Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 40 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||४-४०||
Transliteration
ajñaścāśraddadhānaśca saṃśayātmā vinaśyati . nāyaṃ loko.asti na paro na sukhaṃ saṃśayātmanaḥ ||4-40||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.40 The ignorant the faithless, the doubting self goes to destruction; there is neither this world nor the other, nor happiness for the doubting.
।।4.40।। अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, cultivate deep knowledge of your domain, trust in your skills and the collective vision of your team. Avoid indecision and constant second-guessing of strategies or your own capabilities, as this leads to missed opportunities, poor execution, and stagnation. True conviction, born from understanding and belief, drives success.
🧘 For Stress & Anxiety
To alleviate stress and anxiety, embrace a mindset of informed conviction. Rather than dwelling in perpetual doubt about outcomes or personal choices, seek clarity through knowledge and develop faith in your resilience and chosen path. Continuous self-doubt and wavering can be a major source of mental anguish, hindering peace and well-being.
❤️ In Relationships
Building strong relationships requires both understanding and trust. Overcome the 'doubting self' by seeking to truly know and empathize with others, rather than succumbing to suspicion or questioning sincerity without cause. Lack of faith and perpetual doubt can erode trust, foster insecurity, and ultimately lead to the 'destruction' of meaningful connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Ignorance, faithlessness, and especially debilitating doubt, are self-destructive forces that prevent success and happiness in all aspects of life. Cultivate knowledge and unwavering conviction.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.40 अज्ञः the ignorant? च and? अश्रद्दधानः the faithless? च and? संशयात्मा the doubting self? विनश्यति goes to destruction? न not? अयम् this? लोकः world? अस्ति is? न not? परः the next? न not? सुखम् happiness? संशयात्मनः for the doubting self.Commentary The ignorant one who has no knowledge of the Self. The man without faith one who has no faith in his own self? in the scriptures and the teachings of his Guru.A man of doubting mind is the most sinful of all. His condition is very deplorable. He is full of doubts as regards the next world. He does not rejoice in this world also? as he is very suspicious. He has no happiness.
Shri Purohit Swami
4.40 But the ignorant man, and he who has no faith, and the sceptic are lost. Neither in this world nor elsewhere is there any happiness in store for him who always doubts.
Dr. S. Sankaranarayan
4.40. But he, who is ignorant and has no faith, perishes, with his self (mind) full of doubts. Neither this world nor the other, nor happiness is for a person, who is by nature is full of doubts.
Swami Adidevananda
4.40 The ignorant, the faithless and the doubting one peirsh; for the doubting one there is neither this world, nor that beyond, nor happiness.
Swami Gambirananda
4.40 One who is ignorant and faithless, and has a doubting mind perishes. Neither this world nor the next nor happiness exists for one who has a doubting mind.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.40।। इसके पूर्व के श्लोक में कहा गया है कि श्रद्धा तथा ज्ञान से युक्त पुरुष परम शान्ति प्राप्त करता है। इसी तथ्य पर बल देने के लिये निषेधात्मक भाषा में कहते हैं कि उपर्युक्त गुणों से रहित पुरुष अपनी ही हानि करता हुआ अन्त में नष्ट हो जाता है।जो अज्ञानी है अर्थात् वह पुरुष जिसे बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार के श्रद्धारहित और संशयी स्वभाव के पुरुष का नाश अवश्यंभावी है।