Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 40 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||२-४०||
Transliteration
nehābhikramanāśo.asti pratyavāyo na vidyate . svalpamapyasya dharmasya trāyate mahato bhayāt ||2-40||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.40 In this there is no loss of effort, nor is there any harm (production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear.
।।2.40।। इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your work, embrace every sincere effort. Don't fear starting new projects or learning new skills, even if you can't see the finish line or guarantee perfection. Every step, every contribution, however small or incomplete, builds experience, competence, and positive momentum. Your efforts are never truly wasted; they contribute to your growth and protect you from the 'great fear' of professional stagnation or regret.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing stress or mental health challenges, remember that even a small, consistent practice of mindfulness, meditation, or self-care is immensely beneficial. You don't need to achieve perfect tranquility or commit hours; a few conscious breaths, a moment of gratitude, or a short walk can act as a powerful buffer against overwhelming anxiety and mental distress. Every effort to cultivate inner peace counts and offers protection.
❤️ In Relationships
In relationships, understand that even small, genuine gestures of kindness, communication, or understanding are invaluable. Don't hesitate to make a small apology, offer a brief compliment, or express a genuine feeling, fearing it might not be enough. These consistent, sincere efforts, though seemingly minor, prevent larger misunderstandings and build trust, protecting the relationship from significant 'fears' like alienation or resentment.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“No sincere effort is ever wasted; even a small step on the right path offers profound protection from life's greatest fears.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.40 न not? इह in this? अभिक्रमनाशः loss of effort? अस्ति is? प्रत्यवायः production of contrary results? न not? विद्यते is? स्वल्पम् very little? अपि even? अस्य of this? धर्मस्य duty? त्रायते protects? महतः (from) great? भयात् fear.Commentary If a religious ceremony is left uncompleted? it is a wastage as the performer cannot realise the fruits. But it is not so in the case of Karma Yoga because every action causes immediate purification of the heart.In agriculture there is uncertainty. The farmer may till the land? plough and sow the seed but he may not get a crop if there is no rain. This is not so in Karma Yoga. There is no uncertainty at all. Further? there is no chance of any harm coming out of it. In the case of medical treatment great harm will result from the doctors injudicious treatment if he uses a wrong medicine. But it is not so in the case of Karma Yoga. Anything done? however little it may be? in this path of Yoga? the Yoga of action? saves one from great fear of being caught in the wheel of birth and death. Lord Krishna here extols Karma Yoga in order to create interest in Arjuna in this Yoga.
Shri Purohit Swami
2.40 On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
Dr. S. Sankaranarayan
2.40. Here there is no loss due to transgression, and there exists no contrary downward course (sin); even a little of this righteous thing saves [one] from great danger.
Swami Adidevananda
2.40 Here, there is no loss of effort, nor any accrual of evil. Even a little of this Dharma (called Karma Yoga) protects a man from the great fear.
Swami Gambirananda
2.40 Here there is no waste of an attempt; nor is there (any) harm. Even a little of this righteousness saves (one) from great fear.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.40।। क्रमनाश जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में फसल पाने के लिये भूमि जोतना सींचना बीज बोना निराई सुरक्षा और कटाई आदि क्रम का पालन करना पड़ता है अन्यथा हानि उठानी पड़ती है उसी प्रकार वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में भी क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह प्रत्यवाय दोष कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव)को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का विज्ञापन करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।अब इस ज्ञान का स्वरूप बताते हैं
Swami Ramsukhdas
