Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 39 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु | बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||२-३९||
Transliteration
eṣā te.abhihitā sāṅkhye buddhiryoge tvimāṃ śṛṇu . buddhyā yukto yayā pārtha karmabandhaṃ prahāsyasi ||2-39||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.39 This, which has been taught to thee, is wisdon concerning Sankhya. Now listen to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action.
।।2.39।। हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, applying Sankhya (understanding the nature of your work and your role) allows for clarity, while Yoga (acting skillfully without attachment to specific outcomes) empowers you to perform your duties diligently without succumbing to the pressures of success or failure. Focus on the quality of your effort and the process, rather than being solely driven by promotions, bonuses, or external validation, thereby reducing professional burnout and enhancing sustained performance.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress, recognize the impermanence of external events and the internal experience of 'I' (Sankhya wisdom). Then, apply the wisdom of Yoga by focusing on purposeful action in the present moment, detaching from anxiety about future results or regret over past events. This practice reduces mental burden, as you do your best and release the need to control what is beyond your immediate action, fostering inner calm.
❤️ In Relationships
In relationships, understanding the distinctness of individuals and their inherent nature (Sankhya) can prevent emotional enmeshment. Practicing Yoga means engaging with others through your actions (love, support, communication) without attachment to how they will respond or specific expectations for the relationship's outcome. This allows for genuine connection, reduces disappointment, and frees you from the 'bonds' of conditional affection or control.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True liberation comes from moving beyond theoretical understanding to practical, detached action, freeing oneself from the binding effects of karma.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.39 एषा this? ते to thee? अभिहिता (is) declared? सांख्ये in Sankhya? बुद्धिः wisdom? योगे in the Yoga? तु indeed? इमाम् this? श्रृणु hear? बुद्ध्या with wisdom? युक्तः endowed with? यया which? पार्थ O Partha? कर्मबन्धम् bondage of Karma? प्रहास्यसि (thou) shalt cast off.Commentary Lord Krishna taught Jnana (knowledge) to Arjuna till now. (Sankhya Yoga is the path of Vedanta or Jnana Yoga? which treats of the nature of the Atman or the Self and the methods to attain Selfrealisation. It is not the Sankhya philosophy of sage Kapila.) He is now giving to teach Arjuna the technie or secret of Karma Yoga endowed with which he (or anybody else) can break through the bonds of Karma. The Karma Yogi should perform work without expectation of fruits of his actions? without the idea of agency (or the notin I do this)? without attachment? after annihilating or going beyond all the pairs of opposites such as heat and cold? gain and loss? victoyr and defeat? etc. Dharma and Adharma? or merit and demerit will not touch that Karma Yogi who works without attachment and egoism. The Karma Yogi consecrates all his works and their fruits as offerings unto the Lord (Isvararpanam) and thus obtains the grace of the Lord (Isvaraprasada).
Shri Purohit Swami
2.39 I have told thee the philosophy of Knowledge. Now listen and I will explain the philosophy of Action, by means of which, O Arjuna, thou shalt break through the bondage of all action.
Dr. S. Sankaranarayan
2.39. Listen, how this knowledge, imparted [to you] for your sankhya, is [also] for the Yoga; endowed with which knowledge you shall cast off the bondage of action, O son of Prtha !
Swami Adidevananda
2.39 This Buddhi concerning the self (Sankhya) has been imparted to you. Now listen to this with regard to Yoga, by following which you will get rid of the bondage of Karma.
