Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 70 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Inner Equanimity

Sanskrit Shloka (Original)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् | तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ||२-७०||

Transliteration

āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṃ samudramāpaḥ praviśanti yadvat . tadvatkāmā yaṃ praviśanti sarve sa śāntimāpnoti na kāmakāmī ||2-70||

Word-by-Word Meaning

आपूर्यमाणम्filled from all sides
अचलप्रतिष्ठम्based in stillness
समुद्रम्ocean
आपःwater
प्रविशन्तिenter
यद्वत्as
तद्वत्so
कामाःdesires
यम्whom
प्रविशन्तिenter
सर्वेall
सःhe
शान्तिम्peace
आप्नोतिattains
not

📖 Translation

English

2.70 He attains peace into whom all desires enter as waters enter the ocean which, filled from all sides, remains unmoved; but not the man who is full of desires.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.70।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach tasks and career goals with dedicated effort but without allowing the constant influx of demands or the pursuit of external validation (promotions, recognition) to disrupt your inner calm. Focus on present action and allow aspirations to be like waters entering the ocean – acknowledged and processed without agitation.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate an 'ocean-like' mind to observe worries, anxieties, and overwhelming thoughts without letting them create internal turbulence. Acknowledge these mental inputs, but consciously choose not to identify with them or allow them to dictate your emotional stability. Practice mindfulness to witness thoughts without attachment.

❤️ In Relationships

Engage in relationships with genuine connection and giving, but without being constantly driven by the need for specific outcomes, external validation, or control over others. Allow the natural ebb and flow of relational dynamics, including differing desires or unmet expectations, to enter your awareness without disturbing your core peace and self-worth.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Find true peace by becoming an ocean of equanimity, letting desires flow into your awareness without disturbing your inner stillness.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.70 आपूर्यमाणम् filled from all sides? अचलप्रतिष्ठम् based in stillness? समुद्रम् ocean? आपः water? प्रविशन्ति enter? यद्वत् as? तद्वत् so? कामाः desires? यम् whom? प्रविशन्ति enter? सर्वे all? सः he? शान्तिम् peace? आप्नोति attains? न not? कामकामी desirer of desires.Commentary Just as the ocean filled with waters from all sides remains unmoved? so also the sage who is resting in his own Svarupa or the Self is not a bit affected though desires of all sorts enter from all sides. The sage attains peace or liberation but not he who longs for objects of sensual enjoyment and entertains various desires. (Cf.XVIII.53?54).

Shri Purohit Swami

2.70 He attains Peace, into whom desires flow as rivers into the ocean, which though brimming with water remains ever the same; not he whom desire carries away.

Dr. S. Sankaranarayan

2.70. Just as waters enter into the ocean which is being filled continuously and which is [yet] firmly established, in the same way, he into whom all objects of desire enter-he attains peace; not he who longs for the objects of desire.

Swami Adidevananda

2.70 He into whom all desires enter as the waters enter the full and undisturbed sea, attains to peace, and not he who longs after objects of desire.

