Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 2 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः | सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||१८-२||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . kāmyānāṃ karmaṇāṃ nyāsaṃ saṃnyāsaṃ kavayo viduḥ . sarvakarmaphalatyāgaṃ prāhustyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||18-2||

Word-by-Word Meaning

कर्मणाम्of actions
न्यासम्the renunciation
संन्यासम्Sannyasa
कवयःthe sages
विदुःunderstand
सर्वकर्मफलत्यागम्the abandonment of the fruits of all works
प्राहुःdeclare
त्यागम्abandonment
विचक्षणाःthe wise.Commentary Kamya Karmani Activities such as the Asvamedha (a special sacrifice)

📖 Translation

English

18.2 The Blessed Lord said The sages understand Sannyasa to be the renunciation of action with desire; the wise declare the abandonment of the fruits of all actions as Tyaga.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- (कुछ) कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को "संन्यास" समझते हैं और विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional life, practice 'Tyaga' by focusing on the quality of your work and effort, rather than obsessing over promotions, bonuses, or external recognition. Do your best in every task, understanding that the outcome is influenced by many factors beyond your control. This allows for greater job satisfaction and less professional burnout.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce anxiety and stress by adopting 'Tyaga' in daily life. When you put effort into a task or goal, mentally abandon the attachment to a specific successful outcome. Focus on the process and your contribution, knowing that you've done your part. This fosters resilience and peace, as your well-being isn't solely dependent on external results.

❤️ In Relationships

Cultivate healthier relationships by practicing 'Tyaga' – give your love, support, and presence without demanding specific reciprocal actions or outcomes from others. Engage with family and friends genuinely, letting go of expectations about how they 'should' behave or respond, which often leads to disappointment and conflict.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True freedom comes from performing your duties with diligence and skill, while releasing all attachment to the specific results or outcomes.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

English Commentary By Swami Sivananda18.2 काम्यानाम् (of) desireful? कर्मणाम् of actions? न्यासम् the renunciation? संन्यासम् Sannyasa? कवयः the sages? विदुः understand? सर्वकर्मफलत्यागम् the abandonment of the fruits of all works? प्राहुः declare? त्यागम् abandonment? विचक्षणाः the wise.Commentary Kamya Karmani Activities such as the Asvamedha (a special sacrifice)? etc.? which are performed for the attainment of specific selfish ends. The wise men declare that Tyaga means abandonment of the fruits of all the Nitya and Naimittika works (ordinary and extraordinary or occasional duties).The rootmeaning of the words Sannyasa and Tyaga is to give up. In popular usage Sannyasa and Tyaga are more or less synonymous. Both mean renunciation. The two words do not mean two altogether distinct ideas as stone and fruit? or pot and cloth. They convey the same general idea with a slight distinction.An objector asks It is said that the Nitya and Naimittika actions cannot produce any fruits. Why then is the relinishment of their fruits mentioned here It is like asking for the relinishment of the barren womans sonWe say The objection is not correct. In the opinion of the Lord? ordinary and occasional duties cause their own fruits (vide XVIII.12). Sannyasins alone who have renounced the desire for the fruits of actions will not get the fruits? but other persons will have to reap the fruits of the ordinary and occasional actions.If one renounces all actions after the attainment of Selfrealisation and enters into the fourth order of life (Sannyasa) it is called VidvatSannyasa. If one renounces all actions and enters into the order of Sannyasa for the sake of doing VedantaVichara (or reflection on the truths of the Vedantaphilosophy and on the true significance of the great sentences of the Upanishads which reveal the identity of the individual soul with the Supreme Being) and for thus attaining Selfrealisation? it is called VividishaSannyasa.

Shri Purohit Swami

18.2 Lord Shri Krishna replied: The sages say that renunciation means forgoing an action which springs from desire; and relinquishing means the surrender of its fruit.

Dr. S. Sankaranarayan

18.2. The Bhagavat said The seers understand the act of renouncing the desire-motivated actions as renunciation; the experts declare the relinishment of the fruits of all actions to be relinishment.

