Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 20 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Immanence

Sanskrit Shloka (Original)

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः | अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||१०-२०||

Transliteration

ahamātmā guḍākeśa sarvabhūtāśayasthitaḥ . ahamādiśca madhyaṃ ca bhūtānāmanta eva ca ||10-20||

Word-by-Word Meaning

अहम्I
आत्माthe Self
गुडाकेशO Gudakesa
सर्वभूताशयस्थितःseated in the hearts of all beings
अहम्I
आदिःthe beginning
and
मध्यम्the middle
and
भूतानाम्of (all) beings
अन्तःthe end
एवeven

📖 Translation

English

10.20 I am the Self, O Gudakesa, seated in the hearts of all beings; I am the beginning, the middle and also the end of all beings.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।10.20।। हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, recognize the inherent potential and 'Self' in every colleague and client, fostering empathy, collaboration, and mutual respect. Approach projects with a sense of belonging to a larger, divinely ordered system, understanding that every beginning, middle, and end of a task or career phase is part of a natural flow, encouraging dedication and resilience.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate inner peace and resilience by meditating on the Divine 'Self' within your own heart and realizing its presence in all beings. Understanding that Krishna is the beginning, middle, and end of all existence provides a stable anchor amidst external chaos, helping to detach from outcomes and accept life's natural cycles (ups and downs) with equanimity, reducing anxiety.

❤️ In Relationships

Deepen your connections by perceiving the same divine 'Self' residing in the hearts of all individuals. This awareness fosters profound empathy, compassion, and understanding, moving beyond superficial differences to recognize the fundamental unity that binds all beings. It encourages treating others with the same respect and love you would afford your innermost self, resolving conflict and building stronger bonds.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Recognize the Divine Self within your own heart and in all beings, for it is the eternal source, sustainer, and ultimate destiny of everything.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

10.20 अहम् I? आत्मा the Self? गुडाकेश O Gudakesa? सर्वभूताशयस्थितः seated in the hearts of all beings? अहम् I? आदिः the beginning? च and? मध्यम् the middle? च and? भूतानाम् of (all) beings? अन्तः the end? एव even? च and.Commentary O Gudakesa I am the soul (Pratyagatma) which exists in the hearts of all beings and I am also the source or origin? the middle or stay? and the end of all created beings. I am the birth? the life and the death of all beings. Meditate on Me as the innermost Self.Gudakesa means either coneror of sleep or thickhaired.He who is able to meditate on the Self with Abheda Bhavana (attitude of nonduality)? is a alified aspirant (Adhikari) of the first class. He who is not able to meditate on the Self should think of the Lord in those things which are mentioned below. This type of meditation is for the aspirants of the middle class.

Shri Purohit Swami

10.20 O Arjuna! I am the Self, seated in the hearts of all beings; I am the beginning and the life, and I am the end of them all.

Dr. S. Sankaranarayan

10.20. O coneror of sleep ! I am the Soul residing in the heart of all beings; I am the beginning, and the middle and also the very end of beings.

Swami Adidevananda

10.20 I am the Self, O Arjuna, dwelling in the hearts of all beings. I am the beginning, the middle and also the end of all beings.

