Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 32 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: The Origin of Action and Duty

Sanskrit Shloka (Original)

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे | कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ||४-३२||

Transliteration

evaṃ bahuvidhā yajñā vitatā brahmaṇo mukhe . karmajānviddhi tānsarvānevaṃ jñātvā vimokṣyase ||4-32||

Word-by-Word Meaning

एवम्thus
बहुविधाःmanifold
यज्ञाःsacrifices
वितताःare spread
ब्रह्मणःof Brahman (or of the Veda)
मुखेin the face
कर्मजान्born of action
विद्धिknow (thou)
तान्them
सर्वान्all
एवम्thus
ज्ञात्वाhaving known

📖 Translation

English

4.32 Thus, manifold sacrifices are spread out before Brahman (literally) at the mouth or face of Brahman). Know them all as born of action and thus knowing, thou shalt be liberated.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.32।। ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों का ब्रह्मा के मुख अर्थात् वेदों में प्रसार है अर्थात् वर्णित हैं। उन सब को कर्मों से उत्पन्न हुए जानो;  इस प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach your work and projects with full commitment, understanding that every output is a result of your actions. Simultaneously, cultivate an inner detachment, realizing that your true self is not defined solely by professional successes or failures. This perspective fosters resilience, reduces burnout, and allows you to perform duties without being enslaved by their outcomes.

🧘 For Stress & Anxiety

When feeling overwhelmed by tasks or responsibilities, pause and recognize that all these are 'actions' you perform. Understand that your core being is distinct from these activities and their results. This intellectual and spiritual separation can create mental space, reduce anxiety about performance, and provide a sense of inner peace amidst chaos.

❤️ In Relationships

Engage wholeheartedly in your relationships, performing acts of kindness, support, and duty. Yet, maintain an awareness that your identity and inner peace are not entirely dependent on the reactions or specific outcomes of these interactions. This allows for selfless giving, reduces attachment-driven suffering, and fosters healthier, more authentic connections.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Recognize that all your efforts and duties originate from action, but by understanding your true Self transcends these actions, you attain profound liberation.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.32 एवम् thus? बहुविधाः manifold? यज्ञाः sacrifices? वितताः are spread? ब्रह्मणः of Brahman (or of the Veda)? मुखे in the face? कर्मजान् born of action? विद्धि know (thou)? तान् them? सर्वान् all? एवम् thus? ज्ञात्वा having known? विमोक्ष्यसे thou shalt be liberated.Commentary The word Brahmanah has also been interpreted to mean In the Vedas.Various kinds of sacrifices are spread out at the mouth of Brahman? i.e.? they are known from the Vedas. Know that they are born of action? because the Self is beyond action. If you realise that these actions do not concern me? they are not my actin? and I am actionless? you will surely be liberated from the bondage of Samsara by this right knowledge. (Cf.IX.27XIII.15)

Shri Purohit Swami

4.32 In this way other sacrifices too may be undergone for the Spirit's sake. Know thou that they all depend on action. Knowing this, thou shalt be free.

Dr. S. Sankaranarayan

4.32. Thus, sacrifices of many varieties have been elaborated in the mouth of the Brahman. Know them all as having sprung from actions. By knowing thus you shall be liberated.

Swami Adidevananda

4.32 Thus many forms of sacrifices have been spread out as means of reaching Brahman (individual self in its own nature). Know that all these born of actions. Knowing thus, you shall be free.

