Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 69 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Duality of Perception

Sanskrit Shloka (Original)

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी | यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||२-६९||

Transliteration

yā niśā sarvabhūtānāṃ tasyāṃ jāgarti saṃyamī . yasyāṃ jāgrati bhūtāni sā niśā paśyato muneḥ ||2-69||

Word-by-Word Meaning

याwhich
निशाnight
सर्वभूतानाम्of all beings
तस्याम्in that
जागर्तिwakes
संयमीthe selfcontrolled
यस्याम्in which
जाग्रतिwake
भूतानिall beings
साthat
निशाnight
पश्यतः(of the) seeing
मुनेःof the Muni.Commentary That which is real for the wordlyminded people is illusion for the sage

📖 Translation

English

2.69 That which is night to all beings, in that the self-controlled man is awake; when all beings are awake, that is night for the Muni (sage) who sees.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In the professional realm, while others chase external metrics like promotions, wealth, and status (their 'day'), the self-controlled individual focuses on intrinsic values: meaningful contribution, ethical conduct, skill mastery, and inner fulfillment. They are 'awake' to purpose and integrity, finding the relentless pursuit of only external rewards to be a 'night' of ignorance, ultimately leading to dissatisfaction.

🧘 For Stress & Anxiety

When all beings are 'awake' to external events, societal pressures, and personal desires as sources of stress and anxiety, the sage perceives these as 'night' – transient and ultimately not worth disturbing inner peace. They are 'awake' to the serenity of self-mastery, equanimity, and the ability to detach from outcomes, finding peace amidst chaos by not identifying with external fluctuations.

❤️ In Relationships

For most, relationships are 'day' when they involve validation, ego gratification, control, or superficial drama. The self-controlled individual, however, finds this 'night.' They are 'awake' to genuine connection, selfless love, empathy, understanding, and fostering mutual growth, without attachment to expectations or outcomes, recognizing true companionship transcends fleeting emotional entanglements.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True awakening involves a profound shift in perception, where the wise find light in self-mastery and inner truth, while seeing conventional worldly pursuits as darkness or illusion.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.69 या which? निशा night? सर्वभूतानाम् of all beings? तस्याम् in that? जागर्ति wakes? संयमी the selfcontrolled? यस्याम् in which? जाग्रति wake? भूतानि all beings? सा that? निशा night? पश्यतः (of the) seeing? मुनेः of the Muni.Commentary That which is real for the wordlyminded people is illusion for the sage? and vice versa. The sage lives in the Self. This is day for him. He is unconscious of the wordly phenomena. They are night for him? as it were. The ordinary man is unconscious of his real nature. Life in the spirit is night for him. He is experiencing the objects of sensual enjoyment. This is day for him. The Self is a nonentity for him For a sage this world is a nonentity.The wordlyminded people are in utter darkness as they have no knowledge of the Self. What is darkness for them is all light for the sage. The Self? Atman or Brahman is night for the worldlyminded persons. But the sage is fully awake. He is directly cognising the supreme Reality? the Light of lights. He is full of illumination and AtmaJnana or knowledge of the Self.

Shri Purohit Swami

2.69 The saint is awake when the world sleeps, and he ignores that for which the world lives.

Dr. S. Sankaranarayan

2.69. What is night for every [other] being, in that a man of self-restraint is awake; wherein [every other] being is awake, that is night for the sage who sees [the truth].

Swami Adidevananda

2.69 What is night for all beings, in it the controlled one is awake; when all beings are awake, that is the night to the sage who sees.

