Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 35 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Self Knowledge & Wisdom

Sanskrit Shloka (Original)

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव | येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि (var अशेषाणि) ||४-३५||

Transliteration

yajjñātvā na punarmohamevaṃ yāsyasi pāṇḍava . yena bhūtānyaśeṣāṇi drakṣyasyātmanyatho mayi ||4-35||

Word-by-Word Meaning

यत्which
ज्ञात्वाhaving known
not
पुनःagain
मोहम्delusion
एवम्thus
यास्यसिwill get
पाण्डवO Pandava
येनby this
भूतानिbeings
अशेषेणall
द्रक्ष्यसि(thou) shalt see
आत्मनिin (thy) Self
अथोalso
मयिin Me.Commentary That

📖 Translation

English

4.35 Knowing ï1thatï1 thou shalt not, O Arjuna, again get deluded like this; and by that thou shalt see all beings in thy Self and also in Me.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.35।। जिसको जानकर तुम पुन इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगे,  और हे पाण्डव ! जिसके द्वारा तुम भूतमात्र को अपने आत्मस्वरूप में तथा मुझमें भी देखोगे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Understanding the interconnectedness of all tasks, colleagues, and customers fosters a collaborative spirit, reduces ego-driven conflicts, and allows for work with a larger sense of purpose. Seeing individual contributions as part of a universal whole leads to more effective problem-solving, shared success, and a less self-serving approach to professional growth.

🧘 For Stress & Anxiety

Realizing that one's individual self is part of a larger, unified existence alleviates feelings of isolation, fear, and over-attachment to transient outcomes or external validation. This perspective helps in reframing challenges, reducing anxiety by understanding that true identity transcends temporary stressors, and cultivating an enduring inner peace.

❤️ In Relationships

By seeing all beings 'in thy Self and also in Me,' one develops profound empathy, compassion, and understanding for others. This insight transcends superficial differences, resolves conflicts stemming from ego and separation, and builds deeper, more harmonious connections based on the recognition of a shared fundamental essence.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Through profound self-knowledge, realize the essential unity of all existence, transcending delusion to experience deep connection with yourself, others, and the Divine.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.35 यत् which? ज्ञात्वा having known? न not? पुनः again? मोहम् delusion? एवम् thus? यास्यसि will get? पाण्डव O Pandava? येन by this? भूतानि beings? अशेषेण all? द्रक्ष्यसि (thou) shalt see? आत्मनि in (thy) Self? अथो also? मयि in Me.Commentary That? the knowledge of the Self mentioned in the previous verse? that is to be learnt from the Brahmanishtha Guru through prostration? estioning and service. When you acire this knowledge you will not be again subject to confusion or error. You will behold that underlying basic unity. You will behold or directly cognise through internal experience or intuition that all beings from the Creator down to a blade of grass exist in your own Self and also in Me. (Cf.IX.15XVIII.20)

Shri Purohit Swami

4.35 Having known That, thou shalt never again be confounded; and, O Arjuna, by the power of that wisdom, thou shalt see all these people as if they were thine own Self, and therefore as Me.

Dr. S. Sankaranarayan

4.35. By knowing which you shall not get deluded once again in this manner, O son of Pandu; and by which means you shall see all beings without exception in [your] Self i.e., in Me.

Swami Adidevananda

4.35 Knowing which, O Arjuna, you will not fall again into delusion in this way - by that knowledge you will see all beings without exception in your-self and then in Me.

