Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 1 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
श्रीभगवानुवाच | परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् | यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ||१४-१||
Transliteration
śrībhagavānuvāca . paraṃ bhūyaḥ pravakṣyāmi jñānānāṃ jñānamuttamam . yajjñātvā munayaḥ sarve parāṃ siddhimito gatāḥ ||14-1||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
14.1 The Blessed Lord said I will again declare (to thee) that supreme knowledge, the best of all knowledge, having known which all the sages have gone to the supreme perfection after this life.
।।14.1।। श्री भगवान् ने कहा -- समस्त ज्ञानों में उत्तम परम ज्ञान को मैं पुन: कहूंगा, जिसको जानकर सभी मुनिजन इस (लोक) से जाकर (इस जीवनोपरान्त) परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
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When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Embrace profound wisdom to transcend worldly limitations and attain ultimate liberation and lasting perfection.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
14.1 परम् supreme? भूयः again? प्रवक्ष्यामि (I) will declare? ज्ञानानाम् of all knowledge? ज्ञानम् knowledge? उत्तमम् the best? यत् which? ज्ञात्वा having known? मुनयः the sages? सर्वे all? पराम् supreme? सिद्धिम् to perfection? इतः after this life? गताः gone.Commentary Further analysis of the field is made in this chapter.In chapter XIII? verse 21? it has been stated that attachment to the alities is the cause of Samsara or births in good and evil wombs. In this chapter the Lord gives answers to the estions What are the alities of Nature (Gunas) How do they bind a man What are the characteristics of these alities How do they operate How can one obtain freedom from them What are the characteristics of a liberated soulAll knowledge has no reference to the knowledge described in chapter XIII? verse 7 to 10? but it refers to that kind of knowledge which concerns sacrifices. That kind of knowledge which relates to sacrifices cannot give liberation. But the knowledge which is going to be imparted in this discourse will certainly lead to emancipation. The Lord eulogises this knowledge by the epithets supreme and the best in order to create great interest in Arjuna and other spiritual aspirants.Having learnt this supreme knowledge? all the sages who practised Manana or reflection (Munis) have attained perfection after being freed from bondage to the body.Itah After this life after being freed from this bondage to the body.
Shri Purohit Swami
14.1 "Lord Shri Krishna continued: Now I will reveal unto the Wisdom which is beyond knowledge, by attaining which the sages have reached Perfection.
Dr. S. Sankaranarayan
14.1. The Bhagavat said Further, once again I shall explain the supreme knowledge, the best among the knowledges, by knowing which all the seers have gone from here to the Supreme Success.
Swami Adidevananda
14.1 The Lord said I shall declare again another kind of knowledge: It is the best of all forms of knowledge, by knowing which all the sages have attained the state of perfection beyond this world.
Swami Gambirananda
