Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 49 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् | व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ||११-४९||
Transliteration
mā te vyathā mā ca vimūḍhabhāvo dṛṣṭvā rūpaṃ ghoramīdṛṅmamedam . vyapetabhīḥ prītamanāḥ punastvaṃ tadeva me rūpamidaṃ prapaśya ||11-49||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.49 Be not afraid, nor bewildered on seeing such a teriible form of Mine as this; with thy fear dispelled and with a gladdened heart, now behold again this former form of Mine.
।।11.49।। इस प्रकार मेरे इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन: मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, when faced with overwhelming projects, intimidating deadlines, or difficult leadership, don't let fear or confusion paralyze you. Like Krishna comforting Arjuna, seek to break down the 'terrible form' of the challenge into manageable tasks, regain your composure, and focus on familiar strengths or seek reassurance from a trusted mentor. Leaders can apply this by providing clear, comforting guidance to overwhelmed teams, helping them shift perspective from panic to productivity.
🧘 For Stress & Anxiety
When life presents seemingly insurmountable obstacles or intense stress, it's easy to become fearful and bewildered. This verse encourages us to consciously withdraw from the overwhelming sensory input or thoughts that cause distress. Practice mindfulness, deep breathing, or seek solace in familiar, comforting routines to dispel fear and gladden your heart, much like Krishna reverting to His gentle form. It's about actively choosing to regulate your emotional response and restore inner peace.
❤️ In Relationships
In relationships, moments of intense conflict, disappointment, or a partner's difficult behavior can feel like a 'terrible form.' Instead of reacting with fear or bewilderment, strive to recall the 'gentler form' of the relationship – shared love, positive memories, and mutual respect. Offer reassurance and understanding to your partner if they are the one overwhelmed, and similarly, allow yourself to be comforted. This helps to restore trust, dispel emotional turbulence, and return to a more harmonious, comforting dynamic.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When confronted by overwhelming or terrifying realities, consciously shift your perspective to dispel fear, restore inner calm, and embrace a reassuring, more comprehensible view.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.49 मा not? ते thee? व्यथा fear? मा not? च and? विमूढभावः bewildered state? दृष्ट्वा having seen? रूपम् form? घोरम् terrible? ईदृक् such? मम My? इदम् this? व्यपेतभीः with (thy) fear dispelled? प्रीतमनाः with gladdened heart? पुनः again? त्वम् thou? तत् that? एव even? मे My? रूपम् form? इदम् this? प्रपश्य behold.Commentary Former form is the form with four hands with conch? discus? club or mace and lotus.The Lord was Arjuna in a state of terror. Therefore? He withdrew the Cosmic Form and assumed His usual gentle form. He consoled Arjuna and spoke sweet? loving words.
Shri Purohit Swami
11.49 Be not afraid or bewildered by the terrible vision. Put away thy fear and, with joyful mind, see Me once again in My usual Form."
Dr. S. Sankaranarayan
11.49. Let there be no distress and no bewilderment in you by seeing this terrific and violent form of Mine; being free from fear, cheerful at heart, behold again this form of Mine which is the same [as before].
Swami Adidevananda
11.49 You need not fear any more, nor be perplexed, looking on this awesome form of Mine. Free from fear and with a gladdened heart, behold again that other form of Mine.
