Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 36 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Redemption & Forgiveness

Sanskrit Shloka (Original)

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः | सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ||४-३६||

Transliteration

api cedasi pāpebhyaḥ sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ . sarvaṃ jñānaplavenaiva vṛjinaṃ santariṣyasi ||4-36||

Word-by-Word Meaning

अपिeven
चेत्if
असि(thou) art
पापेभ्यःthan sinners
सर्वेभ्यः(than) all
पापकृत्तमःmost sinful
सर्वम्all
ज्ञानप्लवेनby the raft of knowledge
एवalone
वृजिनम्sin

📖 Translation

English

4.36 Even if thou art the most sinful of all sinners, yet thou shalt verily cross all sins by the raft of knowledge.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.36।। यदि तुम सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो,  तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा,  निश्चय ही सम्पूर्ण पापों का तुम संतरण कर जाओगे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In a professional context, this verse encourages learning from past failures and mistakes rather than dwelling on them. By acquiring knowledge, skills, and ethical understanding (self-knowledge in the context of one's role and impact), one can transcend the negative consequences or stigma of past errors, continuously improve, and contribute meaningfully, knowing that sincere effort and growth can redeem past missteps.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse offers immense relief for those burdened by guilt, shame, or regret over past actions. It suggests that deep self-understanding and an objective pursuit of truth can dissolve the mental anguish associated with 'sins.' Instead of self-condemnation, focus on learning, growth, and present awareness, which purifies the mind and leads to inner peace, liberating one from the mental chains of the past.

❤️ In Relationships

When interpersonal conflicts or past wrongdoings create friction, the 'raft of knowledge' implies gaining deeper insight into oneself, others' perspectives, and the dynamics of the relationship. This understanding fosters empathy, promotes honest communication, and helps in mending fractured bonds by acknowledging faults, learning from them, and moving forward with wisdom and compassion, rather than being perpetually defined by past mistakes.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

No past mistake is too great to be purified by the light of true knowledge and self-understanding.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.36 अपि even? चेत् if? असि (thou) art? पापेभ्यः than sinners? सर्वेभ्यः (than) all? पापकृत्तमः most sinful? सर्वम् all? ज्ञानप्लवेन by the raft of knowledge? एव alone? वृजिनम् sin? सन्तरिष्यसि (thou) shalt cross.Commentary You can cross the ocean of sin with the boat of the knowledge of the Self. (Cf.IX.30)

Shri Purohit Swami

4.36 Be thou the greatest of sinners, yet thou shalt cross over all sin by the ferryboat of wisdom.

Dr. S. Sankaranarayan

4.36. Even if you are the highest sinner amongst all sinners, you shall cross over [the ocean of] all the sin just by the boat of knowledge.