Swami Gambirananda

2.70 That man attains peace into whom all desires enter in the same way as the waters flow into a sea that remains unchanged (even) when being filled up from all sides. Not so one who is desirous of objects.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.70।। यह सुविदित तथ्य है कि यद्यपि करोड़ों गैलन पानी अनेक सरिताओं द्वारा विभिन्न दिशाओं से आकर निरन्तर समुद्र में समाता रहता है तथापि समुद्र की मर्यादा किसी प्रकार भंग नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से असंख्य विषय संवेदनाएँ ज्ञानी पुरुष के मन में पहुँचती रहती हैं फिर भी वे उसके अन्तकरण में किसी प्रकार का भी विकार अथवा क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं।विषयों के बीच रहता हुआ इन्द्रियों के द्वारा समस्त व्यवहार करता हुआ भी जो पुरुष स्वस्वरूप की स्थिति से विचलित नहीं होता वही ज्ञानी है सन्त है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि ऐसा पुरुष ही वास्तविक शान्ति और आनन्द प्राप्त करता है। इतना कहने मात्र से मानो उन्हें सन्तोष नहीं होता और आगे वे कहते हैं भोगों की कामना करने वाले पुरुषों को कभी शान्ति नहीं मिलती।उपर्युक्त विचार आधुनिक भौतिकवादी विचारधारा के सर्वथा विपरीत हैं। उनकी यह धारणा है कि अधिक इच्छाओं के होने से भौतिक उन्नति होगी और अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से मनुष्य को सुखी बनाया जा सकता है। औद्योगीकरण और बड़ी मात्रा में उत्पादन के सिद्धांतों पर आधारित भौतिकवादी समाज का प्रयत्न मनुष्य में इच्छाओं की निरन्तर वृद्धि करने के लिए ही हो रहा है। परिणाम यह हुआ है कि आज के सामान्य मनुष्य की इच्छायें एक शताब्दी पूर्व अपने पूर्वजों की इच्छाओं से लाखगुना अधिक हैं। बड़ेबड़े व्यापारी और उद्योगपति विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों की सहायता से नईनई इच्छायें उत्पन्न करने और उन्हें पूर्ण करने का प्रयत्न करते रहते हैं। जिस मात्रा में मनुष्य की इच्छायें पूर्ण होती हैं उसे कहा जाता है कि अब वह पहले से कहीं अधिक सुखी है।इसके विपरीत भारत के प्राचीन महान् विचारकों ने स्वानुभव सूक्ष्म निरीक्षण एवं अध्ययन से यह पाया कि इच्छाओं की पूर्ति से प्राप्त सुख कभी पूर्ण नहीं हो सकता। सुख की मात्रा को गणित की भाषा में इस प्रकार बताया जा सकता है सुख की मात्रा पूर्ण हुई इच्छाओं की संख्यामन में स्थित इच्छाओं की संख्याभौतिकवादी धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोग भी इस सत्य को स्वीकार तो करते हैं परन्तु उनकी तथा ऋषियों की व्यावहारिक कार्यप्रणाली बहुत भिन्न दिखाई देती है।आज सर्वत्र अधिकसेअधिक इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न सुख के लिए किया जाता है। प्राचीन ऋषिगण भी मानव समाज में ही रहते थे और तत्त्वज्ञान के द्वारा उनका लक्ष्य समाज को अधिक सुखी बनाना ही था। उन्होंने पहचाना कि इच्छाओं की संख्या कम किये बिना केवल अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से न कोई वास्तविक आनन्द ही प्राप्त होता है और न ही उसमें कोई विशेष वृद्धि ही। परन्तु आज हम ऋषियों के विचार से सर्वथा भिन्न मार्ग अपना रहे हैं और इसीलिए समाज में आनन्द नहीं दिखाई देता।औपनिषदिक सिद्धांत का ही प्रतिपादन गीता में है जिसकी प्रशंसा भारतीय कवियों द्वारा मुक्त कण्ठ से की गई है। अनेक भोगों की कामना करने वाला पुरुष कभी शान्ति प्राप्त नहीं करता। बाह्य जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करने पर ही विषयों में हमें दुखी बनाने की सार्मथ्य आ जाती है अन्यथा वे स्वयं किसी प्रकार की हानि हमें नहीं पहुँचा सकते। आनन्दस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष इन सब विषयों से अविचलित रहता है।स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों का प्रारम्भ करते हुए भगवान् ने उसकी आत्मसन्तुष्टि एवं निष्कामत्व को बताया था उसी को और अधिक विस्तार से इस श्लोक में बताया गया है।इसलिए

