Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 28 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Self Mastery

Sanskrit Shloka (Original)

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः | विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ||५-२८||

Transliteration

yatendriyamanobuddhirmunirmokṣaparāyaṇaḥ . vigatecchābhayakrodho yaḥ sadā mukta eva saḥ ||5-28||

Word-by-Word Meaning

यतेन्द्रियमनोबुद्धिःwith senses
मुनिःthe sage
मोक्षपरायणःhaving liberation as his supreme goal
विगतेच्छाभयक्रोधःfree from desire
यःwho
सदाfor ever
मुक्तःfree
एवverily
सःhe.Commentary If one is free from desire

📖 Translation

English

5.28 With the senses, the mind and the intellect (ever) controlled, having liberation as his supreme goal, free from desire, fear and anger the sage is verily liberated for ever.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.28।। जिस पुरुष की इन्द्रियाँ,  मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate mental discipline to maintain focus on tasks, manage workplace stress and conflicts by controlling emotional reactions (anger, fear of failure), and pursue work with a deeper sense of purpose beyond immediate gratification, leading to sustainable effort and satisfaction.

🧘 For Stress & Anxiety

Actively practice emotional regulation to mitigate anxiety, fear, and anger. Through conscious control of thoughts and senses, cultivate inner calm and resilience, preventing mental unrest and promoting overall well-being. Regular contemplation (Manana) can also ground the mind.

❤️ In Relationships

Approach interactions with reduced attachment (desire for specific outcomes or possessiveness), less insecurity (fear of rejection or loss), and a calm, non-reactive demeanor (absence of anger). This fosters more authentic, compassionate, and stable relationships, free from emotional drama and conflict.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Mastering your senses, mind, and emotions, coupled with a higher purpose, is the direct path to lasting inner peace and true liberation.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.28 यतेन्द्रियमनोबुद्धिः with senses? mind and intellect (ever) controlled? मुनिः the sage? मोक्षपरायणः having liberation as his supreme goal? विगतेच्छाभयक्रोधः free from desire? fear and anger? यः who? सदा for ever? मुक्तः free? एव verily? सः he.Commentary If one is free from desire? fear and anger he enjoys perfect peace of mind. When the senses? the mind and the intellect are subjugated? the sage does constant contemplation and,attains for ever to the absolute freedom or Moksha.The mind becomes restless when the modifications of deisre? fear and anger arise in it. When one becomes desireless? the mind moves towards the Self spontaneously liberation or Moksha becomes his highest goal.Muni is one who does Manana or reflection and contemplation.

Shri Purohit Swami

5.28 Governing sense, mind and intellect, intent on liberation, free from desire, fear and anger, the sage is forever free.

Dr. S. Sankaranarayan

5.28. Having known Me as the Enjoyer of [the fruits of] sacrifices and austerties, as the great Lord of all the worlds, and as the Friend of all beings, he (the man of Yoga) attains peace.

Swami Adidevananda

5.28 The sage who has controlled his senses, mind and intellect, who is intent on release as his final goal, freed for ever from desire, fear and wrath - is indeed liberated forever.