Swami Gambirananda

2.69 The self-restrained man keeps awake during that which is night for all creatures. That during which creatures keep awake, it is night to the seeing sage.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.69।। ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टियों के बीच के भेद को स्पष्ट करना इस श्लोक का प्रयोजन है। शरीर और मन की उपाधियों के माध्यम से अनुभूत जगत् अध्यात्म के खुले वातायन से देखे गये हृदय से भिन्न होता है। यहाँ रूपक की भाषा में सिद्धांत को इतने पूर्ण रूप से कहा गया है कि अनेक शुष्क तर्क करने वाले लोग उसमें निहित काव्य के सौन्दर्य को देख नहीं पाते। काव्य और ज्ञान का समन्वय करना आर्य लोगों की विशेषता है और जब दार्शनिक कवि व्यास जी पूर्णत्व के आनन्द को व्यक्त करने के लिये अपनी लेखनी और भोजपत्र उठाते थे तब वे गीता में कविता से श्रेष्ठ अन्य कोई माध्यम प्रयुक्त नहीं कर सकते थे।अज्ञानी पुरुष जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देखता वह जगत् को अपने मन के रंग में रंगकर देखता है और फिर बाह्य वस्तुओं को ही दोषयुक्त समझता है। रंगीन चश्मे द्वारा जगत् को देखने पर वह रंगीन ही दिखाई देगा किन्तु जब कांच को हटा देते हैं तब वह जगत् जैसा है वैसा ही प्रतीत होता है।आज जब हम शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जगत् को देखते हैं तब वह स्वाभाविक ही परिच्छिन्न और दोषयुक्त अनुभव होता है किन्तु यह सब दोष उपाधियों का ही है। स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी ज्ञान की दृष्टि से जब देखता है तब उसे पूर्णत्व और आनन्द का ही अनुभव होता है।जब एक विद्युत अभियन्ता (इंजीनियर) किसी महानगर में पहुँचता है जहाँ संध्या के समय से ही सभी दिशाओं में विद्युत का प्रकाश जगमगाता है तब वह प्रश्न करता है कि यह ए.सी. है या डी. सी. जबकि उसी दृश्य को एक अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति आश्चर्य चकित होकर देखते हुए चिल्ला उठता है कि बिना तेल और बत्ती के प्रकाश को मैं देख रहा हूँ उस ग्रामीण की दृष्टि से वहां न विद्युत है और न ए. सी. डी. सी. की समस्या उस अभियन्ता की दृष्टि ग्रामीण को अज्ञात है और वह अभियन्ता भी उस ग्रामीण के आश्चर्य को समझ नहीं पाता।इस श्लोक में यह बताया गया है कि अज्ञानी र्मत्य जीव आत्मस्वरूप के प्रति सोया हुआ है जिसके प्रति ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से जागरूक है। जिन सांसारिक विषयों के प्रति अज्ञानी लोग सजग होकर व्यवहार करते हैं और दुख भोगते हैं स्थितप्रज्ञ पुरुष उसे रात्रि अर्थात् अज्ञान की अवस्था ही समझते हैं।जिसने समस्त कामनाओं का त्याग किया वही ज्ञानी भक्त मोक्ष प्राप्त करता है और कामी पुरुष कभी नहीं। इसे एक दृष्टान्त द्वारा भगवान् समझाते हैं

