Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 49 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय | बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||२-४९||
Transliteration
dūreṇa hyavaraṃ karma buddhiyogāddhanañjaya . buddhau śaraṇamanviccha kṛpaṇāḥ phalahetavaḥ ||2-49||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.49 Far lower than the Yoga of wisdon is action, O Arjuna. Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit.
।।2.49।। इस बुद्धियोग की तुलना में(सकाम) कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं? इसलिये हे धनंजय तुम बद्धि की शरण लो फल की इच्छा करनेवाले कृपण (दीन) हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, prioritize the quality of your work, the integrity of your actions, and continuous learning over solely chasing promotions, bonuses, or external recognition. Seek to understand the 'why' behind your tasks and contribute with a sense of purpose, rather than being solely driven by outcomes. This approach fosters excellence and intrinsic motivation.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress and cultivate mental well-being, shift your focus from anxiously anticipating results to diligently performing your duties in the present moment. By detaching from the 'fruits' of your labor, you liberate yourself from the fear of failure and the burden of unmet expectations. Cultivate inner wisdom to find peace and resilience, regardless of external circumstances.
❤️ In Relationships
Approach your relationships with a spirit of giving and understanding, without expecting specific returns or demanding validation. Act out of genuine care and love, focusing on your contribution to the relationship's health and harmony. Seeking wisdom helps you navigate conflicts with empathy and make choices that are beneficial for all, rather than being driven by selfish desires or expectations.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Elevate your actions by rooting them in wisdom and detaching from their fruits; pure intention leads to peace and true success.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.49 दूरेण by far? हि indeed? अवरम् inferior? कर्म action or work? बुद्धियोगात् than the Yoga of wisdom? धनञ्जय O Dhananjaya? बुद्धौ in wisdom? शरणम् refuge? अन्विच्छ seek? कृपणाः wretched? फलहेतवः seekers after fruits.Commentary Action done with evenness of mind is Yoga of wisdom. The yogi who is established in the Yoga of widdom is not affected by success or failure. He does not seek fruits of his actions. He has poised reason. His reason is rooted in the Self. Action performed by one who expects fruits for his actions? is far inferior to the Yoga of wisdom wherein the seeker does not seek fruits because the former leads to bondage and is the cause of birth and death. (Cf.VIII.18).
Shri Purohit Swami
2.49 Physical action is far inferior to an intellect concentrated on the Divine. Have recourse then to Pure Intelligence. It is only the petty-minded who work for reward.
Dr. S. Sankaranarayan
2.49. O Dhananjaya ! The inferior action stays away at a distance due to Yoga of (one's contact with) determining faculty; in the determining faculty you must seek refuge; wretched are those who constitute the causes for the fruits of action.