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण संशयात्मा पुरुष की निन्दा करते हुये उसके जीवन की त्रासदी बताते हैं। ऐसे पुरुष को न इस लोक में सुख मिलता है और न अन्यत्र। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अज्ञानी तथा अश्रद्धालु पुरुष कुछ मात्रा में तो इस लोक का सुख प्राप्त कर सकते हैं परन्तु संशयी स्वभाव के व्य़क्ति के भाग्य में वह भी नहीं लिखा होता ऐसे पुरुष मानसिक रूप से किसी भी परिस्थिति का आनन्द लेने में सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं क्योंकि संशय की प्रवृत्ति प्रत्येक अनुभव में विष घोल देती है। तथाकथित बुद्धिमान अश्रद्धालु और संशयी स्वभाव के पुरुषों पर इस पंक्ति मे तीक्ष्ण व्यंग्य प्रहार किया गया है।अत इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। भगवान् आगे कहते हैं
Swami Ramsukhdas
4.40।। व्याख्या--'अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति'--जिस पुरुषका विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशययुक्त पुरुषका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है। कारण कि संशययुक्त पुरुषकी अपनी बुद्धि तो प्राकृत--शिक्षारहित है और दूसरेकी बातका आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुषके संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है? अलग-अलग बातोंको सुननेसे 'यह ठीक है अथवा वह ठीक है?' ---इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुषका नाम संशयात्मा है। पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले साधकमें संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषयको पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषयको कुछ नहीं समझते उस विषयमें संशय पैदा नहीं होता और जिस विषयको पूरा समझते हैं, उस विषयमें संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञानमें ही पैदा होता है, इसीको अज्ञान कहते हैं (टिप्पणी प0 272.1)। इसलिये संशयका उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशयको बनाये रखना और उसे दूर करनेकी चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशयको दूर करनेकी चेष्टा न करनेपर वह संशय ही 'सिद्धान्त' बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होनेपर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्गमें सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपने भीतर संशयका रहना साधकको बुरा लगना चाहिये। संशय बुरा लगनेपर जिज्ञासा जाग्रत् होती है, जिसकी पूर्ति होनेपर संशय-विनाशक ज्ञानकी प्राप्ति होती है।साधकका लक्षण है--खोज करना। यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। साधकको निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्तेपर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्यतक पहुँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुएपर सन्तोष न करे, प्रत्युत जिस विषयको अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जाननेकी चेष्टा करता रहे। इसलिये संशयके रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, प्रत्युत जिज्ञासा अग्निकी तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होनेपर साधकका संशय सन्त-महात्माओंसे अथवा ग्रन्थोंसे किसी-न-किसी प्रकारसे दूर हो ही जाता है। संशय दूर करनेवाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है।विशेष बात जीवात्मा परमात्माका अंश है--'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7)। इसलिये जब उसमें अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी भूख जाग्रत् होती है और उसकी पूर्ति न होनेका दुःख होता है, तब उस दुःखको भगवान् सह नहीं सकते। अतः उसकी पूर्ति भगवान् स्वतः करते हैं। ऐसे ही जब साधकको अपने भीतर स्थित संशयसे व्याकुलता या दुःख होता है, तब वह दुःख भगवान्को असह्य होता है। संशय दूर करनेके लिये भगवान्से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती, प्रत्युत जिस संशयको लेकर साधकको दुःख हो रहा है, उससंशयको दूर करके भगवान् स्वतः उसका वह दुःख मिटा देते हैं। संशयात्मा पुरुषकी एक पुकार होती है, जो स्वतः भगवान्तक पहुँच जाती है। संशयके कारण साधककी वास्तविक उन्नति रुक जाती है, इसलिये संशय दूर करनेमें ही उसका हित है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29), इसलिये जिस संशयको लेकर मनुष्य व्याकुल होता है और वह व्याकुलता उसे असह्य हो जाती है, तो भगवान् उस संशयको किसी भी रीति--उपायसे दूर कर देते हैं। गलती यही होती है कि मनुष्य जितना जान लेता है, उसीको पूरा समझकर अभिमान कर लेता है कि मैं ठीक जानता हूँ। यह अभिमान महान् पतन करनेवाला हो जाता है। 'नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः'--इस श्लोकमें ऐसे संशयात्म��� मनुष्यका वर्णन है, जो 'अज्ञ' और 'अश्रद्धालु' है। तात्पर्य यह है कि भीतर संशय रहनेपर भी उस मनुष्यकी न तो अपनी विवेकवती बुद्धि है और न वह दूसरेकी बात ही मानता है। इसलिये उस संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। उसके लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है (टिप्पणी प0 272.2)।संशयात्मा मनुष्यका इस लोकमें व्यवहार बिगड़ जाता है। कारण कि वह प्रत्येक विषयमें संशय करता है, जैसे--यह आदमी ठीक है या बेठीक है? यह भोजन ठीक है या बेठीक है? इसमें मेरा हित है या अहित है? आदि। उस संशयात्मा मनुष्यको परलोकमें भी कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि कल्याणमें निश्चयात्मिका बुद्धिकी आवश्यकता होती है और संशयात्मा मनुष्य दुविधामें रहनेके कारण कोई एक निश्चय नहीं कर सकता; जैसे--जप करूँ या स्वाध्याय करूँ ?संसारका काम करूँ या परमात्मप्राप्ति करूँ? आदि। भीतर संशय भरे रहनेके कारण उसके मनमें भी सुख-शान्ति नहीं रहती। इसलिये विवेकवती बुद्धि और श्रद्धाके द्वारा संशयको अवश्य ही मिटा देना चाहिये।दो अलग-अलग बातोंको पढ़ने-सुननेसे संशय पैदा होता है। वह संशय या तो विवेक-विचारके द्वारा दूर हो सकता है या शास्त्र तथा सन्त-महापुरुषोंकी बातोंको श्रद्धापूर्वक माननेसे। इसलिये संशययुक्त पुरुषमें यदि अज्ञता है तो वह विवेक-विचारको बढ़ाये और यदि अश्रद्धा है तो श्रद्धाको बढ़ाये; क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एकको विशेषतासे अपनाये बिना संशय दूर नहीं होता। सम्बन्ध--भगवान्ने तैंतीसवें श्लोकसे ज्ञानयोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए ज्ञान-प्राप्तिका उपाय तथा ज्ञानकी महिमा बतायी। जो ज्ञान गुरुके पास रहकर उनकी सेवा आदि करनेसे होता है, वही ज्ञान कर्मयोगसे सिद्ध हुए मनुष्यको अपनेआप प्राप्त हो जाता है--ऐसा बताकर भगवान्ने ज्ञानप्राप्तिके पात्र-अपात्रका वर्णन करते हुए प्रकरणका उपसंहार किया। अब प्रश्न होता है कि सिद्ध होनेके लिये कर्मयोगीको क्या करना चाहिये? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.40।। अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.40।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।4.40।।उत्तरश्लोकस्य पातनिकां करोति अत्रेति। यथोक्तसाधनवानुपदेशमपेक्ष्याचिरेण ब्रह्म साक्षात्करोति साक्षात्कृतब्रह्मत्वेऽचिरेणैव मोक्षं प्राप्नोतीत्येषोऽर्थः सप्तम्या परामृश्यते। संशयस्याकर्तव्यत्वे हेतुमाह पापिष्ठो हीति। उक्तं हेतुं प्रश्नपूर्वकमुत्तरश्लोकेन साधयति कथमिति। अज्ञादश्रद्दधानाच्च संशयचित्तस्य विशेषमादर्शयति नायमिति। द्वितीयविभागविभजनार्थं भूमिकां करोति अज्ञेति। अज्ञादीनां मध्ये संशयात्मनो यत्पापिष्ठत्वं तत्प्रश्नद्वारा प्रकटयति कथमिति। लोकद्वयस्य तत्प्रयुक्तसुखस्य चाभावे हेतुमाह तत्रापीति। संशयचित्तस्य सर्वत्र संशयप्रवृत्तेर्दुर्निवारत्वादित्यर्थः। संशयस्यानर्थमूलत्वे स्थिते फलितमाह तस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।4.40।।अश्रद्दधानस्तु नाधिकारी इत्येतावति वक्तव्ये अन्यमप्यनधिकारिणमाह। अज्ञ उपदिष्टार्थानभिज्ञः अनधिकारी तत्र च सत्यपि ज्ञानेऽश्रद्धावान् तथा संशयानश्च विनश्यत्येवेत्यन्ते महाननधिकारी निर्दिष्टः अनिश्चयात्तस्य महत्त्वमनधिकारे। तथा हि नायं लोकोऽस्तीति न च सुखं परलोकश्च। अतो निश्चयात्मिकैव बुद्धिरुचितेति भावः।
Sridhara Swami
।।4.40।।ज्ञानाधिकारिणमुक्त्वा तद्विपरीतमनधिकारिणमाह अज्ञश्चेति। अज्ञो गुरूपदिष्टार्थानभिज्ञः कथंचिज्ज्ञाने जातेऽप्यश्रद्दधानश्च जातायामपि श्रद्धायां ममेदं सिध्येद्वा न वेति संशयाक्रान्तचित्तश्च नश्यति स्वार्थाद्भ्रश्यति। एतेषु त्रिष्वपि संशयात्मा सर्वथा नश्यति यतस्तस्यायं लोको नास्ति धनार्जनविवाहाद्यसिद्धेः। नच परलोकः धर्मस्यानिष्पत्तेः। नच सुखं संशयेनैव भोगस्याप्यसंभवात्।