Swami Gambirananda

4.35 Knowing which, O Pandava (Arjuna), you will not come under delusion again in this way, and through which you will see all beings without exception in the Self and also in Me.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.35।। इस प्रकरण के संदर्भ किसी के मन में यह शंका उठ सकती है कि इतना अधिक परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है परन्तु हो सकता है कि मृत्यु के पश्चात् फिर हम उसी अज्ञान अवस्था को पुन प्राप्त हो जायें। अपने एक ही जीवन में हम अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं लेकिन सब का ही हमें स्मरण नहीं रहता। इसी प्रकार आत्मज्ञान को भी प्राप्त करके यदि उसका विस्मरण हो जाता है तब तो वास्तव में बड़ी ही हानि होगी।इस प्रकार की शंका का निवारण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण निश्चयपूर्वक कहते हैं इसे जानकर पुन तुम मोह को प्राप्त नहीं होगे। किसी कट्टरवादी की अत्युत्साही शैली की भाँति प्रतीत होने वाला यह कथन है तथापि विचार की प्रारम्भिक अवस्था में इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। सभी आचार्य इस विषय पर एकमत हैं और चूँकि अपनी पीढ़ी की वंचना करने में उनका कोई स्वार्थ नहीं हो सकता इसलिये उनके मत को विश्वासपूर्वक स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है। इस श्रद्धा की आवश्यकता तब तक ही है जब तक हम स्वयं आत्मा का साक्षात् अनुभव नहीं कर लेते। वैवाहिक जीवन का आनन्द एक बालक नहीं समझ सकता। इसी प्रकार अज्ञान अव्ास्था में शोक मोह से ग्रस्त हम लोग भी देशकालातीत आत्मतत्त्व की अनुभूति के आनन्द को नहीं समझ सकते। गुरु चाहे जितना ही वर्णन क्यों न करें परन्तु आन्तरिक परिपक्वता प्राप्त किए बिना उनके वाक्यों के लक्ष्यार्थ को हम यथार्थरूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे।आत्मानुभूति का लक्षण बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं आत्मा की पहचान होने पर बाह्य विषयों भावनाओं एवं विचारों की सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा में ही प्रतीत होगी और वह आत्मा ही श्रीकृष्ण परमात्मा का स्वरूप है। एक बार समुद्र की पहचान हो जाने पर उस मनुष्य के लिए सम्पूर्ण लहरें समुद्ररूप ही हो जाती हैं।पूर्व श्लोकों में वर्णित ज्ञान के साक्षात्कार के लक्षण इस श्लोक में बताये गये हैं। यहाँ स्पष्ट हो जाता हैं कि शिष्य को गुरु के सानिध्य की आवश्यकता तभी तक रहती है जब तक वह समस्त सृष्टि को परमात्मा से अभिन्न आत्मस्वरूप में अनुभव नहीं कर लेता।इस ज्ञान का महात्म्य देखिये कि

Swami Ramsukhdas

।।4.35।। व्याख्या--'यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि वे महापुरुष तेरेको तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे; परन्तु उपदेश सुननेमात्रसे वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूपका यथार्थ अनुभव नहीं होता--'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' (गीता 2। 29) और वास्तविक बोधका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता। कारण कि वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् मन, वाणी आदिसे परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है और यह तब होता है, जब मनुष्य अपने विवेक (जड-चेतनके भेदका ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेकको महत्त्व देनेसे जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है, तब वह विवेक ही वास्तविक बोधमें परिणत हो जाता है और जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता।गीताके पहले अध्यायमें अर्जुनका मोह प्रकट होता है कि युद्धमें सभी कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देनेवाला कौन होगा? पिण्ड और जल न देनेसे वे नरकोंमें गिर जायँगे। जो जीवित रह जायँगे, उन स्त्रियोंका और बच्चोंका निर्वाह और पालन कैसे होगा? आदि-आदि। तत्त्वज्ञान होनेके बाद ऐसा मोह नहीं रहता। बोध होनेपर जब संसारसे मैं-मेरेपनका सम्बन्ध नहीं रहता, तब पुनः मोह होनेका प्रश्न ही नहीं रहता।'येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि'--तत्त्वज्ञान होते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है और उस सत्ताके अन्तर्गत ही अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। जैसे स्वप्नसे जगा हुआ मनुष्य स्वप्नकी सृष्टिको अपनेमें ही देखता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों (जगत्) को अपनेमें ही देखता है। छठे अध्यायके उन्तीसवें श्लोकमें आये 'सर्वभूतानि चात्मनि' पदोंसे भी इसी स्थितिका वर्णन किया गया है।'अथो मयि'--तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी जो प्रचलित प्रक्रिया है, उसीके अनुसार भगवान् कह रहे हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक (श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक) तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करनेपर साधक पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है--यह 'त्वम्' पदका अनुभव हुआ, फिर वह स्वरूपको तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखता है-- यह 'तत्' पदका अनुभव हुआ। इस तरह उसको पहले 'त्वम' (स्वरूप) का और फिर 'तत्' (परमात्मतत्त्व) के साथ 'त्वम्' की एकताका अनुभव हो जाता है। एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म शेष रह जाता है। ऐसी अवस्थामें द्रष्टा, दृश्य और दर्शन--ये तीनों ही नहीं रहते। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें जो भाव दीखता है, उसको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि वह सबको मेरेमें देखता है। स्थूल दृष्टिसे समुद्र और लहरोंमें भिन्नता दीखती है। लहरें समुद्रमें ही उठती और लीन होती रहती हैं। परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे समुद्र और लहरोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल एक जल-तत्त्वकी ही है। जलतत्त्वमें न समुद्र है न लहरें। पृथ्वीसे सम्बन्ध होनेके कारण समुद्र भी सीमित है और लहरें भी; परन्तु जल-तत्त्व सीमित नहीं है। अतः समुद्र और लहरोंको न देखकर एक जल-तत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है। इसी तरह संसाररूप समुद्र और शरीररूप लहरोंमें भिन्नता दीखती है। शरीर संसारमें ही उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। परन्तु वास्तवमें संसार और शरीर-समुदायकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है। परमात्मतत्त्वमें न संसार है, न शरीर। प्रकृतिसे सम्बन्ध होनेके कारण संसार भी सीमित है और शरीर भी। परन्तु परमात्मतत्त्व सीमित नहीं है। अतः संसार और शरीरोंको न देखकर एक परमात्मतत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है (गीता 13। 27)।