Swami Adidevananda

4.36 Even if you be the most sinful of all sinners, you will cross over all sins by the boat of knowledge alone.

Swami Gambirananda

4.36 Even if you be the worst sinner among all sinners, still you will cross over all the wickedness with the raft of Knowledge alone.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.36।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार का आश्वासन दिया था किन्तु वह अनुभव इतना भव्य और उच्चकोटि का था कि अर्जुन को स्वयं पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी स्वयं के विषय में यह धारणा थी कि वह इस अनुभव को प्राप्त करने के योग्य नहीं था। जिस किसी विवेकी पुरुष को अपने अवगुणों का भान है उसके मन में ऐसी शंका आ सकती है।वेदान्त ऐसा दर्शन नहीं है कि वह निष्ठुरहृदय होकर पापियों को ज्ञानार्जन से वंचित रखे। वेदान्त इस धारणा में विश्वास नहीं रखता कि कोई व्यक्ति पतित है और वह हीन योनियों में सदा भटकता रहेगा तथा उस पतित व्यक्ति का उद्धार केवल तभी होगा जब वह वेदान्त मंदिर में प्रवेश करेगा अत्यन्त सहिष्णु वेदान्त दर्शन केवल सत्य की और केवल सत्य की ही घोषणा करता है। सर्वव्यापी दिव्य तत्त्व सर्वत्र व्यक्त हो रहा है और इसलिये कोई भी पापी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वप्रयत्न से अपने जन्मसिद्ध पूर्णत्व के अधिकार को प्राप्त न कर सके।गीता मानव मात्र के लिये लिखा गया एक जीवन शास्त्र है और उसकी सार्वभौमिकता इस श्लोक में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। गीता का आश्वासन है कि अत्यन्त पापी पुरुष भी वर्तमान जीवन की परिच्छिन्नताओं तथा दुखदायी अवगुणों को तैर कर पूर्णत्व के तट पर ज्ञान नौका के द्वारा पहुँच सकता है। मनुष्य के पूर्णत्व प्राप्ति का यह अधिकार विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में इतने स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है।यह पहचान कर कि जीव का वास्तविक स्वरूप पूर्ण परमात्मा से भिन्न नहीं है तथा तत्पश्चात् आत्मरूप में रहने को ही सम्यक् ज्ञान कहते हैं। अपने पारमार्थिक आनन्दस्वरूप को पहचान लेने पर वैषयिक सुख हमें प्रलोभित नहीं कर सकते और न पापपूर्ण जीवन में हमें खींच सकते हैं। बड़े ही सुन्दर शब्दों में यहां कहा गया है ज्ञान नौका द्वारा तुम सम्पूर्ण पापों को तर जाओगे।किस प्रकार यह ज्ञान पापों को नष्ट करता है एक दृष्टान्त के द्वारा इसका उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।4.36।। व्याख्या--'अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः'-- पाप करनेवालोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं (1) 'पापकृत्' अर्थात् पाप करनेवाला, (2) 'पापकृत्तर' अर्थात् दो पापियोंमें एकसे अधिक पाप करनेवाला और (3) 'पापकृत्तम' अर्थात् सम्पूर्ण पापियोंमें सबसे अधिक पाप करनेवाला। यहाँ 'पापकृत्तमः' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियोंमें भी अत्यन्त पाप करनेवाला है, तो भी तत्त्वज्ञानसे तू सम्पूर्ण पापोंसे तर सकता है।भगवान्का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापोंका त्याग करके साधनमें लगा हुआ है, उसका तो कहना ही क्या है! पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों, उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद अपने उद्धारके विषयमें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नहीं लगती।यदि कहीं सौ वर्षोंसे घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय, तो उस अँधेरेको दूर करके प्रकाश करनेमें दीपकको सौ वर्ष नहीं लगते, प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।'चेत्'--(यदि) पद देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मामें नहीं लगते; परन्तु वे परमात्मामें लग नहीं सकते--ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुषके सङ्गसे अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदिके प्रभावसे यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी सम्पूर्ण पापसमुद्रसे भलीभाँति तर जाते हैं।नवें अध्यायके तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें भी भगवान् ऐसी ही बात अनन्यभावसे अपना भजन करनेवालेके लिये कही है कि महान् दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान्का भजन ही करूँगा, तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है।'सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि'--प्रकृतिके कार्य शरीर और संसारके सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण पाप होते हैं। तत्त्वज्ञान होनेपर जब इनसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब पाप कैसे रह सकते हैं-- 'मूलाभावे कुतः शाखा'परमात्माके स्वतःसिद्ध ज्ञानके साथ एक होना ही 'ज्ञानप्लव' अर्थात् ज्ञानरूप नौकाका प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो, ज्ञानरूप नौकासे वह सम्पूर्ण पापसमुद्रसे अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटती-फूटती नहीं, इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्यको पापसमुद्रसे पार करा देती है। 'ज्ञानयज्ञ' (4। 33) से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ आरम्भसे ही 'विवेक' को लेकर चलता है और 'तत्त्वज्ञान' में इसकी पूर्णता हो जाती है। पूर्णता होनेपर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता।

Swami Tejomayananda

।।4.36।। यदि तुम सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो,  तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा,  निश्चय ही सम्पूर्ण पापों का तुम संतरण कर जाओगे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.36।।करणभूतं ज्ञानं स्तौति पुनः श्लोकत्रयेण।

Sri Anandgiri

।।4.36।।ज्ञानस्य प्रकारान्तरेण प्रशंसां प्रस्तौति किञ्चेति। पापकारिभ्यः सर्वेभ्यः सकाशादतिशयेन पापकारित्वमेकस्मिन्नसंभावितमपि ज्ञानमाहात्म्यप्रसिद्ध्यर्थमङ्गीकृत्य ब्रवीति अपिचेदिति। ब्रह्मात्मैक्यज्ञानस्य सर्वपापनिवर्तकत्वेन माहात्म्यमिदानीं प्रकटयति सर्वमिति। अधर्मे निवृत्तेऽपि धर्मप्रतिबन्धाज्ज्ञानवतोऽपि मोक्षः संभवतीत्याशङ्क्याह धर्मोऽपीति। इहेत्यध्यात्मशास्त्रं गृह्यते।

Sri Vallabhacharya

।।4.36।।किञ्च अपि चेदिति। स्पष्टार्थः।

Sridhara Swami

।।4.36।।किंच अपिचेदिति। सर्वेभ्यः पापकारिभ्यो यद्यप्यतिशयेन पापकारी त्वमसि तथापि सर्वं पापसमुद्रं ज्ञानपोतेनैव सम्यगनायासेन तरिष्यसि।

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