Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 19 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः | प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ||१०-१९||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . hanta te kathayiṣyāmi divyā hyātmavibhūtayaḥ . prādhānyataḥ kuruśreṣṭha nāstyanto vistarasya me ||10-19||

Word-by-Word Meaning

हन्तnow
तेto thee
कथयिष्यामि(I) will declare
दिव्याःdivine
हिindeed
आत्मविभूतयःMy glories
प्राधान्यतःin their prominence
कुरुश्रेष्ठO best of the Kurus
not
अस्तिis
अन्तःend
विस्तरस्यof detail

📖 Translation

English

10.19 The Blessed Lord said Very well! Now I will declare to thee My divine glories in their prominence, O Arjuna; there is no end to their detailed description.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।10.19।। श्रीभगवान् ने कहा -हन्त अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा। हे कुरुश्रेष्ठ मेरे विस्तार का अन्त नहीं है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, understand that mastery and excellence in any field are vast and potentially boundless. Focus on identifying and developing the most prominent and impactful skills or contributions (prādhānyataḥ) that drive significant value, rather than attempting to grasp every single detail. Appreciate the diverse 'glories' (talents, innovations) that colleagues and competitors bring, inspiring you to excel.

🧘 For Stress & Anxiety

When feeling overwhelmed by life's complexities or an endless to-do list, recognize that it's impossible to control or comprehend every single detail. This verse encourages finding perspective by acknowledging the infinite vastness of existence and its manifestations. Prioritize focusing on the most 'prominent' aspects of your well-being or the most impactful solutions, letting go of the need for exhaustive perfection, which can significantly reduce stress.

❤️ In Relationships

Appreciate the unique and 'divine glories' (strengths, qualities, perspectives) that each individual brings to your relationships. Understand that a person's inner world is immeasurably complex, and you cannot know every aspect of them. Instead, focus on valuing their most prominent and positive attributes, fostering deeper connection and understanding by celebrating their distinct contributions and essence.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The divine (or ultimate reality) is infinitely vast and expresses itself in countless glorious ways; understanding even its most prominent manifestations can inspire profound wisdom and purposeful action.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

10.19 हन्त now? very well? ते to thee? कथयिष्यामि (I) will declare? दिव्याः divine? हि indeed? आत्मविभूतयः My glories? प्राधान्यतः in their prominence? कुरुश्रेष्ठ O best of the Kurus? न not? अस्ति is? अन्तः end? विस्तरस्य of detail? मे of Me.Commentary Now I will tell you of My most prominent divine glories. My glories are illimitable it is not possible to describe all of them.

Shri Purohit Swami

10.19 Lord Shri Krishna replied: So be it, My beloved fried! I will unfold to thee some of the chief aspects of My glory. Of its full extent there is no end.

Dr. S. Sankaranarayan

10.19. The Bhagavat said Yes. O the best among the Kurus ! I shall expound to you, only the chief auspicious manifesting powers of Mine. For, there would be no end to My details.

Swami Adidevananda

10.19 The Lord said Indeed I shall tell you, O Arjuna, My auspicious manifestations (Vibhutis) - those that are prominent among these. There is no end to their extent.

