Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 8 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Justice / Cosmic Order

Sanskrit Shloka (Original)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||४-८||

Transliteration

paritrāṇāya sādhūnāṃ vināśāya ca duṣkṛtām . dharmasaṃsthāpanārthāya sambhavāmi yuge yuge ||4-8||

Word-by-Word Meaning

परित्राणायfor the protection
साधूनाम्of the good
विनाशायfor the destruction
and
दुष्कृताम्of the wicked
धर्मसंस्थापनार्थायfor the establishment of righteousness
संभवामि(I) am born
युगेयुगे in every age.Commentary Sadhunam The good who lead a life of righteousness

📖 Translation

English

4.8 For the protection of the good, for the destruction of the wicked and for the establishment of righteousness, I am born in every age.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.8।। साधु पुरुषों के रक्षण,  दुष्कृत्य करने वालों के नाश,  तथा धर्म संस्थापना के लिये,  मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, strive to be an advocate for ethical practices and fair treatment. Act as a force for good, protecting colleagues from injustice and contributing to a righteous work culture. This means upholding integrity, even when challenging the 'wicked' (unethical practices or individuals) and actively working to establish a just environment.

🧘 For Stress & Anxiety

When faced with overwhelming injustice or chaos, remember that there is an underlying cosmic order and a perpetual force (divine or within humanity) dedicated to restoring balance. Find peace in knowing that righteousness will ultimately prevail, and contribute your part without succumbing to despair, trusting in the larger divine plan for justice.

❤️ In Relationships

Cultivate relationships based on truth and integrity. Protect and uplift those who embody goodness and honesty. Be a voice against manipulation or harm within your social circles, and actively work to establish fairness and mutual respect in all your interactions. This may sometimes mean challenging harmful dynamics for the greater good of the relationship or community.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Righteousness endures, perpetually protected and re-established by an eternal divine force, inspiring us to embody justice and goodness in every age.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.8 परित्राणाय for the protection? साधूनाम् of the good? विनाशाय for the destruction? च and? दुष्कृताम् of the wicked? धर्मसंस्थापनार्थाय for the establishment of righteousness? संभवामि (I) am born? युगे युगे in every age.Commentary Sadhunam The good who lead a life of righteousness? who utiles their bodies in the service of humanity? who are free from selfishness? lust and greed? and who devote their lives to divine contemplation.Dushkritam Evildoers who lead a life of unrighteousness? who break the laws of the society? who are vain and are dishonest and greedy? who injure others? who take possession of the property of others by force? and who commit atrocious crimes of various sorts.

Shri Purohit Swami

4.8 To protect the righteous, to destroy the wicked and to establish the kingdom of God, I am reborn from age to age.

Dr. S. Sankaranarayan

4.8. For the protection of the good people, and for the destruction of evil-doers, and for the purpose of firmly establishing righteousness, I take birth in every age.

Swami Adidevananda

4.8 For the protection of the good and also for the destruction of the wicked, for the establishment of Dharma, am I born from age to age.

