Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 23 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||२-२३||

Transliteration

nainaṃ chindanti śastrāṇi nainaṃ dahati pāvakaḥ . na cainaṃ kledayantyāpo na śoṣayati mārutaḥ ||2-23||

Word-by-Word Meaning

not
एनम्this (Self)
छिन्दन्तिcut
शस्त्राणिweapons
not
एनम्this
दहतिburns
पावकःfire
not
एनम्this
क्लेदयन्तिwet
आपःwaters
not
शोषयतिdries

📖 Translation

English

2.23 Weapons cut It not, fire burns It not, water wets It not, wind dries It not.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.23।। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, understand that setbacks, failures, or even job loss are external events that cannot diminish your intrinsic worth or true potential. This perspective fosters immense resilience, allowing you to learn from challenges without internalizing them as personal deficiencies. Focus on contributing your best effort, detached from the transient outcomes, knowing your core Self remains untouched by success or failure.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse offers a profound anchor for mental well-being. When faced with stress, anxiety, or emotional turmoil, remember that these are transient states affecting the mind and body, not your eternal, indestructible Self. Cultivate a practice of observing stress without identifying with it, finding peace in the unchanging core of your being. This realization can significantly reduce the fear of future events and the impact of external pressures.

❤️ In Relationships

When dealing with the impermanence of relationships, whether through conflict, separation, or the ultimate loss of a loved one, this teaching provides solace. Understand that while physical forms and relationship dynamics may change, the essence of consciousness (the Self) is eternal. This can help navigate grief with greater acceptance, reduce possessiveness, and foster a deeper, more unconditional love that transcends physical presence, recognizing the divine spark in all beings.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Your true essence is the eternal, indestructible Self, untouched by the transient forces of the material world.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.23 न not? एनम् this (Self)? छिन्दन्ति cut? शस्त्राणि weapons? न not? एनम् this? दहति burns? पावकः fire? न not?,च and? एनम् this? क्लेदयन्ति wet? आपः waters? न not? शोषयति dries? मारुतः wind.Commentary The Self is indivisible. It has no parts. It is extremely subtle. It is infinite. Therefore? sword cannot cut It fire cannot burn It water cannot wet It wind cannot dry It.

Shri Purohit Swami

2.23 Weapons cleave It not, fire burns It not, water drenches It not, and wind dries It not.

Dr. S. Sankaranarayan

2.23. Weapons do not cut This; fire does not burn This; water does not (make) This wet; and the wind does not make This dry.

Swami Adidevananda

2.23 Weapons do not cleave It (the self), fire does not burn It, waters do not wet It, and wind does not dry It.

Swami Gambirananda

2.23 Weapons do not cut It, fire does not burn It, water does not moisten It, and air does not dry It.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.23।। अदृष्ट वस्तु को सदैव दृष्ट वस्तुओं के द्वारा ही समझाया जा सकता है। परिभाषा मात्र से वह वस्तु अज्ञात ही रहेगी। यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अविकारी नित्य आत्मतत्त्व का वर्णन अर्जुन को और हमको परिचित विकारी नित्य परिवर्तनशील जगत् के द्वारा करते हैं। यह तो सर्वविदित है कि वस्तुओं का नाश शस्त्र आदि अथवा प्रकृति के नाश के साधनों अग्नि जल और वायु के द्वारा संभव है। इनमें से किसी भी साधन से आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता।शस्त्र इसे काट नहीं सकते यह सर्वविदित है कि एक कुल्हाड़ी से वृक्ष आदि को काटा जा सकता है परन्तु उसके द्वारा जलअग्नि वायु या आकाश को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँचायी जा सकती। सिद्धांत यह है कि स्थूल साधन अपने से सूक्ष्म वस्तु का नाश नहीं कर सकता । इसलिये स्वाभाविक ही है कि आत्मा जो कि सूक्ष्मतम तत्त्व आकाश से भी सूक्ष्म है का नाश शस्त्रों से नहीं हो सकता।अग्नि जला नहीं सकती अग्नि अपने से भिन्न वस्तुओं को जला सकती है परन्तु वह स्वयं को ही कभी नहीं जला सकती। ज्वलन अग्नि का धर्म है और अपने धर्म का अपने सत्य स्वरूप का वह नाश नहीं कर सकती। विचारणीय बात यह है कि आकाश में रहती हुई अग्नि आकाश में स्थित वस्तुओं को तो जला पाती है परन्तु आकाश को कभी नहीं। फिर आकाश से सूक्ष्मतर आत्मा को जलाने में वह अपने आप को कितना निस्तेज पायेगी जल गीला नहीं कर सकता पूर्व वर्णित सिद्धांत के अनुसार ही हम यह भी समझ सकते हैं कि जल आत्मा को आर्द्र या गीला नहीं कर सकता और न उसे डुबो सकता है। ये दोनों ही किसी द्रव्य युक्त साकार वस्तु के लिये संभव हैं और न कि सर्वव्यापी निराकार आत्मतत्व के लिये।वायु सुखा नहीं सकती जो वस्तु गीली होती है उसी का शोषण करके उसे शुष्क बनाया जा सकता है। आजकल सब्जियाँ और खाद्य पदार्थों के जल सुखाकर सुरक्षित रखने के अनेक साधन उपलब्ध हैं। परन्तु आत्मतत्त्व में जल का कोई अंश ही नहीं है क्योंकि वह अद्वैत स्वरूप है तब वायु के द्वारा शोषित होकर उसके नाश की कोई संभावना नहीं रह जाती।इन शब्दों के सरल अर्थ के अलावा इस श्लोक का गम्भीर अर्थ भी है जिसे भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक में और अधिक स्पष्ट करते हैं कि आत्मतत्त्व क्यों और कैसे शाश्वत है।यह आत्मा सनातन किस प्रकार है इसे सनातन स्वरूप से क्यों और कैसे पहचाना जा सकता है।