Swami Gambirananda

10.19 The Blessed Lord said O best of the Kurus, now, according to their importance, I shall described to you My onw glories, which are indeed divine. There is no end to my manifestations.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।10.19।। प्रस्तुत अध्याय को बृहत् आकार देने वाला भगवान् श्रीकृष्ण का यह विस्तृत एवं व्याख्यापूर्ण उत्तर? एकएक वस्तु और व्यक्ति में तथा उनके समूह में आत्मा की वास्तविक पहचान का वर्णन करता है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपनी विभूति और योग का वर्णन करते समय भगवान् श्रीकृष्ण निम्नलिखित दो बातों को बताने का विशेष ध्यान रखते हैं। (क) प्रत्येक वस्तु में अपना सर्वोच्च महत्त्व? (ख) उनके बिना किसी भी एक वस्तु या समूह का सामञ्जस्यपूर्ण अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता।इस खण्ड का प्रारम्भ जिस हन्त शब्द से होता है? वह अर्जुन के प्रति गीताचार्य के प्रेमपूर्ण सहानुभूति को दर्शाता है? तथा उससे अर्जुन में प्रतीत होने वाली अक्षमता के प्रति भगवान् की चिन्ता भी व्यक्त होती है? क्योंकि उस अक्षमता के कारण वह उस तत्त्व को नहीं अनुभव कर पा रहा था जो उसके अत्यन्त समीप है? उसका स्वरूप ही है। हन्त शब्द को इस खण्ड के प्रारम्भ का केवल सूचक मानने में उसमें निहित गूढ़ अभिप्राय का लोप हो जाने के कारण वह अर्थ स्वीकार्य नहीं हो सकता।समष्टि और व्यष्टि उपाधियों के द्वारा इस बहुविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए आत्मा के विस्तार का अन्त नहीं हो सकता। इसलिए उसका वर्णन करना असंभव है? तथापि करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शरणागत् शिष्य अर्जुन के प्रति अपनी असीम अनुकम्पा के कारण इस असंभव कार्य को अपने हाथ में लेते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि उनके विस्तार का कोई अन्त नहीं है फिर भी वे अर्जुन को अपनी प्रधान विभूतियाँ बतायेंगे।भौतिक जगत् में यह एक अनुभूत सत्य है कि सूर्यप्रकाश सभी वस्तुओं की सतह पर से परावर्तित होता है चाहे वह पाषाण हो या दर्पण किन्तु दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब या परावर्तन अधिक स्पष्ट और तेजस्वी होता है। भगवान् वचन देते हैं कि वे ऐसे दृष्टान्त देंगे जिनमें दिव्यता की अभिव्यक्ति के साक्षात् दर्शन हो सकते हैं।परन्तु? उन विभूतियों के वर्णन में प्रवेश करने के पूर्व एक मूलभूत सत्य को बताते हैं

