Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 3 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Renunciation vs. Action

Sanskrit Shloka (Original)

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः | यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||१८-३||

Transliteration

tyājyaṃ doṣavadityeke karma prāhurmanīṣiṇaḥ . yajñadānatapaḥkarma na tyājyamiti cāpare ||18-3||

Word-by-Word Meaning

त्याज्यम्should be abandoned
दोषवत्(full of) as an evil
इतिthus
एकेsome
कर्मaction
प्राहुःdeclare
मनीषिणःphilosophers
यज्ञदानतपःकर्मacts of sacrifice
not
त्याज्यम्should be relinished
इतिthus
and

📖 Translation

English

18.3 Some philosophers declare that actions should be abandoned as an evil; while others (declare) that acts of sacrifice, gift and austerity should not be relinished.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.3।। कुछ मनीषी जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

When confronted with demanding or seemingly 'unpleasant' work tasks, this verse highlights the dilemma: Should one completely disengage (abandon the 'evil' of the task) or diligently perform essential duties, especially those contributing to the greater good or professional integrity? It encourages careful discernment of what truly serves a purpose versus what merely drains energy.

🧘 For Stress & Anxiety

Facing mental overload or burnout, one might be tempted to abandon all responsibilities (viewing them as 'evil' stressors). However, the verse also reminds us that certain actions crucial for well-being, like self-care, maintaining healthy routines, or contributing positively, should not be relinquished, even under duress. It advocates for a balanced approach to managing stress, distinguishing between truly harmful actions to be avoided and beneficial ones to be upheld.

❤️ In Relationships

In challenging relationships, the question arises whether to abandon all involvement (perceiving the interaction as 'evil' or detrimental) or to uphold fundamental duties like honest communication, compassion, or support, particularly in family or community ties. This verse prompts introspection on which relational 'actions' are truly harmful and which are essential for connection and growth, even when difficult.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even among the wise, there are conflicting views on whether all actions should be abandoned as burdensome, or if essential duties like sacrifice, charity, and austerity must be diligently upheld.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.3 त्याज्यम् should be abandoned? दोषवत् (full of) as an evil? इति thus? एके some? कर्म action? प्राहुः declare? मनीषिणः philosophers? यज्ञदानतपःकर्म acts of sacrifice? gift and austerity? न not? त्याज्यम् should be relinished? इति thus? च and? अपरे others.Commentary Some philosophers who follow the doctrine of the Sankhyas declare that all actions,should be abandoned as evil? even by those who are fit for Karma Yoga.Doshavat As an evil All Karmas should be abandoned as involving evil because they cause bondage or that they should be relinished like passion and other such evil tendencies.Others declare that the acts of sacrifice? gifts and austerities should not be given up by those who are fit for Karma Yoga. These are the opinions of some? who are of great understanding.Now listen to Me. I will settle this matter and will tell thee how renunciation should be practised.The subject of the discourse here is about the Karma Yogins only and not about those persons who have gone beyond the path of Karma. It is with reference to the Karma Yogins that these conflicting opinions are held and not with reference to the Jnana Yogins or the Sannyasins who have risen above all worldly concerns.

Shri Purohit Swami

18.3 Some philosophers say that all action is evil and should be abandoned. Others that acts of sacrifice, benevolence and austerity should not be given up.

Dr. S. Sankaranarayan

18.3. Certain wise men delcare that the harmful action is to be relinished while others say that the actions of performing sacrifices, giving gifts and observing austerities should not be relinished.

Swami Adidevananda

18.3 Some sages say that all actions should be given up as evil; others declare that works such as sacrifices, gifts and austerities should not be given up.