Swami Gambirananda

5.27-5.28 Keeping the external objects outside, the eyes at the juncture of the eye-brows, and making eal the outgoing and incoming breaths that move through the nostrils, the contemplative who has control over his organs, mind and intellect should be fully intent on Liberation and free from desire, fear and anger. He who is ever is verily free.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.28।। सूत्रस्थानीय इन श्लोकों में भगवान् ने ध्यानयोग का संक्षेप में संकेत किया है जिसका विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। संस्कृत में ब्रह्मविद्या के ग्रन्थों की यह पारम्परिक शैली है कि प्राय उनमें एक अध्याय के अन्तिम श्लोकों में आगामी अध्याय के विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है।इन श्लोकों में ज्ञानी पुरुष के अर्थपूर्ण जीवन के सभी पक्षों का वर्णन मिलता है। वेदान्त के साधक पूर्णत्व का जीवन जीने के लिए सदैव उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। वे उन स्वप्नद्रष्टा पुरुषों के समान नहीं होते जो किसी आदर्शवादी कल्पना में रमना पसन्द करते हैं बल्कि वे तो अत्यन्त व्यवहारकुशल उपयोगी और प्रेरणा का जीवन जीना चाहते हैं। इसलिए उन्हें अव्यावहारिक एवं आदर्शवादी तत्त्वज्ञान का कोई आकर्षण नहीं होता।पूर्णरूप से मन का समत्व कैसे प्राप्त किया जाय यह शंका सभी साधकों के मन में उठती है। श्रीकृष्ण यहाँ संक्षेप में उस साधन क्रम का वर्णन करते हैं जिसके अभ्यास से सिद्ध पुरुष के सुसंगठित व्यक्तित्व को प्राप्त किया जा सकता है। इसी का विस्तार अगले अध्याय में है।बाह्य विषयों की स्वयं में यह सार्मथ्य नहीं है कि वे किसी व्यक्ति को क्षुब्ध या लुब्ध कर सकें। विक्षेप का होना तो उनके साथ हमारे सम्बन्ध पर निर्भर करता है। समुद्रतट पर खड़े होकर उसमें उत्ताल तरंगों को देखने मात्र से कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती किन्तु समुद्र में कूद पड़ने पर तरंगों के द्वारा हमें इधरउधर फेंका जाना प्रारंभ होता है। शब्दस्पर्श रूप आदि ग्रहण करने पर विक्षेप तभी होता है जब हम अपने मन की परिवर्तनशील परिस्थितियों से तादात्म्य करते हैं। इसलिए यदि हम बाह्य विषयों को बाहर ही रख सकें तो निश्चय ही ध्यानाभ्यास के लिए आवश्यक मनशान्ति प्राप्त की जा सकती है। यहाँ विषयों को बाहर रखने का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी इंद्रियों का उपयोग करना बंद कर दें। इसका तात्पर्य यह है कि हम विषयों का चिन्तन न करें। विचार द्वारा यह जानकर कि उनमें सुख नहीं होता उनसे विरक्त हो जायें।अनेक साधक गुरु के उपदेशों का शाब्दिक अर्थ लेकर विचित्र ध्यानाभ्यास करने लगते हैं। ध्यान के लिए वे नेत्रदृष्टि को भृकुटियों के मध्य स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं। यह तो उपदेश का अतिप्रसंग ही कहा जायेगा। जैसा कि श्री शंकराचार्य बताते हैं यहाँ दृष्टि को मानो भृकुटियों के बीच स्थिर करना है वास्तव में नहीं। यह एक मनोवौज्ञानिक सत्य है कि भृकुटियों के बीच दृष्टि को स्थिर करने की कल्पना से 45 अंश का कोण बनता है और यह स्थिति ध्यान के लिए अत्यन्त अनुकूल होती है।हमारे श्वासोच्छ्वास की गति एवं मन की स्थिति के बीच अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है। मन के क्षुब्ध होने पर श्वासोच्छ्वास की लय भी बिगड़कर असंयमित हो जाती है। यहाँ प्राणापान की गति को सम करने का उपदेश है क्योंकि प्राणायाम मन को शान्त करने में उपयोगी होता है।प्रथम तो शरीर तथा प्राण को सुव्ययवस्थित करने का उपदेश है और तत्पश्चात् मन और बुद्धि को। इन्द्रियों की भूख मन की चंचलता और बुद्धि की अस्थिरता इन सबको संयमित करने का एक मात्र उपाय है मोक्ष को अपने जीवन का परम लक्ष्य बनाना। लक्ष्य का निर्धारण करने पर समस्त कर्मों का उसी लक्ष्य के प्रति अर्पण करना चाहिए। बुद्धि पर संयम होने का अर्थ इच्छा भय और क्रोध से मुक्त हो जाना है।