Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 7 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||४-७||
Transliteration
yadā yadā hi dharmasya glānirbhavati bhārata . abhyutthānamadharmasya tadātmānaṃ sṛjāmyaham ||4-7||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.7 Whenever there is decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then I manifest Myself.
।।4.7।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In professional life, this verse emphasizes the importance of maintaining integrity and ethical standards, even when surrounded by shortcuts or corrupt practices. It encourages individuals to be agents of positive change, advocating for fairness and transparency ('Dharma') when they witness a decline in organizational ethics ('Adharma'), trusting that such righteousness will ultimately be vindicated or restored.
🧘 For Stress & Anxiety
When faced with overwhelming injustice, personal setbacks, or societal issues that seem insurmountable, this verse offers profound reassurance. It suggests that there is an inherent cosmic principle of balance and restoration. This understanding can alleviate feelings of helplessness and despair, encouraging one to maintain their own moral compass and find peace in the knowledge that 'Dharma' eventually prevails, even if intervention is not always immediately apparent or external.
❤️ In Relationships
In personal and community relationships, this verse highlights the necessity of upholding truth, fairness, and compassion. When relationships become imbalanced, abusive, or marked by deceit ('Adharma'), it implies a call to action to restore mutual respect and ethical conduct ('Dharma'). It encourages individuals to address inequities and strive for harmony, understanding that such efforts are aligned with a fundamental principle of universal order.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When righteousness declines, a divine principle actively intervenes to restore cosmic balance and uphold ethical order.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.7 यदा यदा whenever? हि surely? धर्मस्य of righteousness? ग्लानिः decline? भवति is? भारत O Bharata? अभ्युत्थानम् rise? अधर्मस्य of unrighteousness? तदा then? आत्मानम् Myself? सृजामि manifest? अहम् I.Commentary Dharma is that which sustains and holds together. There is no proper eivalen for this term in the English language. That which helps a man to attain to Moksha or salvation is Dharma. That which makes a man irreligious or unrighteous is Adharma. That which elevates a man and helps him reach the goal of life and attain knowledge is Dharma that which drags him and hurls him down in the abyss of worldliness and ignorance is Adharma.
Shri Purohit Swami
4.7 Whenever spirituality decays and materialism is rampant, then, O Arjuna, I reincarnate Myself!
Dr. S. Sankaranarayan
4.7. For, whenever there is a decay of righteousness and the rise of unrighteousness, then, O descendant of Bharata, I send forth (or create) that is which the Self is unimportant.
Swami Adidevananda
4.7 Whenever there is a decline of Dharma, O Arjuna, and uprising of Adharma, then I incarnate Myself.
Swami Gambirananda
