Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 28 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Diversity of Spiritual Paths

Sanskrit Shloka (Original)

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे | स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ||४-२८||

Transliteration

dravyayajñāstapoyajñā yogayajñāstathāpare . svādhyāyajñānayajñāśca yatayaḥ saṃśitavratāḥ ||4-28||

Word-by-Word Meaning

द्रव्ययज्ञाःthose who offer wealth as sacrifice
तपोयज्ञाःthose who offer austerity as sacrifice
योगयज्ञाःthose who offer Yoga as sacrifice
तथाthus
अपरेothers
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाःthose who offer study and knowledge as sacrifice
and
यतयःascetics or anchorites (persons of selfrestraint)

📖 Translation

English

4.28 Others again offer wealth, austerity and Yoga as sacrifice, while the ascetics of self-restraint and rigid vows offer study of scriptures and knowledge as sacrifice.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.28।। कुछ (साधक) द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले होते हैं;  और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Apply the principle of 'sacrifice' by dedicating your skills, time, and resources (dravyayajña) to your work with a sense of higher purpose, rather than just personal gain. Practice 'tapas' (austerity) by cultivating discipline, focus, and perseverance through challenges, and engage in continuous learning and skill development (svādhyāyajñāna) as a commitment to excellence in your field.

🧘 For Stress & Anxiety

Combat stress by practicing 'tapas' (disciplined self-restraint) over reactive thoughts and emotions, cultivating mindfulness, meditation, or physical Yoga. 'Svādhyāya' (study) can involve learning about stress management techniques or gaining wisdom from philosophical texts to reframe challenges. Offer your anxieties as a 'sacrifice' by consciously letting go and focusing on what you can control, fostering mental resilience.

❤️ In Relationships

Nurture relationships by offering your time, attention, and support (dravyayajña). Practice 'tapas' (self-restraint) by exercising patience, empathy, forgiveness, and controlling impulsive reactions. 'Yoga' in relationships means striving for harmony and understanding, while 'svādhyāya' (study/reflection) involves understanding others' perspectives, improving communication, and reflecting on your own relational patterns with disciplined effort.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Embrace disciplined dedication in diverse forms – be it wealth, effort, study, or self-restraint – to achieve purposeful growth and self-mastery.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.28 द्रव्ययज्ञाः those who offer wealth as sacrifice? तपोयज्ञाः those who offer austerity as sacrifice? योगयज्ञाः those who offer Yoga as sacrifice? तथा thus? अपरे others? स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः those who offer study and knowledge as sacrifice? च and? यतयः ascetics or anchorites (persons of selfrestraint)? संशितव्रताः persons of rigid vows.Commentary Some do sacrifice by distributing their wealth to the deserving as charity some offer their Tapas (austerities) as sacrifice some practise the eight limbs of Raja Yoga? viz.? Yama (the five great vows)? Niyama (the canons of conduct)? Asana (posture)? Pranayama (restraint of breath)? Pratyahara (withdrawal of the senses)? Dharana (concentration)? Dhyana (meditation) and Samadhi (superconscious state)? and offer this Yoga as a sacrifice some study the scriptures and offer it as sacrifice.

Shri Purohit Swami

4.28 And yet others offer as their sacrifice wealth, austerities and meditation. Monks wedded to their vows renounce their scriptural learning and even their spiritual powers.

Dr. S. Sankaranarayan

4.28. [These] are [respectively] the performs of sacrifices with material objects, the performers of sacrifices with penance, and the performers of sacrifices with Yoga. Likewise [there are] yet other ascetics with rigid vows whose sacrifices are the svadhyaya-knowledge.

Swami Adidevananda

4.28 Self-controlled and firm of resolve, others perform the sacrifice of material objects or austerities or Yoga; while others offer their scriptural study and knowledge.