14.1 The Blessed Lord said I shall speak again of the supreme Knowledge, the best of all knowledges, by realizing which all the contemplatives reached the highest Perfection from here.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।14.1।। किसी भयंकर मनोवेग से विक्षुब्ध होने पर एक अत्यन्त बुद्धिमान पुरुष को भी बारम्बार सांत्वना की आवश्यकता होती है। जीवभाव को प्राप्त पुरुष अपने जीवन के दुखों के कारण उपदेश के पश्चात भी अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को सरलता से नहीं ग्रहण कर पाता। इसलिए? जब तक शिष्यों की विद्रोही बुद्धि इस तत्त्व को समझ नहीं लेती? तब तक आचार्यों को इन आध्यात्मिक सत्यों का बारंबार पुनरावृत्ति करना आवश्यक हो जाता है। अपने छोटेसे शिशु को भोजन करा रही माता इसका आदर्श उदाहरण है। जब तक वह शिशु पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर लेता? तब तक उसकी माँ उसे बहलाती फुसलाती रहती है। इसी प्रकार? शिष्य को निश्चयात्मक ज्ञान हो जाने तक आचार्य को इस ज्ञान को बारंबार दोहराना पड़ता है।इसलिए? इस अध्याय का प्रारम्भ भगवान् के इस कथन से होता है? मैं तुम्हें पुन परम ज्ञान कहूंगा। ऐसा नहीं है कि पहले परम ज्ञान नहीं बताया गया था? किन्तु उसके और अधिक स्पष्टीकरण तथा यथार्थ ग्रहण के लिए उसकी पुनरावृत्ति अपरिहार्य है।इस अध्याय की विषय वस्तु को भगवान् परम उत्तम ज्ञान कहते हैं? जिसका शब्दश अर्थ नहीं लेना चाहिए। इस अध्याय का विषय प्रकृति के गुणों का मनुष्य के अन्तकरण पर पड़ने वाले प्रभाव का तथा उसके व्यवहार का अध्ययन है। इसे दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च विषयवस्तु की संज्ञा नहीं दी जा सकती। तथापि इसके सम्यक् ज्ञान के बिना साधक अपने आन्तरिक दोषों को समझ कर उन्हें सुधार नहीं सकता और ऐसी स्थिति में वह परम पुरुषार्थ को भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इन त्रिगुणों के ज्ञान को ही यहाँ परम ज्ञान कहा गया है।जिसको जानकर मुनिजन परम सिद्धि को प्राप्त हुए यहाँ वचन दिया गया है कि त्रिगुणों के यथार्थ ज्ञान से साधक की तीर्थयात्रा सरल हो जायेगी। लक्ष्य के मार्ग का तथा सभी संभाव्य संकटों और कठिनाइयों का सम्पूर्ण ज्ञान पहले से ही प्राप्त होने पर उन संकटों के निवारण की तैयारी करने में यात्री को सहायता मिलती है। इस प्रकार अध्यात्म मार्ग में भी अपने मन की दुष्टप्रवृत्तियों का पूर्ण और पूर्व ज्ञान होने पर एक परिश्रमी साधक आन्तरिक समस्या के उत्पन्न होने पर उसका हल स्वयं ही कुशलतापूर्वक खोजने में समर्थ हो जाता है।मुनि शब्द से हमें किसी जटाजूटधारी वृद्ध पुरुष की कल्पना नहीं करनी चाहिए? जो अरण्यवास करते हुए कन्दमूलों के आहार पर अपना जीवनयापन करता हो। मननशील पुरुष को मुनि कहते हैं। संक्षेप में समस्त मननशील साधकों को इस अध्याय के विषय का ज्ञान अपनी आध्यात्मिक साधना के साध्य को सम्पादित करने में सहायक होगा।अनेक उपनिषदों के अनुसार यहाँ भी परम सिद्धि की प्राप्ति मरणोपरान्त कही गयी है। कुछ तत्त्वचिन्तक पुरुष इसका वाच्यार्थ ही स्वीकार करके यह मत प्रतिपादित करते हैं कि इसी जीवन में रहते हुए मोक्षसिद्धि नहीं हो सकती। देह त्याग के बाद ही मुक्ति संभव है। शास्त्रीय भाषा में इसे विदेहमुक्ति कहते हैं। परन्तु? श्री शंकराचार्य अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रामाणिक तर्कों के द्वारा इस मत का खण्डन करके जीवन्मुक्ति के सिद्धांत का मण्डन करते हैं। उनका मत है कि साधन सम्पन्न जिज्ञासु साधक को यहाँ और अभी इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इस जीवन के पश्चात् का अर्थ देह के मरण से नहीं? वरन् अविद्याजनित अहंकार केन्द्रित जीवन के नाश से है। अर्थात् यहाँ अहंकार का नाश अभिप्रेत है? देह का नहीं।लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि गृहस्थ बनने के लिए अविवाहित पुरुष का मरण आवश्यक है और माँ बनने के लिए कुमारी का। इन उदाहरणों में? व्यक्ति का मरण नहीं होता? किन्तु ब्रह्मचर्य और कौमार्य का ही अन्त होता है? जिससे कि उन्हें पतित्व और मातृत्व प्राप्त हो सके। इस प्रकार? व्यक्ति तो वही रहता है परन्तु उसकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। युक्तियुक्त मनन और यथार्थ ज्ञान के द्वारा हमारे असत् जीवन मूल्यों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार नवार्जित ज्ञान के प्रकाश में हम श्रेष्ठतर? आनन्दमय जीवन जी सकते हैं। इस नवजीवन का साधन है? स्वस्वरूप का निदिध्यासन। साधनाकाल में? संभव है कि इन त्रिगुणों के विनाशकारी प्रभाववश बुद्धिमान और परिश्रमी साधक का भी मन विचलित होकर ध्यान की शान्ति खो दे। इसलिए? इन्हें भलीभाँति जानकर इनके कुप्रभावों को दूर रखने पर शतप्रतिशत सफलता निश्चित हो जाती है।अब? भगवान् इस ज्ञान के निश्चित फल को बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।14.1।। व्याख्या--'परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्'--तेरहवें अध्यायके अठारहवें, तेईसवें और चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका, प्रकृतिपुरुषका जो ज्ञान (विवेक) बताया था, उसी ज्ञानको फिर बतानेके लिये भगवान् 'भूयः प्रवक्ष्यामि' पदोंसे प्रतिज्ञा करते हैं। लौकिक और पारलौकिक जितने भी ज्ञान हैं अर्थात् जितनी भी विद्याओं, कलाओँ, भाषाओं, लिपियों आदिका ज्ञान है, उन सबसे प्रकृति-पुरुषका भेद बतानेवाला, प्रकृतिसे अतीत करनेवाला, परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला यह ज्ञान श्रेष्ठ है, सर्वोत्कृष्ट है। इसके समान दूसरा कोई ज्ञान है ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होना सम्भव भी नहीं। कारण कि दूसरे सभी ज्ञान संसारमें फँसानेवाले हैं, बन्धनमें डालनेवाले हैं। यद्यपि 'उत्तम' और 'पर'-- इन दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ होता है, तथापि जहाँ एक अर्थके दो शब्द एक साथ आ जाते हैं, वहाँ उनके दो अर्थ होते हैं। अतः यहाँ 'उत्तम' शब्दका अर्थ है कि यह ज्ञान प्रकृति और उसके कार्य संसार-शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करानेवाला होनेसे श्रेष्ठ है; और 'पर' शब्दका अर्थ है कि यह ज्ञान परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे सर्वोत्कृष्ट है। 'यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः'-- जिस ज्ञानको जानकर अर्थात् जिसका अनुभव करके बड़े-बड़े मुनिलोग इस संसारसे मुक्त होकर परमात्माको प्राप्त हो गये हैं, उसको मैं कहूँगा। उस ज्ञानको प्राप्त करनेपर कोई मुक्त हो और कोई मुक्त न हो -- ऐसा होता ही नहीं, प्रत्युत इस ज्ञानको प्राप्त करनेवाले सब-के-सब मुनिलोग मुक्त हो जाते हैं, संसारके बन्धनसे, संसारकी परवशतासे छूट जाते हैं और परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं। तत्त्वका मनन करनेवाले जिस मनुष्यका शरीरके साथ अपनापन नहीं रहा, वह 'मुनि' कहलाता है। 'परां सिद्धिम्' कहनेका तात्पर्य है कि सांसारिक कार्योंकी जितनी सिद्धियाँ हैं अथवा योगसाधनसे होनेवाली अणिमा, महिमा, गरिमा आदि जितनी सिद्धियाँ हैं, वे सभी वास्तवमें असिद्धियाँ ही हैं। कारण कि वे सभी जन्म-मरण देनेवाली, बन्धनमें डालनेवाली, परमात्मप्राप्तिमें बाधा डालनेवाली हैं। परन्तु परमात्मप्राप्तिरूप जो सिद्धि है, वह सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि उसको प्राप्त होनेपर मनुष्य जन्ममरणसे छूट जाता है।
Swami Tejomayananda
।।14.1।। श्री भगवान् ने कहा -- समस्त ज्ञानों में उत्तम परम ज्ञान को मैं पुन: कहूंगा, जिसको जानकर सभी मुनिजन इस (लोक) से जाकर (इस जीवनोपरान्त) परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।14.1।। साधनकृज्ज्ञानदात्रे नमः। साधनं प्राधान्येनोत्तरैरध्यायैर्वक्ति।
Sri Anandgiri
