Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 29 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Breath Control (Pranayama)

Sanskrit Shloka (Original)

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४-२९||

Transliteration

apāne juhvati prāṇaṃ prāṇe.apānaṃ tathāpare . prāṇāpānagatī ruddhvā prāṇāyāmaparāyaṇāḥ ||4-29||

Word-by-Word Meaning

अपानेin the outgoing breath
जुह्वतिsacrifice
प्राणम्incoming breath
प्राणेin the incoming breath
अपानम्outgoing breath
तथाthus
अपरेothers
प्राणापानगतीcourses of the outgoing and incoming breaths
रुद्ध्वाrestraining

📖 Translation

English

4.29 Others offer as sacrifice the outgoing breath in the incoming, and the incoming in the outgoing, restraining the course of the outgoing and the incoming breaths, solely absorbed in the restraint of the breath.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.29।। अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,  तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं,  प्राण और अपान की गति को रोककर,  वे प्राणायाम के ही समलक्ष्य समझने वाले होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In demanding work environments, conscious breath control (even short mindful breathing breaks) can significantly sharpen focus, improve decision-making under pressure, and mitigate mental fatigue. This practice cultivates a steady mind, enhancing concentration and overall productivity in complex tasks.

🧘 For Stress & Anxiety

Regular practice of controlled breathing techniques (Pranayama) is a potent antidote to modern stress and anxiety. It directly calms the nervous system, quiets racing thoughts, and fosters a profound sense of inner peace, providing a practical tool for managing mental health challenges and fostering emotional resilience.

❤️ In Relationships

Cultivating a calm and steady mind through breath awareness allows for greater presence, patience, and empathy in interpersonal interactions. It reduces impulsive reactions during conflicts, improves active listening skills, and promotes thoughtful communication, leading to more harmonious and understanding relationships.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Mastering your breath is the fundamental key to mastering your mind, leading to profound inner stability and control over your mental and emotional states.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.29 अपाने in the outgoing breath? जुह्वति sacrifice? प्राणम् incoming breath? प्राणे in the incoming breath? अपानम् outgoing breath? तथा thus? अपरे others? प्राणापानगती courses of the outgoing and incoming breaths? रुद्ध्वा restraining? प्राणायामपरायणाः solely absorbed in the restraint of breath.Commentary Some Yogis practise Puraka (inhalation)? some Yogis practise Rechaka (exhalation)?,and some Yogis practise Kumbhaka (retention of breath).The five subPranas and the other Pranas are merged in the chief Prana (MukhyaPrana) by the practice of Pranayama. When the Prana is controlled? the mind also stops its wanderings and becomes steady the senses are also thinned out and merged in the Prana. It is through the vibration of Prana that the activities of the mind and the senses are kept up. If the Prana is controlled? the mind? the intellect and the senses cease to function.

Shri Purohit Swami

4.29 There are some who practise control of the Vital Energy and govern the subtle forces of Prana and Apana, thereby sacrificing their Prana unto Apana, or their Apana unto Prana.

Dr. S. Sankaranarayan

4.29. - 4.30. [Some sages] offer the prana into the apana; like-wise others offer the apana into the prana. Having controlled both the courses of the prana and apana, the same sages, with their desire fulfilled by the above activities, and with their food restricted, offer the pranas into pranas. All these persons know what sacrifices are and have their sins destroyed by sacrifices.

Swami Adidevananda

4.29 Others, with restricted diet, are devoted to the control of breath. Some sacrifice the inward breath in the outward breath. Similarly others sacrifice the outward breath in the inward breath. Some others, stopping the flow of both the inward breath and the outward, sacrifice the inward breaths and outward breaths.