उपर्युक्त तीनों गुणों में निकट का सम्बन्ध है। किसी अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र लालसा को इच्छा कहते हैं। इच्छा के तीव्र होने पर वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं इसका भय लगा रहता है और उसके प्राप्त हो जाने पर यह भय होता है कि कहीं खो न जाय। जब व्यक्ति इस प्रकार भयभीत होता है तब स्वाभाविक है कि उसके और वस्तु प्राप्ति के बीच कोई विघ्न आ जाये तब वह व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। अत तीनों पर विजय पाना बुद्धि की सभी वृत्तियों को अपने वश में करना है। इस प्रकार इन दो श्लोकों में वर्णित गुणों से सम्पन्न व्यक्ति भगवान् के शब्दों में सदा मुक्त ही है।इन गुणों के होने पर मुक्ति दूर नहीं रहती इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि इच्छा भय और क्रोध से रहित व्यक्ति मुक्त ही है। व्यवहार में भी रोटी पकाना इस प्रकार की शब्दावली प्रचलित है। किन्तु वास्तव में गूंथे हुए आटे को पकाया जाता हैं और न कि रोटी को। परन्तु हम उस वाक्य के अभिप्राय को समझते हैं। ठीक वैसे ही यदि साधक सब साधन सम्पन्न होकर ध्यान का अभ्यास करे तो सब मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर वह शीघ्र ही नित्यमुक्त आत्मा का साक्षात् अनुभव करता है।इस प्रकार समाहित चित्त के पुरुष के लिए कौन सी वस्तु ज्ञेय और ध्येय है इस सम्बन्ध में कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.28।। व्याख्या--'स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्'--परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है--इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है। 'चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः' यहाँ 'भ्रुवोः अन्तरे'--पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13)--ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है, और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।'प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ'--नासिकासे बाहर निकलनेवाली वायुको 'प्राण' और नासिकाके भीतर जानेवाली वायुको 'अपान' कहते हैं।प्राणवायुकी गति दीर्घ और अपानवायुकी गति लघु होती है। इन दोनोंको सम करनेके लिये पहले बायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर दायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। फिर दायीं नासिकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर बायीं नासिकासे प्राणवायुको बाहर निकाले। इन सब क्रियाओंमें बराबर समय लगना चाहिये। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहनेसे प्राण और अपानवायुकी गति सम, शान्त और सूक्ष्म हो जाती है। जब नासिकाके बाहर और भीतर तथा कण्ठादि देशमें वायुके स्पर्शका ज्ञान न हो तब समझना चाहिये कि प्राणअपानकी गति सम हो गयी है। इन दोनोंकी गति सम होनेपर (लक्ष्य परमात्मा रहनेसे) मनसे स्वाभाविक ही परमात्माका चिन्तन होने लगता है। ध्यानयोगमें इस प्राणायामकी आवश्यकता होनेसे ही इसका उपर्युक्त पदोंमें उल्लेख किया गया है। 'यतेन्द्रियमनोबुद्धिः'--प्रत्येक मनुष्यमें एक तो इन्द्रियोंका ज्ञान रहता है और एक बुद्धिका ज्ञान। इन्द्रियाँ और बुद्धि--दोनोंके बीचमें मनका निवास है। मनुष्यको देखना यह है कि उसके मनपर इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है या बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है अथवा आंशिकरूपसे दोनोंके ज्ञानका प्रभाव है। इन्द्रियोंके ज्ञानमें 'संयोग' का प्रभाव पड़ता है और बुद्धिके ज्ञानमें 'परिणाम' का। जिन मनुष्योंके मनपर केवल इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव है, वे संयोगजन्य सुखभोगमें ही लगे रहते हैं; और जिनके मनपर बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव है, वे (परिणामकी ओर दृष्टि रहनेसे) सुखभोगका त्याग करनेमें समर्थ हो जाते हैं--'न तेषु रमते बुधः' (गीता 5। 