Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 12 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् | एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ||१३-१२||
Transliteration
adhyātmajñānanityatvaṃ tattvajñānārthadarśanam . etajjñānamiti proktamajñānaṃ yadato.anyathā ||13-12||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
13.12 Constancy in Self-knowledge, perception of the end of true knowledge this is declared to be knowledge, and what is opposed to it is ignorance.
।।13.12।। अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Instead of chasing fleeting success or external validation, focus on work that aligns with your core values and contributes to a meaningful purpose. Cultivate integrity, ethical conduct, and continuous self-improvement, understanding that true professional fulfillment comes from inner alignment and contribution, not just external rewards. Discern genuine opportunities from those that are merely superficial or ego-driven.
🧘 For Stress & Anxiety
Reduce anxiety and stress by recognizing that much mental turmoil stems from attachment to impermanent outcomes, external opinions, or superficial desires. Develop profound self-awareness to distinguish between genuine concerns and ego-driven worries, cultivating inner peace and resilience by anchoring yourself in your true self rather than fluctuating external circumstances. Practice detachment from results and focus on virtuous action.
❤️ In Relationships
Build deeper, more authentic connections by focusing on shared values, empathy, and selfless giving, rather than transactional or ego-driven interactions. Understand that genuine love and connection arise from acknowledging the true nature of oneself and others, free from the vices of pride, attachment, cunningness, or the desire to manipulate. Cultivate virtues like humility and compassion to foster true intimacy.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True knowledge is sustained self-awareness and understanding life's ultimate purpose, which liberates you from transient desires and cultivates virtues for lasting peace; anything that deviates from this inner truth is ignorance leading to bondage.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
13.12 अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् constancy in Selfknowledge? तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् perception of the end of true knowledge? एतत् this? ज्ञानम् knowledge? इति thus? प्रोक्तम् declared? अज्ञानम् ignorance? यत् which? अतः from it? अन्यथा opposed.Commentary The liberated sage has constant awareness of the Self. He knows that knowledge of the Self alone is permanent and all other learning relating to this world is ignorance. He knows that the knowledge which leads to the realisation of the Self is the only truth.These attributes beginning with humility are declared to be knowledge? because they are conducive to knowledge they are the means to knowledge. They are secondary or auxiliary causes of knowledge. The fruit of this knowledge of the Self is deliverance from the round of births and deaths. The spiritual aspirant should always keep the end of knowledge in view. Only then will he attempt to develop the various virtues which are conducive to the attainment of knowledge of the Self. What is opposed to knowledge? viz.? lust? anger? greed? pride? hypocrisy? attachment? cunningness? diplomacy? injuring others? is ignorance. These evil traits which are the products of ignorance bind a man to Samsara. If you wish to attain the knowledge of the Self you will have to eradicate these evil traits which stand as stumbling blocks on the path of salvation. If you cultivate the opposite virtues? the evil traits will die by themselves just as the plants which are deprived of water in a garden die by themselves. It is difficult to eradicate the evil traits by fighting against them.
Shri Purohit Swami
13.12 Constant yearning for the knowledge of Self, and pondering over the lessons of the great Truth - this is Wisdom, all else ignorance.
Dr. S. Sankaranarayan
13.12. Constancy in the Self-knowledge; and viewing things of knowing the Reality-all this is declared to be [conducive to or manifesting] true knowledge, and what is opposed to this is [conducive to or manifesting] wrong knowledge.
Swami Adidevananda
13.12 Constant contemplation on the knowledge pertaining to the self, reflection for the attainment of knowledge of the truth - this is declared to be knowledge, and what is contrary to it is ignorance.