Swami Gambirananda

10.20 O Gudakesa, I am the Self residing in the hearts of all beings, and I am the beginning and the middle as also the end of (all) beings.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।10.20।। भूतमात्र के हृदय में स्थित आत्मा मैं ही हूँ इस सामान्य कथन के साथ श्रीकृष्ण इस प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं। वैज्ञानिक विचारपद्धति से शोधकार्य करने का एक सुप्रशिक्षित प्राध्यापक? अनुसंधान के अपने प्रिय विषय की चर्चा का प्रारम्भ एक संक्षिप्त व सारपूर्ण कथन के साथ करता है। तत्पश्चात् वह उस विषय का विस्तार से विचार करके युक्तियुक्त विवेचन के द्वारा अन्त में उसी प्रारम्भिक कथन के निष्कर्ष पर पहुँचता है। यहाँ पर भी हम देखेंगे कि इस अध्याय की समाप्ति पर भगवान् इसी विचार को और अधिक प्रभावशाली ढंग से दोहराते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।इस श्लोक की पहली पंक्ति में भगवान् अपनी सर्वात्मकता दर्शाते हैं और दूसरी पंक्ति में इसी भाव को प्रकारान्तर से बताते हैं कि मैं समस्त भूतों का आदि? मध्य और अन्त हूँ। वस्तुत बाह्य चराचर जगत् मन की प्रक्षेपित सृष्टि है दूसरे शब्दों में बाह्य जगत् परिच्छिन्न मन के द्वारा किया गया अनन्त का अन्यथा दर्शन है। यह तथ्य आन्तरिक वैचारिक जगत् से सम्बन्धित भी समझा जा सकता है। प्रत्येक बुद्धिवृत्ति चैतन्य में प्रकट होकर उसी में लीन हो जाती है। चैतन्य के अभाव में वृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आगे भी इसी विचार को दोहराया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण इस महान् सत्य को दोहराते कभी नहीं थकते हैं।इस चराचर जगत् में रहते हुए ईश्वरोपासना की साधनाओं को या पद्धति को अब बताते हैं।

Swami Ramsukhdas

।।10.20।। व्याख्या--[भगवान्का चिन्तन दो तरहसे होता है-- (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है, उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मनको वहाँसे हटाकर अपने इष्टदेवके चिन्तनमें ही लगा दे; और (2) मनमें सांसारिक विशेषताको लेकर चिन्तन हो, तो उस विशेषताको भगवान्की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तनके लिये ही यहाँ विभूतियोंका वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषतोको लेकर जहा-कहीं वृत्ति जाय, वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु-व्यक्तिका नहीं। इसीके लिये भगवान् विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं।] 'अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च (टिप्पणी प0 555)'-- यहाँ भगवान्ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति-विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है (चाहे दीखे या न दीखे) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तुके आदि, मध्य और अन्तमें (सब समयमें) वही तत्त्व रहता है। जैसे, सोनेसे बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अन्तमें (गहनोंके सोनेमें लीन होनेपर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीचमें भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम, आकृति, उपयोग, माप, तौल आदि अलग-अलग होते हैं; और इनके अलगअलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदिमें भी परमात्मस्वरूप थे और अन्तमें लीन होनेपर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्यमें नाम, रूप, आकृति, क्रिया, स्वभाव आदि अलग-अलग होनेपर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं -- यह बतानेके लिये ही यहाँ भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें कहा है।भगवान्ने विभूतियोंके इस प्रकरणमें आदि, मध्य और अन्तमें -- तीन जगह साररूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है। पहले इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ बीचके बत्तीसवें श्लोकमें कहा कि सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ;' और अन्तके उनतालीसवें श्लोकमें कहा कि 'सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करनेके लिये यही विभूतियोंका सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदिको लेकर जो विभूतियाँ कही गयी हैं, उन विभूतियोंके अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे, वह भी भगवान्की ही विभूति है -- यह बतानेके लिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें विद्यमान कहा है। तत्त्वसे सब कुछ परमात्मा ही है -- 'वासुदेवः सर्वम्'-- इस लक्ष्यको बतानेके लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं। इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने प्राणियोंमें जो आत्मा है, जीवोंका जो स्वरूप है, उसको अपनी विभूति बताया है। फिर बत्तीसवें श्लोकमें भगवान्ने सृष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी कि जो जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम सृष्टि है, उसके आदिमें 'मैं एक ही बहुत रूपोंमें हो जाऊँ' ('बहु स्यां प्रजायेयेति' छान्दोग्य0 6। 2। 3) --ऐसा संकल्प करता हूँ और अन्तमें मैं ही शेष रहता हूँ--'शिष्यते शेषसंज्ञः' (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। अतः बीचमें भी सब कुछ मैं ही हूँ -- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता 7। 19) 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता 9। 19 ); क्योंकि जो तत्त्व आदि और अन्तमें होता है, वही तत्त्व बीचमें होता है। अन्तमें उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने बीज-(कारण-) रूपसे अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ, मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह--तीन श्लोकोंमें मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकोंमें जो समुदायमें मुख्य हैं, जिनका समुदायपर आधिपत्य है, जिनमें कोई विशेषता है, उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परन्तु साधकको चाहिये कि वह इन विभूतियोंकी महत्ता, विशेषता, सुन्दरता, आधिपत्य आदिकी तरफ खयाल न करे, प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान्से ही प्रकट होती हैं, इनमें जो महत्ता आदि है, वह केवल भगवान्की है; ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं-- इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुनका प्रश्न भगवान्के चिन्तनके विषयमें है (10। 17), किसी वस्तु, व्यक्तिके चिन्तनके विषयमें नहीं।   'अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः'--साधक इन विभूतियोंका उपयोग कैसे करे? इसे बताते हैं कि जब साधककी दृष्टि प्राणियोंकी तरफ चली जाय, तब वह 'सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे भगवान् ही हैं'--इस तरह भगवान्का चिन्तन करे। जब किसी विचारक साधककी दृष्टि सृष्टिकी तरफ चली जाय, तब वह 'उत्पत्तिविनाशशील और हरदम परिवर्तनशील सृष्टिके आदि, मध्य तथा अन्तमें एक भगवान् ही हैं' इस तरह भगवान्का चिन्तन करे। कभी प्राणियोंके मूलकी तरफ उसकी दृष्टि चली जाय, तब वह बीजरूपसे भगवान् ही हैं, भगवान्के बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है और हो सकता भी नहीं'-- इस तरह भगवान्का चिन्तन करे।

