Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 25 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Nature of the Self

Sanskrit Shloka (Original)

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते | तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||२-२५||

Transliteration

avyakto.ayamacintyo.ayamavikāryo.ayamucyate . tasmādevaṃ viditvainaṃ nānuśocitumarhasi ||2-25||

Word-by-Word Meaning

अव्यक्तःunmanifested
अयम्this (Self)
अचिन्त्यःunthinkable
अयम्this
अविकार्यःunchangeable
अयम्this
उच्यतेis said
तस्मात्therefore
एवम्thus
विदित्वाhaving known
एनम्this
not
अनुशोचितुम्to grieve

📖 Translation

English

2.25 This (Self) is said to be unmanifested, unthinkable and unchangeable. Therefore, knowing This to be such, thou shouldst not grieve.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त,  अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है;  इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, understand that your true worth is not defined by external successes, failures, or job titles, which are all transient. Focus on contributing with a detached perspective, knowing that your essential self remains untouched by the fluctuations of the work environment. This fosters resilience and reduces the impact of career highs and lows.

🧘 For Stress & Anxiety

When faced with stress or mental health challenges, recognize that the Self (your true essence) is 'unthinkable' and 'unchangeable,' existing beyond the constant turmoil of thoughts, emotions, and external pressures. Cultivate inner stillness by observing your mind without identifying with its fleeting contents, thus finding an anchor of peace amidst the chaos and reducing emotional reactivity.

❤️ In Relationships

Appreciate that all relationships, like all manifest forms, are subject to change, growth, and eventual dissolution. By understanding the 'unmanifested' and 'unchangeable' nature of the Self, you can love deeply without possessive attachment, accepting the impermanence of physical forms and roles. This perspective mitigates grief from loss and fosters unconditional connection, free from the burden of expectation.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Recognize your true Self as unmanifested, unthinkable, and unchangeable, and by this profound understanding, transcend all grief born of the transient world.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.25 अव्यक्तः unmanifested? अयम् this (Self)? अचिन्त्यः unthinkable? अयम् this? अविकार्यः unchangeable? अयम् this? उच्यते is said? तस्मात् therefore? एवम् thus? विदित्वा having known? एनम् this? न not? अनुशोचितुम् to grieve? अर्हसि (thou) oughtest.Commentary The Self is not an object of perception. It can hardly be seen by the physical eyes. Therefore? the Self is unmanifested. That which is seen by the eyes becomes an object of thought. As the Self cannot be perceived by the eyes? It is unthinkable. Milk when mixed with buttermilk changes its form. The Self cannot change Its form like milk. Hence? It is changeless and immutable. Therefore? thus understanding the Self? thou shouldst not mourn. Thou shouldst not think also that thou art their slayer and that they are killed by thee.

Shri Purohit Swami

2.25 It is named the Unmanifest, the Unthinkable, the immutable. Wherefore, knowing the Spirit as such, thou hast no cause to grieve.

Dr. S. Sankaranarayan

2.25. This is declared to be non-evident, imponderable, and unchangeable. Therefore understanding This as such you should not lament.

Swami Adidevananda

2.25 This (self) is said to be unmanifest, inconceivable and unchanging. Therefore, knowing It thus, it does not befit you to grieve.

Swami Gambirananda

2.25 It is said that This is unmanifest; This is inconceivable; This is unchangeable. Therefore, having known This thus, you ougth not to grieve.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.25।। आत्मा के स्वरूप को भगवान् यहाँ और अधिक स्पष्ट करते हैं। यहाँ प्रयुक्त शब्दों के द्वारा सत्य का निर्देश युक्तिपूर्वक किया गया है।अव्यक्त पंचमहाभूतों में जो सबसे अधिक स्थूल है जैसे पृथ्वी उसका ज्ञान पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है। परन्तु जैसेजैसे सूक्ष्मतर तत्त्व तक हम पहुँचते हैं वैसे यह ज्ञात होता है कि उसका ज्ञान पांचों प्रकार से नहीं होता। जल में गंध नहीं है और अग्नि में रस नहीं है तो वायु में रूप भी नहीं है। इस प्रकार आकाश सूक्ष्मतम होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। स्वभावत जो आकाश का भी कारण है उसका ज्ञान किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं हो सकता। अत हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अव्यक्त है।इन्द्रियगोचर वस्तु व्यक्त कही जाती है। अत जो इन्द्रियों से परे है वह अव्यक्त है। यद्यपि मैं किसी वृक्ष के बीज में वृक्ष को देखसुन नहीं सकता हूँ और न उसका स्वाद स्पर्श या गंध ज्ञात कर सकता हूँ तथापि मैं जानता हूँ कि यही बीज वृक्ष का कारण है। इस स्थिति में कहा जायेगा कि बीज में वृक्ष अव्यक्त अवस्था में है। इस प्रकार आत्मा को अव्यक्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य विषय नहीं है। उपनिषदों में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि आत्मा सबकी द्रष्टा होने से दृश्य विषय नहीं बन सकती।अचिन्त्य आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं है उसी प्रकार यहाँ वह अचिन्त्य है कहकर यह दर्शाते हैं कि मन और बुद्धि के द्वारा हम आत्मा का मनन और चिन्तन नहीं कर सकते जैसे अन्य विषयों का विचार सम्भव है। इसका कारण यह है कि मन और बुद्धि दोनों स्वयं जड़ हैं। परन्तु इस चैतन्य आत्मा के प्रकाश से चेतन होकर वे अन्य विषयों को ग्रहण करते हैं। अब अपने ही मूलस्वरूप द्रष्टा को वे किस प्रकार विषय रूप में जान सकेंगे दूरदर्शीय यन्त्र से देखने वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख सकता क्योंकि एक ही व्यक्ति स्वयं द्रष्टा और दृश्य दोनों नहीं हो सकता। यह अचिन्त्य शब्द का तात्पर्य है। अत अव्यक्त और अचिन्त्य शब्द से आत्मा को अभाव रूप नहीं समझ लेना चाहिए।अविकारी अवयवों से युक्त साकार पदार्थ परिच्छिन्न और विकारी होता है। निरवयव आत्मा में किसी प्रकार का विकार संभव नहीं है।इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं कि आत्मा को उसके शुद्ध रूप से पहचान कर शोक करना त्याग देना चाहिए। ज्ञानी पुरुष अपने को न मारने वाला समझता है और न ही मरने वाला मानता है।भौतिकवादी विचारकों के मत को स्वीकार करके यह मान भी लें कि आत्मा नित्य नहीं है तब भी भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

