Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 36 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन | पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ||१-३६||

Transliteration

nihatya dhārtarāṣṭrānnaḥ kā prītiḥ syājjanārdana . pāpamevāśrayedasmānhatvaitānātatāyinaḥ ||1-36||

Word-by-Word Meaning

निहत्यhaving slain
धार्तराष्ट्रान्sons of Dhritarashtra
नःto us
काwhat
प्रीतिःpleasure
स्यात्may be
जनार्दनO Janardana
पापम्sin
एवonly
आश्रयेत्would take hold
अस्मान्to us
हत्वाhaving killed
एतान्these

📖 Translation

English

1.36. By killing these sons of Dhritarashtra, what pleasure can be ours, O Janardana? Only sin will accrue to us from killing these felons.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।1.36।।हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी?  इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

When faced with a business decision that promises immediate gain but compromises ethical standards or harms others (even 'competitors' or 'rivals'), question if the short-term 'pleasure' of success is worth the long-term 'sin' or negative repercussions on your reputation, integrity, or mental peace. Prioritize actions that align with your values over opportunistic gains.

🧘 For Stress & Anxiety

Recognize that deep internal conflict and the fear of negative consequences from actions taken (even if perceived as necessary or justified) can be a significant source of stress. Addressing the ethical implications of your choices and seeking alignment with your conscience can alleviate this mental burden, even if the immediate situation remains difficult.

❤️ In Relationships

When dealing with individuals who have wronged you or others significantly, consider that even justified retaliation or confrontation may not bring immediate 'pleasure' but could lead to further emotional 'sin' or entanglement. The verse prompts reflection on the broader impact of your reactions, encouraging a search for resolutions that mitigate long-term suffering and uphold your moral compass.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even against profound wrongdoers, the ethical cost and lack of genuine pleasure in actions driven by conflict can lead to deep internal 'sin' and moral burden, questioning the true value of such victory.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

1.36 निहत्य having slain? धार्तराष्ट्रान् sons of Dhritarashtra? नः to us? का what? प्रीतिः pleasure? स्यात् may be? जनार्दन O Janardana? पापम् sin? एव only? आश्रयेत् would take hold? अस्मान् to us? हत्वा having killed? एतान् these? आततायिनः felons.Commentary Janardana means one who is worshipped by all for prosperity and salvation -- Krishna.He who sets fire to the house of another? who gives poision? who runs with sword to kill? who has plundered wealth and lands? and who has taken hold of the wife of somody else is an atatayi. Duryodhana had done all these evil actions.

Shri Purohit Swami

1.36 My Lord! What happiness can come from the death of these sons of Dhritarashtra? We shall sin if we kill these desperate men.

Dr. S. Sankaranarayan

1.36. Nothing but sin would slay these desperadoes and take hold of us. Therefore we should not slay Dhrtarastra's sons, our own relatives.

Swami Adidevananda

1.36 If we kill the sons of Dhrtarastra, what joy will be ours, O Krsna? Sin alone will accrue to us if we kill these murderous felons.

Swami Gambirananda

1.36 O Janardana, what happiness shall we derive by killing the sons of Dhrtarastra? Sin alone will accrue to us by killing these felons.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।1.36।। अर्जुन के इतना कुछ कहने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण मूर्तिवत् मौन ही रहते हैं। इसलिये वह पहले की भाषा छोड़कर मृदुभाव से किसी मन्द बुद्धि मित्र को कोई बात समझाने की शैली में भावुक तर्क देने लगता है। भगवान् के निरन्तर मौन धारण किये रहने से अर्जुन की यह परिवर्तित नीति अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होती है।इस श्लोक में प्रथम वह कहता है कि दुर्योधनादि को मारने से किसी प्रकार का कल्याण होने वाला नहीं है। इस पर भी काष्ठवत् मौन खड़े श्रीकृष्ण को देखकर उसको इस मौन भाव का कारण समझ में नहीं आता। शीघ्र ही उसे स्मरण हो आता है कि कौरव परिवार आततायी है और धर्मशास्त्र के नियमानुसार आततायी को तत्काल मार डालना चाहिये चाहे वह शिक्षक वृद्ध पुरुष या वेदज्ञ ब्राह्मण ही क्यों न हो। आततायी को मारने में किसी प्रकार का पाप नहीं है। अन्यायपूर्वक किसी पर आक्रमण करने वाला पुरुष आततायी कहलाता है।अपने शुद्ध दिव्य स्वरूप के विपरीत हम जो गलत काम करते हैं वे पाप कहलाते हैं। शरीर मन और बुद्धि को ही अपना स्वरूप समझकर कोई कर्म करना श्रेष्ठ मनुष्य का लक्षण नहीं है। अहंकारपूर्वक स्वार्थ के लिये किये गये कर्म हमारे और शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा के बीच वासना की सुदृढ़ दीवार खड़ी कर देते हैं। इन्हें ही पाप कहा जाता है।शत्रुओं की हत्या करने में अर्जुन का अविवेकपूर्ण विरोध शास्त्र को न समझने का परिणाम है और फिर अपनी समझ के अनुसार कर्म करना अपनी संस्कृति को ही नष्ट करना है।इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के तर्कों की न स्तुति करते हैं और न ही आलोचना। वे जानते हैं कि अर्जुन को अपने मन की बात कह लेने देनी चाहिए। किसी मानसिक रोगी के लिए यह उत्तम निदान है। इस प्रकार उसका चित्त शांत हो जाता है।