4.7 O scion of the Bharata dynasty, whenever there is a decline one virtue and increase of vice, then do I manifest Myself.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.7।। जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्कर्ष होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता के प्रथम अध्याय की प्रस्तावना में धर्म शब्द का अर्थ विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। धर्म एक पवित्र सत्य है जिसके पालन से ही समाज धारणा सम्भव होती है। जब बहुसंख्यक लोग धर्म का पालन नहीं करते तब द्विपदपशुओं के समूह द्वारा यह जगत् जीत लिया जाता है उस समय परस्पर सहयोग और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुये सुखी परिवार दिखाई नहीं देते। मनुष्य को शोभा देने वाला उच्च जीवन भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इतिहास के ऐसे काले युग में कोई महान् व्यक्ति समाज में आकर लोगों के जीवन और नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है। समाज में विद्यमान नैतिक मूल्यों को आगे बढ़ाने से ही यह कार्य सम्पादित नहीं होता वरन् साथसाथ दुष्टता का भी नाश अनिवार्य होता है।इस कार्य के लिये अनन्तस्वरूप परमात्मा कभीकभी देहादि उपाधियों को धारण करके पृथ्वी पर प्रगट होते हैं उस बड़ी सम्पत्ति के स्वामी के समान जो कभीकभी अपनी सम्पत्ति का निरीक्षण करने और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये हाथ में अस्त्र आदि लेकर निकलता है। धूप में काम करते श्रमिकों के बीच वह खड़ा रहता है तथापि अपने स्वामित्व को नहीं भूलता। इसी प्रकार समस्त जगत् के अधिष्ठाता भगवान् शरीर धारण कर र्मत्य मानवों के अनैतिक जीवन के साथ निर्लिप्त रहते हुए उनको अधर्म से बाहर निकालकर धर्म मार्ग पर लाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।भगवान् के इस अवतरण में यहाँ एक बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि वे शरीर धारण करते हैं तथापि अपने स्वातन्त्र्य को नहीं खोते। उपाधियों में वे रहते हैं परन्तु उपाधियों के वे दास नहीं बन जाते।किस प्रयोजन के लिये
Swami Ramsukhdas
4.7।। व्याख्या--'यदा यदा हि धर्मस्य ৷৷. अभ्युत्थानमधर्मस्य'-- धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धिका स्वरूप है--भगवत्प्रेमी, धर्मात्मा, सदाचारी, निरपराध और निर्बल मनुष्योंपर नास्तिक, पापी, दुराचारी और बलवान् मनुष्योंका अत्याचार बढ़ जाना तथा लोगोंमें सद्गुण-सदाचारोंकी अत्यधिक कमी और दुर्गुण-दुराचारोंकी अत्यधिक वृद्धि हो जाना।'यदा यदा' पदोंका तात्पर्य है कि जब-जब आवश्यकता पड़ती है, तब-तब भगवान् अवतार लेते हैं। एक युगमें भी जितनी बार आवश्यकता और अवसर प्राप्त हो जाय, उतनी बार अवतार ले सकते हैं। उदाहरणार्थ, समुद्र-मन्थनके समय भगवान्ने अजितरूपसे समुद्र-मन्थन किया, कच्छप-रूपसे मन्दराचलको धारण किया तथा सहस्रबाहुरूपसे मन्दराचलको ऊपरसे दबाकर रखा। फिर देवताओंको अमृत बाँटनेके लिये मोहिनी-रूप धारण किया। इस प्रकार भगवान्ने एक साथ अनेक रूप धारण किये।अधर्मकी वृद्धि और धर्मका ह्रास होनेका मुख्य कारण है--नाशवान् पदार्थोंकी ओर आकर्षण। जैसे माता और पितासे शरीर बनता है, ऐसे ही प्रकृति और परमात्मासे सृष्टि बनती है। इसमें प्रकृति और उसका कार्य संसार तो प्रतिक्षण बदलता रहता है, कभी क्षणमात्र भी एकरूप नहीं रहता और परमात्मा तथा उनका अंश जीवात्मा--दोनों सम्पूर्ण देश, काल आदिमें नित्य-निरन्तर रहते हैं, इनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। जब जीव अनित्य, उत्पत्ति-विनाशशील प्राकृत पदार्थोंसे सुख पानेकी इच्छा करने लगता है और उनकी प्राप्तिमें सुख मानने लगता है, तब उसका पतन होने लगता है। लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है त्यों-ही-त्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाजमें पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं।सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग--इन चारों युगोंकी ओर देखा जाय तो इनमें भी क्रमशः धर्मका ह्रास होता है। सत्ययुगमें धर्मके चारों चरण रहते हैं, त्रेतायुगमें धर्मके तीन चरण रहते हैं, द्वापरयुगमें धर्मके दो चरण रहते हैं और कलियुगमें धर्मका केवल एक चरण शेष रहता है। जब युगकी मर्यादासे भी अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है, तब भगवान् धर्मकी पुनः स्थापना करनेके लिये अवतार लेते हैं।'