Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 31 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् | नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ||४-३१||
Transliteration
yajñaśiṣṭāmṛtabhujo yānti brahma sanātanam . nāyaṃ loko.astyayajñasya kuto.anyaḥ kurusattama ||4-31||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.31 Those who eat the remnants of the sacrifice, which are like nectar, go to the eternal Brahman. This world is not for the man who does not perform sacrifice; how then can he have the other, O Arjuna?
।।4.31।। हे कुरुश्रेष्ठ ! यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले पुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ रहित पुरुष को यह लोक भी नहीं मिलता, फिर परलोक कैसे मिलेगा?
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, 'sacrifice' means dedicating yourself to your work with a spirit of service, investing effort beyond immediate personal gain, and contributing to the collective good of your team or organization. The 'remnants of sacrifice' are the professional growth, deep satisfaction, respect, and long-term success that naturally follow from such committed, purposeful action. Conversely, merely doing the bare minimum for personal reward leads to stagnation and unfulfillment.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress and improve mental well-being, 'sacrifice' involves making dedicated efforts towards practices like mindfulness, regular exercise, setting healthy boundaries, or helping others, even when it requires initial discipline. These efforts, though sometimes challenging, yield the 'nectar' of inner peace, resilience, and clarity of mind. Neglecting these 'sacrifices' in favor of instant gratification often leads to increased stress and mental turmoil.
❤️ In Relationships
In relationships, 'sacrifice' translates to acts of selfless giving, compromise, active listening, and prioritizing the needs and well-being of others. This dedicated effort builds trust, strengthens bonds, and fosters deep connection—the 'remnants of sacrifice'. Relationships where individuals are unwilling to 'sacrifice' are often shallow, fraught with conflict, and ultimately unsustainable.
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Embrace purposeful, selfless action (sacrifice) as the path to profound fulfillment and ultimate liberation; without such dedication, even basic well-being and worldly success remain elusive.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.31 यज्ञशिष्टामृतभुजः eaters of the nectar -- the remnants of the sacrifice? यान्ति go? ब्रह्म Brahman? सनातनम् eternal? न not? अयम् this? लोकः world? अस्ति is? अयज्ञस्य of the nonsacrificer? कुतः how? अन्यः other? कुरुसत्तम O best of the Kurus.Commentary They go to the eternal Brahman in course of time after attaining the knowledge of the Self through purification of the mind by performing the above sacrifices. He who does not perform any of these is not fit even for this miserable world. How then can he hope to get a better world than this (Cf.III.13)
Shri Purohit Swami
4.31 Tasting the nectar of immortality, as the reward of sacrifice, they reach the Eternal. This world is not for those who refuse to sacrifice; much less the other world.
Dr. S. Sankaranarayan
4.31. The eaters of the sacrifice-ordained (or sacrificial remnant) nectar, attain the eternal Brahman. [Even] this world is not for a non-sacrificer, how can there be the other ? O best of the Kurus !
Swami Adidevananda
4.31 This world is not for him who makes no sacrifice. How then the other, O Arjuna?
Swami Gambirananda
4.31 Those who partake of the nectar left over after a sacrifice, reach the eternal Brahman. This world ceases to exist for one who does not perform sacrifices. What to speak of the other (world), O best among the Kurus (Arjuna)!
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.31।। प्राचीनकाल में यज्ञकर्म में अग्नि की आहुति देने के पश्चात् जो कुछ अवशिष्ट रह जाता था उसे ही अमृत कहते थे जिसका सेवन भक्तगण ईश्वर का प्रसाद समझकर करते थे। उनका यह विश्वास था कि भक्तिपूर्वक इस अमृतसेवन से अन्तकरण की शुद्धि हो सकती है।इस रूपक के आध्यात्मिक लक्ष्यार्थ पर विचार करने पर ज्ञात होगा कि अवशिष्ट अमृत का अभिप्राय उपर्युक्त यज्ञों के आचरण से प्राप्त फल से है। इन यज्ञों के आचरण का फल है आत्मसंयम अथवा दूसरे शब्दों में संगठित व्यक्तित्व। इस फल को प्राप्त पुरुष ही ध्यानाभ्यास के योग्य होते हैं।संगठित व्यक्तित्व का पुरुष ही ध्यान के लिये आवश्यक मन के समत्व को प्राप्त करके अनन्तस्वरूप ब्रह्म को आत्मरूप से पहचान सकता है। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति निषेध की भाषा में उपर्युक्त सिद्धांत को और अधिक स्पष्ट करती है। पुरुषार्थ के बिना आत्मविकास नहीं हो सकता। अकर्मण्यता से कोई किसी भी क्षेत्र में लाभान्वित नहीं हो सकता। निस्वार्थ कर्म के बिना जब इस लोक में ही कोई शाश्वत फल नहीं प्राप्त होता तब परलोक के सम्बन्ध में क्या कर सकता है इस स्थान पर दो शंकाएं मन में उठ सकती हैं। क्या ये सभी मार्ग एक ही लक्ष्य तक पहुँचाते हैं अथवा विभिन्न लक्ष्यों तक तथा दूसरी शंका यह हो सकती है कि क्या ये सब मार्ग भगवान् के बौद्धिक विचार मात्र तो नहीं हैं भगवान् इन शंकाओं का निराकरण करते हुए कहते हैं