Swami Gambirananda

4.8 For the protection of the pious, the destruction of the evil-doers, and establishing virtue, I manifest Myself in every age.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.8।। यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव। बिना किसी साधन के विद्युत् शक्ति किसी विशेष रूप में व्यक्त नहीं हो सकती। इसी प्रकार परमब्रह्म किसी प्रयोजन के अभाव में किसी उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट उपाधि को न धारण कर सकता है और न उसे उसकी कोई आवश्यकता ही होती है। जिस प्रकार शान्त और स्थिर जल में किसी वस्तु के डालने पर उसमें तरंगे उठने लगती हैं उसी प्रकार इच्छा रूपी विक्षेपक के होने पर ही परम पूर्ण स्वरूप में से उच्च या हीन किसी प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति संभव है।पूर्ण परमात्मा में गोपाल कृष्ण के रूप में अवतार लेने की कारण रूप जो इच्छा है उसे यहाँ व्यास जी अपने शब्दों में वर्णन करते हैं। सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह भी एक इच्छा ही है। कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये अपनी माया का आश्रय लेकर एक और कार्य अवतारी पुरुष को करना होता है वह है दुष्टों का संहार।दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है उसमें दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश अभिप्रेत है। वस्त्र रखने की आलमारी रखने की पुर्नव्यवस्था करने के समान यह कार्य है। जो वस्त्र अत्यन्त निरुपयोगी हो जाते हैं उन्हें नये वस्त्रों के रखने हेतु स्थान बनाने हेतु वहाँ से हटाना ही पड़ता है। इसी प्रकार अवतारी पुरुष साधुओं का उत्साह बढ़ाते हैं दुष्टों के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयत्न करते हैं और कभीकभी दुष्टों का पूर्ण संहार भी आवश्यक हो जाता है।अर्जुन के लिये इतना सब कुछ विस्तार से बताना पड़ा क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ था। श्रीकृष्ण को एक मनुष्य और मित्र के रूप में ही समझने के कारण वह प्रथम अध्याय में इतने प्रकार के तर्क प्रस्तुत करता रहा अन्यथा उसमें इतना साहस ही नहीं होता। यदि यह मान भी लिया जाय कि अर्जुन को श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व के विषय में पूर्ण भान था तब इसका अर्थ होगा कि एक नास्तिक के समान श्रीकृष्ण की सहायता पाकर भी वह अपने विजय के प्रति पूर्ण आश्वस्त नहीं था यह उचित नहीं प्रतीत होता। जब भगवान् उसे अपना मित्र भक्त कहते हैं तब वह शिशुओं की सी सरलता से उनसे कहता है आप मुझे सिखाइये मैं आपका शष्य हूँ। इस वाक्य में श्रीकृष्ण के प्रति उसका आदर भाव तो स्पष्ट होता है किन्तु किसी भी प्रकार उसमें उनके ईश्वरत्व का ज्ञान होना सिद्ध नहीं होता।भगवान् अपने ही विषय में जानकारी क्यों दे रहे हैं