Swami Gambirananda

4.32 Thus, various kinds of sacrifices lie spread at the mouth of the Vedas. Know them all to be born of action. Knowing thus, you will become liberated.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.32।। जगत् में देखा जाता है कि दो विभिन्न कर्मों के फल भी भिन्नभिन्न होते हैं। अत इन बारह यज्ञकर्मों के फल भी विभिन्न होने चाहिए। यह दर्शाने के लिये कि इनमें भेद प्रतीत होते हुए भी सब का लक्ष्य एक ही है यहाँ कहा है कि इस प्रकार बहुत से यज्ञ ब्रह्मा के मुख में फैले हुए है इसका तात्पर्य है कि सभी यज्ञों का लक्ष्य ब्रह्म ही है। सभी राजमार्ग राजधानी को ही जाते हैं।उन सबको कर्मों से उत्पन्न हुए जानो भगवान् के इस कथन से दो अभिप्राय हैं (क) वेदों में उपदिष्ट इन साधनों का अभ्यास प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। भगवान् अर्जुन को स्मरण दिलाते हैं कि यदि वह आत्मविकास का इच्छुक है तो कर्म अपरिहार्य है। तथा (ख) ये सब यज्ञ केवल साधन हैं साध्य नहीं। हमारा लक्ष्य है पूर्णत्व की स्थिति जबकि कर्म उस पूर्णस्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न इच्छाओं के कारण ही होते हैं।इस प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे जानने का अर्थ बौद्धिक स्तर पर न होकर साक्षात् आत्मानुभूति से है।सम्यक् ज्ञान को ज्ञानयज्ञ कहा गया था। तत्पश्चात् अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया है। अब अन्य यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ की विशेषता बताते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं।

Swami Ramsukhdas

।।4.32।। व्याख्या--'एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे'--चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन किया गया है, उनके सिवाय और भी अनेक प्रकारके यज्ञोंका वेदकी वाणीमें विस्तारसे वर्णन किया गया है। कारण कि साधकोंकी प्रकृतिके अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं। वेदोंमें सकाम अनुष्ठानोंका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है। परन्तु उन सबसे नाशवान् फलकी ही प्राप्ति होती है, अविनाशीकी नहीं। इसलिये वेदोंमें वर्णित सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकको जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मरणके बन्धनमें पड़े रहते हैं (गीता 9। 21)। परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानोंकी बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्कामकर्मरूप उन यज्ञोंकी बात कही गयी है, जिनके अनुष्ठानसे परमात्माकी प्राप्ति होती है-- 'यान्ति ब्रह्म सनातनम्' (गीता 4। 31)।वेदोंमें केवल स्वर्गप्राप्तिके साधनरूप सकाम अनुष्ठानोंका ही वर्णन हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्तिके साधनरूप श्रवण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानोंका भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदोंमें उन्हींका लक्ष्य है।तीसरे अध्यायके चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें कहा गया है कि यज्ञ वेदसे उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञोंमें नित्य प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। यज्ञोंमें परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहनेसे उन यज्ञोंका अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये ही करना चाहिये।'कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्'--चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन हुआ है, तथा उसी प्रकार वेदोंमें जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है उन सब यज्ञोंके लिये यहाँ 'तान् सर्वान्' पद आये हैं। 'कर्मजान् विद्धि' पदोंका तात्पर्य है कि वे सब-के-सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मोंसे होनेवाले हैं। शरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वाणीसे जो कथन होता है, और मनसे जो संकल्प होते हैं वे सभी कर्म कहलाते हैं--'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता 18। 15)। अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्यकर्मको पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। इसलिये 'कर्मजान् विद्धि' पदोंसे भगवान् अर्जुनके प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करके अपने कल्याणके लिये तू जो साधन करेगा, वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तवमें कल्याण कर्मसे नहीं होता ,प्रत्युत कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको भी निर्लिप्त रहकर करेगा, तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा; क्योंकि मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत (कर्मकी और उसके फलकी) आसक्ति ही बाँधती है (गीता 6। 4)। युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है।'एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' भगवान्ने इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें बताया कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहन��की विद्या (--कर्मफलमें स्पृहा न रखना) को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। फिर पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने इसी बातको 'एवं ज्ञात्वा' पदोंसे कहा। वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं। सोलहवें श्लोकमें कर्मोंसे निर्लिप्त रहनेके इसी तत्त्वको विस्तारसे कहनेके लिये भगवान्ने प्रतिज्ञा की और यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् पदोंसे उसे जाननेका फल मुक्त होना बताया। अब इस श्लोकमें 'एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' पदोंसे ही उस विषयका उपसंहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि फलकी इच्छाका त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। संसारमें असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं; परन्तु जिन क्रियाओंसे मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है, उन्हींसे वह बँधता है। संसारमें कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो, जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है--उसमें राजी या नाराज होता है, तब वह उस क्रियासे बँध जाता है। जब शरीर या संसारमें होनेवाली किसी भी क्रियासे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं रहता, तब वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।  सम्बन्ध--यज्ञोंका वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञोंमेंसे कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ है? इसका समाधान भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.32।। ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों का ब्रह्मा के मुख अर्थात् वेदों में प्रसार है अर्थात् वर्णित हैं। उन सब को कर्मों से उत्पन्न हुए जानो;  इस प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.32।।ब्रह्मणः परमात्मनो मुखे।अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च 9।24 इति वक्ष्यति। मानसिकवाचिककायिककर्मजा एव हि ते सर्वे। एवं ज्ञात्वा तानि कर्माणि कृत्वा विमोक्ष्यसे। युद्धं परित्यज्य यन्मोक्षार्थं करिष्यसि तदपि कर्म। अतो विहितं न त्याज्यमिति भावः।

