Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 11 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Unwavering Commitment

Sanskrit Shloka (Original)

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३-११||

Transliteration

mayi cānanyayogena bhaktiravyabhicāriṇī . viviktadeśasevitvamaratirjanasaṃsadi ||13-11||

Word-by-Word Meaning

मयिin Me
and
अनन्ययोगेनby the Yoga of nonseparation
भक्तिःdevotion
अव्यभिचारिणीunswerving
विविक्तदेशसेवित्वम्resort to solitary places
अरतिःdistaste

📖 Translation

English

13.11 Unswerving devotion unto Me by the Yoga of non-separation, resort to solitary places, distaste for the society of men.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।13.11।। अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate deep, focused work by setting aside dedicated, distraction-free time for high-impact tasks. Commit unwaveringly to your professional vision and values, and selectively engage with colleagues and networks that genuinely support your growth, avoiding superficial or draining interactions.

🧘 For Stress & Anxiety

Practice single-pointed mindfulness or meditation to anchor your mind amidst daily chaos, finding inner calm. Regularly seek quiet, solitary spaces for reflection and rejuvenation, and consciously limit exposure to social situations or individuals that induce stress or negativity.

❤️ In Relationships

Build deep, committed connections with individuals who truly align with your values and uplift you. Dedicate time for self-reflection to understand your own needs before engaging in social interactions, and thoughtfully choose your social circle, prioritizing enriching company over superficial crowds.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Achieve profound clarity and purpose by cultivating unwavering focus, embracing strategic solitude, and discerningly choosing your external influences.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

13.11 मयि in Me? च and? अनन्ययोगेन by the Yoga of nonseparation? भक्तिः devotion? अव्यभिचारिणी unswerving? विविक्तदेशसेवित्वम् resort to solitary places? अरतिः distaste? जनसंसदि in the society of men.Commentary The man of wisdom is firmly convinced that there is nothing higher than Me and that I am the sole refuge. He has unflinching devotion to Me through Yoga without any thought,for other objects. His mind has merged or entered into Me. Just as a river? when it merges itself in the ocean becomes completely one with it? even so he? being united with Me? worships only Me. This is Ananya Yoga or Aprithak Samadhi (Yoga of nonseparation or the superconscious state in which the devotee feels that he is nondistinct from God). Such devotion is a means of attaining knowledge. Such a devotee will never give up his devotion and worship even when he is under great trials and adversities.Viviktadesasevitvam He lives on the banks of sacred rivers? in caves? in the mountains? on the shores of seas or lakes and in beautiful solitary gardens where there is no fear of serpents? tigers or thieves. In solitary places the mind is ite calm. There are no disturbing elements that can distract ones attention. You can have uninterrupted meditation on the Self and can enter into Samadhi ickly.Society of men Distaste for the society of worldlyminded people? not of the wise? pure and holy. Satsanga or association with the wise is a means to the attainment of the knowledge of the Self.

Shri Purohit Swami

13.11 Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life;

Dr. S. Sankaranarayan

13.11. And an unfailing devotion towards Me, with the Yoga of non-difference; resorting to solitary place; distaste for a crowd of people;

Swami Adidevananda

13.11 Constant devotion directed to Me alone, resort to solitary places and dislike for crowds:

Swami Gambirananda

13.11 And unwavering devotion to Me with single-minded concentration; inclination to repair into a clean place; lack of delight in a crowd of people;