Swami Tejomayananda

।।4.35।। जिसको जानकर तुम पुन इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगे,  और हे पाण्डव ! जिसके द्वारा तुम भूतमात्र को अपने आत्मस्वरूप में तथा मुझमें भी देखोगे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.35।।येन ज्ञानेन मय्यात्मभूते सर्वभूतान्यथो तस्मादेव मोहनाशात्पश्यसि।

Sri Anandgiri

।।4.35।।विशिष्टैराचार्यैरुपदिष्टे ज्ञाने कार्यक्षमे प्राप्ते सति समनन्तरवचनमपि योग्यविषयमर्थवद्भवतीत्याह तथाचेति। अतस्तस्मिन्विशिष्टे ज्ञाने कार्यक्षमे त्वदीयमोहापोहहेतौ निष्ठावता भवितव्यमिति शेषः। तत्र निष्ठाप्रतिष्ठायै तदेव ज्ञानं पुनर्विशिनष्टि येनेति। यज्ज्ञात्वेत्ययुक्तं ज्ञाने ज्ञानायोगादित्याशङ्क्य प्राप्त्यर्थत्वमधिपूर्वस्य गमेरङ्गीकृत्य व्याकरोति अधिगम्येति। इतश्चाचार्योपदेशलभ्ये ज्ञाने फलवति प्रतिष्ठावता भवितव्यमित्याह किञ्चेति। जीवे चेश्वरे चोभयत्र भूतानां प्रतिष्ठितत्वप्रतिनिर्देशे भेदवादानुमतिःस्यादित्याशङ्क्याह क्षेत्रज्ञेति। मूलप्रमाणाभावे कथं तदेकत्वदर्शनं स्यादित्याशङ्क्याह सर्वेति।

Sri Vallabhacharya

।।4.35।।ज्ञाने फलमाह यज्ज्ञात्वेति सार्द्धैस्त्रिभिः। यत्साङ्ख्ययोगयोरेकार्थरूपं सर्वं ब्रह्मात्मज्ञानं प्राप्य येन च भूतानि चिदंशभूताः आत्मनि पुरुषे चेतने मयि च द्रक्ष्यसि। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थं 13।30 इति वक्ष्यति चाग्रे। अशेषेणेति पदेन प्रकृतिकार्यं देहादिकमपि तत्कारणे च द्रक्ष्यसि। तमात्मानं वा मयि परब्रह्मणि मदंशभूतत्वात्समष्टिपुरुषस्य।

Sridhara Swami

।।4.35।। ज्ञानफलमाह यज्ज्ञात्वेतिसार्धैस्त्रिभिः। यज्ज्ञानं ज्ञात्वा प्राप्य पुनर्बन्धुवधादिनिमित्तं मोहं न प्राप्स्यसि। तत्र हेतुः। येन ज्ञानेन भूतानि पितृपुत्रादीनि स्वाविद्यारचितानि स्वात्मन्येवाभेदेन द्रक्ष्यसि। अथो अनन्तरमात्मानं मयि परमात्मन्येवाभेदेन द्रक्ष्यसीत्यर्थः।

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