22)।प्रायः साधकोंके मनपर आंशिकरूपसे इन्द्रियों और बुद्धि--दोनोंके ज्ञानका प्रभाव रहता है। उनके मनमें इन्द्रियों तथा बुद्धिके ज्ञानका द्वन्द्व चलता रहता है। इसलिये वे अपने विवेकको महत्त्व नहीं दे पाते और जो करना चाहते हैं, उसे कर भी नहीं पाते। यह द्वन्द्व ही ध्यानमें बाधक है। अतः यहाँ मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंको वशमें करनेका तात्पर्य है कि मनपर केवल बुद्धिके ज्ञानका प्रभाव रह जाय, इन्द्रियोंके ज्ञानका प्रभाव सर्वथा मिट जाय।'मुनिर्मोक्षपरायणः'--परमात्मप्राप्ति करना ही जिनका लक्ष्य है, ऐसे परमात्मस्वरूपका मनन करनेवाले साधकको यहाँ 'मोक्षपरायणः' कहा गया है। परमात्मतत्त्व सब देश, काल आदिमें परिपूर्ण होनेके कारण सदा-सर्वदा सबको प्राप्त ही है। परन्तु दृढ़ उद्देश्य न होनेके कारण ऐसे नित्यप्राप्त तत्त्वकी अनुभूतिमें देरी हो रही है। यदि एक दृढ़ उद्देश्य बन जाय तो तत्त्वकी अनुभूतिमें देरीका काम नहीं है। वास्तवमें उद्देश्य पहलेसे ही बना-बनाया है; क्योंकि परमात्मप्राप्तिके लिये ही यह मनुष्य-शरीर मिला है। केवल इस उद्देश्यको पहचानना है। जब साधक इस उद्देश्यको पहचान लेता है, तब उसमें परमात्मप्राप्तिकी लालसा उत्पन्न हो जाती है। यह लालसा संसारकी सब कामनाओंको मिटाकर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव करा देती है। अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको पहचाननेके लिये ही यहाँ 'मोक्षपरायणः' पदका प्रयोग हुआ है।कर्मयोग, सांख्ययोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी आवश्यकता है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा, तो साधनसे सिद्धि कैसे मिलेगी? इसलिये यहाँ 'मोक्षपरायणः' पदसे ध्यानयोगमें दृढ़ निश्चयकी आवश्यकता बतायी गयी है।'विगतेच्छाभयक्रोधो यः'--अपनी इच्छाकी पूर्तिमें बाधा देनेवाले प्राणीको अपनेसे सबल माननेपर उससे भय होता है कि निर्बल माननेसे उसपर क्रोध आता है। ऐसे ही जीनेकी इच्छा रहनेपर मृत्युसे भय होता है और दूसरोंसे अपनी इच्छापूर्ति करवाने तथा दूसरोंपर अपना अधिकार जमानेकी इच्छासे क्रोध होता है। अतः भय और क्रोध होनेमें इच्छा ही मुख्य है। यदि मनुष्यमें इच्छापूर्तिका उद्देश्य न रहे प्रत्युत एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रह जाय, तो भय-क्रोधसहित इच्छाका सर्वथा अभाव हो जाता है। इच्छाका सर्वथा अभाव होनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। कारण कि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छासे ही मनुष्य जन्ममरणरूप बन्धनमें पड़ताहै। साधकको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि क्या वस्तुओंकी इच्छासे वस्तुएँ मिल जाती हैं? और क्या जीनेकी इच्छासे मृत्युसे बच जाते हैं? वास्तविकता तो यह है कि न तो वस्तुओंकी इच्छा पूरी कर सकते हैं और न मृत्युसे बच सकते हैं। इसलिये यदि साधकका यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं चाहिये, तो वह वर्तमानमें ही मुक्त हो सकता है। परन्तु यदि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छा रहेगी, तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्युके भयसे भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोधसे भी छुटकारा नहीं होगा। इसलिये मुक्त होनेके लिये इच्छारहित होना आवश्यक है।