Swami Ramsukhdas

।।2.23।। व्याख्या --'नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि'-- इस शरीरीको शस्त्र नहीं काट सकते; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँतक पहुँच ही नहीं सकते। जितने भी शस्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्वसे उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहका कोई विकार नहीं पैदा कर सकता। इतना ही नहीं, पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीतक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करनेकी बात तो दूर ही रही!  'नैनं दहति पावकः'-- अग्नि इस शरीरीको जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे सम्भव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि-तत्त्व इस शरीरीमें कभी किसी तरहका विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता।  'न चैनं क्लेदयन्त्यापः'-- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल-तत्त्व इस शरीरीमें किसी प्रकारका विकार पैदा नहीं कर सकता।  'न शोषयति मारुतः'-- वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायुमें इस शरीरीको सुखानेकी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँतक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति पैदा नहीं कर सकता। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान्ने इनमेंसे चार ही महाभूतोंकी बात कही है कि ये पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरीमें किसी ���रहकी विकृति नहीं कर सकते; परन्तु पाँचवें महाभूत आकाशकी कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाशमें कोई भी क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है। क्रिया (विकृति) करनेकी शक्ति तो इन चार महाभूतोंमें ही है। आकाश तो इन सबको अवकाशमात्र देता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु--ये चारों तत्त्व आकाशसे ही उत्पन्न होते हैं, पर वे अपने कारणभूत आकाशमें भी किसी तरहका विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात् पृथ्वी आकाशका छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाशको, आकाशके कारणभूत महत्तत्त्वको और महत्तत्त्वके कारणभूत प्रकृतिको भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृतिसे सर्वथा अतीत शरीरीतक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थोंकी उस निर्गुण-तत्त्वमें पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती (गीता 13। 31)। शरीरी नित्य-तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको इसीसे सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वोंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है, उसको ये कैसे विकृत कर सकते है यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य हैं अर्थात् शरीरीके अन्तर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापकको कैसे नुकसान पहुँचा सकती है उसको नुकसान पहुँचाना सम्भव ही नहीं है। यहाँ युद्धका प्रसङ्ग है। 'ये सब सम्बन्धी मर जायँगे'--इस बातको लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान् कहते हैं कि ये कैसे मर जायँगे? क्योंकि वहाँतक अस्त्र-शस्त्रोंकी क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात् शस्त्रके द्वारा शरीर कट जानेपर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्त्रके द्वारा शरीर जल जानेपर शरीरी नहीं जलता, वरुणास्त्रके द्वारा शरीर गल जानेपर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्रके द्वारा शरीर सूख जानेपर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रोंके द्वारा शरीर मर जानेपर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।