Swami Gambirananda
11.49 May you have no fear, and may not there be bewilderment by seeing this form of Mine so terrible Becoming free from fear and gladdened in mind again, see this very earlier form of Mine.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.49।। जब कभी अवसर प्राप्त होता है? व्यासजी की नाट्यप्रतिभा अपनी पूर्णता को पाने में कभी विफल नहीं होती। यहाँ ऐसे ही एक कलात्मक चित्र का उदाहरण प्रस्तुत है? जो गीतारूपी पटल पर व्यासजी ने शब्दों के द्वारा चित्रित किया है। अर्जुन के मानसिक विक्षेपों को यहाँ नाटकीय ढंग से भगवान् के इन शब्दों में दर्शाते हैं कि? तुम मेरे इस घोर रूप को देखकर भय और मोह को मत प्राप्त हो।भगवान् अपने मधुर वचनों एवं व्यवहार से अर्जुन को सांत्वना देते हुए उसके मन को पुन शान्त और प्रसन्न करते हैं। भगवान् पुन अपने मूलरूप को धारण करते हैं? जिसकी सूचना देते हुए वे कहते हैं कि? पुन मेरे उसी रूप को देखो।यह खण्ड जो भगवान् का अपने पूर्व के सौम्य और शान्त रूप में पुनर्प्रवेश का वर्णन करता है? उससे वेदान्त के विद्यार्थियों को किसी एक महावाक्य का तो स्मरण होना ही चाहिए। समष्टि के घोर विश्वरूप तथा श्रीकृष्ण के सौम्य दिव्य व्यष्टि रूप का एकत्व इस वाक्य द्वारा कि मेरा वही यह रूप,हैअत्यन्त सुन्दर प्रकार से दर्शाया गया है। वस्तुत जो परम सत्य श्रीकृष्ण की व्यष्टि उपाधि में व्यक्त हो रहा है? वही सत्य विराटरूप में भी है? जहाँ वह समस्त नामरूपों के अधिष्ठान के रूप में स्थित है। तरंगों का अधिष्ठान समुद्र है। यदि समुद्र शक्तिशाली? भयंकर घोर और विशाल है तो स्वयं तरंग लज्जालु और सौम्य? प्रिय तथा आकर्षक होती है।एक बार फिर दृश्य है हस्तिनापुर का? जहाँ राजभवन में अन्ध वृद्ध धृतराष्ट्र को संजय बताता है कि
Swami Ramsukhdas
।।11.49।। व्याख्या--'मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्'--विकराल दाढ़ोंके कारण भयभीत करनेवाले मेरे मुखोंमें योद्धालोग बड़ी तेजीसे जा रहे हैं, उनमेंसे कई चूर्ण हुए सिरोंसहित दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं और मैं प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोगोंका ग्रसन करते हुए उनको चारों ओरसे चाट रहा हूँ -- इस प्रकारके मेरे घोर रूपको देखकर तेरेको व्यथा नहीं होनी चाहिये, प्रत्युत प्रसन्नता होनी चाहिये। तात्पर्य है कि पहले (11। 45 में) तू जो मेरी कृपाको देखकर हर्षित हुआ था, तो मेरी कृपाकी तरफ दृष्टि होनेसे तेरा हर्षित होना ठीक ही था, पर यह व्यथित होना ठीक नहीं है। अर्जुनने जो पहले कहा है --'प्रव्यथितास्तथाहम्' (11। 23) और 'प्रव्यथितान्तरात्मा' (11। 24)। उसीके उत्तरमें भगवान् यहाँ कहते हैं -- 'मा ते व्यथा।',मैं कृपा करके ही ऐसा रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये -- 'मा च विमूढभावः'। दूसरी बात? मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी प्रसन्नतासे ही तेरेको यह रूप दिखा रहा हूँ; परन्तु तू जो बार-बार यह कह रहा है कि 'प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न हो जाओ', यही तेरा विमूढ़भाव है। तू इसको छोड़ दे। तीसरी बात, पहले तूने कहा था कि मेरा मोह चला गया (11। 