Swami Gambirananda

18.3 Some learned persons say that action, beset with evil (as it is), should be given up, and others (say) that the practice of sacrifice, charity and austertiy should not be given up.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.3।। पूर्व श्लोक में निश्चयात्मक रूप से कहा गया था कि त्याग साधन है और संन्यास साध्य है। सांख्य सिद्धांत के समर्थकों का इस त्याग के विषय में यह मत है कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं। उनके मतानुसार? सभी कर्म वासनाएं उत्पन्न करते हैं? जो आत्मा को आच्छादित कर देती है। अत कर्मों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। परन्तु सांख्य दर्शन के कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि केवल उन कर्मों का ही त्याग करना चाहिए? जो कामना और स्वार्थ से प्रेरित होते हैं न कि सभी कर्म त्याज्य हैं।तत्त्वचिन्तक मनीषी जनों का यह उपदेश है कि साधकों को काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग और कर्तव्य कर्मों का पालन करना चाहिए। सत्कर्मों के आचरण से ही मनुष्य का चरित्र निर्माण होता है। इन व्याख्याकारों के अनुसार यज्ञ? दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं हैं।गीता के अध्येताओं को यह ज्ञात होना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को केवल दोषयुक्त कर्मों को ही त्यागने का उपदेश देते हैं। उनका मनुष्य को आह्वान है कि उसको कर्म के द्वारा ही ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। यह आध्यात्मिक साधना है। भगवान का निर्णय है कि अज्ञानी जनो को कर्म करने चाहिये। उपर्युक्त विकल्पों के विषय में वे कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.3।। व्याख्या --   दार्शनिक विद्वानोंके चार मत हैं --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः -- कई विद्वान् कहते हैं कि काम्यकर्मोंके त्यागका नाम संन्यास है अर्थात् इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्तिके लिये जो कर्म किये जाते हैं? उनका त्याग करनेका नाम संन्यास है।2 -- सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग करनेका नाम त्याग है अर्थात् फल न चाहकर कर्तव्यकर्मोंको करते रहनेका नाम त्याग है।3 -- त्याज्यं दोष (टिप्पणी प0 870.1) वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये।4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे -- अन्य विद्वान् कहते हैं कि दूसरे सब कर्मोंका भले ही त्याग कर दें? पर यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।उपर्युक्त चारों मतोंमें दो विभाग दिखायी देते हैं -- पहला और तीसरा मत संन्यास(सांख्ययोग) का है तथा दूसरा और चौथा मत त्याग(कर्मयोग) का है। इन दो विभागोंमें भी थोड़ाथोड़ा अन्तर है। पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग है और तीसरे मतमें कर्ममात्रका त्याग है। ऐसे ही दूसरे मतमें कर्मोंके फलका त्याग है और चौथे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंके त्यागका निषेध है।दार्शनिकोंके उपर्युक्त चार मतोंमें क्याक्या कमियाँ हैं और उनकी अपेक्षा भगवान्के मतमें क्याक्या विलक्षणताएँ हैं? इसका विवेचन इस प्रकार है --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासम् -- संन्यासके इस पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग बताया गया है परन्तु इसके अलावा भी नित्य? नैमित्तिक आदि आवश्यक कर्तव्यकर्म बाकी रह जाते हैं (टिप्पणी प0 870.2)। अतः यह मत पूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें न तो कर्तृत्वका त्याग बताया है और न स्वरूपमें स्थिति ही बतायी है। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है जैसे -- इसी अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि कर्मफलमें लिप्त नहीं होती -- ऐसा कहकर कर्तृत्वाभिमानका त्याग बताया है और अगर वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे? तो भी न मारता है? न बँधता है -- ऐसा कहकर स्वरूपमें स्थिति बतायी है।2 -- त्याज्यं दोषवदित्येके -- संन्यासके इस दूसरे मतमें सब कर्मोंको दोषकी तरह छोड़नेकी बात है। परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग कोई कर ही नहीं सकता (गीता 3। 5) और कर्ममात्रका त्याग करनेसे जीवननिर्वाह भी नहीं हो सकता (गीता 3। 8)। इसलिये भगवान्ने नित्य कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेको राजसतामस त्याग बताया है (18। 78)।3 -- सर्वकर्मफलत्यागम् -- त्यागके इस पहले मतमें केवल फलका त्याग बताया है। यहाँ फलत्यागके अन्तर्गत केवल कामनाके त्यागकी ही बात आयी है (टिप्पणी प0 871.1)। ममताआसक्तिके त्यागकी बात इसके अन्तर्गत नहीं ले सकते क्योंकि ऐसा लेनेपर दार्शनिकों और भगवान्के मतोंमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। भगवान्के मतमें कर्मकी आसक्ति और फलकी आसक्ति -- दोनोंके ही त्यागकी बात आयी है -- सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च (गीता 18। 6)।4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् -- त्याग अर्थात् कर्मयोगके इस दूसरे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग न करनेकी बात है। परन्तु इन तीनोंके अलावा वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिको लेकर जितने कर्म आते हैं? उनको करने अथवा न करनेके विषयमें कुछ नहीं कहा गया है -- यह इसमें अधूरापन है। भगवान्के मतमें इन कर्मोंका केवल त्याग ही नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इनको न करते हों? तो जरूर करना चाहिये और इनके अतिरिक्त तीर्थ? व्रत आदि कर्मोंको भी फल एवं आसक्तिका त्याग करके करना चाहिये (18। 56)। सम्बन्ध --   पीछेके दो श्लोकोंमें दार्शनिक विद्वानोंके चार मत बतानेके बाद अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें पहले त्यागके विषयमें अपना मत बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.3।। कुछ मनीषी जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.3।।मनीषिण इत्युक्तत्वात्पूर्वपक्षोऽपि ग्राह्य एव। फलत्यागेन त्यागो विवक्षितः। यज्ञादेस्तत्पक्षे।यस्तु कर्मफलत्यागी [18।11] इति च वक्ष्यति। अत एक एवायं पक्षः।

