Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 41 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् | आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ||४-४१||
Transliteration
yogasaṃnyastakarmāṇaṃ jñānasañchinnasaṃśayam . ātmavantaṃ na karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya ||4-41||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.41 He who has renounced actions by Yoga, whose doubts are rent asunder by knowledge, and who is self-possessed actions do not bind him, O Arjuna.
।।4.41।। जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach work tasks with diligence and expertise, focusing on the quality of your effort rather than being overly attached to specific outcomes like promotions or bonuses. Cultivate clear understanding in your field to eliminate professional doubts and improve efficiency. Maintain inner calm and self-awareness amidst workplace pressures, understanding that your worth is not solely defined by external achievements.
🧘 For Stress & Anxiety
Alleviate stress by practicing detachment from the results of your actions, understanding that your inner peace is not contingent on external successes or failures. Engage in introspection or mindfulness to gain clarity, resolving mental anxieties and uncertainties by cultivating unwavering conviction in your purpose. Maintain a stable, self-aware inner state, becoming resilient to external stressors and emotional turbulence.
❤️ In Relationships
Engage in relationships with genuine care and affection, but without possessiveness or attachment to controlling others' behaviors or specific outcomes. Foster open and clear communication, applying knowledge to understand different perspectives and resolve interpersonal doubts or conflicts. Maintain a strong sense of self and integrity within relationships, preventing your happiness from being solely dependent on external validation or the approval of others.
situations
Dealing with outcomes beyond one's controlNavigating complex decisionsHandling interpersonal conflictsPerforming under intense scrutinyCoping with loss or change
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate inner clarity, perform actions with detachment, and abide in your true Self to remain unaffected by life's outcomes.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.41 योगसंन्यस्तकर्माणम् one who has renounced actions by Yoga? ज्ञानसंछिन्नसंशयम् one whose doubts are rent asunder by knowledge? आत्मवन्तम् possessing the self? न not? कर्माणि actions? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya.Commentary Sri Madhusudana Sarasvati explains Atmavantam as always watchful.He who has attained to Selfrealisation renounces all actions by means of Yoga or the knowledge of Brahman. As he is established in the knowledge of the identity of the individual soul with the,Supreme Soul? all his doubts are cut asunder. Actions do not bind him as they are burnt in the fire of wisdom and as he is always watchful over himself. (Cf.II.48III.9IV.20)
Shri Purohit Swami
4.41 But the man who has renounced his action for meditation, who has cleft his doubt in twain by the sword of wisdom, who remains always enthroned in his Self, is not bound by his acts.
Dr. S. Sankaranarayan
4.41. O Dhananjaya ! Actions do not bind him who has renounced [all] actions through Yoga; who has cut off his doubts by the sword of knowledge; and who is a master of his own self.
Swami Adidevananda
4.41 Actions do not bind him, O Arjuna, who has renounced them through Karma Yoga and whose doubts are sundered by knowledge, and who therefore possesses a steady mind.
Swami Gambirananda
4.41 O Dhananjaya (Arjuna), actions do not bind one who has renounced actions through yoga, whose doubt has been fully dispelled by Knowledge, and who is not inadvertent.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.41।। इस अध्याय में विस्तारपूर्वक बतायी हुयी जीवन जीने की कला को इस श्लोक में अत्यन्त सुन्दर प्रकार से संक्षेप में बताया गया है। कर्मसंन्यास से तात्पर्य फलासक्ति के त्याग से है। जब हम कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये कर्मफलों की आसक्ति त्यागना सीख लेते हैं तथा आत्मानुभवरूप ज्ञान के द्वारा जीवन के लक्ष्य सम्बन्धी हमारे सब संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं तब अहंकार नष्ट होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में हमारी स्थिति दृढ़ हो जाती है। ऐसा आत्मवान् पुरुष कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बन्धता।कर्तृत्व के अभिमान तथा स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्म ही वासनाएं उत्पन्न करके हमें बन्धन में डालते हैं। कर्मयोग की भावना से निरहंकार होकर कर्म करने पर बन्धन नहीं हो सकता। स्वप्न में स्वप्न की पत्नी की हत्या करने पर स्वाप्निक दण्ड तो भोगना पड़ सकता है परन्तु स्वप्न द्रष्टा के जागने पर जाग्रत् अवस्था में उसे कोई दण्ड नहीं दे सकता क्योंकि स्वप्न के साथसाथ स्वप्न द्रष्टा भी नष्ट हो जाता है। जाग्रत्पुरुष को स्वप्न द्रष्टा का किया कर्म नहीं बांध सकता। इसी प्रकार अहंकार पूर्वक किये गये कर्म अहंकार के लिये बन्धनकारक हो सकते हैं परन्तु आत्मानुभूति में उसके ही नष्ट हो जाने पर आत्मा को वे कर्म कैसे बांध सकेंगे जिसका अहंकार नष्ट हो चुका है उसी पुरुष को यहाँ आत्मवान् कहा गया है।इस आत्मज्ञान का फल सर्वश्रेष्ठ है इसलिये श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि
Swami Ramsukhdas
4.41।। व्याख्या--'योगसंन्यस्तकर्मणाम्'--शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। इस दृष्टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वतःसिद्ध समताका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग-(समता-) के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष 'योगसंन्यस्तकर्मा'है।जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए--दोनों अवस्थाओंमें नित्य-निरन्तर असङ्ग रहता है, तब वही वास्तवमें 'योगसंन्यस्तकर्मा' होता है। 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्'--मनुष्यके भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्ध[-विच्छेद कैसे होगा? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा? आदि। परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है (टिप्पणी प0 273), तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं। उसे इस बातका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध 'पर'-(संसार-) के साथ है, 'स्व'-(स्वरूप-) के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभाव-पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।'आत्मवन्तम्'--कर्मयोगीका उद्देश्य स्वरूपबोधको प्राप्त करनेका होता है, इसलिये वह सदा स्वरूपके परायण रहता है। उसके सम्पूर्ण कर्म संसारके लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूपसे ही दूसरोंके लिये होती है, खाना-पीना, सोना-बैठना आदि जीवन-निर्वाहकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरोंके लिये ही होती हैं; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं। 'न कर्माणि निबध्नन्ति'--अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे कर्मयोगीका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदाके लिये संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है (गीता 4। 23)।कर्म स्वरूपसे बन्धनकारक हैं ही नहीं। कर्मोंमें फलेच्छा, ममता, आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधनेवाला है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि ज्ञानके द्वारा संशयका नाश होता है और समताके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। अब आगेके श्लोकमें भगवान् ज्ञानके द्वारा अपने संशयका नाश करके समतामें स्थित होनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.41।। जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.41।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।4.41।।यद्यपि संशयः सर्वानर्थहेतुत्वात्कर्तव्यो न भवति तथापि निवर्तकाभावे तदकरणमस्वाधीनमिति शङ्कते कस्मादिति। श्रुतियुक्तिप्रयुक्तमैक्यज्ञानं तन्निवर्तकमित्युत्तरमाह ज्ञानेति। संशयरहितस्यापि कर्माण्यनर्थहेतवो भवन्तीत्याशङ्क्याह योगेति। विषयपरवशस्य पुंसो योगायोगात्कुतो योगसंन्यस्तकर्मत्वमित्याशङ्क्याह आत्मवन्तमिति। परमार्थदर्शनतः संशयोच्छित्तौ तदुच्छेदकज्ञानमाहात्म्यादेव कर्मणां च निवृत्तावप्रमत्तस्य प्रातिभासिकानि कर्माणि बन्धहेतवो न भवन्तीत्याह न कर्माणीति। कर्मयोगादेव कर्मसंन्यासस्यानुपपत्तिमाशङ्क्याद्यं पादं विभजते परमार्थेति। तच्च वैधसंन्यासपक्षे परोक्षं फलसंन्यासपक्षे त्वपरोक्षमिति विवेकः। यथोक्तज्ञानेन संन्यस्तकर्मत्वमेव सति संशये न सिध्यति संशयवतस्तदयोगादिति शङ्कते कथमिति। द्वितीयं पादं व्याकुर्वन्परिहरति आहेत्यादिना। पाठक्रमादर्थक्रमस्य बलीयस्त्वादादौ द्वितीयं पादं व्याख्याय पश्चादाद्यं पादं व्याचक्षीतेत्याह य एवमिति। सर्वमिदं प्रमादवतो विषयपरवशस्य न सिध्यतीत्यभिसंधायात्मवन्तं व्याकरोति अप्रमत्तमिति। न कर्माणीत्यादिफलोक्तिं व्याचष्टे गुणचेष्टेति। अनिष्टादीत्यादिशब्देनेष्टं मिश्रं च गृह्यते।
Sri Vallabhacharya
।।4.41।।उभयोरेकार्थनिष्ठं स्तौति योगेनोक्तरूपेण सिद्ध्यसिद्धिसमानचित्तवृत्तिकेन बाह्यतः क्रियानिष्ठमपि तेनाऽन्तस्सन्न्यस्तकर्माणं धीरं अन्तःकरणसम्बन्धशून्यं साङ्ख्येन च सञ्छिन्नसंशयं आत्मानात्मनिश्चयात्मिकबुद्धिमन्तं अत एव केवलमात्मवन्तं न तु केवलमनात्माभिमानवन्तं पुरुषं क्रियमाणानि तानि कर्माणि न निबध्नन्ति।
Sridhara Swami
।।4.41।।अध्यायद्वयोक्तां पूर्वापरभूमिकाभेदेन कर्मज्ञानमयीं द्विविधां ब्रह्मनिष्ठामुपसंहरति योगेति द्वाभ्याम्। योगेनपरमेश्वराराधनरूपेण तस्मिन्संन्यस्तानि समर्पितानि कर्माणि येन तं पुरुषं कर्माणि स्वफलैर्निबध्नन्ति। अतश्च ज्ञानेनाकर्त्रात्मबोधेन संच्छिन्नः संशयो देहाद्यभिमानलक्षणो यस्य तं चात्मवन्तमप्रमादिनं कर्माणि लोकसंग्रहार्थानि स्वाभाविकानि वा न निबध्नन्ति।