Swami Gambirananda

4.29 Constantly practising control of the vital forces by stopping the movements of the outgoing and the incoming breaths, some offer as a sacrifice the outgoing breath in the incoming breath; while still others, the incoming breath in the outgoing breath.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.29।। इस श्लोक में आत्मसंयम के लिये उपयोगी प्राणायाम विधि का वर्णन किया गया है जिसका अभ्यास कुछ साधकगण करते हैं।अन्दर ली जाने वाली वायु को प्राण तथा बाहर छोड़ी जाने वाली वायु को अपान कहते हैं। योगशास्त्र के अनुसार हमारी श्वसन क्रिया के तीन अंग हैं पूरक रेचक और कुम्भक। श्वास द्वारा वायु को अन्दर लेने को पूरक तथा उच्छ्वास द्वारा बाहर छोड़ने को रेचक कहते हैं। एक पूरक और एक रेचक के बीच कुछ अन्तर होता है। जब वायु केवल अन्दर ही या केवल बाहर ही रहती है तो इसे कुम्भक कहते हैं। सामान्यत हमारी श्वसन क्रिया नियमबद्ध नहीं होती। अत पूरककुम्भकरेचककुम्भक रूप प्राणायाम की विधि का उपदिष्ट अनुपात में अभ्यास करने से प्राण को संयमित किया जा सकता है जो मनसंयम के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इस श्लोक में क्रमश रेचक पूरक और कुम्भक का उल्लेख है। प्राणायाम को यज्ञ समझ कर जो व्यक्ति इसका अभ्यास करता है वह अन्य उपप्राणों को मुख्य प्राण में हवन करना भी सीख लेता है।जैसी कि सामान्य धारणा है प्राण का अर्थ केवल वायु अथवा श्वास नहीं है। हिन्दु शास्त्रों में प्रयुक्त प्राण शब्द का अभिप्राय जीवन शक्ति के उन कार्यो से है जो एक जीवित व्यक्ति के शरीर में होते रहते हैं। शास्त्रों में वर्णित पंचप्राणों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे शरीर धारणा के पाँच प्रकार के कार्य हैं। वे पंचप्राण हैं प्राण अपान व्यान समान और उदान जो क्रमश विषय ग्रहण मलविसर्जन शरीर में रक्त प्रवाह अन्नपाचन एवं विचार की क्षमताओं को इंगित करते हैं। सामान्यत मनुष्य को इन क्रियायों का कोई भान नहीं रहता परन्तु प्राणायाम के अभ्यास से इन सबको अपने वश में रखा जा सकता है। अत वास्तव में प्राणायाम भी एक उपयोगी साधना है।अगले श्लोक में अन्तिम बारहवीं प्रकार की साधना का वर्णन किया गया है