Swami Adidevananda
2.49 Action with attachment is far inferior, O Arjuna, to action done with evenness of mind. Seek refuge in evenness of mind. Miserable are they who act with a motive for results.
Swami Gambirananda
2.49 O Dhananjaya, indeed, action is ite inferior to the yoga of wisdom. Take resort to wisdom. Those who thirst for rewards are pitiable.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.49।। कर्मफल की चिन्ताओं से मुक्त शान्त मन से किया हुआ कर्म निश्चित रूप से चिन्तित क्षुब्ध मन से किए गये कर्म से श्रेष्ठतर होता है। इस श्लोक में प्रयुक्त बुद्धियोग शब्द से कुछ व्याख्याकारों को एक और नया योग गीता में उपदेश किया गया ज्ञात होता है। परन्तु मेरे अपने विचार के अनुसार ऐसा अर्थ खींचतान कर किया हुआ प्रतीत होता है। उपनिषदों में अन्तकरण की निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि तथा संकल्पात्मक वृत्ति को मन की संज्ञा दी गयी है। संदेह और विक्षेप की स्थिति में वृत्तियों को मन कहते हैं एकाग्रता निश्चय एवं शान्ति की स्थिति में अन्तकरण की वृत्ति को बुद्धि कहा जाता है। अत बुद्धियोग का अर्थ हुआ बुद्धि के निश्चित किये अर्थ में (कार्य में) दृढ़ता से स्थिर होना। निश्चय ही दृढ़ता मन का बुद्धि के अनुशासन में रहना तथा अन्तर्बाह्य परिस्थितियों का स्वामी होना बुद्धियोग के लक्षण हैं। जीवन के परम लक्ष्य को आँखों से ओझल किये बिना प्राप्त कर्तव्यों का पालन ही बुद्धियोग है।गीता की सामान्य प्रस्तावना जिसमें व्यक्तित्व का विघटन एवं वासनाक्षय के द्वारा उसके संगठन का विवेचन किया गया है के प्रकाश में बुद्धियोग का अर्थ यह हो सकता है साधक का जीवन में बुद्धि के अनुसार रहने का सतत् प्रयत्न मन को बुद्धि के अनुशासन में लाकर उसके निर्देशानुसार काम करने के प्रयत्न को बुद्धियोग कहते हैं। इस प्रकार पूर्वार्जित वासनाओं के क्षय द्वारा अहंकार का नाश होता है और उसके नाश का अर्थ है बुद्धियोग में स्थिति। अत यहाँ अर्जुन को बुद्धि की शरण में जाने का उपदेश दिया गया है।बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण करने में एक प्रबल कारण है। यदि मन की प्रवृत्तियों के अनुसार ही कर्म करते रहे तो चित्त में असंख्य विक्षेप तो उत्पन्न होते ही हैं परन्तु साथ ही नयीनयी वासनाओं का संचय भी होता है जिनका सघन आवरण आत्मस्वरूप पर पड़ता है। भगवान् ऐसे लोगों को कृपण कहते हैं। वास्तव में वे ही दीन हैं । इसके विपरीत बुद्धियोग में स्थित साधक निस्वार्थ भाव से कर्म करता हुआ वासनाओं के आवरण को नष्ट कर निर्मल मन से आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है।अब समभाव में रहकर कर्तव्य पालन करने वाले को क्या फल मिलता है वह जानो
Swami Ramsukhdas
2.49।। व्याख्या-- 'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्'-- बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु योग (समता) नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं होती। अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं।सम्पूर्ण कर्मोंमें समता ही श्रेष्ठ है। समताके बिना तो मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं तथा उन कर्मोंके परिणाममें जन्मते-मरते और दुःख भोगते रहते हैं। कारण कि समताके बिना कर्मोंमें उद्धार करनेकी ताकत नहीं है। कर्मोंमें समता ही कुशलता है। अगर कर्मोंमें समता नहीं होगी तो शरीरमें अहंता-ममता हो जायगी, और शरीरमें अहंता-ममता होना ही पशुबुद्धि है। भागवतमें शुकदेवजीने राजा परीक्षित्से कहा है--'त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि। (12। 5। 2) अर्थात् हे राजन् अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। 