Swami Gambirananda

4.28 Similarly, others are performers of sacrifices through wealth, through austerity, through yoga, and through study and knowledge; others are ascetics with severe vows.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.28।। द्रव्ययज्ञ यहां द्रव्य शब्द को उसके व्यापक अर्थ में समझना चाहिये। ईमानदारी से अर्जित किये धन का समाज सेवा में भक्तिभाव सहित विनियोग करने को द्रव्ययज्ञ कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इसमें केवल अन्न या धन का ही दान हो।द्रव्य शब्द के अर्थ में वे सब वस्तुएं समाविष्ट हैं जो हमारे पास हैं जैसे भौतिक सम्पत्ति प्रेम और सद्विचार। ईश्वर की पूजा समझ कर अपनी इन भौतिक मानसिक एवं बौद्धिक सम्पदाओं का समाजसेवा में सदुपयोग करना ही द्रव्ययज्ञ कहलाता है। अत इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए साधक का धनवान होना आवश्यक नहीं है। दरिद्र अथवा शरीर से अपंग होते हुए भी हम जगत् के कल्याण की कामना कर सकते हैं और हृदय से प्रार्थना कर सकते हैं। हार्दिक सहानुभूति का एक शब्द कृपा का एक कटाक्ष स्नेह सिंचित स्मिति अथवा मैत्रीपूर्ण सदव्यवहार पाषाणीमन से दी हुई बड़ी धनराशि से भी अधिक महत्व का होता है।तपोयज्ञ कुछ साधक गण अपना तपोमय जीवन ईश्वर को अर्पित करते हैं। विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो किसी न किसी प्रकार से तप या व्रत का जीवन जीने का उपदेश न करता हो। ये व्रत परमेश्वर प्रीत्यर्थ ही किये जाते हैं। यह तो सब जानते ही हैं कि भक्त द्वारा किये गये भोग के त्याग से समस्त विश्व के पालन और पोषणकर्त्ता करुणासागर परमात्मा का कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होने का नहीं तथापि साधकगण उसे ईश्वरार्पण करते हैं जिससे उन्हें आत्मसंयम और चित्त शुद्धि प्राप्त हो। कोईकोई तप शरीर के लिये अत्यन्त पीड़ादायक होते हैं फिर भी यदि उन्हें समझ कर किया जाय तो इन्द्रिय संयम प्राप्त हो सकता है।योगयज्ञ अपने मन से निकृष्ट प्रवृत्तियों का त्याग करके उत्कृष्ट जीवन जीने के सतत् प्रयत्न का नाम है योग। इसकी प्राथमिक साधना है अपने हृदय के इष्ट भगवान् की भक्ति पूर्वक पूजा करना। इसका ही नाम है उपासना। निष्काम भावना से उपासना का अनुष्ठान करने पर साधक की अध्यात्म मार्ग में प्रगति होती है इसलिये इसे योग कहा गया है और यज्ञ भावना से इसका अनुष्ठान करने के कारण यहां योगयज्ञ कहा गया है।स्वाध्याय यज्ञ प्रतिदिन शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। शास्त्रों के अध्ययन के बिना हम न तो अपने लक्ष्य को ही निर्धारित कर सकते हैं और न ही साधना अभ्यास का अर्थ ही समझ सकते हैं। ज्ञानरहित यन्त्रवत् साधना से अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभी धर्मों में दैनिक स्वाध्याय पर विशेष बल दिया जाता है। आत्मानुभव के पश्चात् भी ऋषि मुनि अपना अधिकांश समय शास्त्राध्ययन तथा उसके गम्भीर चिन्तन मनन में व्यतीत करते हैं।अध्यात्म दृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण के द्वारा अपनी दुर्बलताओं को समझना जिससे उनका परित्याग किया जा सके। साधक के लिये यह आत्मविकास का एक साधन है तो सिद्ध पुरुषों के लिये आत्मानुभव में रमण का।ज्ञानयज्ञ गीता में यह शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त है और व्यास जी ने जिन मौलिक शब्दों का प्रयोग गीता में किया है उनमें से यह एक है। वह साधना ज्ञानयज्ञ कहलाती है जिसमें साधक ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित करके उसमें अपने अज्ञान की आहुति देता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अनात्म वस्तु का निषेध एवं आत्मा के पारमार्थिक सत्यस्वरूप का प्रतिपादन इस यज्ञ के अंग हैं। निदिध्यासन में इसी का अभ्यास किया जाता है।आत्मोन्नति के उपर्युक्त पाँच साधनों का लाभ दृढ़ निश्चयी एवं उत्साहपूर्ण अभ्यासी साधकों को ही मिल सकता है। इन साधकों को केवल ज्ञान अथवा आत्मविकास की इच्छामात्र से कोई प्रगति नहीं हो सकती। पूर्ण लगन से जो निरन्तर साधना का अभ्यास करते हैं केवल वे ही साधक अध्यात्म के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं।साधनोपदेश के क्रम में अब भगवान् प्राणायाम की विधि बताते हैं