Swami Ramsukhdas

2.70।। व्याख्या-- 'आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्'-- वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है, कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है;  परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, तब समुद्र बढ़ता नहीं, अपनी मर्यादामें ही रहता है। परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका ���ल जब बहुत कम हो जाता है, तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदी-नदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फरक नहीं पड़ता, वह बढ़ता-घटता नहीं। उसको नदी-नदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदा-सर्वदा ज्यों-का-त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता।  'तद्वत्कामा (टिप्पणी प0 106)   यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति'-- ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्मतत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं, उसके सामने आते हैं, पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते। अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है, वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है, भोग-पदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता 2। 46)। यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है, वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता है। कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है उसी जातिका जल नद-नदियोंसे आता है; और नद-नदियोंसे जो जल आता है, उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है। परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोग-पदार्थोंमें इतना फरक है कि इसको समझानेके लिये रात-दिन आकाश-पातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता! कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है, वह तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनन्त है और सांसारिक भोग-पदार्थ जड हैं, अनित्य हैं, असत् हैं, सीमित हैं, अन्तवाले हैं।, दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है, पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है, वहाँ ये सांसारिक भोग-पदार्थ पहुँचते ही नहीं, प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं। अतः समुद्रका दृष्टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है।  'न कामकामी'-- जिनके मनमें भोग-पदार्थोंकी कामना है, जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं, जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है, उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती; उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती। सम्बन्ध-- अब आगेके श्लोकमें 'स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?' इस प्रश्नके उत्तरका उपसंहार करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.70।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.70।।तेन विषयानुभवप्रकारमाह आपूर्यमाणमिति। यो विषयैरापूर्यमाणोऽप्यचलप्रतिष्ठो भवति नोत्सेकं प्राप्नोति न च प्रयत्नं करोति न चाभावे शुष्यति। न हि समुद्रः सरित्प्रवेशाप्रवेशनिमित्तौ वृद्धिशोषौ बहुतरौ प्राप्नोति प्रयत्नं वा करोति। स मुक्तिं प्राप्नोतीत्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।2.70।।नन्वसंन्यासिनापि विद्यावतां विद्याफलस्य मोक्षस्य लब्धुं शक्यत्वात्किमिति विदुषः संन्यासो नियम्यते तत्राह   विदुष इति।  आपातज्ञानवतो विवेकवैराग्यादिविशिष्टस्यैषणाभ्यः सर्वाभ्योऽभ्युत्थितस्य श्रवणादिद्वारा समुत्पन्नसाक्षात्कारवतो मुख्यस्य संन्यासिनो मोक्षो नान्यस्य विषयतृष्णापरिभूतस्येत्येतद्दृष्टान्तेन प्रतिपादयितुमिच्छन्रागद्वेषवियुक्तैस्तु इति श्लोकोक्तमेवार्थं पुनराहेति योजना। अद्भिः समुद्रस्य समन्तात्पूर्यमाणत्वे वृद्धिह्रासवती तदीया स्थितिरापतेदित्याशङ्क्याह  अचलेति।  नहि समद्रस्योदकात्मकं प्रतिनियतं रूपं कदाचिद्विवर्धते ह्रसते वा तेन तदीया स्थितिरेकरूपैवेत्यर्थः। तत्तन्नादेयाश्चेदापः समुद्रान्तर्गच्छन्ति तर्हि तस्य विक्रियावत्त्वादप्रतिष्ठा स्यादित्याशङ्क्याह  स्वात्मस्थमिति।  इच्छाविशेषा विषयाणामसंनिधौ विदुषि निर्विकारे प्रविशन्तोऽपि संनिधाने तस्मिन्प्रविशन्तो विकारमापादयेयुरित्याशङ्क्याह  विषयेति।  प्रवेशं विशदयति  सर्वत इति।   योऽकाम इत्यादि।  श्रुतेर्विषयविमुखस्य निष्कामस्य मोक्षो न कामकामुकस्येत्याह  स शान्तिमिति।

Sri Vallabhacharya

।।2.70।।अन्यच्च। यथा समुद्रो न कं प्रतियाति किन्तु तं प्रत्येवापः सर्वा यान्ति तथा कामाः सर्वे तमेव विशन्ति तत आप्तकामः स शानतिमाप्नोति क्षुब्धोऽपि समुद्र इवाचलप्रतिष्ठो बाह्याद्युपाधिकृतकामतरङ्गानाकुलितस्वरूपो भवति। उपमीयत इति तथा विशेषणसमभिव्याहारः।

Sridhara Swami

।।2.70।।ननु विषयेषु दृष्ट्यभावे कथमसौ तान्भुङ्क्त इत्यपेक्षायामाह  आपूर्यमाणमिति।  नानानदीभिरापूर्यमाणमपि अचलप्रतिष्ठमनतिक्रान्तमर्यादमेव समुद्रं पुनरप्यन्या आपो यथा प्रविशन्ति। तथा कामा विषया यं मुनिमन्तर्दृष्टिं भोगैरविक्रियमाणमेव प्रारब्धकर्मभिराक्षिप्ताः सन्तः प्रविशन्ति स शान्तिं कैवल्यं प्राप्नोति नतु कामकामी भोगकामनाशीलः।

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