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।13.11।। संभवत अर्जुन के क्रियाशील स्वभाव से बाध्य होकर या फिर भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सुधारक होने से? जो कुछ भी हो? भगवद्गीता हमें जिस रूप में उपलब्ध है? वह आत्मोपलब्धि के विषय का अत्यन्त व्यावहारिक शास्त्रग्रन्थ है। जब कभी भी गीताचार्य अपने शिष्य को किसी मानसिक या बौद्धिक गुणविशेष को विकसित करने का उपदेश देते हैं तब तत्काल ही वे उसके सम्पादन का व्यावहारिक अभ्यसनीय उपाय भी बताते हैं।यदि कोई साधक पूर्व के तीन श्लोकों में वणिर्त गुणों का स्वयं में विकास करता है? तो वह निश्चित ही अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन व्यवहार में बहुत अधिक शक्ति का संचय कर सकता है। यह श्लोक बताता है कि किस प्रकार इस अतिरिक्त शक्ति का वह सही दिशा में सदुपयोग करे? जिससे कि आत्मविकास में उसका लाभ मिल सके।अनन्ययोग से मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति अनन्यता का अर्थ है मन का ध्येय विषय में एकाग्र हो जाना। इसके लिये विजातीय वृत्तियों का सर्वथा त्याग करके ध्येयविषयक वृत्ति को ही बनाये रखने का अभ्यास आवश्यक होता है। ध्यान या भक्ति में इस स्थिरता के नष्ट होने के लिए दो कारण हो सकते हैं या तो साधक के मन की अस्थिरता या फिर ध्येय का ही निश्चित नहीं होना जब तक ये दोनों ही स्थिर नहीं होते? भक्ति या ध्यान सफल नहीं हो सकता। यदि हमारी भक्ति एक मूर्ति से अन्य मूर्ति में परिवर्तित होती रहती है तो एकाग्रता कैसे सम्भव हो सकती है इसलिये? यहाँ कहा गया है कि योग में प्रगति और विकास के लिए अनन्य योग से परमात्मा की भक्ति आवश्यक है। यहाँ लक्ष्य की स्थिरता के विषय में कहा गया है।अविभाजित ध्यान तथा मन में उत्साह के होने पर पर भक्ति में एकाग्रता आना सरल कार्य हो जाता है। अन्यथा मन ही विद्रोह करके स्वकल्पित मिथ्या आकर्षणों में भटकता रह सकता है।ध्यानाभ्यास के समय मन के अत्यन्त निम्न और घृणित कोटि के विषयों में विचरण करने के विषय में जिस प्रतीकात्मक वाक्य का प्रयोग भगवान् ने किया है उससे ही ज्ञात होता है कि वे मन के इस विचरण की कितनी कठोरता से निन्दा करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि साधक की परम्परा में अव्यभिचारी भक्ति होनी चाहिये। व्याभिचार का अर्थ है किसी तुच्छ लाभ के लिये अपनी क्षमताओं एवं सुन्दरता का विक्रय करना। ईश्वर में समाहित चित्त ही ध्यान में एकनिष्ठ हो सकता है। यहाँ अव्यभिचारी शब्द से साधक को यह चेतावनी दी जाती है कि उसका ध्यान अनेक देवीदेवताओं अथवा विचारों में न भटके? वरन् चुने हुये ध्येय के साथ एकनिष्ठ रहे।इस प्रकार का सुगठित जीवन तथा ध्यान की स्थिरता तब सम्भव होती है? जब साधक उनके अनुकूल वातावरण में रहता है। इस बात को इन दो गुणों से दर्शाया गया है (क) एकान्तवास का सेवन? तथा? (ख) जनसमुदाय में अरुचि। मनुष्य का मन जितना अधिक शुद्ध एवं भोगों से विरत होता जाता है? उसकी ज्ञान की जिज्ञासा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। स्वाभाविक ही है कि फिर वह ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए लोगों के समुदाय से दूर जहाँ ज्ञान उपलब्ध हो वहाँ चला जाता है। यह बात कवि? लेखक? वैज्ञानिक आदि लोगों के विषय में भी सत्य है। इन सबको फिर एक ही लक्ष्य दिखाई देता है और इन्हें लौकिक बातों में कोई रुचि नहीं रह जाती।यहाँ जिस समुदाय में अरुचि रखने को कहा गया है वह असंस्कृत? असभ्य? भोगों में आसक्त जनों के समुदाय के सम्बन्ध में कहा गया है? न कि सन्त पुरुषों के संग से। सत्संग तो ज्ञान का साधक होता है बाधक नहीं। एकान्तवास? तथा जनसमुदाय से अरुचि का कोई व्यक्ति यह विपरीत अर्थ न समझे कि यहाँ जगत् से पलायन या समाज से द्वेष करने को कहा,गया है।

