Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 13 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Ultimate Reality (Brahman)

Sanskrit Shloka (Original)

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते | अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||१३-१३||

Transliteration

jñeyaṃ yattatpravakṣyāmi yajjñātvāmṛtamaśnute . anādi matparaṃ brahma na sattannāsaducyate ||13-13||

Word-by-Word Meaning

ज्ञेयम्has to be known
यत्which
तत्that
प्रवक्ष्यामि(I) will declare
यत्which
ज्ञात्वाknowing
अमृतम्immortality
अश्नुते(one) attains to
अनादिमत्the beginningless
परम्supreme
ब्रह्मBrahman
not
सत्being
तत्that
not
असत्nonbeing

📖 Translation

English

13.13 I will declare that which has to be known, knowing which one attains to immortality, the beginningless supreme Brahman, called neither being nor non-being.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।13.13।। मैं उस ज्ञेय वस्तु को स्पष्ट कहूंगा जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त करता है। वह ज्ञेय है - अनादि, परम ब्रह्म, जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Recognize that professional successes and failures are transient labels. Cultivate a detached perspective, understanding that your inherent worth as an individual (the 'witnessing subject') transcends job titles, performance reviews, or market fluctuations. Focus on the underlying purpose of your work rather than getting caught in the duality of achievement and setback, finding stability in a deeper sense of self beyond your role.

🧘 For Stress & Anxiety

Much stress arises from identifying too strongly with temporary states (e.g., 'I am anxious,' 'I am a failure'). This verse encourages recognizing a deeper, unchanging self that is the 'witnessing subject' of these experiences, untouched by them. Cultivate mental space where you observe thoughts and emotions without becoming them, understanding that your true nature is beyond all labels of 'being' or 'non-being,' offering profound resilience.

❤️ In Relationships

Avoid rigid labeling of others or relationships ('good,' 'bad,' 'friend,' 'foe'). Understand that all relationships, like individuals, possess an underlying essence that transcends superficial roles, qualities, and expectations. Foster connection by seeing beyond conditional attachments and recognizing the shared, fundamental consciousness in everyone, accepting their transient manifestations without judgment.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Seek to know the ultimate, transcendent reality that defies all labels and dualities, for in that profound knowledge lies true liberation and immortality beyond the changing world.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

13.13 ज्ञेयम् has to be known? यत् which? तत् that? प्रवक्ष्यामि (I) will declare? यत् which? ज्ञात्वा knowing? अमृतम् immortality? अश्नुते (one) attains to? अनादिमत् the beginningless? परम् supreme? ब्रह्म Brahman? न not? सत् being? तत् that? न not? असत् nonbeing? उच्यते is called.Commentary The Lord praises that which ought to be known (Para Brahman) in order to create in Arjuna (or any hearer) an intense desire to know It.Brahman cannot be expressed in words like being or nonbeing? because Brahman does not belong to any class or genus like a Brahmana? cow or horse. It has no ality like whiteness? blackness? etc. It has no relation or connection with anything else? because It is one without a second. It is no object of any sense. It is beyond the reach of the mind and the senses. It is actionless. It is the great transcendental and unmanifested Absolute. It is always the witnessing subject in all objects.The Vedas emphatically declare that Brahman is without attributes? activity? attachment or parts.In chapter IX. 19 it was stated that He is the being and also the nonbeing. It is now stated that He is neither being nor nonbeing. This would seem to the readers to be a contradiction in terms but it is not so. Though the manifest (perishable) and the unmanifest (imperishable) universe are both forms of Brahman? He is beyond both these. (Cf.VII.2XV.16?17and18)

Shri Purohit Swami

13.13 I will speak to thee now of that great Truth which man ought to know, since by its means he will win immortal bliss - that which is without beginning, the Eternal Spirit which dwells in Me, neither with form, nor yet without it.

Dr. S. Sankaranarayan

13.13. I shall describe that which is to be known, by knowing which one attains freedom from death : beginningless is the Supreme Brahman; It is said to be neither existent nor non-existent.

Swami Adidevananda

13.13 I shall declare that which is to be known, knowing which one attains the immortal self. It is beginningless brahman having Me for the Highest (Anadi matparam); it is said to be neither being nor-being.