Swami Gambirananda
13.12 Steadfastness in the knowledge of the Self, contemplation on the Goal of the knowledge of Reality-this is spoken of as Knowledge. Ignorance is that which is other than this.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।13.12।। ज्ञान को दर्शाने वाले इस प्रकरण के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण दो और गुणों को बताते हैं अध्यात्म ज्ञान में स्थिरता? तथा तत्त्वज्ञानार्थ का दर्शन।आत्मज्ञान में स्थिरता आत्मज्ञान जीवन में अनुभव करके जीने का विषय है? केवल बुद्धि से सीखने का नहीं। यदि आत्मा ही एक सर्वव्यापी पारमार्थिक सत्य है? तब साधक को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर आत्मदृष्टि से रहने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वयं को आत्मा जानकर? उसी बोध में स्थित होकर साधक को अपने जीवन के समस्त व्यवहार करने चाहिये। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् अमानित्वादि गुणों का विकास जिसके निमित्त करने को कहा गया है? वह है तत्त्वज्ञान और उस तत्त्वज्ञान के अर्थ का जो लक्ष्य है ? उसका दर्शन करना। संसार बन्धनों की उपरामता अर्थात् मोक्ष ही वह लक्ष्य है। लक्ष्य का सतत स्मरण करते रहने से साधनाभ्यास में प्रवृत्ति और उत्साह बना रहता है? जो लक्ष्यप्राप्ति में साहाय्यकारी सिद्ध होता है। इस प्रकरण में इन बीस गुणों को ही ज्ञान कहा गया है? क्योंकि ये समस्त गुण आत्मसाक्षात्कार के लिए अनुकूल हैं।उपर्युक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ज्ञेय वस्तु क्या है इसके उत्तर में कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।13.12।। व्याख्या -- अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् -- सम्पूर्ण शास्त्रोंका तात्पर्य मनुष्यको परमात्माकी तरफ लगानेमें? परमात्मप्राप्ति करानेमें है -- ऐसा निश्चय करनेके बाद परमात्मतत्त्व जितना समझमें आया है? उसका मनन करे। युक्तिप्रयुक्तिसे देखा जाय तो परमात्मतत्त्व भावरूपसे पहले भी था? अभी भी है और आगे भी रहेगा। परन्तु संसार पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। संसारकी तो उत्पत्ति और विनाश होता है? पर उसका जो आधार? प्रकाशक है? वह परमात्मतत्त्व नित्यनिरन्तर रहता है। उस परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीखता है। इस प्रकार संसारकी स्वतन्त्र सत्ताके अभावका और परमात्माकी सत्ताका नित्यनिरन्तर मनन करते रहना अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् है।उपाय -- आध्यात्मिक ग्रन्थोंका पठनपाठन? तत्त्वज्ञ महापुरुषोंसे तत्त्वज्ञानविषयक श्रवण और प्रश्नोत्तर करना।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् -- तत्त्वज्ञानका अर्थ है -- परमात्मा। उस परमात्माका ही सब जगह दर्शन करना? उसका ही सब जगह अनुभव करना तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। वह परमात्मा सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। एकान्तमें अथवा व्यवहारमें? सब समय साधककी दृष्टि? उसका लक्ष्य केवल उस परमात्मापर ही रहे। एक परमात्माके सिवाय उसको दूसरी कोई सत्ता दीखे ही नहीं। सब जगह? सब समय समभावसे परिपूर्ण परमात्माको ही देखनेका उसका स्वभाव बन जाय -- यही,तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। इसके