Swami Ramsukhdas

4.8।। व्याख्या--'परित्राणाय साधूनाम्'--साधु मनुष्योंके द्वारा ही अधर्मका नाश और धर्मका प्रचार होता है, इसलिये उनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।दूसरोंका हित करना ही जिनका स्वभाव है और जो भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण, कीर्तन आदि करते हैं और लोगोंमें भी इसका प्रचार करते हैं, ऐसे भगवान्के आश्रित भक्तोंके लिये यहाँ 'साधूनाम्' पद आया है। जिसका एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, वह साधु है (टिप्पणी प0 223) और जिसका नाशवान् संसारका उद्देश्य है, वह असाधु है।असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है। साधुतासे अपना उद्धार और लोगोंका स्वतः उपकार होता है।साधु पुरुषके भावों और क्रियाओँमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है-- हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।(मानस 7। 47। 3)यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ तो वे उसके चरणोंके दास बन जायँ। इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुषके मनके भावोंको जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो।यहाँ शङ्का हो सकती है कि यदि भगवान् साधु पुरुषोंकी रक्षा किया करते हैं तो फिर संसारमें साधु पुरुष दुःख पाते हुए क्यों देखे जाते हैं? इसका समाधान यह है कि साधु पुरुषोंकी रक्षाका तात्पर्य उनके भावोंकी रक्षा है शरीर धनसम्पत्ति मानबड़ाई आदिकी रक्षा नहीं; कारण कि वे इन सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व नहीं देते। भगवान् भी इन वस्तुओंको महत्त्व नहीं देते; क्योंकि सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही असाधुता पैदा होती है।भक्तोंमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व, उद्देश्य होता ही नहीं; तभी तो वे भक्त हैं। भक्तलोग प्रतिकूलता-(दुःखदायी परिस्थिति-) में विशेष प्रसन्न होते हैं; क्योंकि प्रतिकूलतासे जितना आध्यात्मिक लाभ होता है, उतना किसी दूसरे साधनसे नहीं होता। वास्तवमें भक्ति भी प्रतिकूलतामें ही बढ़ती है। सांसारिकराग, आसक्तिसे ही पतन होता है और प्रतिकूलतासे वह राग टूटता है। इसलिये भगवान्का भक्तोंके लिये प्रतिकूलता भेजना भी वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा करन��� है।'विनाशाय च दुष्कृताम्'--दुष्ट मनुष्य अधर्मका प्रचार और धर्मका नाश करते हैं, इसलिये उनका विनाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।जो मनुष्य कामनाके अत्यधिक बढ़नेके कारण झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे हुए हैं, जो निरपराध सद्गुण, सदाचारी, साधुओंपर अत्याचार किया करते हैं, जो दूसरोंका अहित करनेमें ही लगे रहते हैं, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, भगवान् और वेद-शास्त्रोंका विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है, ऐसे आसुरी सम्पत्तिमें अधिक रचे-पचे रहकर वैसा ही बुरा आचरण करनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ 'दुष्कृताम्' पद आया है। भगवान् अवतार लेकर ऐसे ही दुष्ट मनुष्योंका विनाश करते हैं।  शङ्का--भगवान् तो सब प्राणियोंमें सम हैं और उनका कोई वैरी नहीं है ('समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः' गीता 9। 29) फिर वे दुष्टोंका विनाश क्यों करते हैं?  समाधान-- सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे भगवान्का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान्का वैरी होता है-- सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।। जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।(मानस 2। 218। 2 3) भगवान्का एक नाम 'भक्तभक्तिमान्' (श्रीमद्भा0 10। 86। 59) है। अतः भक्तोंको कष्ट देनेवाले दुष्टोंका विनाश भगवान् स्वयं करते हैं। पापका विनाश भक्त करते हैं और पापीका विनाश भगवान् करते हैं। साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान्की जितनी कृपा है, उतनी ही कृपा दुष्टोंका विनाश करनेमें भी है! (टिप्पणी प0 224) विनाश करके भगवान् उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं।सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते हैं, पर दुष्टोंके विनाशका कार्य वे नहीं करते। दुष्टोंका विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं; जैसे--साधारण मलह-मपट्टी करनेका काम तो कंपाउंडर करता है, पर बड़ा ऑपरेशन करनेका काम सिविल सर्जन खुद करता है, दूसरा नहीं।माता और पिता--दोनों समानरूपसे बालकका हित चाहते हैं। बालक पढ़ाई नहीं करता, उद्दण्डता करता है तो उसको माता भी समझाती है और पिता भी समझाते हैं। बालक अपनी उद्दण्डता न छो़ड़े तो पिता उसे मारते-पीटते हैं। परन्तु बालक जब घबरा जाता है, तब माता पिताको मारने-पीटनेसे रोकती है। यद्यपि माता पतिव्रता है पतिका अनुसरण करना उसका धर्म है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि पति बालकको मारे तो वह भी साथमें मारने लग जाय। यदि वह ऐसा करे तो बालक बेचारा कहाँ जायगा? बालककी रक्षा करनेमें उसका पातिव्रत-धर्म नष्ट नहीं होता। कारण कि वास्तवमें पिता भी बालकको मारना-पीटना नहीं चाहते, प्रत्युत उसके दुर्गुण-दुराचारोंको दूर करना चाहते हैं। इसी तरह भगवान् पिताके समान हैं और उनके भक्त माताके समान। भगवान् और सन्त-महात्मा मनुष्योंको समझाते हैं। फिर भी मनुष्य अपनी दुष्टता न छोड़े तो उनका विनाश करनेके लिये भगवान्को अवतार लेकर खुद आना पड़ता है। अगर वे अपनी दुष्टता छोड़ दें तो उन्हें मारनेकी आवश्यकता ही न रहे।निर्गुण ब्रह्म प्रकृति, माया, अज्ञान आदिका विरोधी नहीं है, प्रत्युत उनको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला तथा उनका पोषक है। तात्पर्य यह कि प्रकृति, माया आदिमें जो कुछ सामर्थ्य है, वह सब उस निर्गुण ब्रह्मकी ही है। इसी तरह सगुण भगवान् भी किसी जीवके साथ द्वेष, वैर या विरोध नहीं रखते, प्रत्युत समान रीतिसे सबको सामर्थ्य देते हैं, उनका पोषण करते हैं। इतना ही नहीं, भगवान्की रची हुई पृथ्वी भी रहनेके लिये सबको बराबर स्थान देती है। उसका यह पक्षपात नहीं है कि महात्माको तो विशेष स्थान दे, पर दुष्टको स्थान न दे। ऐसे ही अन्न सबकी भूख बराबर मिटाता है, जल सबकी प्यास समानरूपसे मिटाता है, वायु सबको प्राणवायु एक-सी देती है, सूर्य सबको प्रकाश एक-सा देता है, आदि। यदि पृथ्वी, अन्न, जल आदि दुष्टोंको स्थान, अन्न, जल आदि देना बंद कर दें तो दुष्ट जी ही नहीं सकते। इस प्रकार जब भगवान्के विधानके अनुसार चलनेवाले पृथ्वी, अन्न, जल, वायु, सूर्य आदिमें भी इतनी उदारता, समता है, तब इस विधानके विधायक-(भगवान्-) में कितनी विलक्षण उदारता, समता होगी ! वे तो उदारताके भण्डार ही हैं। यदि विधायक (भगवान्) और उनके विधानकी ओर थोड़ा-सा भी दृष्टिपात किया जाय तो मनुष्य गद्गद हो जाय और भगवान्के चरणोंमें उसका प्रेम हो जायभगवान्का दुष्ट पुरुषोंसे विरोध नहीं है, प्रत्युत उनके दुष्कर्मोंसे विरोध है। कारण कि वे दुष्कर्म संसारका तथा उन दुष्टोंका भी अहित करनेवाले हैं। भगवान् सर्वसुहृद् हैं; अतः वे संसारका तथा उन दुष्टोंका भी हित करनेके लिये ही दुष्टोंका विनाश करते हैं। उनके द्वारा जो दुष्ट मारे जाते हैं, उनको भगवान् अपने ही धाममें भेज देते हैं--यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता है! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अगर हम पाप-कर्म ही करते रहें तो क्या हमें भी मारनेके लिये भगवान्को आना पड़ेगा?अगर ऐसी बात है तो भगवान्के द्वारा मरनेसे हमारा कल्याण हो ही जायगा; फिर जिनमें संयम करना पड़ता है, ऐसे श्रमसाध्य सद्गुण-सदाचारका पालन क्यों करें? इसका उत्तर यह है कि वास्तवमें भगवान् उन्हीं पापियोंको मारनेके लिये आते हैं, जो भगवान्के सिवाय दूसरे किसीसे मर ही नहीं सकते। दूसरी बात, शुभ-कर्मोंमें जितना लगेंगे, उतना तो पुण्य हो ही जायगा, पर अशुभ-कर्मोंमें लगे रहनेसे यदि बीचमें ही मर जायँगे अथवा कोई दूसरा मार देगा तो मुश्किल हो जायगी ! भगवान्के हाथों मरकर मुक्ति पानेकी लालसा कैसे पूरी होगी! इसलिये अशुभ-कर्म करने ही नहीं चाहिये।'धर्मसंस्थापनार्थाय'--निष्कामभावका उपदेश, आदेश और प्रचार ही धर्मकी स्थापना है। कारण कि निष्कामभावकी कमीसे और असत् वस्तुको सत्ता देकर उसे महत्त्व देनेसे ही अधर्म बढ़ता है, जिससे मनुष्य दुष्ट स्वभाववाले हो जाते हैं। इसलिये भगवान् अवतार लेकर आचरणके द्वारा निष्काम-भावका प्रचार करते हैं। निष्कामभावके प्रचारसे धर्मकी स्थापना स्वतः हो जाती है। धर्मका आश्रय भगवान् हैं (टिप्पणी प0 225.1) (गीता 14। 