यदि वस्तु मिलनेवाली है तो इच्छा किये बिना भी मिलेगी और यदि वस्तु नहीं मिलनेवाली है तो इच्छा करनेपर भी नहीं मिलेगी। अतः वस्तुका मिलना या न मिलना इच्छाके अधीन नहीं है, प्रत्युत किसी विधानके अधीन है। जो वस्तु इच्छाके अधीन नहीं है, उसकी इच्छाको छोड़नेमें क्या कठिनाई है? यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते। परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है। यदि वस्तुओंकी इच्छा न रहे तो जीवन आनन्दमय हो जाता है और यदि जीनेकी इच्छा न रहे तो मृत्यु भी आनन्दमयी हो जाती है। जीवन तभी कष्टमय होता है, जब वस्तुओंकी इच्छा करते हैं, और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं। इसलिये जिसने वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है, वह जीते-जी मुक्त हो जाता है ,अमर हो जाता है।'सदा मुक्त एव सः'--उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही बन्धन है। इस माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग करना ही मुक्ति है। जो मुक्त हो गया है, उसपर किसी भी घटना, परिस्थिति, निन्दा-स्तुति, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जीवन-मरण आदिका किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता।'सदा मुक्त एव' पदोंका तात्पर्य है कि वास्तवमें साधक स्वरूपसे सदा मुक्त ही है। केवल उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण उसे अपने मुक्त स्वरूपका अनुभव नहीं हो रहा है। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही स्वतःसिद्ध मुक्तिका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध--भगवान्ने योगनिष्ठा और सांख्यनिष्ठाका वर्णन करके दोनोंके लिये उपयोगी ध्यानयोगका वर्णन किया। अब सुगमतापूर्वक कल्याण करनेवाली भगवन्निष्ठाका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.28।। जिस पुरुष की इन्द्रियाँ,  मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.27 5.28।।ध्यानप्रकारमाह स्पर्शानित्यादिना। बाह्यान्स्पर्शन्वहिः कृत्वा श्रोत्रादीनि योगेन नियम्येत्यर्थः। चक्षुर्भ्रुवोरन्तरं कृत्वा भ्रुवोर्मध्यमवलोकयन्नित्यर्थः। उक्तं च नासाग्रे वा भ्रुवोर्मध्ये ध्यानी चक्षुर्निधापयेत् इति। प्राणापानौ समौ कृत्वा कुम्भके स्थितत्वेत्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।5.28।।विषयप्रावण्यं परित्यज्य चक्षुरपि भ्रुवोर्मध्ये विक्षेपपरिहारार्थं कृत्वा प्राणापानौ च नासाभ्यन्तरचरणशीलौ समौ न्यूनाधिकवर्जितौ कुम्भकेन निरुद्धौ कृत्वा करणानि सर्वाण्येवं संयम्य प्राणायामपरो भूत्वा किं कुर्यादित्यपेक्षायामाह यतेन्द्रियेति। इन्द्रियादिसंयमं कृत्वा मोक्षमेवापेक्षमाणो मननशीलः स्यादित्यर्थः। ज्ञानातिशयनिष्ठस्य सर्वदेच्छादिशून्यस्य संन्यासिनो मुक्तेरनायाससिद्धत्वान्न तस्य किंचिदपि कर्तव्यमस्तीत्याह विगतेति। पूर्वार्धाक्षराणि व्याकरोति यतेत्यादिना। द्वितीयार्धाक्षराणि व्याचष्टे विगतेत्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।5.27 5.28।।स योगी ब्रह्मनिर्वाणं 5।24 इत्यादौ प्रोक्तं तमेव योगं समासेन दर्शयन्नाह द्वाभ्याम् स्पर्शानिति।ईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्। योगेन तु निषिद्धेन यदि देहः प्रसिद्ध्यति। तदा कल्पान्तपर्यन्तं भावनातस्तु तत्फलम्। इति निबन्धे ईश्वरालम्बनस्यैव योगस्य भक्तिजनकत्वमिति। योगेश्वरालम्बनतायाः स्वरूपमाह स्पर्शाः बाह्याः रूपरसादयो विषयाश्चिन्तितता एवान्तः प्रविशन्ति तांस्तच्चिन्तात्यागेन बहिरेव कृत्वा ज्ञानप्रधानं चक्षुश्च भ्रुवोरन्तरे कृत्वा अर्द्धोन्मीलितलोचनेन मन एकाग्रं कृत्वेत्यर्थः। तथोर्द्धाधोगतिकौ प्राणापानौ च समौ कृत्वा कुम्भयित्वा प्राणायामाभिनयेन तदाह नासाभ्यन्तरचारिणाविति। एतेनोपायेन यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्योगफलं न तत्र सिद्धिकामः स्यात् किन्तु मोक्षपरायणः मोक्षार्थं पर ईश्वरस्तदालम्बनो यः स सदा प्रपञ्च एवमुक्त एव जीवन्मुक्त इत्यर्थः।

Sridhara Swami

।।5.28।।यत इति। अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य मोक्ष एव परमयनं प्राप्यं यस्य अतएव विगता इच्छाभयक्रोधा यस्य य एंवभूतो मुनिः स सदा जीवन्नपि मुक्त एवेत्यर्थः।

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