Swami Ramsukhdas

2.69।। व्याख्या-- 'या निशा सर्वभूतानाम्'--जिनकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं हैं, जो भोगोंमें आसक्त है, वे सब परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। परमात्मा क्या है? तत्त्वज्ञान क्या है? हम दुःख क्यों पा रहे हैं? सन्तापजलन क्यों हो रही है? हम जो कुछ कर रहे हैं? उसका परिणाम क्या होगा?--इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है, उनके लिये बिलकुल अँधेरा है। यहाँ 'भूतानाम्' कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पशु-पक्षी आदि दिनभर खाने-पीनेमें लगे रहते हैं, ऐसे ही जो मनुष्य रातदिन खाने-पीनेमें, सुख-आराममें, भोगों और संग्रहमें, धन कमानेमें ही लगे हुए हैं, उन मनुष्योंकी गणना भी पशु-पक्षी आदिमें ही है। कारण कि परमात्मतत्त्वसे विमुख रहनेमें पशुपक्षी आदिमें और मनुष्योंमें कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। हाँ, अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशु-पक्षी आदिमें विवेक-शक्ति जाग्रत् नहीं है इसिलिये वे खानेपीने आदिमें ही लगे रहते हैं; और मनुष्योंमें भगवान्की कृपासे वह विवेक-शक्ति जाग्रत है, जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है, प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है, परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है। परन्तु उस विवेक-शक्तिका दुरूपयोग करके मनुष्य पदार्थोंका संग्रह करनेमें एवं उनका भोग करनेमें लग जाते हैं, जिससे वे संसारके लिये पशुओंसे भी अधिक दुःखदायी हो जाते हैं। कारण कि पशु-पक्षी तो बेचारे जितनेसे पेट भर जाय, उतना ही खाते हैं, संग्रह नहीं करते; परन्तु मनुष्यको कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है, वह उसके काममें आये चाहे न आये, उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरोंके काममें आनेमें बाधा डाल देता है।  'तस्यां जागर्ति संयमी'-- मनुष्योंकी जो रात है अर्थात् परमात्माकी तरफसे, अपने कल्याणकी तरफसे जो विमुखता है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है। जिसने इन्द्रियों और मनको वशमें किया है, जो भोग और संग्रहमें आसक्त नहीं है, जिसका ध्येय केवल परमात्मा है, वह संयमी मनुष्य है। परमात्मतत्त्वको, अपने स्वरूपको, संसारको यथार्थ-रूपसे जानना ही उसका रातमें जागना है।  'यस्यां जाग्रति भूतानि'-- जो भोग और संग्रहमें बड़े सावधान रहते हैं, एक-एक पैसेका हिसाब रखते हैं, जमीनके एक-एक इंचका खयाल रखते है; जितने रूपये अधिकारमें आ जायँ वे चाहे न्यायपूर्वक हों अथवा अन्यायपूर्वक, उसमें वे बड़े खुश होते हैं कि इतनी पूँजी तो हमने ले ही ली है, इतना लाभ तो हमें हो ही गया है--इस तरह वे सांसारिक क्षणभङ्गुर भोगोंको बटोरनेमें और आदर-सत्कार, मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेमें ही लगे रहते हैं, उनमें बड़े सावधान रहते हैं यही उन लोगोंका जागना है।  'सा निशा पश्यतो मुनेः'--  जिन सांसारिक पदार्थोंका भोग और संग्रह करनेमें मनुष्य अपनेको बड़ा बुद्धिमान्, चतुर मानते हैं और उसीमें राजी होते हैं, संसार और परमात्मतत्त्वको जाननेवाले मननशील संयमी मनुष्यकी दृष्टिमें वह सब रातके समान है; बिलकुल अँधेरा है। जैसे, बच्चे खेलते हैं तो वे कंकड़-पत्थर, काँचके लाल-पीले टुकड़ोंको लेकर आपसमें लड़ते हैं। अगर वह मिल जाता है तो राजी होते हैं कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता तो दुःखी हो जाते हैं कि मेरी बड़ी भारी हानि हो गयी। परन्तु जिसके मनमें कंकड़-पत्थर आदिका महत्त्व नहीं है, ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड़-पत्थरोंके मिलनेसे क्या लाभ हुआ और न मिलनेसे क्या हानि हुई? इन बच्चोंको अगर कंकड़-पत्थर मिल भी जायँगे, तो ये कबतक उनके साथ रहेंगे? इसी तरह भोग और संग्रहमें लगे हुए मनुष्य भोगोंके लिये लड़ाई-झगड़ा, झूठ-कपट, बेईमानी आदि करते हैं और उनको प्राप्त करके राजी होते हैं, खुशी मनाते हैं कि हमने बहुत लाभ ले लिया। परन्तु संसारको और परमात्मतत्त्वको जाननेवाला मननशील संयमी मनुष्य साफ देखता है कि भोग मिल गये, आदर-सत्कार हो गया, सुखआराम हो गया, खा-पी लिया, खूब श्रृंगार कर लिया तो क्या हो गया? इसमें मनुष्योंको क्या मिला? इनमेंसे इनके साथ क्या चलेगा? ये कबतक इन भोगोंको साथमें रखेंगे? इन भोगोंसे होनेवाली वृत्ति कितने दिनतक ठहरेगी? इस तरह उसकी दृष्टिमें प्राणियोंका जागना रातके समान है। वह मननशील संयमी मनुष्य परमात्माको, अपने स्वरूपको और संसारके परिणामको तो जानता ही है, वह पदार्थोंको भी अच्छी तरहसे जानता है कि कौन-सा पदार्थ किसके हितमें लग सकता है, इससे दूसरोंको कितना लाभ होगा। वह पदार्थोंका अपनी-अपनी जगह ठीक तरहसे सदुपयोग करता है। उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है। जैसे नेत्रोंमे दोष होनेपर जब हम आकाशको देखते हैं, तब उसमें जाले-से दीखते हैं और आँखें मीच लेनेपर भी मोर-पंखकी तरह वे जाले दीखते हैं; परन्तु उनके दीखनेपर भी हमारी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि आकाशमें जाले नहीं है। ऐसे ही इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा संसार दीखनेपर भी मननशील संयमी मनुष्यकी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि वास्तवमें संसार नहीं है, केवल प्रतीतिमात्र है। सम्बन्ध-- मननशील संयमी मनुष्यको संसार रातकी तरह दीखता है। इसपर यह प्रश्न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थोंके सम्पर्कमें आता ही नहीं? अगर नहीं आता तो उसका जीवननिर्वाह कैसे होता है? और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है इन बातोंका विवेचन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.69।।उक्तं लक्षणं पिण्डीकृत्याह या निशेति। या सर्वभूतानां निशा परमेश्वरस्वरूपलक्षणा। यस्यां सुप्तानीव न किञ्चिज्जानन्ति तस्यामिन्द्रियसंयुक्तो ज्ञानी जागर्ति सम्यगापरोक्ष्येण पश्यति परमात्मानमित्यर्थः। यस्यां विषयलक्षणायां भूतानि जाग्रति तस्यां निशायामिव सुप्तः प्रायो न जानाति। मत्तादिवद्गमनादिप्रवृत्तिः। तदुक्तम्देहं (च तं न चरमः) तु तत्र चरमम् भाग.3।28।37देहोऽपि दैववशगः भाग.3।28।3811।13।37 इति श्लोकाभ्याम्। मननयुक्तो मुनिः। पश्यत इत्यस्य साधनमाह।