Swami Gambirananda
2.39 O Partha, this wisdom has been imparted to you from the standpoint of Self-realization. But listen to this (wisdom) from the standpoint of Yoga, endowed with which wisdom you will get rid of the bondage of action.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.39।। जिस प्रामाणिक विचार एवं युक्ति के द्वारा पारमार्थिक सत्य का ज्ञान होता है उसे सांख्य कहते हैं जिसका उपदेश भगवान् प्रारम्भ में ही कर चुके हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करने से शोकमोह रूप संसार की पूर्ण निवृत्ति हो जाती है। अब श्रीकृष्ण कर्मयोग अथवा बुद्धियोग के विवेचन का आश्वासन अर्जुन को देते हैं।अनेक लोग कर्म के नियम को भूलवश भाग्यवाद समझ लेते हैं किन्तु कर्म का नियम हिन्दू धर्म का एक आधारभूत सिद्धान्त है और इसलिये हिन्दू जीवन पद्धति का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिये इस नियम का यथार्थ ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। यदि एक वर्ष पूर्व मद्रास में श्री रमण राव के किये अपराध के लिये आज मुझे दिल्ली में न्यायिक दण्ड मिलता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उस अपराधी रमण राव और आज के सन्त चिन्मय में कुछ समानता होनी चाहिये कानून के लम्बे हाथ यह पहचान कर कि अपराधी रमण राव ही चिन्मय है दिल्ली पहुँचकर मुझे दण्ड देते हैं इसी प्रकार प्रकृति का न्याय अकाट्य है पूर्ण है। इसलिये हिन्दू मनीषियों ने यह स्वीकार किया कि वर्तमान में हम जो कष्ट भोगते हैं उनका कारण भूतकाल में किसी देश विशेष और देहविशेष में किये हुए अपराध ही हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि पूर्वकाल का पापी और वर्तमान का कष्ट भोगने वाला कोई एक ही होना चाहिये। इसी को शास्त्र में जीव (मन और बुद्धि) कहा है।इच्छापूर्वक किया गया प्रत्येक कर्म कर्त्ता के मन पर अपना संस्कार छोड़ता जाता है जो कर्त्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है। इन संस्कारों को ही वासना कहते हैं जिनकी निवृत्ति के लिये प्रत्येक जीव विशिष्ट देश काल और परिस्थिति में जन्म लेता है। पूर्व संचित कर्मों के अनुसार सभी जीवों को दुख कष्ट आदि भोगने पड़ते हैं। मन पर पापों के चिहनांकन पश्चात्ताप पूरित क्षणों में अश्रुजल से ही प्रच्छालित किये जा सकते हैं। परिस्थितियाँ मनुष्य को रुलाती नहीं वरन् उसकी स्वयं की पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ ही शोक का कारण होती हैं। शुद्धांन्तकरण वाले व्यक्ति के लिये फिर दुख का कोई निमित्त नहीं रह जाता।हमारे पास किसी संगीत का ध्वनिमुद्रित रेकार्ड होने मात्र से हम संगीत नहीं सुन सकते। जब रेकार्ड प्लेयर पर उसे रखकर सुई का स्पर्श होता है तभी संगीत सुनाई पड़ता है। इसी प्रकार मन में केवल वासनायें होने से ही दुख या सुख का अनुभव नहीं होता किन्तु अहंकार की सूई का स्पर्श पाकर बाह्य जगत् में जब वे कर्म के रूप में व्यक्त होती हैं तभी विविध प्रकार के फलों की प्राप्ति का अनुभव होता है।पूर्व श्लोक में वर्णित समभाव में स्थित हुआ पुरुष सुखदुख लाभहानि और जयपराजय रूपी द्वन्द्वों से ऊपर उठकर निजानन्द में रहता है। जिस मात्रा में शरीर मन और बुद्धि के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होता जायेगा उसी मात्रा में यह कर्त्तृत्व का अहंकार भी नष्ट होता जायेगा और अन्त में अहंकार के अभाव में किसके लिये कर्मफल बाकी रहेंगे अर्थात् कर्म और कर्मफल सभी समाप्त हो जाते हैं।गीता में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धान्त कोई नया और मौलिक नहीं था। उन्होंने ईसा के जन्म के पाँच हजार वर्ष पूर्व प्राचीन सिद्धांत का केवल नवीनीकरण करके मृतप्राय धर्म को पुनर्जीवित किया जो सहस्रों वर्षों पूर्व आज भी हमारे लिये आनन्द का संदेश लिये खड़ा है।
Swami Ramsukhdas