Swami Ramsukhdas

।।13.11।। व्याख्या --   मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी -- संसारका आश्रय लेनेके कारण साधकका देहाभिमान बना रहता है। यह देहाभिमान अव्यक्तके ज्ञानमें प्रधान बाधा है। इसको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर अनन्ययोगद्वारा अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति करनेका साधन बता रहे हैं। तात्पर्य है कि भक्तिरूप साधनसे भी देहाभिमान सुगमतापूर्वक दूर हो सकता है।भगवान्के सिवाय और किसीसे कुछ भी पानेकी इच्छा न हो अर्थात् भगवान्के सिवाय मनुष्य? गुरु? देवता? शास्त्र आदि मेरेको उस तत्त्वका अनुभव करा सकते हैं तथा अपने बल? बुद्धि? योग्यतासे मैं उस तत्त्वको प्राप्त कर लूँगा -- इस प्रकार किसी भी वस्तु? व्यक्ति आदिका सहारा न हो और भगवान्की कृपासे ही मेरेको उस तत्त्वका अनुभव होगा -- इस प्रकार केवल भगवान्का ही सहारा हो -- यह भगवान्में अनन्ययोग होना है।अपना सम्बन्ध केवल भगवान्के साथ ही हो? दूसरे किसीके साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न हो -- यह भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्ति होना है।तात्पर्य है कि तत्त्वप्राप्तिका साधन (उपाय) भी भगवान् ही हों और साध्य (उपेय) भी भगवान् ही हों -- यही अनन्ययोगके द्वारा भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्तिका होना है।जिस साधकमें ज्ञानके साथसाथ भक्तिके भी संस्कार हों? उसके लिये यह साधन बहुत उपयोगी है। भक्तिपरायण साधक अगर तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर एकमात्र भगवान्का ही आश्रय ग्रहण करता है? तो केवल इसी साधनसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति कर सकता है। गुणातीत होनेके उपायोंमें भी भगवान्ने अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही है (गीता 14। 26)। शङ्का -- यहाँ तो भक्तिसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति बतायी गयी है और अठारहवें अध्यायके चौवनवेंपचपनवें श्लोकोंमें ज्ञानसे भक्तिकी प्राप्ति कही गयी है? ऐसा क्योंसमाधान -- जैसे भक्ति दो प्रकारकी होती है -- साधनभक्ति और साध्यभक्ति? ऐसे ही ज्ञान भी दो प्रकारका होता है -- साधनज्ञान और साध्यज्ञान। साध्यभक्ति और साध्यज्ञान -- दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। साधनभक्ति और साधनज्ञान -- ये दोनों साध्यभक्ति अथवा साध्यज्ञानकी प्राप्तिके साधन हैं। अतः जहाँ भक्तिसे तत्त्वज्ञान(साध्यज्ञान) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है और जहाँ ज्ञानसे पराभक्ति(साध्यभक्ति) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है। अतः साधकको चाहिये कि उसमें कर्म? ज्ञान अथवा भक्ति -- जिस संस्कारकी प्रधानता हो? उसीके अनुरूप साधनमें लग जाय। सावधानी केवल इतनी रखे कि उद्देश्य केवल परमात्माका ही हो? प्रकृति अथवा उसके कार्यका नहीं। ऐसा उद्देश्य होनेपर वह उसी साधनसे परमात्माको प्राप्त कर लेता है।शङ्का -- भगवान्ने ज्ञानके साधनोंमें अपनी भक्तिको किसलिये बताया क्या ज्ञानयोगका साधक भगवान्की भक्ति भी करता हैसमाधान -- ज्ञानयोगके साधक (जिज्ञासु) दो प्रकारके होते हैं -- भावप्रधान (भक्तिप्रधान) और विवेकप्रधान (ज्ञानप्रधान)।(1) भावप्रधान जिज्ञासु वह है? जो भगवान्का आश्रय लेकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 7। 16 13। 18)। इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें माम्? मम्? तीसरे श्लोकमें मे? इस (दसवें) श्लोकमें मयि और अठारहवें श्लोकमें मद्भक्तः तथा मद्भावाय पदोंके आनेसे सिद्ध होता है कि अठारहवें श्लोकतक भावप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। परन्तु उन्नीसवेंसे चौंतीसवें श्लोकतक एक बार भी अस्मद् (मैं वाचक) पदका प्रयोग नहीं हुआ है? इसलिये वहाँ विवेकप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। अतः यहाँ भावप्रधान जिज्ञासुका प्रसङ्ग होनेसे ज्ञानके साधनोंके अन्तर्गत भक्तिरूप साधनका वर्णन किया गया है।दूसरी बात? जैसे सात्त्विक भोजनमें पुष्टिके लिये घी या दूधकी आवश्यकता होती है? तो वहाँ घी और दूध सात्त्विक भोजनके साथ मिलकर भी पुष्टि करते हैं और अकेलेअकेले भी पुष्टि करते हैं। ऐसे ही भगवान्की भक्ति ज्ञानके साधनोंमें मिलकर भी परमात्मप्राप्तिमें सहायक होती है और अकेली भी गुणातीत बना देती है (गीता 14। 26)। पातञ्जलयोगदर्शनमें भी परमात्मप्राप्तिके लिये अष्टाङ्गयोगके साधनोंमें सहायकरूपसे ईश्वरप्रणिधान अर्थात् भक्तिरूप नियम कहा है (टिप्पणी प0 684.1) और उसी भक्तिको स्वतन्त्ररूपसे भी कहा है (टिप्पणी प0 684.2)। इससे सिद्ध होता है कि भक्तिरूप साधन अपनी एक अलग विशेषता रखता है। इस विशेषताके कारण भी ज्ञानके साधनोंमें भक्तिका वर्णन किया गया है।