Sri Anandgiri

।।2.69।।आत्मविदः स्थितप्रज्ञस्य सर्वकर्मपरित्यागेऽधिकारस्तद्विपरीतस्याज्ञस्य कर्मणीत्येतस्मिन्नर्थे समनन्तरश्लोकमवतारयति  योऽयमिति।  अविद्यानिवृत्तौ सर्वकर्मनिवृत्तिश्चेत्तन्निवृत्तिरेव कथमित्याशङ्क्याह  अविद्यायाश्चेति।  स्फुटीकुर्वन् बाह्याभ्यन्तरकरणानां पराक्प्रत्यक्प्रवृत्तिवत्तथाविधे दर्शने च मिथो विरुध्येते पराग्दर्शनस्यानाद्यात्मावरणाविद्याकार्यत्वादात्मदर्शनस्य च तन्निवर्तकत्वात्ततश्चात्मदर्शनार्थमिन्द्रियाण्यर्थेभ्यो निगृह्णीयादित्याहेति योजना। सर्वप्राणिनां निशा पदार्थाविवेककरीत्यत्र हेतुमाह  तमःस्वभावत्वादिति।  सर्वप्राणिसाधारणीं प्रसिद्धां निशां दर्शयित्वा तामेव प्रकृतानुगुणत्वेन प्रश्नपूर्वकं विशदयति  किं तदित्यादिना।  स्थितप्रज्ञविषयस्य परमार्थतत्त्वस्य प्रकाशैकस्वभावस्य कथमज्ञानं प्रति निशात्वमित्याशङ्क्याह  यथेति।  तत्र हेतुमाह  अगोचरत्वादिति।  अतद्बुद्धीनां परमार्थतत्त्वातिरिक्ते द्वैतप्रपञ्चे प्रवृत्तबुद्धीनामप्रतिपन्नत्वात् परमार्थतत्त्वं निशेवाविदुषामित्यर्थः। तस्यामित्यादि व्याचष्टे  तस्यामिति।  निशावदुक्तायामवस्थायामिति यावत् योगीति ज्ञानी कथ्यते। द्वितीयार्धं विभजते  यस्यामिति।  प्रसुप्तानां जागरणं विरुद्धमित्याशङ्क्याह  प्रसुप्ता   इवेति।  परमार्थतत्त्वमनुभवतो निवृत्ताविद्यस्य संन्यासिनो द्वैतावस्था निशेत्यत्र हेतुमाह  अविद्यारूपत्वादिति।  परमार्थावस्था निशेत्यविदुषां विदुषां तु द्वैतावस्था तथेति स्थिते फलितमाह  अत इति।  अविद्यावस्थायामेव क्रियाकारकफलभेदप्रतिभानादित्यर्थः। विद्योदयेऽपि तत्प्रतिभानाविशेषात्पूर्वमिव कर्माणि विधीयेरन्नित्याशङ्क्याह  विद्यायामिति।  अविद्यानिवृत्तौ बाधितानुवृत्त्या विभागभानेऽपि नास्ति कर्मविधिर्विभागाभिनिवेशाभावादित्यर्थः। अविद्यावस्थायामेव कर्मणीत्युक्तं व्यक्तीकरोति  प्रागिति।  विद्योदयात्पूर्वं बाधकाभावादबाधिता विद्या क्रियादिभेदमापाद्य प्रमाणरूपया बुद्ध्या ग्राह्यतां प्राप्य कर्महेतुर्भवति क्रियादिभेदाभिमानस्य तद्धेतुत्वादित्यर्थः। न विद्यावस्थायामित्युक्तं प्रपञ्चयति  नाप्रमाणेति।  