Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 2 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः | सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ||१४-२||
Transliteration
idaṃ jñānamupāśritya mama sādharmyamāgatāḥ . sarge.api nopajāyante pralaye na vyathanti ca ||14-2||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
14.2 They who, having taken refuge in this knowledge, have attained to unity with Me, are neither born at the time of creation nor are they disturbed at the time of dissolution.
।।14.2।। इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप (सार्धम्यम्) को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivating a sense of purpose and detachment from the fleeting outcomes of work, this knowledge helps professionals remain stable and resilient amidst career ups and downs. It fosters an understanding that true fulfillment comes from a deeper, internal source rather than temporary professional successes or failures, leading to more focused effort and less burnout.
🧘 For Stress & Anxiety
By identifying with one's eternal spiritual nature rather than the transient physical or mental self, this wisdom provides a stable anchor against life's inevitable changes and challenges. It reduces anxiety about the future, fear of loss, and the distress caused by impermanence, promoting profound inner peace and mental resilience.
❤️ In Relationships
This perspective encourages approaching relationships with unconditional love, recognizing the divine essence in all beings. It helps to transcend possessiveness, dependence, and the suffering arising from attachment to external forms or roles, fostering healthier, more resilient connections grounded in a deeper understanding of unity and impermanence.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Embrace spiritual knowledge to realize your eternal unity with the Divine, thereby transcending the cycles of birth, death, and all worldly disturbances, achieving ultimate peace and liberation.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
14.2 इदम् this? ज्ञानम् knowledge? उपाश्रित्य having taken refuge in? मम My? साधर्म्यम् unity? आगताः have attained to? सर्गे at the time of creation? अपि also? न not? उपजायन्ते are born? प्रलये at the time of dissolution? न not? व्यथन्ति are (they) disturbed? च and.Commentary Having resorted to this knowledge they (the sages) are assimilated into My own nature. They have attained to My Being. They have become identical with Me. They live in Me with no thought of thou or I. They go beyond birth and death. There is no birth for them when creation begins and there is no death for them at the time of dissolution. Having reached Me they attain eternity? immortality and perfection. Having become identical with Me through the attainment of the knowledge of the Self by practising the necessary means? they are neither born at the time of creation nor are they disited at the time of dissolution. Knowledge of the Self is eulogised by the Lord in this verse.
Shri Purohit Swami
14.2 Dwelling in Wisdom and realising My Divinity, they are not born again when the universe is re-created at the beginning of every cycle, nor are they affected when it is dissolved.
Dr. S. Sankaranarayan
14.2. Holding on to this knowledge, they have attained the state of having attributes common with Me; [and] they are neither born even at the time of creation [of the world], nor do they come to grief at the time of dissolution [of it].