Swami Ramsukhdas

।।4.28।। व्याख्या--'यतयः संशितव्रताः'--अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धिसे संग्रहका अभाव)--ये पाँच 'यम' हैं (टिप्पणी प0 257), जिन्हें 'महाव्रत' के नामसे कहा गया है। शास्त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा, महिमा है। इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय। इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ 'संशितव्रताः' पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं, उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब संशितव्रताः हैं। अपने-अपने यज्ञके अनुष्ठानमें प्रयत्नशील होनेके कारण उन्हें 'यतयः' कहा गया है।'संशितव्रताः' पदके साथ ('द्रव्ययज्ञाः,' 'तपोयज्ञाः,' 'योगयज्ञाः' और 'ज्ञानयज्ञाः' की तरह) 'यज्ञाः' पद नहीं दिया जानेके कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है।'द्रव्ययज्ञाः'--मात्र संसारके हितके उद्देश्यसे कुआँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाना, अभावग्रस्त लोगोंको अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पुस्तक आदि देना, दान करना इत्यादि सब 'द्रव्ययज्ञ' है। द्रव्य-(तीनों शरीरोंसहित सम्पूर्ण पदार्थों-) को अपना और अपने लिये न मान���र निःस्वार्थभावसे उन्हींका मानकर उनकी सेवामें लगानेसे द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हींसे यज्ञ हो सकता है, अधिककी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालकसे उतनी ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमतासे अधिककी आशा कैसे रखेंगे?'तपोयज्ञाः'--अपने कर्तव्य-(स्वधर्म-) के पालनमें जो-जो प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ आयें, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना 'तपोयज्ञ' है। लोकहितार्थ एकादशी आदिका व्रत रखना, मौन धारण करना आदि भी 'तपोयज्ञ' अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं। परन्तु प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, घटना आनेपर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे-- अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है। गाँवभरकी गन्दगी, कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय, तो वह बुरा लगता है; परन्तु वही कूड़ा-करकट खेतमें पड़ जाय, तो खेतीके लिये खादरूपसे बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े-करकटकी तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते; परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्य-पालन करनेके लिये बढ़िया सामग्री है। इसलिये प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिको सहर्ष सहनेके समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगोंमें आसक्ति रहनेसे अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलताका महत्त्व समझमें नहीं आता। 'योगयज्ञास्तथापरे' यहाँ योग नाम अन्तःकरणकी समताका है। समताका अर्थ है--कार्यकी पूर्ति और अपूर्तिमें, फलकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिमें निन्दा और स्तुतिमें आदर और निरादरमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःखका न होना। इस तरह सम रहना ही योगयज्ञ है।'स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः'--केवल लोकहितके लिये गीता, रामायण, भागवत आदिका तथा वेद, उपनिषद् आदिका यथाधिकार मनन-विचारपूर्वक पठन-पाठन करना अपनी वृत्तियोंका तथा जीवनका अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप 'ज्ञानयज्ञ' है। गीताके अन्तमें भगवान्ने कहा है कि जो इस गीता शास्त्रका अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा--ऐसा मेरा मत है (18। 70)। तात्पर्य यह है कि गीताका स्वाध्याय 'ज्ञानयज्ञ' है। गीताके भावोंमें गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावोंको समझनेकी चेष्टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।

Swami Tejomayananda

।।4.28।। कुछ (साधक) द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले होते हैं;  और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.28।।द्रव्यं जुह्वतीति द्रव्ययज्ञाः। तपः परमेश्वरार्पणबुद्ध्या तत्र जुह्वतीति तपोयज्ञा इत्यादि। इदं तपो हविः एतद्ब्रह्माग्नौ जुहोति तत्पूजार्थमिति होमः। तदर्पण एव होमबुद्धिः।

Sri Anandgiri

।।4.28।।यज्ञषट्कमवतारयति द्रव्येति। तत्र द्रव्ययज्ञान्पुरुषानुपादाय विभजते तीर्थेष्विति। तपस्विनां यज्ञबुद्ध्या तपोऽनुतिष्ठन्तो नियमवन्त इत्यर्थः। प्रत्याहारादीत्यादिशब्देन यमनियमासनध्यानधारणासमाधयो गृह्यन्ते यथाविधि प्राङ्मुखत्वपवित्रपाणित्वाद्यङ्गविधिमनतिक्रम्येति यावत् व्रतानां तीक्ष्णीकरणमतिदृढत्वम्।

Sri Vallabhacharya

।।4.28।।अन्ये चद्रव्ययज्ञाः इति गृहिणो निरूपिताः तपोयज्ञा वनस्थाश्च। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। समाधिलक्षणो यज्ञो येषां ते च। स्वाध्याययज्ञा आत्मज्ञानयज्ञाश्चेत्येते यतयः संशितव्रता उक्ताः।

Sridhara Swami

।।4.28।।किंच द्रव्येति। द्रव्यदानमेव यज्ञो येषां ते द्रव्ययज्ञाः। कृच्छ्रचान्द्रायणादितप एव यज्ञो येषां ते तपोयज्ञाः। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधलक्षणः समाधिः स एव यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। स्वाध्यायेन वेदेन श्रवणमननादिना यत्तदर्थज्ञानं तदेव यज्ञो येषां ते। अथवा वेदपाठयज्ञास्तदर्थज्ञानयज्ञाश्चेति द्विविधा यतयः प्रयत्नशीलाः। सम्यक् शितं निशितं तीक्ष्णीकृतं व्रतं येषां ते।

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