सिद्ध होनेपर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा -- अमानित्वम् से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् तक ये जो बीस साधन कहे गये हैं? ये सभी साधन देहाभिमान मिटानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे ज्ञान नामसे कहे गये हैं। इन साधनोंसे विपरीत मानित्व? दम्भित्व? हिंसा आदि जितने भी दोष हैं? वे सभी देहाभिमान बढ़ानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वसे विमुख करनेवाले होनेसे अज्ञान नामसे कहे गये हैं।विशेष बातयदि साधकमें इतना तीव्र विवेक जाग्रत् हो जाय कि वह शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर सके? तो उसमें यह साधनसमुदाय स्वतः प्रकट हो जाता है। फिर उसको इन साधनोंका अलगअलग अनुष्ठान करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती। विनाशी शरीरको अपने अविनाशी स्वरूपसे अलग देखना मूल साधन है। अतः सभी साधकोंको चाहिये कि वे शरीरको अपनेसे अलग अनुभव करें? जो कि वास्तवमें अलग ही हैपूर्वोक्त किसी भी साधनका अनुष्ठान करनेके लिये मुख्यतः दो बातोंकी आवश्यकता है -- (1) साधकका उद्देश्य केवल परमात्माको प्राप्त करना हो और (2) शास्त्रोंको पढ़तेसुनते समय यदि विवेकद्वारा शरीरको अपनेसे अलग समझ ले? तो फिर दूसरे समयमें भी उसी विवेकपर स्थिर रहे। इन दो बातोंके दृढ़ होनेसे साधनसमुदायके सभी साधन सुगम हो जाते हैं।शरीर तो बदल गया? पर मैं वही हूँ? जो कि बचपनमें था -- यह सबके अनुभवकी बात है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध वास्तविक न होकर केवल माना हुआ है -- ऐसा निश्चय होनेपर ही वास्तविक साधन आरम्भ होता है। साधककी बुद्धि जितने अंशमें परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको धारण करती है? उतने ही अंशमें उसमें विवेककी जागृति तथा संसारसे वैराग्य हो जाता है। भगवान्ने विवेक और वैराग्यको पुष्ट करनेके लिये ज्ञानके आवश्यक साधनोंका वर्णन किया है।जब मनुष्यका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना ही हो जाता है? तब दुर्गुणों एवं दुराचारोंकी जड़ कट जाती है? चाहे साधकको इसका अनुभव हो या न हो जैसे वृक्षकी जड़ कटनेपर भी बड़ी टहनीपर लगे हुए पत्ते कुछ दिनतक हरे दीखते हैं किन्तु वास्तवमें उन पत्तोंके हरेपनकी भी जड़ कट चुकी है। इसलिये कुछ दिनोंके बाद कटी हुई टहनीके पत्तोंका हरापन मिट जाता है। ऐसे ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होते ही दुर्गुणदुराचार मिट जाते हैं। यद्यपि साधकको आरम्भमें ऐसा अनुभव नहीं होता और उसको अपनेमें अवगुण दीखते हैं? तथापि कुछ समयके बाद उनका सर्वथा अभाव दीखने लग जाता है।साधन करते समय कभीकभी साधकको अपनेमें दुर्गुण दिखायी दे सकते हैं। परन्तु वास्तवमें साधनमें लगनेसे पहले उसमें जो दुर्गुण रहे थे? वे ही जाते हुए दिखायी देते हैं। यह नियम है कि दरवाजेसे आनेवाले,और जानेवाले -- दोनों ही दिखायी देते हैं। यदि साधन करते समय अपनेमें दुर्गुण बढ़ते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण आ रहे हैं। परन्तु यदि अपनेमें दुर्गुण कम होते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण जा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें साधकको निराश नहीं होना चाहिये? प्रत्युत अपने उद्देश्यपर दृढ़ रहकर तत्परतापूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये। इस प्रकार साधनमें लगे रहनेसे दुर्गुणदुराचारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। सम्बन्ध -- पूर्वोक्त ज्ञान(साधनसमुदाय) के द्वारा जिसको जाना जाता है? उस साध्यतत्त्वका अब ज्ञेय नामसे वर्णन आरम्भ करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।