Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 35 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Non violence (Ahimsa)

Sanskrit Shloka (Original)

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन | अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ||१-३५||

Transliteration

etānna hantumicchāmi ghnato.api madhusūdana . api trailokyarājyasya hetoḥ kiṃ nu mahīkṛte ||1-35||

Word-by-Word Meaning

एतान्these
not
हन्तुम्to kill
इच्छामि(I) wish
घ्नतःअपिeven if they kill me
मधुसूदनO Madhusudana (the slayer of Madhu
अपिeven
त्रैलोक्यराज्यस्यdominion over the three worlds
हेतोःfor the sake of
किम्how
नुthen
महीकृतेfor the sake of the earth.No Commentary.

📖 Translation

English

1.35. These I do not wish to kill, though they kill me, O Krishna, even for the sake of dominion over the three worlds; leave alone killing them for the sake of the earth.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।1.35।।हे मधुसूदन !  इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता,  फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Prioritize ethical conduct and personal values over professional advancement or material gain, refusing to engage in harmful or exploitative practices even if they promise significant success or power.

🧘 For Stress & Anxiety

Alleviate internal conflict and maintain mental peace by aligning actions with deeply held moral convictions, choosing to step away from situations that demand significant ethical compromise or cause harm to others.

❤️ In Relationships

Prioritize the well-being and preservation of significant relationships, even with those who may have wronged you or are antagonistic, by choosing non-retaliation and compassion over personal gain or vindication.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Prioritize ethical conduct and non-harm, choosing internal integrity and compassion over external rewards or vindication, even in the face of aggression.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

1.35 एतान् these? न not? हन्तुम् to kill? इच्छामि (I) wish? घ्नतःअपि even if they kill me? मधुसूदन O Madhusudana (the slayer of Madhu? a demon)? अपि even? त्रैलोक्यराज्यस्य dominion over the three worlds? हेतोः for the sake of? किम् how? नु then? महीकृते for the sake of the earth.No Commentary.

Shri Purohit Swami

1.35 I would not kill them, even for three worlds; why then for this poor earth? It matters not if I myself am killed.

Dr. S. Sankaranarayan

1.35. By slaying Dhrtarastra's sons what joy would be to go us, O Janardana?

Swami Adidevananda

1.35 These I would not slay, though they might slay me, even for the sovereignty of the three worlds - how much less for this earth O Krsna?

Swami Gambirananda

1.35 O Madhusudana, even if I am killed, I do not want to kill these even for the sake of a kingdom extending over the three worlds; what to speak of doing so for the earth!

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।1.35।। यह विचार कर कि संभवत उसने अपने पक्ष को श्रीकृष्ण के समक्ष अच्छी प्रकार दृढ़ता से प्रस्तुत नहीं किया है जिससे कि भगवान् उसके मत की पुष्टि करें अर्जुन व्यर्थ में त्याग की बातें करता है। वह यह दर्शाना चाहता है कि वह इतना उदार हृदय है कि उसके चचेरे भाई उसको मार भी डालें तो भी वह उन्हें मारने को तैयार नहीं होगा। अतिशयोक्ति की चरम सीमा पर वह तब पहुँचता है जब वह घोषणा करता है कि त्रैलोक्य का राज्य मिलता हो तब भी वह युद्ध नहीं करेगा फिर केवल हस्तिनापुर के राज्य की बात ही क्या है।

Swami Ramsukhdas

।।1.35।। व्याख्या--[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है--संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]  'आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते'----अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्टप्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार  अपि  पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी' है ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ तो भी  (घ्नतोऽपि)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात इनको मारनेसे मुझे  त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो, तो भी  (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः)  मैं इनको मारना नहीं चाहता।'मधूसूदन'(टिप्पणी प0 24.2)  सम्बोधनका तात्पर्य है कि आप तो दैत्योंको मारनेवाले हैं, पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं, जिससे मैं इनको मारनेकी इच्छा करूँ? ये तो हमारे अत्यन्त नजदीकके खास सम्बन्धी हैं।  'आचार्याः'--इन कुटुम्बियोंमें जिन द्रोणाचार्य आदिसे हमारा विद्याका, हितका सम्बन्ध है, ऐसे पूज्य आचार्योंकी मेरेको सेवा करनी चाहिये कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिये? आचार्यके चरणोंमें तो अपने-आपको, अपने प्राणोंको भी समर्पित कर देना चाहिये। यही हमारे लिये उचित है।  'पितरः'--शरीरके सम्बन्धको लेकर जो पितालोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीरसे उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभमें आकर अपने उन पिताओंको कैसे मारें?  'पुत्राः'--हमारे और हमारे भाइयोंके जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करनेयोग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैठें, तो भी उनका पालन-करना ही हमारा धर्म है।  'पितामहाः'--ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजीके भी पूज्य हैं, तब हमारे लिये तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं। पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिये, जिससे उनको किसी तरहका दुःख न हो, कष्ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो।  'मातुलाः'--हमारे जो मामालोग हैं, वे हमारा पालन-पोषण करनेवाली माताओंके ही भाई हैं। अतः वे माताओंके समान ही पूज्य होने चाहिये।  'श्वशुराः'--ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयोंकी पत्नियोंके पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिये भी पिताके ही तुल्य हैं। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ?  'पौत्राः'--हमारे पुत्रोंके जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रोंसे भी अधिक पालन-पोषण करनेयोग्य हैं।  'श्यालाः'--हमारे जो साले हैं, वे भी हमलोगोंकी पत्नियोंके प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय!  'सम्बन्धिनः'--ये जितने सम्बन्धी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी सम्बन्धी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिये कि उनको मारना चाहिये?इनको मारनेसे अगर हमें त्रिलोकीका राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें अर्जुनने स्वजनोंको न मारनेमें दो हेतु बताये। अब परिणामकी दृष्टिसे भी स्वजनोंको न मारना सिद्ध करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।1.35।।हे मधुसूदन !  इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता,  फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।1.35।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

Sri Anandgiri

।।1.35।।पृथिवीप्राप्त्यर्थं हि हननमेतेषामिष्यते न च तत्प्राप्तिः समीहितेति कैमुतिकन्यायेन दर्शयति  अपीति।  नहि महदपि त्रैलोक्यलक्षणं राज्यं लब्धुं स्वजनहिंसायै मनो मदीयं स्पृहयति पृथिवीप्राप्त्यर्थं पुनर्बन्धुवधं न श्रद्दधामीति किं वक्तव्यमित्यर्थः। दुर्योधनादीनां शत्रूणां निग्रहे प्रीतिप्राप्तिसंभवाद्युद्धं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह  निहत्येति।

Sri Vallabhacharya

।।1.34 1.37।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.

Sridhara Swami

।। 1.35  ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह  एतान्नेति  सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।

Explore More