तदात्मानं सृजाम्यहम्'--जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं। अतः भगवान्के अवतार लेनेका मुख्य प्रयोजन है--धर्मकी स्थापना करना और अधर्मका नाश करना।धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होनेपर लोगोंकी प्रवृत्ति अधर्ममें हो जाती है। अधर्ममें प्रवृत्ति होनेसे स्वाभाविक पतन होता है। भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं। इसलिये लोगोंको पतनमें जानेसे रोकनेके लिये वे स्वयं अवतार लेते हैं। कर्मोंमें सकामभाव उत्पन्न होना ही धर्मकी हानि है और अपने-अपने कर्तव्यसे च्युत होकर निषिद्ध आचरण करना ही अधर्मका अभ्युत्थान है! 'काम' अर्थात् कामनासे ही सब-के-सब अधर्म, पाप, अन्याय आदि होते हैं (गीता 3। 37)। अतः इस 'काम' का नाश करनेके लिये तथा निष्कामभावका प्रसार करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।यहाँ शङ्का हो सकती है कि वर्तमान समयमें धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि बहुत हो रही है, फिर भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते? इसका समाधान यह है कि युगको देखते हुए अभी वैसा समय नहीं आया है, जिससे भगवान् अवतार लें। त्रेतायुगमें राक्षसोंने ऋषि-मुनियोंको मारकर उनकी हड्डियोंके ढेर लगा दिये थे। यह तो त्रेतायुगसे भी गया-बीता कलियुग है, पर अभी धर्मात्मा पुरुष जी रहे हैं, उनका कोई नाश नहीं करता। दूसरी एक बात और है। जब धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि होती है, ��ब भगवान्की आज्ञासे संत इस पृथ्वीपरआते हैं अथवा यहींसे विशेष साधक पुरुष प्रकट हो जाते हैं और धर्मकी स्थापना करते हैं। कभी-कभी परमात्माको प्राप्त हुए कारक महापुरुष भी संसारका उद्धार करनेके लिये आते हैं। साधक और सन्त पुरुष जिस देशमें रहते हैं, उस देशमें अधर्मकी वैसी वृद्धि नहीं होती और धर्मकी स्थापना होती है।जब साधकों और सन्त-महात्माओंसे भी लोग नहीं मानते, प्रत्युत उनका विनाश करना आरम्भ कर देते हैं और जब धर्मका प्रचार करनेवाले बहुत कम रहते हैं तथा जिस युगमें जैसा धर्म होना चाहिये, उसकी अपेक्षा भी बहुत अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है, तब भगवान् स्वयं आते हैं। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अपने अवतारके अवसरका वर्णन करके अब भगवान् अपने अवतारका प्रयोजन बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.7।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.7।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।4.7।।यदीश्वरस्य मायानिबन्धनं जन्मेत्युक्तं तस्य प्रश्नपूर्वकं कालं कथयति तच्चेत्यादिना। चातुर्वर्ण्ये चातुराश्रम्ये च यथावदनुष्ठीयमाने नास्ति धर्महानिरिति मन्वानो विशिनष्टि वर्णेति। वर्णैराश्रमैस्तदाचारैश्च लक्ष्यते ज्ञायते धर्मस्तस्येति यावत्। धर्महानौ समस्तपुरुषार्थभङ्गो भवतीत्यभिप्रेत्याह प्राणिनामिति। नच यथोक्तस्य धर्मस्य हानिं सोढुं शक्तो भवानित्याह भारतेति। न केवलं प्राणिनां धर्महानिरेव भगवतो मायाविग्रहस्य परिग्रहे हेतुरपि तु तेषामधर्मप्रवृत्तिरपीत्याह अभ्युत्थानमिति। यदा यदेति पूर्वेण संबन्धः।
Sri Vallabhacharya
।।4.7 4.8।।कदा किमर्थं सम्भवसीत्यपेक्षायां स्वप्रादुर्भावकालमाह द्वाभ्याम् यदा यदा हीति। परित्राणायेति। साधूनां धर्मवतां परित्राणाय तत्प्रतिपक्षाणां दुष्कृतां दुष्टं कर्म कुर्वतां विनाशाय च युगेयुगे सम्भवामि। न चात्रावतारकालनियम इत्येतदर्थं यदा यदा युगेयुगे इत्युक्तम् नचैवं दुष्टनिग्रहं कुर्वतोऽपि वैषम्यं शङ्कनीयं यथा चोक्तं लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथाऽर्मके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः इति।
Sridhara Swami
।।4.7।।कदा संभवसीत्यपेक्षायामाह यदा यदेति। धर्मस्य ग्लानिर्हानिः। अधर्मस्याभ्युत्थानमाधिक्यम्।