2.25।। व्याख्या-- 'अव्यक्तोऽयम्'-- जैसे शरीर-संसार स्थूल-रूपसे देखनेमें आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है।  'अचिन्त्योऽयम्'-- मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते पर चिन्तनमें आते, ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं। परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है।  'अविकार्योऽयमुच्यते'-- यह देही विकार-रहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु इस देहीमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है। यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य सर्वगत स्थाणु और सनातन--इन चार विशेषणोंकेद्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया है। परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं अतः इस देहीका ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है।  'तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि'-- इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।सम्बन्ध-- अगर शरीरीको निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाय (जो कि सिद्धान्तसे विरुद्ध है) तो भी शोक नहीं हो सकता यह बात आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त,  अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है;  इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.25।।अत एवाव्यक्तादिरूपः।

Sri Anandgiri

।।2.25।।त्वंपदार्थपरिशोधनस्य प्रकृतत्वात्तत्रैव हेत्वन्तरमाह  किञ्चेति।  आत्मनो नित्यत्वादिलक्षणस्य तथैवं प्रथा किमिति न भवति तत्राह  अव्यक्त इति।  मा तर्हि प्रत्यक्षत्वं भूदनुमेयत्वं तु तस्य किं न स्यादित्याशङ्क्याह  अतएवेति।  तदेव प्रपञ्चयति  यद्धीति।  अतीन्द्रियत्वेऽपि सामान्यतो दृष्टविषयत्वं भविष्यतीत्याशङ्क्य कूटस्थेनात्मना व्याप्तिलिङ्गाभावान्मैवमित्याह  अविकार्य इति।  अविकार्यत्वे व्यतिरेकदृष्टान्तमाह  यथेति।  किं चात्मा न विक्रियते निरवयवद्रव्यत्वाद्धटादिवदिति व्यतिरेक्यनुमानमाह  निरवयवत्वाच्चेति।  निरवयवत्वेऽपि विक्रियावत्त्वे का क्षतिरित्याशङ्क्याह  नहीति।  सावयवस्यैव विक्रियावत्त्वदर्शनाद् विक्रियावत्त्वे निरवयवत्वानुपपत्तिरित्यर्थः। यद्धि सावयवं सक्रियं क्षीरादि तद्दध्यादिना विकारमापद्यते नचात्मनः श्रुतिप्रमितनिरवयवत्वस्य सावयवत्वमतोऽविक्रियत्वान्नायं विकार्यो भवितुमलमिति फलितमाह  अविक्रियत्वादिति।  आत्मयाथात्म्योपदेशमशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्युपक्रम्य व्याख्यातमुपसंहरति  तस्मादिति।  अव्यक्तत्वाचिन्त्यत्वाविकार्यत्वनित्यत्वसर्वगतत्वादिरूपो यस्मादात्मा निर्धारितस्तस्मात्तथैव ज्ञातुमुचितस्तज्ज्ञानस्य फलवत्त्वादित्यर्थः। प्रतिषेध्यमनुशोकमेवाभिनयति  हन्ताहमिति।

Sri Vallabhacharya

।।2.25।।अव्यक्तोऽयमिति। अक्षरोऽयं वस्तुतोऽचिन्त्यश्च।प्रकृतिभ्यः परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् इति वाक्यात्। नन्वेवम्भूतमव्यक्तं प्रधानं प्रसिद्धं तदेव किं निरूप्यत इति चेत्तत्राह अविकाऽर्योऽयमिति। प्रधानस्य विकार्यत्वादित्यर्थः। तस्मादेवम्भूतमेनमात्मानं ज्ञात्वा त्वं नानुशोचितमुर्हसि।

Sridhara Swami

।।2.25।।किंच अव्यक्तश्चक्षुराद्यविषयः अचिन्त्यो मनसोऽप्यविषयः अविकार्यः कर्मेन्द्रियाणामप्यगोचर इत्यर्थः। उच्यत इति नित्यत्वादावभियुक्तोक्तिं प्रमाणयति। उपसंहरति  तस्मादिति।

Explore More