Sri Anandgiri

।।18.3।।काम्यानि वर्जयित्वा नित्यनैमित्तिकानि फलाभिलाषादृते कर्तव्यानीत्युक्तं पक्षं प्रतिपक्षनिराशेन द्रढयितुं विप्रतिपत्तिमाह -- त्याज्यमिति। कर्मणः सर्वस्य दोषवत्त्वे हेतुमाह -- बन्धेति। दोषवदित्येतद्दृष्टान्तत्वेन व्याचष्टे -- अथवेति। कर्मण्यनधिकृतानामकर्मिणामेव कर्म त्याज्यं कर्मिणां तत्त्यागे प्रत्यवायादित्याशङ्क्याह -- अधिकृतानामिति। नहि तेषामपि कर्म त्यजतां प्रत्यवायो हिंसादियुक्तस्य कर्मणोऽनुष्ठाने परं प्रत्यवायादिति भावः। सांख्यादिपक्षसमाप्तावितिशब्दः। मीमांसकपक्षमाह -- तत्रैवेति। कर्माधिकृतेष्वेवेति यावत्। कर्म नित्यं नैमित्तिकं च। काम्यानां कर्मणामित्यारभ्य श्लोकाभ्यां कर्मिणोऽकर्मिणोऽधिकृताननधिकृतांश्चापेक्ष्य दर्शितविकल्पानां प्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह -- कर्मिण इति। एवकारव्यवच्छेद्यमाह -- नत्विति। तदेव स्फुटयति -- ज्ञानेति। कर्माधिकृतानां ज्ञाननिष्ठातो विभक्तनिष्ठावत्त्वेन पूर्वोक्तानामपि शास्त्रार्थोपसंहारे पुनर्विचार्यत्ववज्ज्ञाननिष्ठानामपि विचार्यत्वमत्राविरुद्धमिति शङ्कते -- नन्विति। सांख्यानां परमार्थज्ञाननिष्ठानां नात्र विचार्यतेत्युत्तरमाह -- न तेषामिति। ननु तेषामपि स्वात्मनि क्लेशदुःखादि पश्यतां तदनुरोधेन राजसकर्मत्यागसिद्धेर्विचार्यत्वं नेत्याह -- न कायेति। तत्र क्षेत्राध्यायोक्तं हेतूकरोति -- इच्छादीनामिति। स्वात्मनि सांख्यादीनां क्लेशाद्यप्रतीतौ फलितमाह -- अत इति। ननु तेषां क्लेशाद्यदर्शनेऽपि स्वात्मनि कर्माणि पश्यतां तत्त्यागो युक्तस्तेषां कायक्लेशादिकरत्वान्नेत्याह -- नापीति। अज्ञानां मोहमाहात्म्यान्नियतमपि कर्म त्यक्तुं न तत्त्वविदां स्वात्मनि कर्मादर्शनेन तत्त्यागे हेत्वभावादिति मत्वाह -- मोहादिति। कथं तर्हि तेषामात्मनि कर्माण्यपश्यतां प्राप्त्यभावे तत्त्यागः संन्यासस्तत्राह -- गुणानामिति। अविवेकप्राप्तानां कर्मणां त्यागस्तत्त्वविदामित्युक्तं स्मारयन्नप्राप्तप्रतिषेधं प्रत्यादिशति -- सर्वेति। तत्त्वविदामत्राविचार्यत्वे फलितमाह -- तस्मादिति। येऽनात्मविदस्त एवेत्युत्तरत्र संबन्धः। कर्मण्यधिकृतानामनात्मविदां कर्मत्यागसंभावनां दर्शयति -- येषां चेति। तन्निन्दा कुत्रोपयुक्तेत्याशङ्क्याह -- कर्मिणामिति। किञ्च परमार्थसंन्यासिनां प्रशस्यत्वोपलम्भान्न निन्दाविषयत्वमित्याह -- सर्वेति। किंचात्रापि सिद्धिं प्राप्तो यथेत्यादिना ज्ञाननिष्ठाया वक्ष्यमाणत्वात्तद्वतां नेह,विचार्यतेत्याह -- वक्ष्यतीति। कर्माधिकृतानामेवात्र विवक्षितत्वं न ज्ञाननिष्ठानामित्युपसंहरति -- तस्मादिति। ननु संन्यासशब्देन सर्वकर्मसंन्यासस्य ग्राह्यत्वात्तथाविधसंन्यासिनामिह विवक्षितत्वं प्रतिभाति तत्राह -- कर्मेति। संन्यासशब्देन मुख्यस्यैव संन्यासस्य ग्रहणं गौणमुख्ययोर्मुख्ये कार्यसंप्रत्ययादन्यथा तदसंभवे हेतूक्तिवैयर्थ्यादप्राप्तप्रतिषेधादिति शङ्कते -- सर्वेति। नेदं हेतुवचनं सर्वकर्मसंन्याससंभवसाधकं कर्मफलत्यागस्तुतिपरत्वादिति परिहरति -- नेत्यादिना। एतदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- यथेति। दृष्टान्तेऽपि यथाश्रुतार्थत्वं किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- यथोक्तेति। नहि फलत्यागादेव ज्ञानं विना मुक्तिर्युक्ता मुक्तेर्ज्ञानैकाधीनत्वसाधकश्रुतिस्मृतिविरोधादद्वेष्टेत्यादिना चानन्तरमेव ज्ञानसाधनविधानानर्थक्यादतस्त्यागस्तुतिरेवात्र ग्राह्येत्यर्थः। दृष्टान्तगतमर्थं दार्ष्टान्तिके योजयति -- तथेति। प्रागुक्तपक्षापवादविवक्षया हेतूक्तेर्मुख्यार्थत्वमेव किं न स्यादित्याशङ्क्य तदपवादे हेत्वभावान्मैवमित्याह -- न सर्वेति। न चेयमेव हेतूक्तिस्तदपवादिकान्यथासिद्धेरुक्तत्वादिति भावः। मुख्यसंन्यासापवादासंभवे संन्यासत्यागविकल्पस्य कथं सावकाशतेत्याशङ्क्याह -- तस्मादिति। ज्ञाननिष्ठान्प्रत्युक्तविकल्पानुपपत्तौ कुत्र तेषामधिकारस्तत्राह -- ये त्विति। संन्यासिनां विकल्पानर्हत्वेन ज्ञाननिष्ठायामेवाधिकारस्य भूयःसु प्रदेशेषु साधितत्वान्न साधनीयत्वापेक्षेत्याह -- तथेति।