Swami Adidevananda

18.2 The Lord said The sages hold that Sannyasa is the giving up of all works which are motivated by desire. The wise declare Tyaga to be the abandonment of fruits of all works.

Swami Gambirananda

18.2 The Blessed Lord said The learned ones know sannyasa to be the giving up of actions done with a desire for reward. The adepts call the abandonment of the results of all works as tyaga.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda ।।18.2।। काम्य कर्मों का त्याग संन्यास कलाता है और समस्त कर्मों का फलत्याग त्याग कहा जाता हा। शास्त्रीय सिद्धांतों से अनभिज्ञ लोगों को इन दोनों में कोई अन्तर नहीं ज्ञात होता? क्योंकि कामना सदैव फलप्राप्ति की ही होती है। अत? कामना प्रेरित कर्मों का त्याग और कर्मफल की आसक्ति का त्याग ये दोनों ही समान प्रतीत होते हैं। इसका कारण शास्त्रों से अनभिज्ञता अथवा उनका सतही अध्ययन ही हो सकता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों का अर्थ कामना का त्याग ही है? परन्तु त्याग और संन्यास में कुछ अन्तर है। फिर भी त्याग? संन्यास का अविभाज्य अंग है। मनुष्य वर्तमान में कर्म करता है और आशा करता है कि उसे इष्टफल भविष्य में प्राप्त होगा। वर्तमान के कर्म का परिणाम ही भावी फल है। इसलिए? निष्काम कर्म वर्तमान में ही हो सकते हैं? जब कि फलभोग की चिन्ता से उत्पन्न होने वाली मन की व्याकुलता का संबंध भविष्य काल से होता है। वर्तमान के कर्म की परिसमाप्ति भावी फल में होती है। कामना और विक्षेप मन में अशान्ति उत्पन्न करते हैं। कामना जितनी अधिक तीव्र होगी? उतनी ही अधिक मात्रा में हमारी आन्तरिक शक्तियों का ह्रास होगा और ऐसा शक्तिहीन पुरुष किसी भी कर्म को कुशलता एवं उत्साह के साथ सम्पादित नहीं कर सकता। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि अहंकार या जीव ही इच्छा करता है। अत? अहंकार की निवृत्ति का अर्थ है? व्यष्टि जीव की विरति और उस साधक की अपने सर्वोच्च स्वरूप में दृढ़ स्थिति।कर्म वर्तमान में होते हैं और उनके फल भविष्य में प्राप्त होने की सम्भावना रहती है। जो व्यक्ति फल की चिन्ता करता है वह वर्तमान में कार्य करने की अपनी क्षमता खो देता है। स्वाभाविक ही है कि उस व्यक्ति को इष्ट फल मिलने की सम्भावना कम हो जाती है? क्योंकि कर्म का फल कर्ता के प्रयत्न तथा प्रकृति के नियमादि अन्य कई कारणों पर निर्भर करता है। अत हमें फलासक्ति का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि त्याग साधन है और संन्यास साध्य है। त्याग और संन्यास की साधना का संबंध हमारे कर्मों से है। भगवान् श्रीकृष्ण कर्म के महत्त्व पर बल देते हुए कभी नहीं थकते। इन दोनों शब्दों में से कोई भी यह नहीं दर्शाता है कि हमको कर्म की उपेक्षा करनी चाहिए। इसके विपरीत? दोनों का आग्रह कर्म के पालन पर ही है। हमको कर्म करने ही चाहिए। तथापि? ये कर्म अहंकार और स्वार्थ या फलासक्ति से रहित होने चाहिए। फलासक्ति ही हमारी कार्यकुशलता में बाधक बनती है। फलासक्ति के अभाव में हमारे कर्म हमें अपना पूर्ण पुरस्कार प्रदान कर सकते हैं। हम कह सकते हैं कि वेदों में प्रयुक्त इन दो शब्दों के अर्थों की अपेक्षा गीता में दी गई इनकी परिभाषाएं अधिक उदार एवं सहिष्णु हैं।अज्ञानी पुरुष को कर्म करने चाहिए या नहीं इस पर कहते हैं