Sri Anandgiri

।।4.32।।उक्तानां यज्ञानां वेदमूलकत्वेनोत्प्रेक्षानिबन्धनत्वं निरस्यति एवमिति।आत्मव्यापारसाध्यत्वमुक्तकर्मणामाशङ्क्य दूषयति कर्मजानिति। आत्मनो निर्व्यापारत्वज्ञाने फलमाह एवमिति। कथं यथोक्तानां यज्ञानां वेदस्य मुखे विस्तीर्णत्वमित्याशङ्क्याह वेदद्वारेणेति। तेनावगम्यमानत्वमेवोदाहरति तद्यथेति।एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वांस आहुः इत्युपक्रम्याध्ययनाद्याक्षिप्य हेत्वाकाङ्क्षायामुक्तं वाचि हीति। ज्ञानशक्तिमद्विषये क्रियाशक्तिमदुपसंहारोऽत्र विवक्षितःप्राणे वा वाचं यो ह्येव प्रभवः स एवाप्ययः इति वाक्यमादिशब्दार्थः। ज्ञानशक्तिमतां क्रियाशक्तिमतां चान्यान्योत्पत्तिप्रलयत्वात्तदभावे नाध्ययनादिसिद्धिरित्यर्थः। कर्मणामात्मजन्यत्वाभावे हेतुमाह निर्व्यापारो हीति। तस्य च निर्व्यापारत्वं फलवत्त्वाज्ज्ञातव्यमित्याह अत इति। एवं ज्ञानमेव ज्ञापयन्नुक्तं व्यनक्ति नेत्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।4.32।।एवं च वेदे प्रारम्भ एव बहुविधा यज्ञा वितताः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ऋक्सं.8।6।19।6यजुस्सं.31।16 यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः विश्वसृजो वै सत्त्रमासते इत्यादौ कर्मजान् स्वक्रियानिर्वर्त्यान् वेदोक्तान् यज्ञपदवाच्यानवधारय एवं ज्ञात्वा मोक्ष्यसे। दुःखाभावः सुखं चेति पुरुषार्थद्वयं मतम्। मोक्षः कामस्तयोरङ्गं इति वाक्यान्मोक्षस्तव भवष्यतीति भावः।

Sridhara Swami

।।4.32।।ज्ञानयज्ञं स्तोतुमुक्तान्यज्ञानुपसंहरति एवमिति। ब्रह्मणो वेदस्य मुखे वितताः। वेदेन साक्षाद्विहिता इत्यर्थः। तथापि तान्सर्वान्वाङ्मनःकायकर्मजनितानात्मस्वरूपसंस्पर्शरहितान्विद्धि जानीहि। ���त्मनः कर्मागोचरत्वादेवं ज्ञात्वा ज्ञाननिष्ठः सन्संसाराद्विमुक्तो भविष्यसि।

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