13.12।। अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।13.12।।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनं अपरोक्षज्ञानार्थं शास्त्रदर्शनम्।
Sri Anandgiri
।।13.12।।उत्तरग्रन्थमवतारयति -- यथोक्तेति। अमानित्वादीनां ज्ञानत्वमाक्षिपति -- नन्विति। वस्तुपरिच्छेदकत्वाज्ज्ञानत्वमाशङ्क्याह -- नहीति। परिच्छेदकत्वाज्ज्ञानत्वं ज्ञानत्वात्परिच्छेदकत्वमित्यन्योन्याश्रयादित्यभिप्रेत्याह -- सर्वत्रेति। स्वार्थस्यैव ज्ञानं परिच्छेदकमित्येतद्व्यतिरेकद्वारा विशदयति -- नहीति। व्यतिरेकदृष्टान्तमाह -- यथेति। अमानित्वादीनां ज्ञानत्वमाक्षिप्तं प्रतिक्षिपति -- नैष दोष इति। तत्र हेतुत्वेनोक्तं स्मारयति -- ज्ञानेति। तेषु ज्ञानशब्दे हेत्वन्तरमाह -- ज्ञानेति। अमानित्वादीनां ज्ञानत्वमुक्त्वा ज्ञातव्यमवतारयति -- ज्ञेयमिति। प्रश्नद्वारा ज्ञेयप्रवचनस्य फलमुक्त्वा प्ररोचनं कृत्वा तेन श्रोतुराभिमुख्यमापादयितुं प्ररोचनफलोक्तिपरमनन्तरवाक्यमित्याह -- किमित्यादिना। तदेव विशिनष्टि -- अनादिमदिति। आदिमत्त्वराहित्यमव्याकृतस्याप्यस्त्यतो विशेषं दर्शयति -- किं तदिति। भोक्तुरपि,भोग्यात्परत्वमित्यतो विशिनष्टि -- ब्रह्मेति। अनादीत्येकं पदं मत्परमिति चापरमिति पदच्छेदान्न पुनरुक्तिरिति मतान्तरमुत्थापयति -- अत्रेति। एकपदत्वसंभवे किमिति पदद्वयमित्याशङ्क्याह -- बहुव्रीहिणेति। आदिरस्य नास्तीति यो बहुव्रीहिणोक्तोऽर्थस्तस्मिन्नादिमत्त्वनिषेधे नास्ति मतुपोऽर्थवत्त्वमिति मतुबानर्थक्यमनिष्टं स्यादिति मत्त्वा पदं छिन्दन्तीति पूर्वेण संबन्धः। आदिरस्य नास्तीत्यनादीत्युक्त्वा मत्परमित्युच्यमाने कोऽर्थः स्यादित्याशङ्क्याह -- अर्थेति। उक्तव्याख्यानस्यायुक्तत्वान्नायं पुनरुक्तिसमाधिरित्याह -- सत्यमिति। अर्थासंभवं समर्थयते -- ब्रह्मण इति। तथापि विशिष्टशक्तिमत्त्वं किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- विशिष्टेति। तथापि मतुपो बहुव्रीहिणा तुल्यस्यार्थस्य कथं नानर्थक्यं तत्राह -- तस्मादिति। अनादिमत्परं ब्रह्मेत्यत्र पक्षान्तरं प्रतिक्षिप्य स्वपक्षः समर्थितः? संप्रति ब्रह्मणो ब्रह्मत्वादेव कार्यकारणात्मकत्वप्राप्तावुक्तानुवादद्वारा न सदित्याद्यवतारयति -- अमृतत्वेति। सत्कार्यमभिव्यक्तनामरूपत्वात्? असत्कारणं तद्विपर्ययादिति विभागः। ज्ञेयप्रवचनमनिर्वाच्यविषयत्वात्प्रक्रमप्रतिकूलमित्याक्षिपति -- नन्विति। निर्विशेषस्य वस्तुनो ज्ञेयत्वात्तद्विषयं प्रवचनं प्रक्रमानुकूलमित्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। अनिर्वाच्यत्वे न सत्तन्नासदित्युच्यमाने कथमिदमनुरूपमिति पृच्छति -- कथमिति। ब्रह्मात्मप्रकाशस्य सिद्धत्वात्तदर्थं विधिमुखेनोपदेशायोगादध्यस्ततद्धर्मनिवृत्तये निषेधद्वारोपदेशस्य वेदान्तेषु प्रसिद्धेरारोपितविशेषनिषेधरूपमिदं प्रवचनमुचितमिति परिहरति -- सर्वास्विति। ज्ञेयस्य ब्रह्मणो विधिमुखोपदेशायोगे हेतुमाह -- वाच इति। ब्रह्मणोऽस्तिशब्दावाच्यत्वे