Swami Ramsukhdas

।।10.19।। व्याख्या--'हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः'--योग और विभूति कहनेके लिये अर्जुनकी जो प्रार्थना है, उसको 'हन्त' अव्ययसे स्वीकार करते हुए भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियोंको तेरे लिये कहूँगा (योगकी बात भगवान्ने आगे इकतालीसवें श्लोकमें कही है)।'दिव्याः' कहनेका तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, वह,वस्तुतः भगवान्की ही है। इसलिये उसको भगवान्की ही देखना दिव्यता है और वस्तु, व्यक्ति आदिकी देखना अदिव्यता अर्थात् लौकिकता है। 'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे'-- जब अर्जुनने कहा कि भगवन्! आप अपनी विभूतियोंको विस्तारसे, पूरी-की-पूरी कह दें, तब भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियोंको संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकी मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है। पर आगे ग्यारहवें अध्यायमें जब अर्जुन बड़े संकोचसे कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ; अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिये, तब भगवान् कहते हैं --'पश्य मे पार्थ रूपाणि' (11। 5) अर्थात् तू मेरे रूपोंको देख ले। रूपोंमें कितने रूप? क्या दो-चार? नहीं-नहीं, सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख! इस प्रकार यहाँ अर्जुनकी विस्तारसे विभूतियाँ कहनेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् संक्षेपसे विभूतियाँ सुननेके लिये कहते हैं और वहाँ अर्जुनकी एक रूप दिखानेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् सैकड़ों-हजारों रूप देखनेके लिये कहते हैं!   यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि सुननेमें तो आदमी बहुत सुन सकता है, पर उतना नेत्रोंसे देख नहीं सकता; क्योंकि देखनेकी शक्ति कानोंकी अपेक्षा सीमित होती है (टिप्पणी प0 553)। फिर भी जब अर्जुनने सम्पूर्ण विभूतियोंको सुननेमें अपनी सामर्थ्य बतायी तो भगवान्ने संक्षेपसे सुननेके लिये कहा; और जब अर्जुनने एक रूपको देखनेमें नम्रतापूर्वक अपनी असमर्थता प्रकट की तो भगवान्ने अनेक रूप देखनेके लिये कहा! इसका कारण यह है कि गीतामें अर्जुनका भगवद्विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस दसवें अध्यायमें जब भगवान्ने यह कहा कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है, तब अर्जुनकी दृष्टि भगवान्की अनन्तताकी तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान्के विषयमें तो मैं कुछ भी नहीं जानता; क्योंकि भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं, अपार हैं। परन्तु अर्जुनने भूलसे कह दिया कि आप अपनी सब-की-सब विभूतियाँ कह दीजिये। इसलिये अर्जुन आगे चलकर सावधान हो जाते हैं और नम्रतापूर्वक एक रूपको दिखानेके लिये ही भगवान्से प्रार्थना करते हैं। नेत्रोंकी शक्ति सीमित होते हुए भी भगवान् दिव्य चक्षु प्रदान करके अर्थात् चर्मचक्षुओंमें विशेष शक्ति प्रदान करके अपने अनेक रूपोंको देखनेकी आज्ञा देते हैं।दूसरी बात, वक्ताकी व्यक्तिगत बात पूछी जाय और अपनी अज्ञता तथा अयोग्यतापूर्वक अपने जाननेके लिये प्रार्थना की जाय -- इन दोनोंमें फरक होता है। यहाँ अर्जुनने विस्तारपूर्वक विभूतियाँ कहनेके लिये कहकर भगवान्की थाह लेनी चाही, तो भगवान्ने कह दिया कि मैं तो संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियोंकी थाह नहीं है। ग्यारहवें अध्यायमें अर्जुनने अपनी अज्ञता और अयोग्यता प्रकट करते हुए भगवान्से अपना अव्यय रूप दिखानेकी प्रार्थना की, तो भगवान्ने अपने अनन्तरूप देखनेके लिये आज्ञा दी और उनको देखनेकी सामर्थ्य (दिव्य दृष्टि) भी दी! इस���िये साधकको किञ्चिन्मात्र भी अपना आग्रह, अहंकार न रखकर और अपनी सामर्थ्य, बुद्धि न लगाकर केवल भगवान्पर ही सर्वथा निर्भर हो जाना चाहिये; क्योंकि भगवान्की निर्भरतासे जो चीज मिलती है, वह अपार मिलती है।  सम्बन्ध--विभूतियाँ और योग-- इन दोनोंमेंसे पहले भगवान् बीसवें श्लोकसे उनतालीसवें श्लोकतक अपनी बयासी विभूतियोंका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।10.19।। श्रीभगवान् ने कहा -हन्त अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा। हे कुरुश्रेष्ठ मेरे विस्तार का अन्त नहीं है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।10.19।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।10.19।।प्रष्टारं विश्रम्भयितुं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। हन्तेत्यनुमतिं व्यावर्त्य जिज्ञासावच्छिन्नं कालं दर्शयति -- इदानीमिति। दिवि भवत्वमप्राकृतत्वमस्मदगोचरत्वम्। वाक्यान्वयं द्योतयति -- यास्ता इति। सर्वविभूतीनां वक्तव्यत्वप्राप्तावुक्तम् -- यत्रेति। किमित्यनवशेषतो विभूतयो नोच्यन्ते तत्राह -- अशेषतस्त्विति। तत्र हेतुर्यत इति।

Sri Vallabhacharya

।।10.19।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। अनुकम्पा सम्बोधने। या दिव्या ममात्मविभूतयस्ता वक्ष्यामि। तत्रापि प्राधान्यतः? न तु सामस्त्येन अनन्तत्वात्तदाह -- नास्त्यन्त इति। विभूतिर्हि विविधतया स्वांशरूपेण प्रकृतौ भूतिराविर्भूतिः केनचिद्विशेषेण युक्ता सर्वत्र सत्ता वा स्वस्य विविधा सर्वेषां नियम्यत्त्वोक्त्या स्वांशत्वकथनमभिप्रेतम्। एवं च सर्वस्य विभूतिरूपत्वे प्राधान्यतो विभूतय इहोच्यन्ते।पुरोधसां च मुख्यं मां [10।24] इति रीत्या मुख्यभावो ज्ञेयः। एवमपि भगवानव्ययोऽचिन्त्यैश्वर्यादिधर्मकत्वादिति योगः स च तदन्ते वक्ष्यतेविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति।

Sridhara Swami

।।10.19।। एवं प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। हन्तेत्यनुकम्पासंबोधनम्। दिव्या या मम विभूतयस्ताः प्राधान्येन तुभ्यं कथयिष्यामि। यतोऽवान्तरस्य विभूतिविस्तरस्य मदीयस्यान्तो नास्त्यतः प्रधानभूताः कतिचिद्वर्णयिष्यामि।

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