Swami Ramsukhdas

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas।।18.2।। व्याख्या --   दार्शनिक विद्वानोंके चार मत हैं --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः -- कई विद्वान् कहते हैं कि काम्यकर्मोंके त्यागका नाम संन्यास है अर्थात् इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्तिके लिये जो कर्म किये जाते हैं? उनका त्याग करनेका नाम संन्यास है। 2 -- सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग करनेका नाम त्याग है अर्थात् फल न चाहकर कर्तव्यकर्मोंको करते रहनेका नाम त्याग है। 3 -- त्याज्यं दोष (टिप्पणी प0 870.1) वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः -- कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये। 4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे -- अन्य विद्वान् कहते हैं कि दूसरे सब कर्मोंका भले ही त्याग कर दें? पर यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।उपर्युक्त चारों मतोंमें दो विभाग दिखायी देते हैं -- पहला और तीसरा मत संन्यास(सांख्ययोग) का है तथा दूसरा और चौथा मत त्याग(कर्मयोग) का है। इन दो विभागोंमें भी थोड़ाथोड़ा अन्तर है। पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग है और तीसरे मतमें कर्ममात्रका त्याग है। ऐसे ही दूसरे मतमें कर्मोंके फलका त्याग है और चौथे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंके त्यागका निषेध है।दार्शनिकोंके उपर्युक्त चार मतोंमें क्याक्या कमियाँ हैं और उनकी अपेक्षा भगवान्के मतमें क्याक्या विलक्षणताएँ हैं? इसका विवेचन इस प्रकार है --,1 -- काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासम् -- संन्यासके इस पहले मतमें केवल काम्यकर्मोंका त्याग बताया गया है परन्तु इसके अलावा भी नित्य? नैमित्तिक आदि आवश्यक कर्तव्यकर्म बाकी रह जाते हैं (टिप्पणी प0 870.2)। अतः यह मत पूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें न तो कर्तृत्वका त्याग बताया है और न स्वरूपमें स्थिति ही बतायी है। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है जैसे -- इसी अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि कर्मफलमें लिप्त नहीं होती -- ऐसा कहकर कर्तृत्वाभिमानका त्याग बताया है और अगर वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे? तो भी न मारता है? न बँधता है -- ऐसा कहकर स्वरूपमें स्थिति बतायी है। 2 -- त्याज्यं दोषवदित्येके -- संन्यासके इस दूसरे मतमें सब कर्मोंको दोषकी तरह छोड़नेकी बात है। परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग कोई कर ही नहीं सकता (गीता 3। 5) और कर्ममात्रका त्याग करनेसे जीवननिर्वाह भी नहीं हो सकता (गीता 3। 8)। इसलिये भगवान्ने नित्य कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेको राजसतामस त्याग बताया है (18। 78)। 3 -- सर्वकर्मफलत्यागम् -- त्यागके इस पहले मतमें केवल फलका त्याग बताया है। यहाँ फलत्यागके अन्तर्गत केवल कामनाके त्यागकी ही बात आयी है (टिप्पणी प0 871.1)। ममताआसक्तिके त्यागकी बात इसके अन्तर्गत नहीं ले सकते क्योंकि ऐसा लेनेपर दार्शनिकों और भगवान्के मतोंमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। भगवान्के मतमें कर्मकी आसक्ति और फलकी आसक्ति -- दोनोंके ही त्यागकी बात आयी है -- सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च (गीता 18। 6)। 4 -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् -- त्याग अर्थात् कर्मयोगके इस दूसरे मतमें यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग न करनेकी बात है। परन्तु इन तीनोंके अलावा वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिको लेकर जितने कर्म आते हैं? उनको करने अथवा न करनेके विषयमें कुछ नहीं कहा गया है -- यह इसमें अधूरापन है। भगवान्के मतमें इन कर्मोंका केवल त्याग ही नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इनको न करते हों? तो जरूर करना चाहिये और इनके अतिरिक्त तीर्थ? व्रत आदि कर्मोंको भी फल एवं आसक्तिका त्याग करके करना चाहिये (18। 56)।  सम्बन्ध --   पीछेके दो श्लोकोंमें दार्शनिक विद्वानोंके चार मत बतानेके बाद अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें पहले त्यागके विषयमें अपना मत बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- (कुछ) कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को "संन्यास" समझते हैं और विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya।।18.2।।फलानिच्छयाऽकरणेन वा काम्यकर्मणो न्यासः सन्न्यासः। त्यागस्तु फलत्याग एव। तथा हि प्राचीनशालश्रुतिः -- अनिच्छयाऽकर्मणा वाऽपि काम्यकर्मन्यासो न्यासः? फलत्यागस्तु त्यागः इति।