Sri Vallabhacharya

।।18.3।।एके त्वाहुस्त्याज्यं दोषवदिति। कर्ममात्रं हिंसादिदोषवत्त्वात्त्याज्यमित्येके साङ्ख्याः मनीषिण इति युक्तिदर्शनात् स्तौति। अपरे मीमांसका यज्ञदानतपःकर्म सफलमपि श्रुतत्वान्न त्याज्यमित्याहुः। भ्रान्ता अप्येते एकांशतः समीचीनाः? यतः कस्मिंश्चिदप्यंशे वेदं न परित्यजन्ति। यद्यपि पूर्वेऽपि न परित्यजन्ति तथापि आपाततः प्रतीतिमादैयवमुपन्यस्तम् वस्तुतस्तुकाम्यानां इत्युक्तेऽकाम्यानां विधानमित्यर्थादुक्तं भवतीति भावेन कवित्वं तेषूक्तम्। अग्रे चविचक्षणाः इतिदोषवत् इत्युक्तेऽदोषवत्कार्यमिति मनीषिता तत्रोक्तेति।

Sridhara Swami

।।18.3।।अविदुषः फलत्यागमात्रमेव त्यागशब्दार्थो न कर्मत्याग इत्येतदेव मतान्तरनिरासेन दृढीकर्तुं मतभेदं दर्शयति -- त्याज्यमिति। दोषवद्धिंसादिदोषवत्त्वेन बन्धकमिति हेतोः सर्वमपि कर्म त्याज्यमित्येके सांख्याः प्राहुर्मनीषिण इत्यस्यायं भावःन हिंस्यात्सर्वभूतानि इति निषेधः पुरुषस्यानर्थहेतुर्हिंसेत्याह।अग्नीषोमीयं पशुमालभेत इत्यादिप्राकरणिको विधिस्तु हिंसायाः क्रतूपकारकत्वमाह। अतो भिन्नविषयत्वेन सामान्यविशेषन्यायागोचरत्वाद्बाध्यबाधकता नास्ति। द्द्रव्यसाध्येषु च सर्वेष्वपि कर्मसु हिंसादेः संभवात्सर्वमपि कर्म त्याज्यमेवेति। तदुक्तम् -- दृष्टवदानुश्रविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः इति। अस्यार्थः -- उपायो ज्योतिष्टोमादिः सोऽपि दृष्टोपायवद्गुरुपाठादनुश्रूयत इत्यनुश्रवो वेदस्तद्बोघितः। तत्राविशुद्धिर्हिंसा तया क्षयो विनाशः। अग्निहोत्रज्योतिष्टोमादिजन्यस्वर्गेषु तारतम्यं च वर्तते। परोत्कर्षस्तु सर्वान्दुःखीकरोति। अपरे तु मीमांसका यज्ञादिकं कर्म न त्याज्यमिति प्राहुः। अयं भावःक्रत्वर्थापि सतीयं हिंसा पुरुषेणैव कर्तव्या सा चान्योद्देशेनापि कृता पुरुषस्य प्रत्यवायहेतुरेव। तथाहि विधिर्विधेयस्य तदुद्देशेनानुष्ठानं विधत्ते तादर्थ्यलक्षणत्वाच्छेषत्वस्य। नत्वेवं निषेधो निषेधस्य तादर्थ्यमपेक्षते? प्राप्तिमात्रापेक्षितत्वात्। अन्यथाज्ञानप्रमादादिकृते दोषाभावप्रसङ्गात्। तदेवं समानविषयत्वेन सामान्यशास्त्रस्य विशेषेण बाधान्नास्ति दोषवत्त्वमतो नित्यं यज्ञादिकर्म न त्याज्यमिति अनेन विधिनिषेधयोः समानबलता वार्यते सामान्यविशेषन्यायं संप्रादयितुम्।

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