Swami Ramsukhdas

।।1.36।। व्याख्या--'निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः ৷৷. हत्वैतानाततायिनः'-- धृतराष्ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे--ऐसा पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ?तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा।आततायी छः प्रकारके होते हैं--आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ, धनको हरनेवाला, जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला (टिप्पणी प0 25)। दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था। हाथमें शस्त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने 'मैंने तेरेको जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है' आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था। शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारने-वालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता--'नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन'  (मनुस्मृति 8। 351)। परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये--'न हिंस्यात्सर्वा भूतानि' हिंसा न करना परमधर्म है--'अहिंसा परमो धर्मः' (टिप्पणी प0 26) । अतः क्रोधलोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करें आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा क्योंकि शास्त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है--'स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्।' अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय? उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।1.36।।हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी?  इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।1.36।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

Sri Anandgiri

।।1.36।।यदि पुनरमी दुर्योधनादयो न निगृह्येरन् भवन्तस्तर्हि तैर्निगृहीता दुःखिताः स्युरित्याशङ्क्याह  पापमेवेति।  यदीमे दुर्योधनादयो निर्दोषानेवास्मानकस्माद्युद्धभूमौ हन्युः तदैतान्अग्निदो गरदश्च इत्यादिलक्षणोपेतानाततायिनो निर्दोषस्वजनहिंसाप्रयुक्तं पापं पूर्वमेव पापिनः समाश्रयेदित्यर्थः। अथवा यद्यप्येते भवन्त्यातयायिनस्तथाप्येतानतिशोच्यान्दुर्योधनादीन्हिंसित्वा तत्कृतं पापमस्मानेवाश्रयेदतो नास्माभिरेते हन्तव्या इत्यर्थः। अथवा गुरुभ्रातृसुहृत्प्रभृतीनेतान्हत्वा वयमाततायिनः स्याम ततश्चैतान्हत्वा हिंसाकृतं पापमाततायिनोऽस्मानेव समाश्रयेदिति युद्धादुपरमणमस्माकं श्रेयस्करमित्यर्थः। फलाभावादनर्थसंभवाच्च परहिंसा न कर्तव्येत्युपसंहरति  तस्मादिति।  किञ्च राज्यसुखमुद्दिश्य युद्धमुपक्रम्य तेन च स्वजनपरिक्षये न सुखमुपपद्यते तेन न कर्तव्यं युद्धमित्याह  स्वजनं हीति।

Sri Vallabhacharya

।।1.34 1.37।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.

Sridhara Swami

।।1.36।।  ननु च अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः।। इति स्मरणात्। अग्निद इत्यादिभिः षड्भिरपि हेतुभिरेते तावदाततायिनः। आततायिनां च वधो युक्त एव।आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इति वचनात्तत्राह सार्धेन  पापमिति। अततायिनमायान्तम् इत्यादिकमर्थशास्त्रं धर्मशास्त्राद्दुर्बलम्। यथोक्तं याज्ञवल्क्येन स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।। तस्मादाततायिनामप्येतेषामार्यादीनां वधेऽस्माकं पापमेव भवेदन्याय्यत्वादधर्मत्वाच्चैतद्वधस्य न चेह सुखं स्यादित्याह  स्वजनं   हीति।

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