Sri Anandgiri

Sanskrit Commentary By Sri Anandgiri।।18.2।।ननु पूर्वेष्वध्यायेषु तत्र तत्र संन्यासत्यागयोरुक्तत्वात्किमिति पुनस्तौ पृच्छ्येते ज्ञाते तदयोगात्तत्राह -- तत्र तत्रेति। न निर्लुण्ठितार्थौ न निकृष्टार्थौ न विविक्तार्थावित्यर्थः। बुभुत्सया प्रश्नस्य प्रवृत्तत्वात्प्रष्टुरभिप्रायं प्रश्नेन प्रतिपद्य भगवानुत्तरमुक्तवानित्याह -- अत इति। पक्षद्वयोपन्यासेन संन्यासत्यागशब्दयोरर्थभेदं कथयति -- काम्यानामिति। तत्किमिदानीं संन्यासत्यागशब्दयोरात्यन्तिकं भिन्नार्थत्वं तथा प्रसिद्धिविरोधः स्यादित्याशङ्क्यावान्तरभेदेऽपि नात्यन्तिकभेदोऽस्तीत्याह -- यदीति। पुत्राभावाद्वन्ध्यायास्तत्त्यागायोगवन्नित्यनैमित्तिककर्मणामफलानां फलत्यागानुपपत्तेरुक्तस्त्यागशब्दार्थो न सिद्ध्यतीति शङ्कते -- नन्विति। नित्यनैमित्तिककर्मफलस्य वन्ध्यापुत्रसादृश्याभावात्तत्त्यागसंभवादुक्तस्त्यागशब्दार्थः संभवतीति समाधत्ते -- नैष दोष इति। भगवता तेषां फलवत्त्वमिष्टमित्यत्र वाक्यशेषमनुकूलयति -- वक्ष्यतीति। तर्हि संन्यासिनामसंन्यासिनां च नित्याद्यनुष्ठायिनामविशेषेण तत्फलं स्यादिति चेन्नैवेत्याह -- नत्विति। वक्ष्यतीत्यनुकर्षणं चकारार्थः। प्रसक्तस्य वचसोऽर्थं प्रकृतोपयोगित्वेन संगृह्य स्मारयति -- संन्यासिनामिति।

Sri Vallabhacharya

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya।।18.2।।तत्र त्यागसन्न्यासयोरैकार्थेऽपि विषयभेदेन विनिर्णयं मतान्तरोपन्यासेन दर्शयन्नुत्तरभाष्यं स्वयं श्रीभगवानुवाच -- काम्यानां कर्मणामिति। ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत स पाप्मानं तरति स ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते पुत्रकामो यजेत इत्यादिकामोपनिबन्धेन वेदेन विहितानां सर्वेषां न्यासं स्वरूपतस्त्यागं सन्न्यासं कवयो योगिनो विदुः। ततोऽपि विचक्षणाः स्वरूपतः त्यागमसहमाना निपुणा भक्ताः सर्वकर्मफलत्यागं सर्वेषां नित्यनैमित्तिककाम्यानां तथाश्रुतानामपि कर्मणां श्रुतफलस्य त्याग एव मोक्षशास्त्रे त्यागशब्दार्थ इति प्राहुः। तत्रैतेषां मते सन्न्यासार्थः सम्यक् फलत एव? न स्वरूपत इत्यायाति।