2.40।। व्याख्या-- [इस समबुद्धिकी महिमा भगवान्ने पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें और इस (चालीसवें) श्लोकमें चार प्रकारसे बतायी है-- (1) इसके द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, (2) इसके उपक्रमका नाश नहीं होता, (3) इसका उलटा फल नहीं होता और (4) इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा करनेवाला होता है।] 'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति'-- इस समबुद्धि (समता) का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता। मनमें समता प्राप्त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है। इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है। यहाँ 'इह' कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्त करनेका अधिकारी है। मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ है। अतः उन योनियोंमें विषमता (राग-द्वेष) का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा। 'प्रत्यवायो न विद्यते'--सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे, कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अङ्गोंके साथ नहीं जन्मता! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है, उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती। जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। विपरीत फल क्या है? संसारसे विषमताका होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है। 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'--इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय तो यह जन्ममरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धनसम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होत। साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अ़टल हो जाती है। इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता। जैसे, योगभ्रष्टकी साधन-अवस्था में जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन-सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोगमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश ���हीं होता (गीता 6। 41 44)। यह समता, साधन-सामग्री कभी किञ्चिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है। 'धर्म' नाम दो बातोंका है--(1) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (2) वर्ण-आश्रमके अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है। समतासम्बन्धी विशेष बात लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है--समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये उसको गीता सिद्ध नहीं कहती। समता दो तरहकी होती है--अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसार-मात्रपर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीता 5। 19)। अन्तःकरणकी समता है-- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीता 2। 48)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रूपये आ जायँ या लाखों रूपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता 5। 20)। इस समताका कभी नाश नहीं होता। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं। मनुष्य, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती है, पर कल्याण नहीं होता। परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। सम्बन्ध-- उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस समबुद्धिको योगमें सुननेके लिये कहा था उसी समबुद्धिको प्राप्त करनेका साधन आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.40।। इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.40।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।2.40।।ननु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वादनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवत्त्वाच्च योगबुद्धिरपि न श्रद्धेयेति तत्राह किञ्चेति। अन्यच्च किंचिदुच्यते। कर्मानुष्ठानस्यावश्यकत्वे कारणमिति यावत्। कर्मणा सह समाधेरनुष्ठातुमशक्यत्वादनेकान्तरायसंभवात्तत्फलस्य च साक्षात्कारस्य दीर्घकालाभ्याससाध्यस्यैकस्मिञ्जन्मन्यसंभवादर्थाद्योगी भ्रश्येतानर्थे च निपतेदित्याशङ्क्याह नेहेति। प्रतीकत्वेनोपात्तस्य नकारस्य पुनरन्वयानुगुणत्वेन नास्तीत्यनुवादः। यत्तु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वमुक्तं तद्दूषयति यथेति। कृषिवाणिज्यादेरारम्भस्यानियतं फलं संभावनामात्रोपनीतत्वान्न तथा कर्मणि वैदिके प्रारम्भस्य फलमनियतं युज्यते शास्त्रविरोधादित्यर्थः। यत्तूक्तमनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवदनुष्ठानमिति तत्राह किञ्चेति। इतोऽपि कर्मानुष्ठानमावश्यकमिति प्रतिज्ञाय हेत्वन्तरमेव स्फुटयति नापीति। चिकित्सायां हि क्रियमाणायां व्याध्यतिरेको वा मरणं वा प्रत्यवायोऽपि संभाव्यते कर्मपरिपाकस्य दुर्विवेकत्वान्न तथा कर्मानुष्ठाने दोषोऽस्ति विहितत्वादित्यर्थः। संप्रति कर्मानुष्ठानस्य फलं पृच्छति किंत्विति। उत्तरार्धं व्याकुर्वन्विवक्षितं फलं कथयति स्वल्पमपीति। सम्यग्ज्ञानोत्पादनद्वारेण रक्षणं विवक्षितंसर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। यतिस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।। इति स्मृतेरित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।2.40।।सर्वतो योगे सुगमतामाह नेहाभिक्रमनाश इति। इह योगबुद्धौ धर्मस्य योऽभिक्रमः प्रारम्भस्तस्य नाशो नास्ति।नह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो स्वधर्मस्योद्धवाण्वपि। मया व्यवसितः 11।29।20 इति भागवतवाक्यात्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्याभिक्रमो महतो भयात्त्रायते। साङ्ख्ये तु सिद्धे धर्मकर्मणां त्यागः अत्र तु न तथा। उक्तं च यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता इति।
Sridhara Swami
।।2.40।।ननु कृष्यादिवत्कर्मणां कदाचिद्विघ्नबाहुल्येन फले व्याभिचारान्मन्त्राद्यङ्गवैगुण्येन च प्रत्यवायसंभवात्कुतः कर्मयोगेन कर्मबन्धप्रहरणं तत्राह नेहेति। इह निष्कामकर्मयोगेऽभिक्रमस्य प्रारम्भस्य नाशो निष्फलत्वं नास्ति प्रत्यवायश्च न विद्यते ईश्वरोद्देशेनैव विघ्नवैगुण्याद्यसंभवात्। किंच अस्य धर्मस्य स्वल्पमप्युपक्रममात्रमपि कृतं महतो भयात्संसारान्त्रायते रक्षति नतु काम्यकर्मवत्किंचिदङ्गवैगुण्यादिना नैष्फल्यमस्येत्यर्थः।