Swami Gambirananda

13.13 I shall speak of that which is to be known, by realizing which one attains Immortality. The supreme Brahman is without any beginning. That is called neither being nor non-being.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।13.13।। पूर्व के पाँच श्लोकों में ज्ञान को बताने के पश्चात्? अब भगवान् ज्ञेय वस्तु को बताने का वचन देते हैं। परन्तु? प्रथम वे इसे जानने का फल बताते हैं? जिसकी कुछ लोग आलोचना करते हैं। किन्तु? यह आलोचना उपयुक्त नहीं है? क्योंकि ज्ञान के फल की स्तुति करने से उसके साधन के अनुष्ठान में प्रवृत्ति? रुचि और उत्साह उत्पन्न होता है।जिसे जानकर? साधक अमृत्व को प्राप्त होता है जड़ पदार्थ का धर्म है मरण। इन जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण अमरणधर्मा आत्मा इनसे अवच्छिन्न हुआ व्यर्थ ही मिथ्या परिच्छिन्नता और मरण का अनुभव करता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त करने से मरण का यह मिथ्या भय समाप्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आत्मा के परमानन्द का अनुभव होता है। ऐसे श्रेष्ठतम लक्ष्य को पाने के लिए पूर्व वर्णित गुणों के द्वारा हमको अपने अन्तकरण को साधन सम्पन्न बनाना चाहिए।अनादिमत्परं ब्रह्म किसी नित्य अधिष्ठान के सन्दर्भ में ही किसी वस्तु के अनादि अर्थात् प्रारम्भ की कल्पना और गणना की जा सकती है। जो परमात्मा काल का भी अधिष्ठान है? उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती।ब्रह्म को न सत् कहा जा सकता है और न असत्। सामान्य दृष्टि से जो वस्तु प्रमाणगोचर होती है? उसे हम सत् कहते हैं। परन्तु जो चैतन्य द्रष्टा है? वह कभी भी इन्द्रिय? मन और बुद्धि का ज्ञेय नहीं हो सकता? इसलिए कहा गया है कि वह सत् नहीं है। चैतन्य तत्त्व समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होते हुए स्वयं समस्त अनुभवों के अतीत है।यदि वह सत् नहीं है? तो हम उसे असत् समझ लेगें? इसलिए यहाँ उसका भी निषेध किया गया है। अत्यन्त अभावरूप वस्तु को असत् कहते हैं? जैसे आकाश? पुष्प? बन्ध्यापुत्र इत्यादि। ब्रह्म को असत् नहीं कह सकते. क्योंकि वह सम्पूर्ण जगत् का कारण है। उसका ही अभाव होने पर जगत् की सिद्धि कैसे हो सकती है इसलिए? उपनिषदों में उसे नेति? नेति (यह नहीं) की भाषा में निर्देशित किया गया है।शंकराचार्य जी कहते हैं? जाति और गुण से रहित होने के कारण ब्रह्म को सत् नहीं कहा जा सकता? और समस्त शरीरों में चैतन्य रूप में व्यक्त होने के कारण असत् भी नहीं कहा जा सकता है।सत् अर्थात् वस्तु है यह वृत्ति तथा असत् अर्थात् वस्तु नहीं है यह वृत्ति भी बुद्धि में ही उठती है। जो आत्मचैतन्य इन दोनों वृत्तियों का प्रकाशक है? वह दोनों से ही भिन्न है। इस तथ्य की पुष्टि यहाँ पर की गयी है।उपर्युक्त कथन से कोई व्यक्ति उसे शून्य न समझ ले? इसलिए समस्त प्राणियों की उपाधियों के द्वारा ब्रह्म के अस्तित्व का बोध कराते हुए भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।13.13।। व्याख्या    --   ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि -- भगवान् यहाँ ज्ञेय तत्त्वके वर्णनका उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिसकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है? जिसका वर्णन उपनिषदों? शास्त्रों और ग्रन्थोंमें किया गया है? उस प्रापणीय ज्ञेय तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन करूँगा।ज्ञेयम् (अवश्य जाननेयोग्य) कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जितने भी विषय? पदार्थ? विद्याएँ? कलाएँ आदि हैं? वे सभी अवश्य जाननेयोग्य नहीं हैं। अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मा ही है। कारण कि सांसारिक विषयोंको कितना ही जान लें? तो भी जानना बाकी ही रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा और जन्ममरण भी मिट जायगा। अतः संसारमें परमात्माके सिवाय जाननेयोग्य दूसरा कोई है ही नहीं।यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते -- उस ज्ञेय तत्त्वको जाननेपर अमरताका अनुभव हो जाता है अर्थात् स्वतःसिद्ध तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है? जिसकी प्राप्ति होनेपर जानना? करना? पाना आदि कुछ भी बाकी नहीं रहता।वास्तवमें स्वयं पहलेसे ही अमर है? पर उसने मरणशील शरीरादिके साथ एकता करके अपनेको जन्मनेमरनेवाला मान लिया है। परमात्मतत्त्वको जाननेसे यह भूल मिट जाती है और वह अपने वास्तविक स्वरूपको पहचान लेता है अर्थात् अमरताका अनुभव कर लेता है।अनादिमत् -- उससे यावन्मात्र संसार उत्पन्न होता है? उसीमें रहता है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाता है। परन्तु वह आदि? मध्य और अन्तमें ज्योंकात्यों विद्यमान रहता है। अतः वह अनादि कहा जाता है।परं ब्रह्म -- ब्रह्म प्रकृतिको भी कहते हैं? वेदको भी कहते हैं? पर परम ब्रह्म तो एक परमात्मा ही है। जिससे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक? निर्विकार? सदा रहनेवाला तत्त्व नहीं है? वह परम ब्रह्म कहा जाता है।न सत्तन्नासदुच्यते -- उस तत्त्वको सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते। कारण कि असत्की भावना(सत्ता) के बिना उस परमात्मतत्त्वमें सत् शब्दका प्रयोग नहीं होता? इसलिये उसको सत् नहीं कह सकते और उस परमात्मतत्त्वका कभी अभाव नहीं होता? इसलिये उसको असत् भी नहीं कह सकते। तात्पर्य है कि उस परमात्मतत्त्वमें सत्असत् शब्दोंकी अर्थात् वाणीकी प्रवृत्ति होती ही नहीं -- ऐसा वह करणनिरपेक्ष तत्त्व है।जैसे पृथ्वीपर रात और दिन -- ये दो होते हैं। इनमें भी दिनके अभावको रात और रातके अभावको,दिन कह देते हैं। परन्तु सूर्यमें रात और दिन -- ये दो भेद नहीं होते। कारण कि रात तो सूर्यमें है ही नहीं और रातका अत्यन्त अभाव होनेसे सूर्यमें दिन भी नहीं कह सकते क्योंकि दिन शब्दका प्रयोग,रातकी अपेक्षासे किया जाता है। यदि रातकी सत्ता न रहे तो न दिन कह सकते हैं? न रात। ऐसे ही सत्की अपेक्षासे असत् शब्दका प्रयोग होता है और असत्की अपेक्षासे सत् शब्दका प्रयोग होता है। जहाँ परमात्माको सत् कहा जाता है? वहाँ असत्की अपेक्षासे ही कहा जाता है। परन्तु जहाँ असत्का अत्यन्त अभाव है? वहाँ परमात्माको सत् नहीं कह सकते और जो परमात्मा निरन्तर सत् है? उसको असत् नहीं कह सकते। अतः परमात्मामें सत् और असत् -- इन दोनों शब्दोंका प्रयोग नहीं होता। जैसे सूर्य दिनरात दोनोंसे विलक्षण केवल प्रकाशरूप है? ऐसे ही वह ज्ञेय तत्त्व सत्असत् दोनोंसे विलक्षण है (टिप्पणी प0 687.2)।दूसरी बात? सत्असत्का निर्णय बुद्धि करती है और ऐसा कहना भी वहीं होता है? जहाँ वह मन? वाणी और बुद्धिका विषय होता है। परन्तु ज्ञेय तत्त्व मन? वाणी और बुद्धिसे सर्वथा अतीत है अतः उसकी सत्असत् संज्ञा नहीं हो सकती। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें वह तत्त्व न सत् कहा जा सकता है? न असत् -- ऐसा कहकर ज्ञेय तत्त्वका निर्गुणनिराकाररूपसे वर्णन किया। अब आगेके श्लोकमें उसी ज्ञेय तत्त्वका सगुणनिराकाररूपसे वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।13.13।। मैं उस ज्ञेय वस्तु को स्पष्ट कहूंगा जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त करता है। वह ज्ञेय है - अनादि, परम ब्रह्म, जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।13.13।।परं ब्रह्मेतिस च यः [13।4] इति प्रतिज्ञातमुच्यते। अन्यत्यत्प्रभावः [13।4] इति आदिमद्देहवर्जितमित्यनादिमत्। अन्यथाऽनादीत्येव स्यात्।