नरविषाणवन्नास्तित्वमित्यनिष्टमाशङ्कते -- नन्विति। एवमुत्सर्गेऽपि ब्रह्मणि किमायातमित्याशङ्क्याह -- अथेति। ज्ञेयस्यास्तिशब्दावाच्यत्वे व्याघातश्चेत्याह -- विप्रतिषिद्धं चेति। अस्तिशब्दावाच्यत्वादवस्तु ब्रह्मेत्यत्राप्रयोजकत्वमाह -- न तावदिति। नास्तिबुद्धिविषयत्वमेवावस्तुत्वे निमित्तमतस्तदभावाद्ब्रह्मणो नावस्तुतेत्येतदेव व्यक्तीकर्तुं चोदयति -- नन्विति। सर्वासां धियामस्तिधीत्वेन नास्तिधीत्वेन वानुगतत्वेऽन्यतरधीगोचरत्वाभावे ब्रह्मणोऽनिर्वाच्यत्वं दुर्वारमिति फलितमाह -- तत्रेति। ब्रह्मणो घटादिवैलक्षण्यादुभयबुद्ध्यविषयत्वेऽपि नानिर्वाच्यतेत्याह -- नेत्यादिना। घटादेरिन्द्रियग्राह्यस्योभयबुद्धिविषयत्वेऽपि ब्रह्मणस्तदग्राह्यस्य नोभयधीविषयत्वं तथापि नानिर्वाच्यत्वं सच्चिदेकतानस्य शब्दप्रमाणादविषयत्वेन दृष्टत्वादित्युक्तमेव प्रपञ्चयति -- यद्धीति। परोक्तं विरोधमनुवदति -- यत्त्विति। श्रुत्यवष्टम्भेन निराचष्टे -- न विरुद्धमिति। सापि विरुद्धार्थत्वानुमानं बोधकस्याविरोधापेक्षत्वादिति शङ्कते -- श्रुतिरिति। तस्या विरुद्धार्थत्वेनाप्रामाण्ये दृष्टान्तमाह -- यथेति। प्राचीनवंशं करोतीति पारलौकिकफलयज्ञानुष्ठानार्थं शालानिर्माणं प्रस्तुत���य को हि तद्वेदेत्याद्या परलोकसत्त्वे संदिहाना यथा विरुद्धार्था श्रुतिरप्रमाणमेवं विदिताविदितान्यत्वश्रुतिरपीत्यर्थः। नेयं श्रुतिर्विरुद्धत्वेनामानतया हातव्या ब्रह्मण्यद्वितीये प्रत्यक्ताप्रतिपादनेन मानत्वादित्युत्तरमाह -- न विदितेति। यत्तु विरुद्धार्थत्वे को हीत्युदाहृतं तदसदर्थवादस्य विधिशेषस्य स्वार्थेतात्पर्यादित्याह -- यदीति। यत्र जात्यादिमत्त्वं तत्र वाच्यत्वं यथा गवादौ न ब्रह्मणि जात्यादिमत्त्वमतस्तस्यावाच्यत्वान्निषेधेनैव बोध्यत्वमित्याह -- उपपत्तेश्चेति। नोच्यत इति निषेधेनैव तस्योपदेश इति शेषः। जात्यादिमतोऽर्थस्यैव वाच्यत्वं तत्रैव संगतिग्रहादिति प्रपञ्चयति -- सर्वो हीति। अश्रुतस्य जात्यादिद्वारेणाज्ञातसङ्गतेर्वा शब्दस्य न बोधकत्वमदृष्टेरित्याह -- नान्यथेति। जात्यादेः सच्छब्दविषयत्वमुदाहरति -- तद्यथेत्यादिना। ब्रह्मणस्त्वगोत्रत्वमवर्णत्वमित्यादिश्रुतेर्जात्यादिमत्त्वाभावान्न शब्दवाच्यतेत्याह -- नत्विति। केवलो निर्गुणश्चेति श्रुतेर्गुणद्वारा ब्रह्मणो न वाच्यतेत्याह -- नापीति। निष्क्रियत्वे मानमाह -- निष्कलमिति। ब्रह्मणोऽद्वितीयत्वस्याशेषोपनिषत्सु सिद्धत्वाद्विशिष्टस्य संबन्धस्य तस्मिन्नसिद्धेर्न तद्द्वारापि तस्य वाच्यतेत्याह -- नचेति। ब्रह्मण्यभिधावृत्याशब्दाप्रवृत्तौ हेत्वन्तराण्याह -- अद्वयत्वादिति। ब्रह्मणोऽवाच्यत्वे श्रुतमपि संवादयति -- यत इति।
Sri Vallabhacharya
।।13.12।।एतत्प्रोक्तं ज्ञानं विद्याकार्यम्। यदतोऽन्यथा तदज्ञानमविद्याकार्यं प्रतिज्ञातम्।
Sridhara Swami
।।13.12।। किंच -- अध्यात्मेति। आत्मानमधिकृत्य वर्तमानमध्यात्मज्ञानं तस्मिन्नित्यत्वं नित्यभावः। त्वंपदार्थशुद्धिनिष्ठत्वमित्यर्थः। तत्त्वज्ञानस्यार्थः प्रयोजनं मोक्षः तस्य दर्शनम्। मोक्षस्य सर्वोत्कृष्टतालोचनमित्यर्थः। एतदमानित्वमदम्भित्वमित्यादिविंशतिसंख्यात्मकं यदुक्तमेतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं? ज्ञानसाधनत्वात्। अतोऽन्यथास्माद्विपरीतं मानित्वादि यदेतदज्ञानमिति प्रोक्तं वसिष्ठादिभिः? ज्ञानविरोधित्वात्। अतः सर्वथा त्याज्यमित्यर्थः।