Swami Tejomayananda

।।2.23।। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.23।।स्वतः प्रायो निमित्तैश्चाविनाशिनोऽपि केनचिन्निमित्तविशेषेण स्यात् ककच्छेदादिवत् इत्यतो विशेषनिमित्तानि निषेधति नैनमिति।वर्तमाननिषेधात्स्यादुत्तरत्रेत्यत आह अच्छेद्य इति। वर्तमानादर्शनाद्युक्तयोग्यत्वमिति सूचयति वर्तमानापदेशेन। कुतोऽयोग्यता नित्यसर्वगतादिविशेषणेश्वरसरूपत्वत्।शाश्वत इत्येकरूपत्वमात्रमुक्तम्। स्थाणुशब्देन नैमित्तिकमप्यन्यथात्वं निवारयति। नित्यत्वं सर्वगतत्वविशेषणम् अन्यथा पुनरुक्तेः।ऐक्योक्तावप्यनुक्तविशेषणोपादानान्नेश्वरैक्ये पुनरुक्तिः। युक्ताश्च बिम्बधर्माः प्रतिबिम्बेऽविरोधे। तत्ता च रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव बृ.उ.2।5।19कठो.5।2।10आभास एव च इत्यादिश्रुतिस्मृतिसिद्धा। न चांशत्वविरोधः तस्यैवांशत्वात्। न चैकरूपतैवांशता। प्रमाणं चोभयविधवचनमेव। न चांशस्य प्रतिबिम्बत्वं कल्प्यम् गाध्यादिष्वंशबाहुरूप्यदृष्टेरितरत्रादृष्टेः।स्थाणुत्वेऽपि तदैक्षत इत्याद्यविरुद्धमीश्वरस्य उभयविधवाक्यात् अचिन्त्यशक्तेश्च। न च माययैकम्त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुद्ध्यतेन योगित्वादीश्वरत्वात्चित्रं न चैतत् त्वयि कार्यकारणे इत्याद्यैश्वर्येणैव विरुद्धधर्माविरोधोक्तेः महातात्पर्याच्च। मोक्षो हि महापुरुषार्थः। तत्रापि मोक्ष एवार्थः।अन्तेषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे। अन्तप्राप्तिं सुखं प्राहुर्दुःखमन्तरमेतयोः शां.मो.ध.प.174।34 पुण्यचितो जितो लोकः क्षीयते छां.उ.8।1।6 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः। स च विष्णुप्रसादादेव सिद्ध्यति।वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्नुयात्।तुष्टे तु तत्र किमलभ्यमनन्त ईशे (आद्ये) भाग.3।6।25तत्प्रसादादवाप्नोति परां सिद्धिं न संशयः।येषां स एव भगवान्दययेदनन्तः सर्वात्मनाश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम्। ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां नैषां समाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये भाग.2।7।42तस्मिन्प्रसन्ने किमिहात्स्त्यलभ्यं धम्र्मार्थकामैरलमल्पकास्तेऋते यदस्मिन्भव ईश जीवस्तापत्रयेणोपहता न शर्म आत्मँल्लभन्तेऋते भवत्प्रसादाद्धि कस्य मोक्षो भवेदिह तमेवं विद्वान् नृ.पू.उ.1।6 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः। स चोत्कर्षज्ञानादेव भवति लोकप्रसिद्धेः।

Sri Anandgiri

।।2.23।।पृथिव्यादिभूतचतुष्टयप्रयुक्तविक्रियाभाक्त्वादात्मनोऽसिद्धमविक्रियत्वमिति शङ्कते  कस्मादिति।  यतो न भूतान्यात्मानं गोचरयितुमर्हन्त्यतो युक्तमाकाशवत्तस्याविक्रियत्वमित्याह  आहेत्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।2.23।।पुनरस्यात्मनोऽविनाशित्वमेव सुग्रहणाय श्रावयति सार्द्धाभ्यां नैनमित्यादिना। एतेन पृथिव्यप्तेजोवायुभिरविनाशित्वं निरूपितम्।

Sridhara Swami

।।2.23।।कथं हन्तीत्यनेनोक्तं वधसाधनाभावं दर्शयन्नविनाशित्वमात्मनः स्फुटीकरोति नैनमिति। आपो नैनं क्लेदयन्ति मृदुकरणेन शिथिलं न कुर्वन्ति।

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