Swami Tejomayananda

।।10.20।। हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।10.20।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।10.20।।विभूतिप्रदर्शने प्रस्तुते सत्यादावेव पारमार्थिकं पारमेश्वरं रूपं दर्शयितुं श्रोतुरर्जुनस्य मनःसमाधानार्थं यतते -- तत्रेति। सोपाधिकमपि काल्पनिकं परस्य रूपं पश्चाद्वक्ष्यमाणं श्रोतुं चित्तसमाधानं कर्तव्यमेवेत्याह -- तावदिति। आशेरतेऽस्मिन्विद्याकर्मपूर्वप्रज्ञा इत्याशयो हृदयं सर्वेषां भूतानां हृदयेऽन्तःस्थितो,यः प्रत्यगात्मा सोऽहमेवेति वाक्यार्थमाह -- सर्वेषामिति। यस्तु मन्दो मध्यमो वा परमात्मानमात्मत्वेन ध्यातुं नालं त�� प्रत्याह -- तदशक्तेनेति। वक्ष्यमाणादित्यादिषु परस्य न ध्येयत्वमन्यदेव कारणं किंचित्तत्र तत्र ध्येयमित्याशङ्क्याह -- यस्मादिति। सर्वकारणत्वेन सर्वज्ञत्वेन सर्वेश्वरत्वेन च परस्य ध्येयत्वमत्रेप्सितं नान्यस्य कस्यचित्कारणस्यादित्यादिषु ध्येयतेत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।10.20।।तत्र प्रथमं योगं लक्षयन्नाह -- अहमिति। गुडाका निद्रा तस्या ईशः नियन्ता भवेति निरालस्यतयैव चिन्तनीयमिति सम्बोधयति। अहं स्वांशभूतस्य प्राकृतस्य सर्वस्यैव प्रथममात्मा। स्वशरीरभूतस्य पृथिव्यादेः सर्वभूतपदवाच्यचेतनस्य चाशये स्थितोऽहमन्तस्तथा सर्वेषामादिश्चेति पूर्वोक्तस्यअहमादिर्हि देवानां [10।2] इत्यस्य प्रपञ्चः। सर्वत्रात्मत्वेनाहं चिन्तनीय इति भावः। अत्रांशांशिनोरभेदाभिप्रायेण तथोक्तिरवसेया।

Sridhara Swami

।।10.20।।तत्र प्रथममैश्वरं रूपं कथयति -- अहमिति। हे गुडाकेश? सर्वेषां भूतानामाशयेष्वन्तःकरणेषु सर्वज्ञत्वादिगुणैर्नियन्तृत्वेनावस्थितः परमात्माहम्। आदिर्जन्म? मध्यं स्थितिः? अन्तः संहारः? सर्वभूतानां जन्मादिहेतुश्चाहमेवेत्यर्थः।

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