Swami Ramsukhdas
4.31।। व्याख्या--'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्'--यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही 'यज्ञशिष्ट अमृत' का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं ( गीता 3। 13)।स्वरूपसे मनुष्य अमर है। मरनेवाली वस्तुओंके सङ्गसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है। इन वस्तुओंको संसारके हितमें लगानेसे जब मनुष्य असङ्ग हो जाता है, तब उसे स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है। कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है (गीता 4। 21)। शरीर यज्ञ करनेके लिये समर्थ रहे--इस दृष्टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है। मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है। उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।'नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम'--जैसे तीसरे अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करनेसे तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोकका तो कहना ही क्या है! केवल स्वार्थभावसे (अपने लिये) कर्म करनेसे इस लोकमें संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोकमें कल्याण भी नहीं होगा।अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे घरमें भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है। घरमें कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घरवालोंको उसका रहना सुहाता नहीं। स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्यसे सबको सुख पहुँचाना घरमें अथवा संसारमें रहनेकी विद्या है। अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको भी कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा मिलती है। इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है। परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे इस लोकमें सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकोंकी तो बात ही क्या है! इसके विपरीत अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी। सम्बन्ध--इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मोंका तत्त्व बतानेकी प्रतिज्ञा की थी। उसका विस्तारसे वर्णन करके अब भगवान् उसका उपसंहार करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.31।। हे कुरुश्रेष्ठ ! यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले पुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ रहित पुरुष को यह लोक भी नहीं मिलता, फिर परलोक कैसे मिलेगा?
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.30 4.31।।नियताहारत्वेनैव प्राणशोषात्प्राणान् प्राणेषु जुह्वति। यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञः कठ.3।13 इत्यादिश्रुत्युक्तप्रकारेण वा। अन्यदपि ग्रन्थान्तरे सिद्धम्।यदस्याल्पाशनं तेन प्राणाः प्राणेषु वै हुताः इति।
Sri Anandgiri
।।4.31।।यथोक्तयज्ञनिर्वर्तनानन्तरं क्षीणे कल्मषे किं स्यादित्याशङ्क्याह एवमिति। यथोक्तानां यज्ञानां मध्ये केनचिदपि यज्ञेनाविशेषितस्य पुरुषस्य प्रत्यवायं दर्शयति नायमिति। कथं यथोक्तयज्ञानुष्ठायिनामवशिष्टेन कालेन विहितान्नभुजां ब्रह्मप्राप्तिरित्याशङ्क्य मुमुक्षुत्वे सति चित्तशुद्धिद्वारेत्याह मुमुक्षवश्चेदिति। तत्किमिदानीं साक्षादेव मोक्षो विवक्षितः तथाच गतिश्रुतिविरोधः स्यादित्याशङ्क्य गतिनिर्देशसामर्थ्यात्क्रममुक्तिरत्राभिप्रेतेत्याह कालातीति। तृतीयं पादं व्याचष्टे नायमिति। विवक्षितं कैमुतिकन्यायमाह कुत इति। साधारणलोकाभावे पुनरसाधारणलोकप्राप्तिर्दूरनिरस्तेत्यर्थः। यथोक्तेऽर्थे बुद्धिसमाधानं कुरुकुलप्रधानस्यार्जुनस्यानायासलभ्यमिति वक्तुं कुरुसत्तमेत्युक्तम्।
Sri Vallabhacharya
।।4.30 4.31।।अपरे तु आहारतर्पणप्राणानेव (वृत्तीः) प्राणेषु विलापयन्ति इति संयताहाराः। अन्यथौदरीयसर्वभागपूरणे रोधो योगश्च न स्यात्। तदर्थं प्रारीप्सूनामाहारो नियन्तव्य एव। एते सर्वे यज्ञविदस्तेन च निष्कलमषाः स्वाधिकारागतं यज्ञशिष्टममृतं च भुञ्जत इति तथा ते सर्वे सनातनं नित्यं ब्रह्म साक्षात् परम्परया च यान्ति। तदकरणे दोषदर्शनेन व्यतिरेचयति नायमिति। अयमल्पानन्दोऽपि लोको देहो वाऽयज्ञस्य न भवति ततोऽन्यो दिव्यस्तु कुतः इति कर्त्तव्यता बोधिता। अपरं च दर्शनप्रकारः प्रसङ्गादुक्तः। ब्रह्मज्ञानिनाऽपि सर्वसन्न्यासतो ब्रह्मयज्ञाभिधः क्रियते इतिन हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति 3।5 इति समर्थितम्।
Sridhara Swami
।।4.31।।यज्ञशिष्टेति। यज्ञान्कृत्वाऽवशिष्टे कालेऽनिषिद्धमन्नममृतरूपं भुञ्जत इति तथा ते सनातनं ब्रह्म ज्ञानद्वारेण प्राप्नुवन्ति। तदकरणे दोषमाह नायं लोक इति। अयमल्पसुखोऽपि मनुष्यलोकोऽयज्ञस्य यज्ञानुष्ठानशून्यस्य नास्ति। कुतोऽन्यः परलोकः। अतो यज्ञाः सर्वथा कर्तव्या इत्यर्थः।