।।14.1।।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्य सर्वोत्पत्तिनिमित्तत्वमज्ञातं ज्ञापयितुमध्यायान्तरमवतारयन्नध्याययोरुत्थाप्योत्थापकत्वरूपां संगतिमाह -- सर्वमिति। विधान्तरेणाध्यायारम्भं सूचयति -- अथवेति। तदेव वक्तुमुक्तमनुवदति -- ईश्वरेति। प्रकृतिस्थत्वं पुरुषस्य प्रकृत्या सहैक्याध्यासस्तस्यैव गुणेषु शब्दादिविषयेषु सङ्गोऽभिनिवेशः। षड्विधामाकाङ्क्षां निक्षिप्य तदुत्तरत्वेनाध्यायारम्भे पूर्ववदेव पूर्वाध्यायसंबन्धसिद्धिरित्याह -- कस्मिन्निति। पूर्वोक्तेनार्थेनास्याध्यायस्य समुच्चयार्थश्चकारः। परमित्यस्य भाविकालार्थत्वं व्यावर्तयितुं सङ्गतिमाह -- परमिति। भूयःशब्दस्याधिकार्थत्वमिह नास्तीत्याह -- पुनरिति। पुनःशब्दार्थमेव विवृणोति -- पूर्वेष्विति। पुनरुक्तिस्तर्हीत्याशङ्क्य सूक्ष्मत्वेन दुर्बोधत्वात्पुनर्वचनमर्थवदित्याह -- तच्चेति। विशेष्यं प्रश्नद्वारा निर्दिशति -- किं तदिति। निर्धारणार्थां षष्ठीमादाय तस्य प्रकर्षं दर्शयति -- सर्वेषामिति। परमुत्तममिति पुनरु���्तिमाशङ्क्य विषयफलभेदान्मैवमित्याह -- उत्तमेति। ज्ञानं ज्ञेयमित्यादौ ज्ञानशब्देनामानित्वादीनामुक्तत्वात्तन्मध्ये च ज्ञानस्य साध्यत्वेनोत्तमत्वान्न तस्य वक्तव्यतेत्याशङ्क्याह -- ज्ञानानामिति। नामानित्वादीनां ग्रहणमिति शेषः। इतिशब्दादूर्ध्वं पूर्ववदेव शेषो द्रष्टव्यः। यथोक्तज्ञानापेक्षया कुतस्तज्ज्ञानस्य प्रकर्षस्तत्राह -- तानीति। स्तुतिफलमाह -- श्रोतृबुद्धीति। ज्ञानं ज्ञात्वा ज्ञानस्य ज्ञेयत्वोपगमादनवस्थेत्याशङ्क्याह -- प्राप्येति। मुनिशब्दस्य चतुर्थाश्रमविषयत्वे तन्मात्रादेव ज्ञानायोगात्कुतस्तेषां मुक्तिरित्याशङ्क्याह -- मननेति। सिद्धेर्ज्ञानत्वं परामिति विशेषणाद्व्यावर्त्य मुक्तित्वमाह -- मोक्षाख्यामिति। देहाख्यस्य बन्धनस्याध्यक्षत्वमाह -- अस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।14.1।।अनादित्वान्निर्गुणत्वात्पुरुषो विमलः स्वतः। अनादित्वेऽपि मलिना प्रकृतिस्त्रिगुणा यतः।।1।।तत्सम्बद्धप्रपञ्चेऽस्मिन् गुणातीतस्तु कश्चन। इत्युच्यतेऽस्मिन्नध्याये गुणत्रयविभागशः।।2।।तत्र पूर्वंयावत्सञ्जायते किञ्चित् [13।27] इत्युक्तं स च क्षेत्रात्मनोः संयोगो निरीश्वरसाङ्ख्यानामिव? न स्वातन्त्र्येण किन्तु भगवदिच्छयेति कथनपूर्वकंकारणंक गुणसङ्गोऽस्य [13।22] इत्यनेनोक्तं सत्त्वादिगुणकृतं जगद्वैचित्र्यं प्रपञ्चयिष्यन्क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा। भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् [13।35] इति परशब्दं च विवृण्वन् श्रीभगवानुवाच -- परं भूय इति द्वाभ्याम्। पूर्वश्लोकोक्तं यत्परं तद्भूयः प्रवक्ष्यामि विवृण्वन्वक्ष्यामीति प्रशब्दार्थः। किं तत्परं ज्ञानानामुत्तमं ज्ञानमिति ज्ञायते इति ज्ञानं अचिन्त्यशक्तिमहिमपुरुषोत्तमविषयकं तत्त्वज्ञानं यदधिगम्य मुनयः परां गुणातीतां मुक्तिं गताः? इतस्त्रैगुण्यात्।
Sridhara Swami
।।14.1।।पुंप्रकृत्योः स्वतन्त्रत्वं वारयन्गुणसङ्गतः। प्राह संसारवैचित्र्यं विस्तरेण चतुर्दशे।।1।।यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्। क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ इत्युक्तम्। स च क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगो निरीश्वरसांख्यानामिव न स्वातन्त्र्येण किं त्वीश्वरेच्छयैवेति कथनपूर्वकंकारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु इत्यनेनोक्तं सत्त्वादिगुणकृतं संसारवैचित्र्यं प्रपञ्चयिष्यन्नेवंभूतं वक्ष्यमाणमर्थं स्तौति। श्रीभगवानुवाच -- परं भूय इति द्वाभ्याम्। परं परमार्थनिष्ठं? ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमुपदेशं भूयोऽपि तुभ्यं प्रकर्षेण वक्ष्यामि। कथंभूतम्। ज्ञानानां तपःकर्मादिविषयाणां मध्ये उत्तमम्? मोक्षहेतुत्वात्। तदेवाह। यज्ज्ञात्वा प्राप्य मुनयो मननशीलाः सर्वे इतो देहबन्धनात्परां सिद्धिं गताः प्राप्ताः।