उत्पन्नायां च विद्यायामविद्याया निवृत्तत्वात् क्रियादिभेदभानमप्रमाणमिति बुद्धिरुत्पद्यते तथा गृह्यमाणा यथोक्तविभागभागिन्यप्यविद्या न कर्महेतुत्वं प्रतिपद्यते बाधितत्वेनाभासतया तद्धेतुत्वायोगादित्यर्थः। विद्याविद्याविभागेनोक्तमेव विशेषं विवृणोति  प्रमाणभूतेनेति।  यथोक्तेन वेदेन कामनाजीवनादिमतो मम कर्म विहितं तेन मया तत्कर्तव्यमिति मन्वानः सन् कर्मण्यज्ञोऽधिक्रियते तं प्रति साधनविशेषवादिनो वेदस्य प्रवर्तकत्वादित्यर्थः। सर्वमेवेदमविद्यामात्रं द्वैतं निषेवेतेति मन्वानस्तु न प्रवर्तते कर्मणीति व्यावर्त्यमाह  नाविद्ये���ि।  विदुषो न कर्मण्यधिकारश्चेत्तस्याधिकारस्तर्हि कुत्रेत्याशङ्क्याह  यस्येति।  तस्यात्मज्ञस्य फलभूतसंन्यासाधिकारे वाक्यशेषं प्रमाणयति  तथाचेति।  प्रवर्तकं प्रमाणं विधिस्तदभावे कर्मस्विव विदुषो ज्ञाननिष्ठायामपि प्रवृत्तेरनुपपत्तेराश्रयणीयो ज्ञानवतोऽपि विधिरिति शङ्कते  तत्रापीति।  किमात्मज्ञानं विधिमपेक्षते किं वात्मा। नाद्यः। तस्य स्वरूपविषयस्य यथा प्रमाणप्रमेयमुत्पत्तेर्विध्यनपेक्षत्वादित्याह   न स्वात्मेति।  न द्वितीय इत्याह  नहीति।  प्रवर्तकप्रमाणशब्दितस्य विधेः साध्यविषयत्वादात्मनश्चासाध्यत्वादिति हेतुमाह  आत्मत्वादेवेति।  आत्मतज्ज्ञानयोर्विध्यनपेक्षत्वेऽपि ज्ञानिनो मानमेव व्यवहारं प्रति नियमार्थं विध्यपेक्षा स्यादित्याशङ्क्याह  तदन्तत्वाच्चेति।  सर्वेषां प्रमाणानां प्रामाण्यस्यात्मज्ञानोदयावसानत्वात्तस्मिन्नुत्पन्ने व्यवहारस्य निरवकाशत्वान्न तत्प्रति नियमाय ज्ञानिनो विधिरित्यर्थः। उक्तमेव व्यक्तीकरोति  नहीति।  धर्माधिगमवदात्माधिगमेऽपि किमिति यथोक्तो व्यवहारो न भवतीत्याशङ्क्याह  प्रमातृत्वंहीति।  तन्निवृत्तौ कथमद्वैतज्ञानस्य प्रामाण्यमित्याशङ्क्याह  निवर्तयदेवेति।  निवर्तयदद्वैतज्ञानं स्वयं निवृत्तेर्न प्रमाणमित्यत्र दृष्टान्तमाह  स्वप्नेति।  आत्मज्ञानस्य विध्यनपेक्षत्वे हेत्वन्तरमाह  लोके चेति।  व्यवहारभूमौ हि प्रमाणस्य वस्तुनिश्चयफलपर्यन्तत्वे सति प्रवर्तकविधिसापेक्षत्वानुपलम्भादद्वैतज्ञानमपि प्रमाणवान्न विधिमपेक्षते रज्ज्वादिज्ञानवदित्यर्थः। आत्मज्ञानवतस्तन्निष्ठाविधिमन्तरेण ज्ञानमाहात्म्येनैव सिद्धत्वात्तस्य कर्मसंन्यासेऽधिकारो न कर्मणीत्युपसंहरति  तस्मादिति।