1), पर वास्तवमें तेरा मोह अभी नहीं गया है। तेरेको इस मोहको छोड़ देना चाहिये और निर्भय तथा प्रसन्न मनवाला होकर मेरा वह देवरूप देखना चाहिये। तेरा और मेरा जो संवाद है, यह तो प्रसन्नतासे, आनन्दरूपसे, लीलारूपसे होना चाहिये। इसमें भय और मोह बिलकुल नहीं होने चाहिये। मैं तेरे कहे अनुसार घोड़े हाँकता हूँ, बातें करता हूँ, विश्वरूप दिखाता हूँ आदि सब कुछ करनेपर भी तूने मेरेमें कोई विकृति देखी है क्या (टिप्पणी प0 611.1) मेरेमें कुछ अन्तर आया है क्या? ऐसे ही मेरे विश्वरूपको देखकर तेरेमें भी कोई विकृति नहीं आनी चाहिये। हे अर्जुन! तेरेको जो भय लग रहा है, वह शरीरमें अहंताममता (मैं-मेरापन) होनेसे ही लग रहा है अर्थात् अहंताममतावाली चीज (शरीर) नष्ट न हो जाय, इसको लेकर तू भयभीत हो रहा है -- यह तेरी मूर्खता है, अनजानपना है। इसको तू छोड़ दे। आज भी जिस-किसीको जहाँ-कहीं जिसकिसीसे भी भय होता है, वह शरीरमें अहंता-ममता होनेसे ही होता है। शरीरमें अहंताममता होनेसे वह उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु-(प्राणों-) को रखना चाहता है। यही मनुष्यकी मूर्खता है और यही आसुरी सम्पत्तिका मूल है। परन्तु जो भगवान्की तरफ चलनेवाले हैं, उनका प्राणोंमें मोह नहीं रहता, प्रत्युत उनका सर्वत्र भगवद्भाव रहता है और एकमात्र भगवान्में प्रेम रहता है। इसलिये वे निर्भय,हो जाते हैं। उनका भगवान्की तरफ चलना दैवी सम्पत्तिका मूल है। नृसिंह-भगवान्के भयंकर रूपको देखकर देवता आदि सभी डर गये, पर प्रह्लादजी नहीं डरे; क्योंकि प्रह्लादजीकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि थी। इसलिये वे नृसिंहभगवान्के पास जाकर उनके चरणोंमें गिर गये और भगवान्ने उनको उठाकर गोदमें ले लिया तथा उनको जीभसे चाटने लगे! 'व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य' -- अर्जुनने पैंतालीसवें श्लोकमें कहा था -- 'भयेन च प्रव्यथितं मनो मे'; अतः भगवान्ने 'भयेन' के लिये कहा है -- 'व्यपेतभीः' अर्थात् तू भयभीत हो जा और 'प्रव्यथितं मनः' के लिये कहा है -- 'प्रीतमनाः' अर्थात् तू प्रसन्न मनवाला हो जा।भगवान्ने विराट्रूपमें अर्जुनको जो चतुर्भुजरूप दिखाया था, उसीके लिये भगवान् 'पुनः' पद देकर कह रहे हैं कि वही मेरा यह रूप तू फिर अच्छी तरहसे देख ले।'तदेव' कहनेका तात्पर्य है कि तू देवरूप (विष्णुरूप) के साथ ब्रह्मा, शंकर आदि देवता और भ��ानक विश्वरूप नहीं देखना चाहता, केवल देवरूप ही देखना चाहता है इसलिये वही रूप तू अच्छी तरहसे देख ले।अर्जुनकी प्रार्थनाके अनुसार भगवान् अभी जो रूप दिखाना चाहते हैं, उसके लिये भगवान्ने यहाँ 'इदम्' शब्दका प्रयोग किया है।सञ्जय और अर्जुनकी दिव्यदृष्टि कबतक रही? सञ्जयको वेदव्यासजीने युद्धके आरम्भमें दिव्यदृष्टि दी थी (टिप्पणी प0 611.2), जिससे वे धृतराष्ट्रको युद्धके समाचार सुनाते रहे। परन्तु अन्तमें जब दुर्योधनकी मृत्युपर सञ्जय शोकसे व्याकुल हो गये, तब सञ्जयकी वह दिव्यदृष्टि चली गयी (टिप्पणी प0 611.3)। अर्जुनके द्वारा विश्वरूप दिखानेकी प्रार्थना करनेपर भगवान्ने अर्जुनको दिव्यदृष्टि दी -- 'दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्' (11। 8) और अर्जुन विराट्रूप भगवान्के देवरूप, उग्ररूप आदि रूपोंके दर्शन करने लगे। जब अर्जुनके सामने अत्युग्र रूप आया, तब वे डर गये और भगवान्की स्तुतिप्रार्थना करते हुए कहने लगे कि मेरा मन भयसे व्यथित हो रहा है, आप मेरेको वही चतुर्भुजरूप दिखाइये। तब भगवान्ने अपना चतुर्भुज दिखाया और फिर द्विभुजरूपसे हो गये। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ (उनचासवें श्लोक) तक ही अर्जुनकी दिव्यदृष्टि रही। इक्यावनवें श्लोकमें स्वयं अर्जुनने कहा है कि मैं आपके सौम्य मनुष्यरूपको देखकर सचेत हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थितिको प्राप्त हो गया हूँ।,यहाँ शङ्का होती है कि अर्जुन तो पहले भी व्यथित (व्याकुल) हुए थे -- 'दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्' (11। 23), 'दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा' (11। 24) ;अतः वहीं उनकी दिव्यदृष्टि चली जानी चाहिये थी। इसका समाधान यह है कि वहाँ अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे, जितने यहाँ हुए हैं। यहाँ तो अर्जुन भयभीत होकर भगवान्को बार-बार नमस्कार करते हैं और उनसे चतुर्भुजरूप दिखानेके लिये प्रार्थना भी करते हैं (11। 45)। इसलिये यहाँ अर्जुनकी दिव्यदृष्टि चली जाती है।दूसरा कारण यह भी माना जा सकता है कि पहले अर्जुनकी विश्वरूप देखनेकी विशेष रुचि (इच्छा) थी -- 'द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्' ( 11। 3), इसलिये भगवान्ने अर्जुनको दिव्यदृष्टि दी; परन्तु यहाँ अर्जुनकी विश्वरूप देखनेकी रुचि नहीं रही और वे भयभीत होनेके कारण चतुर्भुजरूप देखनेकी इच्छा करते हैं, इसलिये (दिव्य-दृष्टिकी आवश्यकता न रहनेसे) उनकी दिव्यदृष्टि चली जाती है।अगर सञ्जय और अर्जुन शोकसे, भयसे व्यथित (व्याकुल) न होते, तो उनकी दिव्यदृष्टि बहुत समयतक रहती और वे बहुत कुछ देख लेते। परन्तु शोक और भयसे व्यथित होनेके कारण उनकी दिव्यदृष्टि चली गयी। इसी तरहसे जब मनुष्य मोहसे संसारमें आसक्त हो जाता है, तब भगवान्की दी हुई विवेकदृष्टि काम नहीं करती। जैसे, मनुष्यका रुपयोंमें अधिक मोह होता है तो वह चोरी करने लग जाता है, फिर और मोह बढ़नेपर डकैती करने लग जाता है तथा अत्यधिक मोह बढ़ जानेपर वह रुपयोंके लिये दूसरेकी हत्यातक कर देता है। इस प्रकार ज्यों-ज्यों मोह बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसका विवेक काम नहीं करता। अगर मनुष्य मोहमें न फँसकर अपनी विवेकदृष्टिको महत्त्व देता, तो वह अपना उद्धार करके संसारमात्रका उद्धार करनेवाला बन जाता! सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको जिस रूपको देखनेके लिये आज्ञा दी, उसीके अनुसार भगवान् अपना विष्णुरूप दिखाते हैं -- इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.49।। इस प्रकार मेरे इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन: मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.49।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।11.49।।विश्वरूपदर्शनमेवं स्तुत्वा यद्यस्माद्दृश्यमानाद्बिभेषि तर्हि तदुपसंहरामीत्याह -- मा ते व्यथेति। बहुविधमनुभूतत्वमभिप्रेत्येदृगित्युक्तमिदमिति प्रत्यक्षयोग्यत्वम्। तदेवेत्युक्तं इदमिति।
Sri Vallabhacharya
।।11.49।।किञ्च मा ते व्यथादिर्भवतु। घोरमिदं रूपं? कालरूपत्वात्। तव पुष्टिमिश्रमर्यादाभक्तस्य भयावहमिति तदेव पूर्वं दृष्टभूतं ममेदं पश्य।
Sridhara Swami
।।11.49।। एवमपि चेत्तवेदं रूपं घोरं दृष्ट्वा व्यथा भवति तर्हि तदेव रूपं दर्शयामीत्याह -- मा त इति। ईदृगीदृशं मदीयं घोरं रूपं दृष्ट्वा ते व्यथा मास्तु। विमूढभावो विमूढत्वं च मास्तु। व्यपगतभयः प्रीतमनाश्च सन्पुनस्त्वं तदेवेदं मम रूपं प्रकर्षेण पश्य।