2.39।। व्याख्या --'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु' यहाँ तु पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं। यहाँ 'एषा' पद पूर्वश्लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है। इस समबुद्धिका वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) अच्छी तरह किया गया है। देह-देहीका ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। कारण कि देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है। इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन। इमाम् कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्त होती है? इसका स्वरूप क्या है? इसकी महिमा क्या है? इन बातोंके लिये भगवान्ने इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है। 'बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि'-- अर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (1। 36, 45)। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि (रागद्वेष) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा, तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे। इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी थी। इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं। पहले भगवान्ने सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (2। 31)। फिर कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (2। 38)। अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं। कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता है--'लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि' (गीता 3। 20)। लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे अर्थात् निःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्ति सुगमतासे हो जाती है। समताकी प्राप्ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता है। यह (उन्तालीसवाँ) श्लोक तीसवें श्लोकके बाद ही ठीक बैठता है; और यह वहीं आना चाहिये था। कारण यह है कि इस श्लोकमें दो निष्ठाओंका वर्णन है। पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सांख्ययोगसे निष्ठा (समता) बतायी और अब कर्मयोगसे निष्ठा (समता) बताते हैं। अतः यहाँ इकतीससे अड़तीसतकके आठ श्लोकोंको देना असंगत मालूम देता है। फिर भी इन आठ श्लोकोंको यहाँ देनेका कारण यह है कि कर्मयोगमें समता कहनेसे पहले कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? अर्जुनके लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य है--इस विषयका वर्णन होना आवश्यक है। अतः भगवान्ने कर्तव्य-अकर्तव्यका वर्णन करनेके लिये ही उपर्युक्त आठ श्लोक (2। 3138) कहे हैं, और फिर समताकी बात कही है। तात्पर्य है कि पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सत्-असत् के वर्णनसे समता बतायी कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक कर्तव्य-अकर्तव्यकी बात कहकर उन्तालीसवें श्लोकसे अकर्तव्यका त्याग और कर्तव्यका पालन करते हुए कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें समताका वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.39।। हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.39।।साङ्ख्यं ज्ञानम्।शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं साङ्ख्यमित्यभिधीयते इति भगवद्वचनाद्व्यासस्मृतौ। योग उपायःदृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयःप्रसिद्धये इति प्रयोगादभागवते। नेतरौ साङ्ख्ययोगौ उपादेयत्वेन विवक्षितौ कुत्रचित्सामस्त्येन कर्मयोग इत्यादिप्रयोगाच्च। निन्दितत्वाच्चेतरयोर्मोक्षधर्मेषु भिन्नमतत्वमुक्त्वा पञ्चरात्रस्तुत्या वेदानां त्वेकार्यत्वान्न विरोधः। पार्थक्यं तु साङ्ख्याद्यपेक्षया युक्तम्। तत्रैव चित्रशिखण्डिशास्त्रे पञ्चरात्रमूले वेदैक्योक्तेश्च एवमेव सर्वत्र साङ्ख्ययोगशब्द उपादेयवाचको वर्णनीयः। युक्तेश्च ज्ञानं पूर्वं जैवमुक्तम्। उपायश्च वक्ष्यते। बुध्यतेऽनयेति बुद्धिः। साङ्ख्यविषयो यया वाचा बुध्यते सा वागभिहितेत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।