Sri Vallabhacharya

।।2.69।।तस्यैवान्येभ्यो वैलक्षण्येन लक्षणमाह या निशेति। याऽऽत्मविषया बुद्धिः संसारिणां स्वपतामिव निशेवाऽप्रकाशिका अज्ञानतिमिरोपहतमतीनां आत्मदर्शनव्यवहारायोग्या तस्यां संयमी जागर्ति। यस्यां च शब्दादिविषयिण्याम्। एवं विलक्षणलक्षणो मुनिर्दर्शितः।

Sridhara Swami

।।2.69।।ननु च कश्चिदपि प्रसुप्त इव दर्शनादिव्यापारशून्यः सर्वात्मना निगृहीतेन्द्रियो लोके न दृश्यते अतोऽसंभावितमिदं लक्षणमित्याशङ्क्याह  या निशेति।  सर्वेषां भूतानां या निशा निशेव निशा आत्मनिष्ठा आत्माज्ञानध्वान्तावृतमतीनां तस्यां दर्शनादिव्यवहाराभावात् तस्यामात्मनिष्ठायां संयमी निगृहीतेन्द्रियो जागर्ति प्रबुध्यते यस्यां तु विषयबुद्ध्या भूतानि जाग्रति प्रबुद्ध्यन्ते सा आत्मतत्त्वं पश्यतो मुनेर्निशा। तस्यां दर्शनादिव्यापारस्तस्य नास्तीत्यर्थः। एतदुक्तं भवति। यथा दिवान्धानामुलूकादीनां रात्रावेव दर्शनं न तु दिवसे एवं ब्रह्मज्ञस्योन्मीलिताक्षस्यापि ब्रह्मण्येव दृष्टिर्नतु विषयेषु। अतो नासंभावितमिदं लक्षणमिति।

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