Swami Adidevananda
14.2 Resorting to this knowledge, partaking of My Nature, they are not born at the time of creation, nor do they suffer at the time of dissolution.
Swami Gambirananda
14.2 Those who attain identity with Me by resorting of this Knowledge are not born even during creation, nor do they suffer pain during dissolution.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।14.2।। इस अध्याय में उपदिष्ट ज्ञान की महत्ता सैद्धान्तिक दृष्टि से उतनी अधिक नहीं है? जितनी कि साधना में उसके द्वारा होने वाले लाभ से है। इस अध्याय के गम्भीर अभिप्रायों को सम्यक् रूप से जानने वाला साधक पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त होता है। भगवान् कहते हैं? वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं।गीता में? भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक पूर्णत्व की दृष्टि से ही करते हैं। इस अध्याय का विषय उन गुणों की क्रीड़ा का अध्ययन करना है? जो हमें उपाधियों ओर अहंभाव के साथ बांध देते हैं। यदि एक बार हम उनसे मुक्त होकर अपने मन पर होने वाले उनके प्रभाव को समाप्त कर दें? तो तत्क्षण ही जीव भाव से मुक्त होकर हम अपने पारमार्थिक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं।स्वप्नद्रष्टा को स्वप्नावस्था में सत्य प्रतीत होने वाले दुख जाग्रत् अवस्था में असत् हो जाते हैं। नियम यह है कि एक अवस्था के सुखदुखादि अनुभव अन्य अवस्था में प्रभावशील नहीं होते हैं। अत? आत्म अज्ञान की अवस्था का उपाधि तादात्म्य तथा तज्जनित संसार का बन्धन जीव को ही सत्य प्रतीत होता है आत्मज्ञानी पुरुष को नहीं। ज्ञानी पुरुष अपने उस सर्वत्र व्याप्त सत्यस्वरूप को पहचानता है? जिसकी न उत्पत्ति है और न प्रलय।इसे यहाँ एक वाक्य से इंगित किया गया है? वे सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते हैं सृष्टि मन का एक खेल है। जब हम मन से तादात्म्य नहीं करेंगे? तब हम उससे अविच्छिन्न भी नहीं होंगे? और इस प्रकार हमें सृष्टि का कोई अनुभव भी नहीं होगा। उदाहरणार्थ? जब कोई व्यक्ति क्रोधावेश में आ जाता है? तब वह एक क्रोधी व्यक्ति के रूप में व्यवहार करता है परन्तु क्रोध से निवृत्त होने और मन के शान्त हो जाने पर वह वैसा व्यवहार नहीं कर सकता। मन की युक्ति यह है कि वह विचारों के द्वारा एक सृष्टि की कल्पना करता है? और फिर उसी के साथ तादात्म्य कर स्वयं को इस प्रकार बन्धन में अनुभव करता है मानो उससे मुक्ति पाना कदापि संभव ही न हो। जब तक हम मन में ही डूबे रहेंगे तब तक उसके क्षोभ से उद्वेलित भी होते रहेंगे। मन से अतीत अर्थात् मुक्त होने पर शुद्ध आत्मा में कोई सृष्टि नहीं है? तब हमें जन्म का अनुभव कैसे हो सकता है और उस स्थिति में प्रलय से भय कैसा वह पूर्ण मुक्ति की स्थिति है।परन्तु अपने मन पर विजय पाने के लिये? साधक को मन की उन युक्तियों (योजनाओं) का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है? जिनके द्वारा यह प्राय उसे छलता रहता है। शत्रु पर आक्रमण करने के पूर्व उसकी रणनीति का ज्ञान प्राप्त करना अपरिहार्य होता है। इस दृष्टि से? भगवान् का यह कथन भी समीचीन है कि इन तीन गुणों का सम्पूर्ण ज्ञान साधक को अपने मन पर विजय प्राप्त कराने में सहायक होगा और इस प्रकार वह अपनी समस्त प्रकार की अपूर्णताओं से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा।अब? भगवान् कहते हैं कि किस प्रकार जड़ और चेतन के सम्बन्ध में इस दुखपूर्ण संसार की उत्पत्ति होती है
Swami Ramsukhdas