2.39।।ननुस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यादिश्लोकैर्न्यायावष्टम्भेन शोकमोहापनयनस्य तात्पर्येणोक्तत्वात्तस्मिन्नुपसंहर्तव्ये किमिति परमार्थदर्शनमुपसंह्रियते तत्राह शोकेति। स्वधर्ममपीत्यादिभिरतीतैः श्लोकैः शोकमोहयोः स्वजनमरणगुर्वादिवधशङ्कानिमित्तयोः सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकयोरपनयार्थं वर्णाश्रमकृतं धर्ममनुतिष्ठतः स्वर्गादि सिध्यति नान्यथेत्यन्वयव्यतिरेकात्मको लोकप्रसिद्धो न्यायो यद्यपि दर्शितस्तथापि नासौ तात्पर्येणोक्त इत्यर्थः। किं तर्हि तात्पर्येणोक्तं तदाह परमार्थेति। न त्वेवाहं जातु नासं इत्यादि सप्तम्या परामृश्यते। उक्तम्न जायते म्रियते वा कदाचिन्न इत्यादिनोपपादितमित्यर्थः। उपसंहारप्रयोजनमाह शास्त्रेति। तस्य वस्तुद्वारा विषयो निष्ठाद्वयं तस्य विभक्तस्य तेनैव विभागेन प्रदर्शनार्थं परमार्थदर्शनोपसंहार इत्यर्थः। ननु किमित्यत्र शास्त्रस्य विषयविभावः प्रदर्श्यते उत्तरत्रैव तद्विभागप्रवृत्तिप्रतिपत्त्योः संभवादिति तत्राह इह हीति। शास्त्रप्रवृत्तेः श्रोतृप्रतिपत्तेश्च सौकर्यार्थमादौ विषयविभागसूचनमित्यर्थः। उपसंहारस्य फलवत्त्वमेवमुक्त्वा तमेवोपसंहारमवतारयति अत आहेति। परमार्थतत्त्वविषयां ज्ञाननिष्ठामुक्तामुपसंहृत्य वक्ष्यमाणां संगृह्णाति योगे त्विति। तामेव बुद्धिं विशिष्टफलवत्त्वेनाभिष्टौति बुद्ध्येति। तत्रोपसंहारभागं विभजते एषेत्यादिना। बुद्धिशब्दस्यान्तःकरणविषयत्वं व्याव���्तयति ज्ञानमिति। तस्य सहकारिनिरपेक्षस्य विशिष्टं फलवत्त्वमाचष्टे साक्षादिति। शोकमोहौ रागद्वेषौ कर्तृत्वं भोक्तृत्वमित्यादिरनर्थः संसारस्तस्य हेतुर्दोषः स्वाज्ञानं तस्य निवृत्तौ निरपेक्षं कारणं ज्ञानम्। अज्ञाननिवृत्तौ ज्ञानस्यान्वयव्यतिरेकसमधिगतसाधनत्वादित्यर्थः। योगे त्विमामित्यादि व्याकुर्वन्योगशब्दस्य प्रकृते चित्तवृत्तिनिरोधविषयत्वं व्यवच्छिनत्ति तत्प्राप्तीति। प्रकृतं मुक्त्युपयुक्तं ज्ञानं तत्पदेन परामृश्यते। ज्ञानोदयोपायमेव प्रकटयति निःसङ्गतयेति। फलाभिसन्धिवैधुर्यं निःसङ्गत्वम्। बुद्धिस्तुतिप्रयोजनमाह प्ररोचनार्थमिति। अभिष्टुता हि बुद्धिः श्रद्धातव्या सत्यनुष्ठातारमधिकरोति तेन स्तुतिरर्थवतीत्यर्थः। कर्मानुष्ठानविषयबुद्ध्या कर्मबन्धस्य कुतो निवृत्तिः नहि तत्त्वज्ञानमन्तरेण समूलं कर्म हातुं शक्यमित्याशङ्क्याह ईश्वर इति।
Sri Vallabhacharya
।।2.39।।एवमशोकार्थमुपदिष्टेऽपि साङ्ख्येऽतन्मात्ररुचिं पार्थमालक्ष्य आत्मयोगोपदेशेन मनस्समाधानाय तं प्रस्तौति एषा ते इति। साङ्ख्यमात्मानात्मतत्त्वसङ्ख्यानं तत्राभिधेयेन त्वेवाहं 2।12 इत्यारभ्यतस्मात्सर्वाणि भूतानि 2।30 इत्यन्तमुपादेयतयोक्त्वा मध्ये स्वधर्मकरणमुपपाद्य पुनरप्यन्तेसुखदुःखे समे कृत्वा 2।38 इत्यादिना योगवत्साङ्ख्यशास्त्रबुद्धिर्मयोक्ता। योगे तु मनोनिरोधरूपे साम्यस्थितिप्रयोजनके ईश्वरालम्बने याऽभिधेया बुद्धिस्तामिमां स्वधर्माचरणाभिमतां शृणु। तुर्भेदार्थकः। यया बुद्ध्या युक्तस्त्वं क्रियमाणकर्मसुबन्धमुभयात्मकं पुण्यपापात्मकं प्रहास्यसि।
Sridhara Swami
।।2.39।।उपदिष्टं ज्ञानयोगमुपसंहरंस्तत्साधनं कर्मयोगं प्रस्तौति एषा त इति। सम्यक् ख्यायते प्रकाश्यते वस्तुतत्त्वमनयेति संख्या सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्प्रकाशमानमात्मतत्त्वं सांख्यं तस्मिन्करणीया बुद्धिरेषा तवाभिहिता। एवमभिहितायामपि सांख्यबुद्धौ तव चेदात्मतत्त्वमपरोक्षं न संभवति तर्ह्यन्तःकरणशुद्धिद्वाराऽत्मतत्त्वापरोक्षार्थं कर्मयोगे त्विमां बुद्धिं शृणु। यया बुद्ध्या युक्तः परमेश्वरार्पितकर्मयोगेन शुद्धान्तःकरणः सन् तत्प्रसादप्राप्तापरोक्षज्ञानेन कर्मात्मकं बन्धं प्रकर्षेण हास्यसि त्यक्ष्यसि।