य चोद्यस्य प्रसङ्गं दर्शयति यत इति। अतो वेदाविनाशिनमित्यादौ शङ्क्यते पौनरुक्त्यमिति विशेषः। कथं तत्र पौनरुक्त्याशङ्का समुन्मिषति तत्राह तत्रेति। वेदाविनाशिनमित्यादिश्लोकः सप्तम्या परामृश्यते श्लोकशब्देन न जायते म्रियते वेत्यादिरुच्यते। नन्विह श्लोके जन्ममरणाद्यभावोऽभिलक्ष्यते वेदेत्यादौ पुनरपक्षयाद्यभावो विवक्ष्यते तत्र कथमर्थातिरेकाभावमादाय पौनरुक्त्यं चोद्यते तत्राह किञ्चिदिति। कथं तर्हि पौनरुक्त्यं न चोदनीयमिति मन्यसे तत्राह दुर्बोधत्वादिति। पुनःपुनर्विधानभेदेन वस्तु निरूपयतो भगवतोऽभिप्रायमाह कथं न्विति।
Sri Vallabhacharya
।।2.24।।अच्छेद्य इत्यर्द्धेन निगमनम्। कार्यत्वव्यावृत्त्यर्थं नित्य इति। सर्वगत इति व्यापकत्वम्। ब्रह्मभावाभिप्रायेण जीवस्तु व्यापकः न स्वरूपेण किन्तु स्वचैतन्यगुणेन भगवद्धर्मभूतत्वात् तदग्रे वक्ष्यते। स्थाणुरिति स्थिरत्वम्। अचल इति निष्क्रियत्वम्। नन्वेवं भूतमाकाशं प्रसिद्धं तदेव इति चेत् न इत्याह सनातन इति। तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः तै.उ.2।1 इति तत्सम्भवश्रवणादित्यर्थः।
Sridhara Swami
।।2.24।।तत्र हेतूनाह अच्छेद्य इति सार्धेन। निरवयवत्वादच्छेद्योऽयमक्लेद्यश्च। अमूर्तत्वात् अदाह्यो द्रवत्वाभावादशोष्य इति भावः। अतश्च छेदादियोग्यो न भवति। यतो नित्यः अविनाशी सर्वत्रगतः स्थाणुः स्थिरस्वभावः रूपान्तरापत्तिशून्यः अचलः पूर्वरूपापरित्यागी सनातनोऽनादिः।