'दूरेण' कहनेका तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अन्धकार कभी समकक्ष नहीं हो सकते, ऐसे ही बुद्धियोग और सकामकर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते। इन दोनोंमें दिन-रातकी तरह महान् अन्तर है। कारण कि बुद्धियोग तो परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है और सकामकर्म जन्म-मरण देनेवाला है। 'बुद्धौ शरणमन्विच्छ'-- तू बुद्धि (समता) की शरण ले। समतामें निरन्तर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है। समतामें स्थित रहनेसे ही तुझे स्वरूपमें अपनी स्थितिका अनुभव होगा। 'कृपणाः फलहेतवः'-- कर्मोंके फलका हेतु बनना अत्यन्त निकृष्ट है। कर्म, कर्मफल, कर्मसामग्री और शरीरादि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना ही कर्मफलका हेतु बनना है। अतः भगवान्ने सैंतालीसवें श्लोकमें मा कर्मफलहेतुर्भूः कहकर कर्मोंके फलका हेतु बननेमें निषेध किया है। कर्�� ओर कर्मफलका विभाग अलग है तथा इन दोनोंसे रहित जो नित्य तत्त्व है, उसका विभाग अलग है। वह नित्य तत्त्व अनित्य कर्मफलके आश्रित हो जाय--इसके समान निकृष्टता और क्या होगी? सम्बन्ध-- पूर्व श्लोकमें जिस बुद्धिके आश्रयकी बात बतायी, अब आगेके श्लोकमें उसी बुद्धिके आश्रयका फल बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.49।। इस बुद्धियोग की तुलना में(सकाम) कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं? इसलिये हे धनंजय तुम बद्धि की शरण लो फल की इच्छा करनेवाले कृपण (दीन) हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.49।।इतश्च योगाय युज्यस्वेत्यत आह दूरेणेति। बुद्धियोगाज्ज्ञानलक्षणादुपायात्। दूरेणातीव। अतो बुद्धौ शरणं ज्ञाने स्थितिम्। फलं कर्म कृतौ हेतुर्येषां ते फलहेतवः।
Sri Anandgiri
।।2.49।।किमिति योगस्थेन तत्त्वज्ञानमुद्दिश्य कर्म कर्तव्यं फलाभिलाषेऽपि तदनुष्ठानस्य सुलभत्वादित्याशङ्क्य यथोक्तयोगयुक्तं कर्म स्तुवन्ननन्तरश्लोकमुत्थापयति यत्पुनरिति। अवरं कर्म बुद्धिसंबन्धविरुद्धमिति शेषः। बुद्धियुक्तस्य बुद्धियोगाधीनं प्रकर्षं सूचयति बुद्धीति। बुद्धिसंबन्धासंबन्धाभ्यां कर्मणि प्रकर्षनिकर्षयोर्भावे करणीयं नियच्छति बुद्धाविति। यत्तु फलेच्छयापि कर्मानुष्ठानं सुकरमिति तत्राह कृपणेति। निकृष्टं कर्मैव विशिनष्टि फलार्थिनेति। कस्मात्प्रतियोगिनः सकाशादिदं निकृष्टमित्याशङ्क्य प्रतीकमुपादाय व्याचष्टे बुद्धीत्यादिना। फलाभिलाषेण क्रियमाणस्य कर्मणो निकृष्टत्वे हेतुमाह जन्मेति। समत्वबुद्धियुक्तात्कर्मणस्तद्धीनस्य कर्मणो जन्मादिहेतुत्वेन निकृष्टत्वे फलितमाह यत इति। योगविषया बुद्धिः समत्वबुद्धिः। बुद्धिशब्दस्यार्थान्तरमाह तत्परिपाकेति। तच्छब्देन समत्वबुद्धिसमन्वितं कर्म गृह्यते। तस्य परिपाकस्तत्फलभूता बुद्धिशुद्धिः। शरणशब्दस्य पर्यायं गृहीत्वा विवक्षितमर्थमाह अभयेति। सप्तमीमविवक्षित्वा द्वितीयं पक्षं गृहीत्वा वाक्यार्थमाह परमार्थेति। तथाविधज्ञानशरणत्वे हेतुमाह यत इति। फलहेतुत्वं विवृणोति फलेति। तेन परमार्थज्ञानशरणतैव युक्तेति शेषः। परमार्थज्ञानबहिर्मुखानां कृपणत्वे श्रुतिं प्रमाणयति यो वा इति। अस्थूलादिविशेषणमेतदित्युच्यते।
Sri Vallabhacharya
।।2.49।।अयुक्तं कर्म व्यवसायबुद्धियोगादवरमपकृष्टं हि यतः अतो बुद्धौ बुद्धिनिमित्तं बुद्धिविषये वा शरणं कञ्चिदन्वेषय बुद्धावाश्रयं वाऽन्विच्छ गृहाणेत्यर्थः। कर्मणोऽवरत्वं दर्शयति तत्र फलहेतवः कृपणा इति फलमेव हेतुः प्रकृतिकारण येषां ते जनाः कृपणाः प्राप्तेऽपि फले पुनः सतृष्णाः।
Sridhara Swami
।।2.49।।काम्यं तु कर्मातिनिकृष्टमित्याह दूरेणेति। बुद्ध्या व्यवसायात्मिकया कृतः कर्मयोगो बुद्धियोगः। बुद्धिसाधनभूतो वा तस्मात्सकाशादन्यत्काम्यं कर्म दूरेणावरमत्यन्तमपकृष्टम्। हि यस्मादेवं तस्माद्बुद्धौ ज्ञाने शरणमाश्रयं कर्मयोगमन्विच्छानुतिष्ठ। यद्वा बुद्धौ शरणं त्रातारमीश्वरमाश्रयेत्यर्थः। फलहेतवस्तु सकामा नराः कृपणा दीनाः।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः।