Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 48 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Karma Yoga (Action in Yoga)

Sanskrit Shloka (Original)

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||२-४८||

Transliteration

yogasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya . siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā samatvaṃ yoga ucyate ||2-48||

Word-by-Word Meaning

योगस्थःsteadfast in Yoga
कुरुperform
कर्माणिactions
सङ्गम्attachment
त्यक्त्वाhaving abandoned
धनञ्जयO Dhananjaya
सिद्ध्यसिद्ध्योःin success and failure
समःthe smae
भूत्वाhaving become
समत्वम्evenness of mind
योगःYoga

📖 Translation

English

2.48 Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure. Evenness of mind is called Yoga.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus intensely on the task at hand, applying your full effort without being overly consumed by the outcome (promotion, bonus, project success/failure). Maintain a steady professional demeanor regardless of results, learning from both wins and losses, and contributing with a sense of duty rather than personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate mental resilience by detaching from the emotional highs of success and the lows of failure. By focusing on the effort and the process, and accepting outcomes with equanimity, you significantly reduce anxiety, mitigate the impact of setbacks, and cultivate inner peace.

❤️ In Relationships

Engage in relationships with genuine care and effort, but avoid clinging to specific expectations or outcomes from others. Accept the natural ebbs and flows, joys and challenges with an even temper, fostering healthier connections free from possessiveness, undue emotional swings, or resentment over unfulfilled desires.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Act with unwavering dedication, free from attachment to outcomes, and embrace all results with equanimity; for this mental balance is the essence of Yoga.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.48 योगस्थः steadfast in Yoga? कुरु perform? कर्माणि actions? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? धनञ्जय O Dhananjaya? सिद्ध्यसिद्ध्योः in success and failure? समः the smae? भूत्वा having become? समत्वम् evenness of mind? योगः Yoga? उच्यते is called.Commentary Dwelling in union with the Divine perform actions merely for Gods sake with a balanced mind in success and failure. Eilibrium is Yoga. The attainment of the knowledge of the Self through purity of heart obtained by doing actions without expectation of fruits is success (Siddhi). Failure is the nonattainment of knowledge by doing actions with expectation of fruit. (Cf.III.9IV.14IV.20).

Shri Purohit Swami

2.48 Perform all thy actions with mind concentrated on the Divine, renouncing attachment and looking upon success and failure with an equal eye. Spirituality implies equanimity.

Dr. S. Sankaranarayan

2.48. O Dhananjaya ! Established in the Yoga, perform actions, abandoning attachment, remaining even-minded in success and failure; for, the even-mindedness is said to be the Yoga.

Swami Adidevananda

2.48 Abandoning attachment and established in Yoga, perfom works, viewing success and failure with an even mind. Evenness of mind is said to be Yoga.

Swami Gambirananda

2.48 By being established in Yoga, O Dhananjaya (Arjuna), undertake actions, casting off attachment and remaining eipoised in success and failure. Eanimity is called Yoga.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.48।। यहाँ कर्मयोग का ही विशद् विवेचन किया गया है। इस श्लोकार्थ पर विचार करने से ज्ञात होगा कि अहंकार की पूर्ण निवृत्ति के बिना इस मार्ग में सफलता नहीं मिल सकती और इसकी निवृत्ति का उपाय है मन का समत्व भाव। इस श्लोक में प्रथम बार योग शब्द का प्रयोग किया गया है और यहीं पर उसकी परिभाषा भी दी है कि समत्व योग कहलाता है। इस योग में दृढ़ स्थित होने पर ही निष्काम कर्म किये जा सकते हैं।कर्मयोगी के लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं कि सम भाव में रहकर वह कर्म करे परन्तु इस नित्य परिवर्तनशील जगत् में रहते हुये इस समभाव को दृढ़ करने का सतत प्रयत्न करे। इसके लिये उपाय है कर्मों के तात्कालिक फलों के प्रति संग (आसक्ति) का त्याग।कर्मों को कुशलतापूर्वक करने के लिए जिस संग को त्यागने के लिए यहाँ कहा गया है उसपर हम विचार करेंगे। इसके पूर्व के श्लोकों में श्रीकृष्ण ने जिन आसक्तियों का त्याग करने को कहा था वे सब संग शब्द से इंगित की गयी हैं अर्थात् विपरीत धारणायें झूठी आशायें दिवा स्वप्न कर्म फल की चिन्तायें और भविष्य में संभाव्य अनर्थों का भय इन सबका त्याग करना चाहिये। त्याज्य गुणों की इस सूची को देखकर किसी भी साधनरत सच्चे साधक को यह सब करना असम्भव ही प्रतीत होगा। परन्तु उपनिषदों के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर और अधिक विचार करने पर हम सरलता से इस गुत्थी को सुलझा सकेंगे।उपर्युक्त सभी कष्टप्रद धारणायें एवं गुत्थियां भ्रांति जनित अहंकार की ही हैं। यह अहंकार क्या है भूतकाल की स्मृतियों और भविष्य की आशाओं की गठरी। अत अहंकारमय जीवन का अर्थ है मृत क्षणों की श्मशानभूमि अथवा काल के गर्भ में रहना जहाँ अनुत्पन्न भविष्य स्थित है। इनमें व्यस्त रहते हुये वर्तमान समय को हम खो देते हैं जो हमें कर्म करने और लक्ष्य पाने के लिये उपलब्ध होता है। वर्तमान में प्राप्त सुअवसररूपी धन का यह मूर्खतापूर्ण अपव्यय है जिसका संकेत व्यासजी इन शब्दों में करते है संग त्याग कर समत्व योग में स्थित हुये तुम कर्म करो।वर्तमान कीअग्नि में भूतभविष्य चिन्ता भय आशा इन सबको जलाकर कर्म करना स्फूर्ति और प्रेरणा का लक्षण है। इस प्रकार अहंकार के विस्मरण और कर्म करने में ही पूर्ण आनन्द है। ऐसे कर्म का फल सदैव महान् होता है।कलाकृति के निर्माण के क्षणों में अपने आप को कृति के आनन्द में निमग्न होकर कार्यरत कलाकार इस तथ्य का प्रमाण है। वैसे इसे समझने के लिए कोई महान कलाकार होने की आवश्यकता नहीं है। जीवन में किसी कार्य को पूरी लगन और उत्साह से जब हम कर रहे होते हैं उस समय यदि वहाँ कोई व्यक्ति आकर खड़ा हो जाये तब भी हमें उसका भान नहीं रहता। आनन्द की उस अनुभूति से नीचे अहंकार के स्तर पर उतर कर आगन्तुक को उत्तर देने में भी हमें कुछ समय लग जाता है।अहंकार को भूलकर जो कार्य किये जाते हैं उनमें कर्ता को यश अथवा अपयश की कोई चिन्ता नहीं रहती क्योंकि फल की चिन्ता का अर्थ है भविष्य की चिन्ता और भविष्य में रहने का अर्थ है वर्तमान को खोना। स्फूर्त जीवन का आनन्द वर्तमान के प्रत्येक क्षण में निहित होता है। कहा जाता है कि प्रत्येक क्षण का आनन्द स्वयं में परिपूर्ण है। अत भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन की सभी परिस्थितियों में समान रहते हुये कर्म करने का उपदेश देते हैं।योगस्थ होकर किये कर्मों की तुलना में अन्य कर्मों के विषय में भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

2.48।। व्याख्या--  'सङ्गं त्यक्त्वा'-- किसी भी कर्ममें किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायेगा, तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा?  'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा'-- आसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगा।कर्मका पूरा होना अथवा न होना, सांसारिक दृष्टिसे उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्मको करनेसे आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दा, होना अन्तःकरणकी शुद्धि होना अथवा न होना आदि-आदि जो सिद्धि और असिद्धि है, उसमें सम रहना चाहिये  (टिप्पणी प0 86) ।कर्मयोगीकी इतनी समता अर्थात् निष्कामभाव होना चाहिये कि कर्मोंकी पूर्ति हो चाहे न हो, फलकी प्राप्ति हो चाहे न हो, अपनी मुक्ति हो चाहे न हो मुझे तो केवल कर्तव्य-कर्म करना है। साधकको असङ्गताका अनुभव न हुआ हो, उसमें समता न आयी हो, तो भी उसका उद्देश्य असङ्ग होनेका, सम होनेका ही हो। जो बात उद्देश्यमें आ जाती है, वही अन्तमें सिद्ध हो जाती है। अतः साधनरूप समतासे अर्थात् अन्तःकरणकी समतासे साध्यरूप समता स्वतः आ जाती है--'तदा योगमवाप्स्यसि'  (2। 53)। 'योगस्थः कुरु कर्माणि'-- सिद्धिअसिद्धिमें सम होनेके बाद उस समतामें निरन्तर अटल स्थित रहना ही 'योगस्थ' होना है। जैसे किसी कार्यके आरम्भमें गणेशजीका पूजन करते हैं, तो उस पूजनको कार्य करते समय हरदम साथमें नहीं रखते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि आरम्भमें एक बार सिद्धि-असिद्धिमें सम हो गये तो अब उस समताको हरदम साथमें नहीं रखना है, राग-द्वेष करते रहना है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि समतामें हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य-कर्मको करना चाहिये।  'समत्वं योग उच्यते'-- समता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है। वह समता अन्तःकरणमें निरन्तर बनी रहनी चाहिये। आगे पाँचवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् कहेंगे कि 'जिनका मन समतामें स्थित हो गया है, उन लोगोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिति ब्रह्ममें ही है। 'समताका नाम योग है'-- यह योगकी परिभाषा है। इसीको आगे छठे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें कहेंगे कि 'दुःखोंके संयोगका जिसमें वियोग है, उसका नाम योग है।' ये दोनों परिमाषाएँ वास्तवमें एक ही हैं। जैसे दादकी बीमारीमें खुजलीका सुख होता है और जलनका दुःख होता है, पर ये दोनोंही बीमारी होनेसे दुःखरूप है, ऐसे ही संसारके सम्बन्धसे होनेवाला सुख और दुःख--दोनों ही वास्तवमें दुःखरूप हैं। ऐसे संसारसे सम्बन्धविच्छेदका नाम ही 'दुःख-संयोगवियोग है। अतः चाहे दुःखोंके संयोगका वियोग अर्थात सुख-दुःखसे रहित होना कहें; चाहे सिद्धि-असिद्धिमें अर्थात् सुखदुःखमें सम होना कहें, एक ही बात है। इस श्लोकका तात्पर्य यह हुआ कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे होनेवाली मात्र क्रियाओंको केवल संसारकी सेवारूपसे करना है, अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे ही समता आयेगी।  'बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बात'  बुद्धि दो तरहकी होती है--अव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका। जिसमें सांसारिक सुख, भोग, आराम, मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेका ध्येय होता है, वह बुद्धि 'अव्यवसायात्मिका' होती है (गीता 2। 44)। जिसमें समताकी प्राप्ति करनेका, अपना कल्याण करनेका ही उद्देश्य रहता है, वह बुद्धि 'व्यवसायात्मिका' होती है (गीता 2। 41)। अव्यसायात्मिका बुद्धि अनन्त होती है और व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है। जिसकी बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं अव्यवसायी (अव्यवसित) होता है--'बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्' (2। 41) तथा वह संसारी होता है। जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं व्यवसायी (व्यवसित) होता है--'व्यवसितो हि सः'  (9। 30) तथा वह साधक होता है। समता भी दो तरहकी होती है--साधनरूप समता और साध्यरूप समता। साधनरूप समता अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूप समता परमात्मस्वरूपकी होती है। सिद्धिअसिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें राग-द्वेषका न होना साधनरूप समता है, जिसका वर्णन गीतामें अधिक हुआ है। इस साधनरूप समतासे जिस स्वतःसिद्ध समताकी प्राप्ति होती है, वह साध्यरूप समता है, जिसका वर्णन इसी अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें  'तदा योगमवाप्स्यसि' पदोंसे हुआ है। अब इन चारों भेदोंको यों समझें कि एक संसारी होता है और एक साधक होता है, एक साधन होता है और एक साध्य होता है। भोग भोगना और संग्रह करना--यही जिसका उद्देश्य होता है, वह संसारी होता है। उसकी एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत कामनारूपी शाखाओंवाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं। मेरेको तो समताकी प्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय--ऐसा निश्चय करनेवालेकी व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा साधक जब व्यवहारक्षेत्रमें आता है, तब उसके सामने सिद्धि-असिद्धि, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आदि आनेपर वह उनमें सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता। इस साधनरूप समतासे वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है-- 'इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः' (गीता 5। 19 का पूर्वार्ध)। साधनरूप समतासे स्वतःसिद्ध समरूप परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है--'निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः' (गीता 5। 19 का उत्तरार्ध)।सम्बन्ध-- उन्तालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक जिस समबुद्धि वर्णन हुआ है, सकामकर्मकी अपेक्षा उस समबुद्धिकी श्रेष्ठता आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.48।।पूर्वश्लोकं स्पष्टयति योगस्थ इति। योगस्थः उपायस्थः। सङ्गं फलस्नेहं त्यक्त्वा। तत एव सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा। स एव च मयोक्तो योगः।

Sri Anandgiri

।।2.48।।आसक्तिरकरणे न युक्ता चेत्तर्हि क्लेशात्मकं कर्म किमुद्दिश्य कर्तव्यमित्याशङ्कामनूद्य श्लोकान्तरमवतारयति  यदीत्यादिना।  वक्ष्यमाणयोगमुद्दिश्य तन्निष्ठो भूत्वा कर्माणि क्लेशात्मकान्यपि विहितत्वादनुष्ठेयानीत्याह  योगस्थः सन्निति।  कर्मानुष्ठानस्योद्देश्यं दर्शयति  केवलमिति।  फलान्तरापेक्षामन्तरेणेश्वरार्थं तत्प्रसादनार्थमनुष्ठानमित्यर्थः। तर्हीश्वरसंतोषोऽभिलाषगोचरीभूतो भविष्यति नेत्याह  तत्रापीति।  ईश्वरप्रसादनार्थे कर्मानुष्ठाने स्थितेऽपीत्यर्थः। सङ्गं त्यक्त्वा कुर्विति पूर्वेण संबन्धः। आकाङ्क्षितं पूरयित्वा सिद्धिशब्दार्थमाह  फलेति।  तद्विपर्ययजा सत्त्वाशुद्धिजन्या। ज्ञानप्राप्तिलक्षणेति यावत्। कर्माननुतिष्ठतो योगमुद्दिश्य शेषतया प्रकृतमाकाङ्क्षापूर्वकं प्रकटयति  कोऽसावित्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।2.48।।तर्हि कथं स्वकर्म करोमि इति चेत्तत्राह योगस्थ इति। फलस्वरूपो योगो मद्योगस्थ इत्यर्थः। फलेषु सङ्गं त्यक्त्वा। योगं व्याचष्टे समत्वं योग इति। तच्च मनोनिरोधे सम्भवति तथैव कुर्विति पूर्वोक्तं समर्थितम्।

Sridhara Swami

।।2.48।।किं तर्हि  योगस्थ इति।  योगः परमेश्वरैकपरता तत्र स्थितः कर्माणि कुरु। तथा सङ्गं कर्तृत्वाभिनिवेशं त्यक्त्वा केवलमीश्वराश्रयेणैव कुरु। तत्फलस्य ज्ञानस्यापि सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा केवलमीश्वरार्पणेनैव कुरु। यत एवंभूतं समत्वमेव योग उच्यते सद्भिः। चित्तसमाधानरूपत्वात्।

Explore More