27) इसलिये शाश्वत धर्मकी संस्थापना करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं। संस्थापना करनेका अर्थ है-- सम्यक् स्थापना करना। तात्पर्य है कि धर्मका कभी नाश नहीं होता, केवल ह्रास होता है। धर्मका ह्रास होनेपर भगवान् पुनः उसकी अच्छी तरह स्थापना करते हैं (गीता 4। 1 3)। 'सम्भवामि युगे युगे'--आवश्यकता पड़नेपर भगवान् प्रत्येक युगमें अवतार लेते हैं। एक युगमें भी जितनी बार जरूरत पड़ती है, उतनी बार भगवान् अवतार लेते हैं। 'कारक पुरुष' (टिप्पणी प0 225.2) और सन्त-महात्माओंके रूपमें भी भगवान्का अवतार हुआ करता है। भगवान् और कारक पुरुषका अवतार तो 'नैमित्तिक' है, पर सन्त-महात्माओंका अवतार 'नित्य' माना गया है।यहाँ शङ्का होती है कि भगवान् तो सर्वसमर्थ हैं, फिर संतोंकी रक्षा करना, दुष्टोंका विनाश करना और धर्मकी स्थापना करना--ये काम क्या वे अवतार लिये बिना नहीं कर सकते? इसका समाधान यह है कि भगवान् अवतार लिये बिना ये काम नहीं कर सकते, ऐसी बात नहीं है। यद्यपि भगवान् अवतार लिये बिना अनायास ही यह सब कुछ कर सकते हैं और करते भी रहते हैं, तथापि जीवोंपर विशेष कृपा करके उनका कुछ और हित करनेके लिये भगवान् स्वयं अवतीर्ण होते हैं (टिप्पणी प0 225.3)। अवतारकालमें भगवान्के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप आदिसे, भविष्यमें उनकी दिव्य लीलाओंके श्रवण, चिन्तन और ध्यानसे तथा उनके उपदेशोंके अनुसार आचरण करनेसे लोगोंका सहज ही उद्धार हो जाता है। इस प्रकार लोगोंका सदा उद्धार होता ही रहे, ऐसी एक रीति भगवान् अवतार लेकर ही चलाते हैं।भगवान्के कई ऐसे प्रेमी भक्त होते हैं, जो भगवान्के साथ खेलना चाहते हैं, उनके साथ रहना चाहते हैं। उनकी इच्छा पूरी करनेके लिये भी भगवान् अवतार लेते हैं और उनके सामने आकर, उनके समान बनकर खेलते हैं। जिस युगमें जितना कार्य आवश्यक होता है, भगवान् उसीके अनुसार अवतार लेकर उस कार्यको पूरा करते हैं। इसलिये भगवान्के अवतारोंमें तो भेद होता है, पर स्वयं भगवान्में कोई भेद नहीं होता। भगवान् सभी अवतारोंमें पूर्ण हैं और पूर्ण ही रहते हैं। भगवान्के लिये न तो कोई कर्तव्य है और न उन्हें कुछ पाना ही शेष है (गीता 3। 22) ,फिर भी वे समय-समयपर अवतार लेकर केवल संसारका हित करनेके लिये सब कर्म करते हैं। इसलिये मनुष्यको भी केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।चौथे श्लोकमें आये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने मनुष्योंके जन्म और अपने जन्म-(अवतार-) में तीन बड़े अन्तर बताये हैं (1) जाननेमें अन्तर--मनुष्योंके और भगवान्के बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब जन्मोंको मनुष्य तो नहीं जानते, पर भगवान् जानते हैं (4। 5)। (2) जन्ममें अन्तर--मनुष्य प्रकृतिके परवश होकर, अपने किये हुए पाप-पुण्योंका फल भोगनेके लिये और फलभोगपूर्वक परमात्माकी प्राप्ति करनेके लिये जन्म लेता है, पर भगवान् अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वाधीनता-पूर्वक अपनी योगमायासे स्वयं प्रकट होते हैं (4। 6)। (3) कार्यमें अन्तर--साधारणतः मनुष्य अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये कार्य करते हैं, जो कि मनुष्यजन्मका ध्येय नहीं है, पर भगवान् केवल मात्र जीवोंके कल्याणके लिये कार्य करते हैं (4। 7 8)।  सम्बन्ध   चौथे श्लोकमें आये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने अपने जन्मकी दिव्यताका वर्णन आरम्भ किया था। अब अपनी ओरसे निष्काम-कर्म(कर्म-योग-) का तत्त्व बतानेके उद्देश्यसे अपने जन्मकी दिव्यताके साथ-साथ अपने कर्मकी दिव्यताको जाननेका भी माहात्म्य बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.8।। साधु पुरुषों के रक्षण,  दुष्कृत्य करने वालों के नाश,  तथा धर्म संस्थापना के लिये,  मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.8।।न जन्मनैव परित्राणादि कार्यमिति नियमः। तथापि लीलया स्वभावेन च यथेष्टचारी। तथा ह्युक्तम् देवस्यैष स्वभावोऽयम्।लोकवत्तु लीलाकैवल्यम् ब्र.सू.2।1।33क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय। अरिभयादिव स्वयं पुराद्व्यवात्सीद्यदनन्तवीर्यः। पूर्णोऽयमस्यान्न न किञ्चिदाप्यं तथापि सर्वाः कुरुते प्रवृत्तीः। अतो विरुद्धेषुमिमं वदन्ति परावरज्ञा मुनयः प्रशान्ताः इत्यादि ऋग्वेदखिलेषु।

Sri Anandgiri

।।4.8।।यथोक्ते काले कृतकृत्यस्य भगवतो मायाकृते जन्मनि प्रश्नपूर्वकं प्रयोजनमाह किमर्थमित्यादिना। यथा साधूनां रक्षणमसाधूनां निग्रहश्च भगवदवतारफलं तथा फलान्तरमपि तस्यास्तीत्याह किञ्चेति। धर्मे हि स्थापिते जगदेव स्थापितं भवत्यन्यथा भिन्नमर्यादं जगदसंगतत्वमापद्येतेत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।4.7 4.8।।कदा किमर्थं सम्भवसीत्यपेक्षायां स्वप्रादुर्भावकालमाह द्वाभ्याम् यदा यदा हीति। परित्राणायेति। साधूनां धर्मवतां परित्राणाय तत्प्रतिपक्षाणां दुष्कृतां दुष्टं कर्म कुर्वतां विनाशाय च युगेयुगे सम्भवामि। न चात्रावतारकालनियम इत्येतदर्थं यदा यदा युगेयुगे इत्युक्तम् नचैवं दुष्टनिग्रहं कुर्वतोऽपि वैषम्यं शङ्कनीयं यथा चोक्तं लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथाऽर्मके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः इति।

Sridhara Swami

।।4.8।।किमर्थमित्यपेक्षायामाह परित्राणायेति। साधूनां स्वधर्मवर्तिनां रक्षणाय। दुष्टं कर्म कुर्वन्तीति दुष्कृतस्तेषां वधाय च। एवं धर्मस्य संस्थापनार्थाय साधुरक्षणेन दुष्टवधेन च धर्मं स्थिरीकर्तुं युगेयुगे तत्तदवसरे संभवामीत्यर्थः। नचैवं दुष्टनिग्रहं कुर्वतोऽपि नैर्घृण्यं शङ्कनीयम्। यथाचाहुःलालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः।। इति।

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