Swami Ramsukhdas

4.29। व्याख्या--'अपाने जुह्वति ৷৷. प्राणायामपरायणाः'(टिप्पणी प0 258.1)--प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है (टिप्पणी प0 258.2)। श्वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है। इसलिये श्वासको बाहर निकालना 'प्राण' का कार्य और श्वासको भीतर ले जाना 'अपान' का कार्य है। योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका-(चन्द्रनाड़ी-) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है। इसको 'पूरक' कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु-- दोनोंकी गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको 'कुम्भक' कहते हैं। इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका-(सूर्यनाड़ी-) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राण-वायुमें अपानवायुका हवन करना है। इसको 'रेचक' कहते हैं। चार भगवन्नामसे पूरक, सोलह भगवन्नामसे कुम्भक और आठ भगवन्नामसे रेचक किया जाता है। इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 258.3)। 'अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति'--नियमित आहार-विहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता 6। 16 17)।प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है--प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे 'स्तम्भवृत्ति प्राणायाम' भी कहते हैं। इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है। केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।'सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः'--चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उनका अनुष्ठान करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ 'सर्वेऽप्येते' पद आया है। उन यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहनेसे उनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्माका प्राप्ति हो जाती है।वास्तवमें सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही हैं--ऐसा जाननेवाले ही 'यज्ञवित्' अर्थात् यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले हैं। कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है। जो लोग अविनाशी परमात्माका अनुभव करनेके लिये यज्ञ नहीं करते, प्रत्युत इस लोक और परलोक (स्वर्गादि) के विनाशी भोगोंकी प्राप्तिके लिये ही यज्ञ करते हैं, वे यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले नहीं हैं। कारण कि विनाशी पदार्थोंकी कामना ही बन्धनका कारण है--'गतागतं कामकामा लभन्ते' (गीता 9। 21)। अतः मनमें कामना-वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर भी जन्म-मरणका बन्धन बना रहता है 'मिटी न मनकी वासना नौ तत भये न नास।' तुलसी केते पच मुये दे दे तन को त्रास।।विशेष बात यज्ञ करते समय अग्निमें आहुति दी जाती है। आहुति दी जानेवाली वस्तुओंके रूप पहले अलग-अलग होते हैं; परन्तु अग्निमें आहुति देनेके बाद उनके रूप अलग-अलग नहीं रहते, अपितु सभी वस्तुएँ अग्निरूप हो जाती हैं। इसी प्रकार परमात्मप्राप्तिके लिये जिन साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है, उनमें आहुति देनेका तात्पर्य यही है कि आहुति दी जानेवाली वस्तुओँकी अलग सत्ता रहे ही नहीं, सब स्वाहा हो जायँ। जबतक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है, तबतक वास्तवमें उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात् यज्ञका अनुष्ठान हुआ ही नहीं। इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकसे भगवान् कर्मोंके तत्त्व (कर्ममें अकर्म) का वर्णन कर रहे हैं। कर्मोंका तत्त्व है--कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना। कर्मोंसे न बँधनेका ही एक साधन है--यज्ञ। जैसे अग्निमें डालनेपर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं, ऐसे ही केवल लोकहितके लिये किये जानेवाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं-- 'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' (गीता 4। 23)।निष्कामभावपूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारण-से-साधारण कर्म भी परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हो जाते हैं। परन्तु सकामभावपूर्वक किये गये बड़े-से-बड़े कर्मोंसे भी परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना ही बाँधनेवाली है। पदार्थ और क्रियारूप संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यमात्रमें पदार्थ पाने और कर्म करनेका राग रहता है कि मुझे कुछ-न-कुछ मिलता रहे और मैं कुछ-न-कुछ करता रहूँ। इसीको 'पानेकी कामना' तथा 'करनेका वेग' कहते हैं।मनुष्यमें जो पानेकी कामना रहती है, वह वास्तवमें अपने अंशी परमात्माको ही पानेकी भूख है; परन्तु परमात्मासे विमुख और संसारके सम्मुख होनेके कारण मनुष्य इस भूखको सांसारिक पदार्थोंसे ही मिटाना चाहता है। सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है। अविनाशीकी भूख विनाशी पदार्थोंसे मिट ही कैसे सकती है ?परन्तु जबतक संसारकी सम्मुखता रहती है, तबतक पानेकी कामना बनी रहती है। जबतक मनुष्यमें पानेकी कामना रहती है, तबतक उसमें करनेका वेग बना रहता है। इस प्रकार जबतक पानेकी कामना और करनेका वेग बना हुआ है अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध बना हुआ है, तबतक जन्म-मरण नहीं छूटता। इससे छूटनेका उपाय है--कुछ भी पानेकी कामना न रखकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना। इसीको लोकसंग्रह, यज्ञार्थ कर्म, लोकहितार्थ कर्म आदि नामोंसे कहा गया है।केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे संसारसे सम्बन्ध छूट जाता है और असङ्गता आ जाती है। अगर केवल भगवान्के लिये कर्म किये जायँ, तो संसारसे सम्बन्ध छूटकर असङ्गता तो आ ही जाती है, इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान्का 'प्रेम' प्राप्त हो जाता है!  सम्बन्ध--  चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक भगवान्ने कुल बारह प्रकारके यज्ञोंका वर्णन किया और तीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें यज्ञ करनेवाले साधकोंकी प्रशंसा की। अब भगवान् आगेके श्लोकमें यज्ञ करनेसे होनेवाले लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.29।। अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,  तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं,  प्राण और अपान की गति को रोककर,  वे प्राणायाम के ही समलक्ष्य समझने वाले होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.29।।अपरे प्राणायामपरायणाः प्राणमपाने जुह्वति अपानं च प्राणे। कुम्बकस्था एव भवन्तीत्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।4.29।।प्राणायामाख्यं यज्ञमुदाहरति किञ्चेति। प्राणायामपरायणाः सन्तो रेचकं पूरकं च कृत्वा कुम्भकं कुर्वन्तीत्याह प्राणेति।

Sri Vallabhacharya

।।4.29।।योगधारणवतामपि मध्ये केचित् प्राणायामपराः केचिन्नियताहारा उत्तममध्यमा इति तान्निरूपयति अपानेति। अधोवृत्तिप्राणा ऊर्द्धृवृत्तिरिति पर्यायेण तद्रोधे तथाविधाः।

Sridhara Swami

।।4.29।।किंच अपान इति। अपाने अधोवृत्तौ प्राणमूर्ध्ववृत्तिं पूरकेण जुह्वति पूरककाले प्राणमपानेनैकीकुर्वन्ति। तथा कुम्भकेन प्राणापानयोरूर्ध्वाधोगती रुद्ध्वा रेचककालेऽपानं प्राणे जुह्वति। एवं पूरककुम्भकरेचकैः प्राणायामपरायणा अपरे इत्यर्थः।

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