।।14.2।। व्याख्या -- इदं ज्ञानमुपाश्रित्य -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने उत्तम और पर -- इन दो विशेषणोंसे जिस ज्ञानकी महिमा कही थी? उस ज्ञानका अनुभव करना ही उसका आश्रय लेना है। उस ज्ञानका अनुभव होनेसे मनुष्यके सम्पूर्ण संशय मिट जाते हैं और वह ज्ञानस्वरूप हो जाता है।मम साधर्म्यमागताः -- उस ज्ञानका आश्रय लेकर मनुष्य मेरी सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जैसे मेरेमें कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं है? ऐसे ही उनमें भी कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं रहता। जैसे मैं सदा ही निर्लिप्तनिर्विकार रहता हूँ? ऐसे ही उनको भी अपनी निर्लिप्ततानिर्विकारताका अनुभव हो जाता है।ज्ञानी महापुरुष भगवान्के समान निर्लिप्तनिर्विकार तो हो जाते हैं? पर वे भगवान्के समान संसारकी उत्पत्ति? पालन और संहारका कार्य नहीं कर सकते। हाँ? योगाभ्यासके बलसे किसी योगीमें कुछ सामर्थ्य आ जाती है? पर वह सामर्थ्य भी भगवान्की सामर्थ्यके समान नहीं होती। कारण कि वह युञ्जान योगी है अर्थात् उसने अभ्यास करके कुछ सामर्थ्य प्राप्त की है। परन्तु भगवान् युक्त योगी हैं अर्थात् भगवान्में सामर्थ्य सदासे स्वतःसिद्ध है। भगवान् सब कुछ करनेमें समर्थ हैं -- कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः। योगीकी सामर्थ्य तो,सीमित होती है? पर भगवान्की सामर्थ्य असीम होती है।सर्गेऽपि नोपजायन्ते -- यहाँ अपिपदसे यह मालूम होता है कि वे ज्ञानी महापुरुष महासर्गके आरम्भमें भी उत्पन्न नहीं होते। महासर्गके आदिमें चौदह लोकोंकी तथा उन लोकोंके अधिकारियोंकी उत्पत्ति होती है? पर वे महापुरुष उत्पन्न नहीं होते अर्थात् उनको फिर कर्मपरवश होकर शरीर धारण नहीं करना पड़ता।प्रलये न व्यथन्ति च -- महाप्रलयमें संवर्तक अग्निसे चरअचर सभी प्राणी भस्म हो जाते हैं। समुद्रके बढ़ जानेसे पृथ्वी डूब जाती है। चौदह लोकोंमें हलचल? हाहाकार मच जाता है। सभी प्राणी दुःखी होते हैं? नष्ट होते हैं। परन्तु महाप्रलयमें उन ज्ञानी महापुरुषोंको कोई दुःख नहीं होता? उनमें कोई हलचल नहीं होती? विकार नहीं होता। वे महापुरुष जिस तत्त्वको प्राप्त हो गये हैं? उस तत्त्वमें हलचल? विकार है ही नहीं? तो फिर वे महापुरुष व्यथित कैसे हो सकते हैं नहीं हो सकते।महासर्गमें भी उत्पन्न न होने और महाप्रलयमें भी व्यथित न होनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषका प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। इसलिये प्रकृतिका सम्बन्ध रहनेसे जो जन्ममरण होता है? दुःख होता है? हलचल होती है? प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित महापुरुषमें वह जन्ममरण? दुःख आदि नहीं होते। सम्बन्ध -- जो भगवान्की सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं? वे तो महासर्गमें भी पैदा नहीं होते परन्तु जो प्राणी महासर्गमें पैदा होते हैं? उनके उत्पन्न होनेकी क्या प्रक्रिया है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।14.2।। इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप (सार्धम्यम्) को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।14.2।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।14.2।।ज्ञानफलस्य कर्मफलवैलक्षण्यमाह -- अस्याश्चेति। कथं ज्ञानाश्रयणं तद्धेतुश्रवणादिसामग्रीसंपत्तिद्वारेत्याह -- ज्ञानेति। साधर्म्ये गोगवययोरिव विद्वदीश्वरयोरपि भेदः स्यादित्याशङ्क्याह -- मत्स्वरूपतामिति। साधर्म्यस्य मुख्यत्वे भेदध्रौव्याद्गीताशास्त्रविरोधः स्यादित्याह -- नत्विति। ज्ञानस्तुतये तत्फलस्य विवक्षितत्वाच्च नात्र सारूप्यमिष्टमित्याह -- फलेति। सारूप्ये धीफलं हित्वा ध्यानफलमप्रस्तुतं प्रसज्येतेत्यर्थः। ईश्वरात्मतां गतानामेवावान्तरसर्गादौ जन्माद्यभावेऽपि महासर्गादौ तद्भविष्यतीत्याशङ्क्याह -- सर्गेऽपीति।
Sri Vallabhacharya
।।14.2।।इदं वक्ष्यमाणं मम साधर्म्यं षड्गुणवत्तया साम्यं प्राप्ता एके ते सर्गेऽपि नोपजायन्ते? प्रलये च न व्यथन्ति किन्तु नित्यं समीपे तिष्ठन्तीत्यर्थः। अनेन मुक्तानां तत्र बाहुल्यं सूचितंअनुव्रता यत्र हरेः इत्यादिवाक्यात्।
Sridhara Swami
।।14.2।।किंच -- इदमिति। इदं वक्ष्यमाणं ज्ञानमुपाश्रित्य इदं ज्ञानसाधनमनुष्ठाय मम साधर्म्यं मद्रूपत्वं प्राप्ताः सन्तः सर्गेऽपि ब्रह्मादिषूत्पद्यमानेष्वपि नोत्पद्यन्ते तथा प्रलयेऽपि न व्यथन्ति प्रलये दुःखानि नानुभवन्ति। पुनर्नावर्तन्त इत्यर्थः।