Sri Anandgiri

।।13.13।।सर्वविशेषरहितस्यावाङ्मनसगोचरस्यादृष्टेर्दृष्टेश्च विपरीतस्य प्राप्ते ब्रह्मणः शून्यत्वे प्रत्यक्त्वेनेन्द्रियप्रवृत्त्यादिहेतुत्वेन कल्पितद्वैतसत्तास्फूर्तिप्रदत्वेनेश्वरत्वेन च सत्त्वं दर्शयन्नादौ देहादीनां प्रवृत्तिमतां रथादिवदचेतनानां प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमत्त्वाच्चेतनाधिष्ठितत्त्वमनुमिमानस्तत्प्रत्यक्चेतनं ब्रह्मेत्याह -- सच्छब्देति। तदस्तित्वमिति तच्छब्दो ज्ञेयब्रह्मार्थः। तदाशङ्केति तच्छब्देनासत्त्वमुच्यते। ननु सर्वदेहेषु पाणिपादमस्येति कथं पाणीनां च पादानां च देहस्थत्वेनात्मधर्मत्वं तत्राह -- सर्वेति। करणप्रवृत्ती रथादिप्रवृत्तितत्प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमत्त्वाच्चेतनाधिष्ठातृपूर्विकेत्यर्थः। उक्तप्रवृत्त्या चेतनास्तित्वसिद्धावपि कथं क्षेत्रज्ञास्तित्वमित्याशङ्क्य चेतनस्यैव क्षेत्रोपाधिना क्षेत्रज्ञत्वाच्चेतनास्तित्वं तदस्तित्वमेवेत्याह -- क्षेत्रज्ञश्चेति।,तस्य क्षेत्रोपाधित्वेऽपि कथं पाणिपादाक्षिशिरोमुखादिमत्त्वमित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रं चेति। अतश्चोपाधितस्तस्मिन्विशेषोक्तिरिति शेषः। कथं तर्हि न सत्तन्नासदिति निर्विशेषत्वोक्तिरित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रेति। पाणिपादादिमत्त्वमौपाधिकं मिथ्या चेज्ज्ञेयप्रवचनाधिकारे कथं तदुक्तिरित्याशङ्क्याह -- उपाधीति। मिथ्यारूपमपि ज्ञेयवस्तुज्ञानोपयोगीत्यत्र वृद्धसंमतिमाह -- तथाहीति। पाणिपादादीनामन्यगतानामात्मधर्मत्वेनारोप्य व्यपदेशे को हेतुरिति चेत्तत्राह -- सर्वत्रेति। ज्ञेयस्य ब्रह्मणः शक्तिः संनिधिमात्रेण प्रवर्तनसामर्थ्यं तत्सत्त्वं निमित्तीकृत्य स्वकार्यवन्तो भवन्ति पाण्यादय इति कृत्वेति योजना। सर्वतोऽक्षीत्यादावुक्तमतिदिशति -- तथेति। तज्ज्ञेयं यथा सर्वतःपाणिपादमिति व्याख्यातं तथेत्युक्तमेव स्फुटयति -- सर्वत इति। सर्वतोऽक्षीत्यादेरक्षरार्थमाह -- सर्वतोऽक्षीति। अक्षिश्रवणवत्त्वमवशिष्टज्ञानेन्द्रियवत्त्वस्य पाणिपादमुखवत्त्वं चावशिष्टकर्मेन्द्रियवत्त्वस्य मनोबुद्ध्यादिमत्त्वस्य चोपलक्षणम्। एकस्य सर्वत्र पाण्यादिमत्त्वं साधयति -- सर्वमिति।

Sri Vallabhacharya

।।13.13।।ज्ञेयस्वरूपमाह षड्भिः स्वगुणरूपैः ज्ञेयमिति। शास्त्रतः ज्ञानिभिरधिगम्यम्। ज्ञानस्य फलमाह अमृतमिति। ज्ञेयं नामरूपलक्षणतो निर्दिशति -- अनादिमत्परं ब्रह्मेति। सर्ववेदान्तप्रतिपाद्यं यत्। यद्वा अहं परो यस्मात्तदक्षरं इति च। विरुद्धर्माश्रयं च तदित्याह -- न सत्तन्नासदिति। असत्त्वं सत्त्वं च विरुद्धौ धर्मौ तयोराश्रयंनहि विरोध उभयं भगवत्यपरिगणितगुणगण ईश्वरे इत्यादि भागवतवाक्यैरुच्यते।

Sridhara Swami

।।13.13।। एभिः साधनैर्यज्ज्ञेयं तदाह -- ज्ञेयमितिषड्भिः। यज्ज्ञेयं तत्प्रवक्ष्यामि। श्रोतुरादरसिद्धये ज्ञानफलं दर्शयति। यद्वक्ष्यमाणं ज्ञात्वाऽमृतं मोक्षं प्राप्नोति। किं तत् अनादिमत् आदिमन्न भवतीत्यनादिमत्। परं निरतिशयं ब्रह्म। अनादीत्येतावतैव बहुव्रीहिणा अनादिमत्त्वे सिद्धेऽपि पुनर्मतुपः प्रयोगश्छान्दसः। यद्वा अनादीति मत्परमिति च पदद्वयम्। मम विष्णोः परं निर्विशेषं रूपं ब्रह्मेत्यर्थः। तदेवाह। न सत् न चासदुच्यते। विधिमुखेन प्रमाणस्य विषयः सच्छब्देनोच्यते। निषेधस्य विषयस्त्वसच्छब्देनोच्यते। इदं तु तदुभयविलक्षणं? अविषयत्वादित्यर्थः।

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