Sridhara Swami

Sanskrit Commentary By Sri Sridhara Swami।।18.2।।तत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- काम्यानामिति।पुत्रकामो यजेतस्वर्गकामो यजेत इत्येवमादिकामोपबन्धेन विहितानां काम्यानां कर्मणां न्यासं परित्यागं संन्यासं कवयो विदुः सम्यक्फलैः सह सर्वकर्मणामपि न्यासं संन्यासं पण्डिता विदुः जानन्तीत्यर्थः। सर्वेषां काम्यानां नित्यनैमित्तिकानां च कर्मणां फलमात्रत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा निपुणाः नतु स्वरूपतः कर्मत्यागम्। ननु नित्यनैमित्तिकानां फलाश्रवणादविद्यमानस्य फल���्य कथं त्यागः स्यात्? नहि वन्ध्यायाः पुत्रत्यागः संभवति। उच्यते। यद्यपि स्वर्गकामः पशुकाम इत्यादिवत्अहरहःसंध्यामुपासीतयावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति इत्यादिषु फलविशेषो न श्रूयते तथाप्यपुरुषार्थे व्यापारे प्रेक्षावन्तं प्रवर्तयितुमशक्नुवन्विधिःविश्वजिता यजेत इत्यादिष्विव सामान्यतः किमषि फलमाक्षिपत्येव। नचातीव गुरुमतः श्रद्धया स्वसिद्धिरेव विधेः प्रयोजनमिति मन्तव्यम्? पुरुषप्रवृत्त्यनुपपत्तेर्दुष्परिहरत्वात्। श्रूयते च नित्यादिष्वपि फलम्सर्व एते पुण्यलोका भवन्ति इति?कर्मणा पितृलोकः इति?धर्मेण पापमपनुदति इत्येवमादिषु। तस्माद्युक्तमुक्तंसर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः इति। ननु फलत्यागेन पुनरपि निष्फलेषु कर्मस्वप्रवृत्तिरेव स्यात्तन्न? सर्वेषामपि कर्मणां संयोगपृथक्त्वेन विविदिषार्थतया विनियोगात्। तथाच श्रुतिःतमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन इति। अतः प्रतिपदोक्तं सर्वं फलं बन्धकत्वेन त्यक्त्वा विविदिषार्थं सर्वकर्मानुष्ठानं घटत एव। विविदिषा च नित्यानित्यवस्तुविवेकेन निवृत्तदेहाभिमानतया बुद्धेः प्रत्यक्प्रवणता। तावत्पर्यन्तं च सत्त्वशुद्ध्यर्थं ज्ञानाविरुद्धं यथोचितमावश्यकं कर्म कुर्वतस्तत्फलत्याग एव कर्वत्यागो नाम न स्वरूपेण। तथाच श्रुतिःकुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा इति। ततः परं तु सर्वकर्मनिवृत्तिः स्वत एव भवति। तदुक्तं नैष्कर्म्यसिद्धौप्रत्यक्प्रवणता बुद्धेः कर्माण्युत्पाद्य शुद्धितः। कृतार्थान्यस्तमायान्ति प्रावृडन्ते घना इव इति। उक्तंच भगवतायस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते इति। वसिष्ठेन चोक्तमन कर्माणि त्यजेद्योगी कर्मभिस्त्यज्यते ह्यसौ। कर्मणो मूलभूतस्य संकल्पस्यैव नाशतः इति। ज्ञाननिष्ठाविक्षेपकत्वमालक्ष्य त्यजेद्वा। तदुक्तं श्रीभगवता भागवतेतावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। मत्क��ाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।।ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः। सलिङ्गानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः इत्यादि।।अलमतिप्रसङ्गेन। प्रकृतमनुसरामः।

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