(2) विवेकप्रधान जिज्ञासु वह है? जो सत्असत्का विचार करते हुए तीव्र विवेकवैराग्यसे युक्त होकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 13। 19 -- 34)।विचार करके देखा जाय तो आजकल आध्यात्मिक जिज्ञासाकी कमी और भोगासक्तिकी बहुलताके कारण विवेकप्रधान जिज्ञासु बहुत कम देखनेमें आते हैं। ऐसे साधकोंके लिये भक्तिरूप साधन बहुत उपयोगी है। अतः यहाँ भक्तिका वर्णन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है।उपाय -- केवल भगवान्को ही अपना मानना और भगवान्का ही आश्रय लेकर श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवन्नामका जप? कीर्तन? चिन्तन? स्मरण आदि करना ही भक्तिका सुगम उपाय है।विविक्तदेशसेवित्वम् -- मैं एकान्तमें रहकर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करूँ? भजनस्मरण करूँ? सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय करूँ? उस तत्त्वको गहरा उतरकर समझूँ? मेरी वृत्तियोंमें और मेरे साधनमें कोई भी विघ्नबाधा न पड़े? मेरे साथ कोई न रहे और मैं किसीके साथ न रहूँ -- साधककी ऐसी स्वाभाविक अभिलाषाका नाम,विविक्तदेशसेवित्व है। तात्पर्य यह हुआ कि साधककी रुचि तो एकान्तमें रहनेकी ही होनी चाहिये? पर ऐसा एकान्त न मिले तो मनमें किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं होना चाहिये। उसके मनमें यही विचार होना चाहिये कि संसारके सङ्गका? संयोगका तो स्वतः ही वियोग हो रहा है और स्वरूपमें असङ्गता स्वतःसिद्ध है। इस स्वतःसिद्ध असङ्गतामें संसारका सङ्ग? संयोग? सम्बन्ध कभी हो ही नहीं सकता। अतः संसारका सङ्ग कभी बाधक हो ही नहीं सकता।केवल निर्जन वन आदिमें जाकर और अकेले पड़े रहकर यह मान लेना कि मैं एकान्त स्थानमें हूँ वास्तवमें भूल ही है क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथमें है ही। जबतक इस शरीरके साथ सम्बन्ध है? तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना ही हुआ है। अतः एकान्त स्थानमें जानेका लाभ तभी है? जब देहाभिमानके नाशका उद्देश्य मुख्य हो।वास्तविक एकान्त वह है? जिसमें एक तत्त्वके सिवाय दूसरी कोई चीज न उत्पन्न हुई? न है और न होगी। जिसमें न इन्द्रियाँ हैं? न प्राण हैं? न मन है और न अन्तःकरण है। जिसमें न स्थूलशरीर है? न सूक्ष्मशरीर है और न कारण शरीर है। जिसमें न व्यष्टि शरीर है और न समष्टि संसार है। जिसमें केवल एक तत्त्वहीतत्त्व है अर्थात् एक तत्त्वके सिवाय और कुछ है ही नहीं। कारण कि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय पहले भी कुछ नहीं था और अन्तमें भी कुछ नहीं रहेगा। बीचमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है? वह भी प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीत हो रहा है अर्थात् जिनसे संसार प्रतीत हो रहा है? वे इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदि भी स्वयं प्रतीति ही हैं। अतः प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीति हो रही है। हमारा (स्वरूपका) सम्बन्ध शरीर और अन्तःकरणके साथ कभी हुआ ही नहीं क्योंकि शरीर और अन्तःकरण प्रकृतिका कार्य है और स्वरूप सदा ही प्रकृतिसे अतीत है। इस प्रकार अनुभव करना ही वास्तवमें विविक्तदेशसेवित्व है।अरतिर्जनसंसदि -- साधारण मनुष्यसमुदायमें प्रीति? रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है? कब क्या होगा? कैसे होगा आदिआदि सांसारिक बातोंको सुननेकी कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनानेवाले लोगोंसे मिलें? कुछ समाचार प्राप्त करें -- ऐसी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा? प्रीति न हो। परन्तु हमारेसे कोई तत्त्वकी बात पूछना चाहता है? साधनके विषयमें चर्चा करना चाहता है? उससे मिलनेके लिये मनमें जो इच्छा होती है? वह अरतिर्जनसंसदि नहीं है। ऐसे ही जहाँ तत्त्वकी बात होती हो? आपसमें तत्त्वका विचार होता हो अथवा हमारी दृष्टिमें कोई परमात्मतत्त्वको जाननेवाला हो? ऐसे पुरुषोंके सङ्गकी जो रुचि होती है? वह जनसमुदायमें रुचि नहीं कहलाती? प्रत्युत वह तो आवश्यक है। कहा भी गया है -- सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्युक्तं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्।।अर्थात् आसक्तिपूर्वक किसीका भी सङ्ग नहीं करना चाहिये परन्तु अगर ऐसी असङ्गता न होती हो? तो श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग करना चाहिये। कारण कि श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग असङ्गता प्राप्त करनेकी औषध है।

Swami Tejomayananda

।।13.11।। अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।13.11।।मयीति।

Sri Anandgiri

।।13.11।।साधनान्तरमाह -- किञ्चेति। आत्मादीत्यादिशब्दोऽनात्मार्थस्तद्विषयं ज्ञानं विवेकस्तन्नित्यत्वं तत्रैव निष्ठावत्त्वं? विवेकनिष्ठो हि वाक्यार्थज्ञानसमर्थो भवति। तेषां भावनापरिपाको नाम यत्नेन साधितानां प्रकर्षपर्यन्तत्वं तन्निमित्तं तत्त्वज्ञानमैक्यसाक्षात्कारः। तत्फलालोचनं किमर्थमित्याशङ्क्याह -- तत्त्वेति। प्रवृत्तिः स्यादित्यतस्तत्त्वज्ञानार्थदर्शनमर्थवदिति शेषः। ज्ञानस्यान्तरङ्गहेतुमुक्तमुपसंहरति -- एतदिति। किमिति तस्य विज्ञेयत्वमित्याशङ्क्याह -- परिहरणायेति। तत्र हेतुः -- संसारेति। तस्य प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्तद्धेतुत्वान्मानित्वादि त्याज्यं ज्ञाते च त्याज्यत्वे तेन तस्य ज्ञेयतेत्यर्थः। इतिशब्दः साधनाधिकारसमाप्त्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।13.11।।मयि चेति। अनन्ययोगेन अव्यभिचारिणी निर्हेतुकी भक्तिर्मध्ये हृदयरूपोक्ता।

Sridhara Swami

।।13.11।।किंच -- मयि चेति। मयि परमेश्वरे अनन्ययोगेन सर्वात्मदृष्ट्या अव्यभिचारिणी एकान्तभक्तिः? विविक्तः शुद्धिचित्तप्रसादकरः तं देशं सेवितुं शीलं यस्य तस्य भावस्तत्त्वम्? प्राकृतानां जनानां संसदि सभायामरती रत्यभावः।

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